गाँठ
गाँठ
गाँठ जो पड़ी थी,
जिंदगी की उलझनों की !
उन्हें खोलते-खोलते,
मैं वाचाल, खामोश हो गयी !
समझा दुनिया ने,
अरे ! देखो यह कितनी !
समझदार हो गयी,
मैं बावली, जाने कहाँ खो गई !
वजूद मेरा खो गया,
अस्तित्व-हीन हो गया !
शायद अब मैं भी,
भीड़ का हिस्सा हो रही !