"फुलवारी"
"फुलवारी"
प्रकृति तत्वों के प्रति तीक्ष्ण लगाव और प्रेम प्रायः प्रत्येक मनुष्य में स्वाभाविक ही दिखाई देता है। अपनी – अपनी रूचि तथा अवसरों के अनुसार उन्हें संजोने का प्रयास विभिन्न स्तरों पर किया जाता रहा है। मैं भी अपवाद नहीं रहा हूँ, परन्तु कब ये लगाव स्थायी स्मृति में अमिट रंगों के साथ चित्रित हो गया, इसका छोर पकड़ने का प्रयास में सदा से ही करता रहा हूँ।
चंद्रशेखर आज़ाद विश्वविद्यालय में शोध करके उगाये गए पेड़ – पौधों तथा फुलवारी को मैंने बहुत तटस्थता से देखा है। चित्रों में, पुस्तकों तथा चलचित्रों में भी अनेकानेक पुष्पवाटिकाओं को मैंने दृश्यगत किया होगा, किंतु “फुलवारी” की रमणीयता मैंने पुनः कहीं महसूस की हो, ऐसा मुझे याद नहीं है। हजारों फूलों की किस्मों और रंग बिरंगी पत्तियों वाले पौधों से सुसज्जित, पारंपरिक एवं आधुनिक पुष्पवाटिकाओं को देखने पर एक बहुत ही बोझिल सा अहसास होता है, ऐसा मैं अक्सर महसूस करता हूँ। जिस तत्व की कमी प्रायः खलती है, वह है, स्वतंत्रता !
कंक्रीट के जंगलों में कैद वो फूल अपनी खुशबू कभी उस कैद से बाहर फैला पाते होंगे, इसमें मुझे अपार संदेह है। वहां से गुज़रती हुई हवा के साथ वो पौधे अपनी परतंत्रता की वेदना अवश्य बाँटते होंगे, इस पर मुझे पूर्ण विश्वास है। यही कारण है कि न तो वे पुष्प अपनी सुगंध को वहाँ से गुजरने वाली हवा में घोल पाते हैं, और न ही विविधता लिए हुए, ‘शिल्प’ किये हुए पौधे अपने रंग वातावरण में बिखरा पाते हैं। क्या कभी आपने उन पुष्पों और पौधों की वेदना को अपने भीतर महसूस किया है ?
करीने से खोदी हुई मिट्टी, बड़े यत्न से लगाईं गयी आड़ी - तिरछी ईटों के जाल से तैयार की गयी क्यारियों में घुटते हुए उन पौधों की सुंदरता ने अवश्य ही मुझको आकर्षित किया होगा, परन्तु लुभाया कभी नहीं; परतंत्रता की गंध कितनी तीक्ष्ण और गम्य होती है, यह मैंने उन पौधों व पुष्पों में ही अवलोकित किया है। ठीक इसके उलट, इस अनुभव को समझने की, इसमें अंतर करने की शक्ति देने वाली, अदृश्य को दृष्टिगत करने हेतु बुद्धिनयन देने वाली “फुलवारी” को मैंने अपने ह्रदय में किस प्रकार अंकित कर रखा है, ये मैं शब्दों में लिखा जाना संभव ही नहीं समझता; परन्तु उस स्मृति की एक तस्वीर बनाने का तुच्छ सा प्रयास तो कर ही सकता हूँ।
मुख्य द्वार तब तक बरामदे का रूप ले चुका था। पहला कमरा बाबा के मानस पाठ हेतु स्वच्छ एवं निर्मल बना रहता। वहां से सदैव ही तुलसीदास की लेखनी का प्रकाश दिखाई देता। गर्मियों की छुट्टियों की शुरुआत में ही गाँव आ गया था। सुबह की सुहावनी हवा, खेत खलिहान और पगडंडियाँ मुझे स्वप्नलोक सी प्रतीत होतीं। इतनी स्वतंत्र वायु में, शहर में कभी न मिलने वाली राहत मुझे सहज ही प्राप्त हो जाती। ऐसा लगता मानो उन पगडंडियों और खेतों से गुजरने पर सारी थकान और आलस्य तथा प्रमाद स्वतः ही स्वच्छ वायु द्वारा उड़ा ले जाए जाते हों। थकान तो सूर्यास्त तक भी पास न फटकती थी; दोपहर अवश्य थोड़ी बोझिल मालूम देती क्योंकि वहां न तो टी वी ही दिखती और न अन्य यांत्रिक सामान, जिनके लिए ब्रह्मस्वरूप बिजली उबलब्ध न थी।
