मन
मन
घर बैठे ही कितनी
दूर निकल
जाता है मन
उलझ-सुलझकर
खुद से मिल
आता है मन
बिन पैसे के
कुछ सपने
आंखों में रख
खुद पैदल ही
सारी रात चला
करता है मन
गति,मति,
भ्रम की कोई
पटकथा लिख
दिनभर थके से
तन को रात
सुलाता मन
हंसना, रोना,
अपने आप
कहां मुमकिन
संवेदी संवाद
को अभिव्यक्त
कराता मन
घर बैठे ही
कितनी दूर निकल।
