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Dhairyakant Mishra

Abstract

3.8  

Dhairyakant Mishra

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Kasak

Kasak

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आज पलकों की जिद भी अजीब थी ,आंशुओं को रास्ता देने से मना कर दिया फिर से ,उनको रास्ता ही नहीं मिल रहा था अपने रास्ते के लिए और ज्यूंहि पलकोँ ने रास्ता पूरा बंद किया , नाराज होकर आंसू आँखोँ के अंदर जा छिपे ,कुछ पल इंतज़ार किया और फिर नसों के रास्ते होते हुए दिल के राइट चैँबर मेँ शिकायत लेके पहुँच गए |

 

लेकिन वहां हाल और बुरा था , धड़कनो के शोर से वो और डर गया | शोर सुनकर थोड़ा सा सहमा और फिर थोङा सिकुड़ गया

फिर क्या था ,फिर से यू-टर्न लेकर पलकोँ के पीछे खङा हो गया , इस इंतजार मेँ की सुबह होते ही आँखे खुलेँगी और मैं बह जाऊंगा

लेकिन पता नहीं क्यों आँखे खुली ही नहीँ , चंद पलोँ के बाद आँसूओँ की आहट आस – पास से भी आने लगी ,शायद कोई बाहर भी रो रहा था , ये मैं तो नहीं था क्यूंकि मैं तो अंदर की कैद में था | तो फिर ये कौन था ?

 

फिर थोङी देर मेँ आग की लौ का एहसास होने लगा , और फिर धीरे धीरे मैं सूखने लगा |

वो नहीं बहनेँ की कसक आज भी है ,  एसा लग रहा था जैसे किसी ने मुझे जिँदा जला दिया हो…

मेरी आह बाहर के शोर में दब सी गयी थी , मैं आज खुद रो रहा था ….सच में ….आंशुओं का रोना बड़ा अजीब है न?


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