बदलते रिश्ते
बदलते रिश्ते
आहिस्ता-आहिस्ता गिरह छूट रही थी, आहिस्ता-आहिस्ता ढलते सूरज की तरह तुम्हारी चाहत डूब रही थी..
महसूस तो होती थी तुम्हारी परछाई जिसमें अपनेपन की कमी दिख रही थी,
प्राण पूरे मैंने निभाने की ख़ातिर तुम दम ब दम गैरों के होते रहे..
क्या कमी रह गई चुटकी भर तो जताओ मैंने महज़ इश्क नहीं तुम्हें खुदा मानकर इबादत की थी..
मौन इशारे न समझ सकी मेरी मासूम मोहब्बत तुम छलते रहे मैं तुम्हारी आँखों में डूबती रही,
क्यूँ तुम बदल गए क्या मैंने कोई ख़ता की थी..
हम तो ख़ुमार में जी रहे थे होश ही न रहा और तुम पहलू से उठकर चले गए,
पलकें उठते ही देखा तुम्हारी अदाओं ने अदावत की थी..
तुम्हारी नीयत ठीक नहीं थी या मेरी चाहत में कोई खोट थी,
क्या समझे क्यूँ टूटा रिश्ता मैंने तो तुमसे मोहब्बत बेइन्तहाँ की थी..
बदलता मौसम और बदलते रिश्ते दिखते भले नहीं, महसूस जरूर होते है,
याद रहेगा ताउम्र हमने एक बेवफ़ा से बेशुमार प्रीत की थी।