उन्ही दिनों की बात है, चाचा के मन में फुलवारी की संकल्पना ने जन्म लिया। परिवार के प्रत्येक छोटे बड़े सदस्य के अप्रतिम सहयोग और विशेषकर बाल्यकाल की अवस्था से गुजर रहे प्राणियों का अनुपम उत्साह 'फुलवारी' के लिए संजीवनी का काम करने लगा। यत्र - तत्र उगे पेड़ पौधों को करीने से क्यारी का रूप दिया जाने लगा।
विविध रंगों के पुष्पों और छोटे - छोटे पौधों से सुसज्जित फुलवारी बरबस ही हर किसी को अपनी ओर खींचती। फुलवारी के पास ही में भैंसों का चारागाह था, किंतु दोनों स्थानों में पर्याप्त दूरी थी। शायद उस फुलवारी ने उन पशुओं के मन में भी आकर्षण और उससे भी ज्यादा 'प्रेम' उत्पन्न कर दिया था, तभी तो उन्मुक्त होकर घूमने पर भी कोई गाय – भैंस फुलवारी को कचरने की सोचता भी न था। यूं तो कोई बाड़ या काँटों की झाड़ी 'फुलवारी' की सुरक्षा हेतु नहीं लगाई गयी थी, फिर भी पशुओं की समझ इतनी मालूम देती थी कि वे कुछ दूर से ही चारागाह से आते जाते।
कुछ दिनों बाद यह महसूस किया जाने लगा कि प्रतिदिन की देखभाल और लगाव से 'फुलवारी' में कुछ अलौकिकता सी आने लगी है। कुमुदनी के पुष्पों में रखी हुई ओस की बूँदें ऐसा आभास देतीं जैसे कि सुबह भी उस फुलवारी से अपना तारतम्य बिठाकर मित्रता की नींव रख रही हो।
यूं तो सभी प्रकार के पुष्प अच्छे ही लगते हैं, और क्यारियाँ मन मोह लेती हैं, पर 'फुलवारी' में सुसज्जित सभी पेड़ – पौधे केवल अपनी प्रजाति के गुण ही लिए हों, यह सत्य नहीं था। उस 'फुलवारी' में एक परिवार दिखता था; प्रत्येक सदस्य एक दूसरे का भाई – बहन या रिश्तेदार ही लगता। कुल मिलाकर 'फुलवारी' के किसी भी सदस्य की एकात्मकता को महत्व दे पाना कठिन था, अस्तु एक परिवार की एकरूपता ही उस कुल की सुन्दरता की धुरी थी।
सुबह – सुबह इंजन चलाकर 'फुलवारी' को सींचा जाता, अनावश्यक पानी को छोटी – छोटी नालियों से बाहर किया जाता, मेढ़ रुपी बहुत ही संकरी पगडंडियों को व्यवस्थित किया जाता, और किसी प्रकार शेष रह गयी कमी का पुनर्वलोकन किया जाता। धीरे – धीरे 'फुलवारी' घर का अभिन्न अंग बन गयी। साज – सज्जा एवम् स्वच्छता का जितना ख्याल घर के भीतर रखा जाता, उससे कम 'फुलवारी' के हिस्से में न आता था।
यूं तो कक्षा पांच के विज्ञान विषय के प्रोजेक्ट के रूप में हारबेरियम फाइल बनाते हुए पत्तियों एवम् पुष्पों से मेरा गहन जुड़ाव हो चुका था, पर 'फुलवारी' ने मुझमें प्रकृति में व्याप्त रहस्यमय सुन्दरता को देखने योग्य हृदयनयनों को विकसित कर दिया था।
बहुत बड़े क्षेत्र में न होते हुए भी जितनी भूमि पर 'फुलवारी' का अधिपत्य था, वह साक्षात प्रकृति की गोद में खिले हुए स्वप्नपुष्प की धात्री दिखाई देती थी।
आज न तो 'फुलवारी' ही है, न ही उसमें स्वप्नपुष्प को देख पाने वाली आँखें ही ! वह स्वप्नपुष्प आज भी 'फुलवारी' की भांति मेरे मन – मस्तिष्क में खिला हुआ है, और इस जन्म में तो मुरझा नहीं ही पायेगा।
मुझे आज भी इन कंक्रीट के जंगलों में यत्नपूर्वक उगाये गए, परतंत्रता की चादर ओढ़े फुलवारियों को देख बरबस ही उस उन्मुक्त 'प्रकृति की बेटी' की याद आ जाती है, जिसमें कुछ ही समय के साथ को जीवनपर्यंत जीवित रखने का सामर्थ्य था। इस जीवन में उस 'फुलवारी' को भौतिक रूप दे सकूंगा या नहीं, ऐसा पूर्ण निश्चय से नहीं कहा जा सकता, परन्तु ह्रदय की गहराईयों में उसे मैं हमेशा उसी रूप में स्मृति के जल से सिंचित करते हुए, सदा ही लहलहाते हुए देखता हूँ।
.....निशान्त मिश्र