बादल
बादल
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रोज़ आकर खिड़की को छू कर
लौट जाते थे जो फिरंगी बने बादल
आर्द्र करने लगे तन मन को छू कर
अब बरसने लग गए हैं बादल
सूखती शाख पर फिर रौनक कर
बूंद बन चूमने लगे हैं बादल
मन जो कई दिनों से तन में सूना था
आंगन में भिगोकर नचाने लगे बादल
याद है झरना कभी यहां होता था
बुर्ज देख के सिमट गए हैं बादल
कभी चौराहों में चुल्लू में पीते थे पानी
बोतलों में बिकता देख हैरान है बादल
रिवायतन वे हर साल आते हैं लौट कर
इतने बेबस इतने लाचार कहां थे बादल
जहां में खुशियां बांटने आते हैं लौट कर
भीगी ऋतु की नई सुबह बनकर बादल
आर्द्र करने लगे तन मन को छू कर
अब बरसने लग गए हैं बादल
मन जो कई दिनों से तन में सूना था
आंगन में भिगोकर नचाने लगे बादल
