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दयाल शरण

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दयाल शरण

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मन से मलंग

मन से मलंग

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देखिए मौसम ने

कैसी करवट ली है

रजाइयों ने मलमली 

चादरों की जगह ली है


जरा अलसाया सा कहीं 

देर से सूरज निकलता है

ओस से भीगे,ठिठुरते पत्तों ने

स्वासें कहीं धीमी तो माध्यम की है


लम्हे महसूस करते करते

ये वक्त कैसे निकल जाता है

पहर से दिन, दिनों से माह तो

माह से बरस निकल जाता है


तमाम ख्वाब जो कभी खुली 

तो कभी बंद आंखों से देखे हैं

छोड़िए बिखरों को, जो समेटे हैं

वाबस्ता उनसे, हुए बैठे हैं


फाग खेला है तो कभी

नवरातों का व्रत रक्खा है

दिया जलाया है अंधेरों में

और वक्त से लड़ना सीखा है


शुष्क भी होता है कभी

आर्द्र सा हो जाता है

यह मौसम है जनाब हर दिन 

त्यौहार सा पिरो रक्खा है



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