मिट्टी की आवाज़
मिट्टी की आवाज़


पैदाइश के रोज से ही जुड़ गया था
एक अनकहा, अनजाना सा रिश्ता मेरा
संग मिट्टी के।
रंग थे जिसके अनेक,
काला, भुरा, लाल, सफ़ेद।
खेलकर मिट्टी के साथ, मिट्टी में ही
बड़ी मैं हुई।
खेलते-खेलते चोंट जब कभी लगी मुझको
मल लिया घाव पे अपने, झट से
नरम मुलायम मिट्टी को मैंने।
मिट्टी को चखा, मिट्टी को चूमा मैंने
मिट्टी को हर पल, हर लम्हा
संग अपने जिया मैंने।
यकीं था मुझको, इस बात का
कि मिट्टी से जन्मी हूँ, एक रोज़ मिट्टी में ही मिल जाऊँगी मैं।
पैदाइश के रोज से ही जुड़ गया था
एक अनकहा, अनजाना सा रिश्ता मेरा
संग मिट्टी के।
मिट्टी से प्रस्फुटित फूलों को
कभी सज़दे पे खुदा के चढ़ाया,
कभी मज़ार-ए-उल्फत पे सजाया,
कभी गजरा बनाकर बालों में गुंथा,
कभी माला बनाकर गले में पहना मैंने।
मिट्टी से प्रस्फुटित फलों को
पकाकर हांडी में मिट्टी की
इश्तिहा को अपनी बुझाया मैंने।
पीकर ठण्डा पानी सुराही का मिट्टी की
तिश्नगी को अपनी बुझाया मैंने।
पैदाइश के रोज से ही जुड़ गया था
एक अनकहा, अनजाना सा रिश्ता मेरा
संग मिट्टी के।
संग मिट्टी के खेलते-खेलते, कब मैं बड़ी हो गयी,
कब बचपन की यादों पे गुज़रे वक़्त की मोटी परत सी चढ़ गयी,
कब ज़िम्मेदारियाँ की बेड़ियाँ पैरों में मेरे खनकने लगी,
पता ही नहीं चला मुझे।
फिर एक रोज़, दफ़्तर से घर लौटते वक़्त
न जाने कुछ बैचैनी हुई दिल में मेरे, अचानक ही।
बैग से पानी की बोतल निकालकर
एक-दो दफ़े धीरे-धीरे पानी के कुछ घूँट पिए मैंने, मगर
कुछ आराम न मिला।
थक हार आख़िर सोचा मैंने कि
पास के एक पार्क में जाकर कुछ देर बैठ जाऊँ।
बैठकर पार्क में, छुआ जो नरम ठंडी मिट्टी को मैंने
लगा जैसे थके हुए तन को मेरे, गोद माँ की मिल गयी हो।
कुछ देर आँखे मूंद लेटी रही मैं, तब जाकर कहीं
बैचैन दिल को मेरे रहत की साँसे आयी।
साथ ही बचपन की सारी यादें,
पहली बारिश में खिले पौधे की तरह,
तरो-ताज़ा हो गयी।
अगले ही पल, रखकर हथेली पे मुट्ठी भर मिट्टी को
टकटकी लगाकर देखती ही रही मैं।
तभी एक आवाज़ आयी, "क्या तुम मुझे मेरी पहचान लौटा सकते हो?"
चौंक सी गयी एक पल को तो मैं, फिर
सहमे हुए लहज़े में मैंने हथेली पे बिखरी मिटटी से पूछा कि,
"तुम्हें तो सब जानते हैंं, पहचानते हैंं, फिर किस पहचान की बात कर रही हो तुम?"
इतना सुन कर हँसते हुए मुझसे बोली वो - "तुम नादान हो बहुत!"
तुम्हें नहीं पता कि सदियों से अपने वजूद को खोते ही तो आ रही हूँ मैं,
कभी खिलौना बनी, कभी बनी औज़ार,
कभी घरौंदा बनी, कभी बनी साज़-ओ-सामान,
कभी हांडी बनी, कभी बनी थाल।
फिर तो शायद तुम इस बात से भी वाकिफ़ नहीं होगी कि
सदियों से पैरों तले, तुम सब बेरहमों की तरह कुचलते आ रहे हो मुझे,
अनगिनत बार गोले-बारूद से वार किये है तुमने मुझ पर,
न जाने कितने घाव हैंं जिस्म पे मेरे, जिनसे आज भी रिस रहा है लहू।
कितना दर्द सहा है मैंने चुपचाप, अकेले ही मगर,
कभी किसी ने ये जानने की ज़हमत नहीं उठायी कि
मुझे भी तो तकलीफ़ होती होगी न,
चीख मेरी भी तो निकलती होगी न,
नैनों से अश्क़ मेरे भी तो बहते होंगे न।
न जाने कितनी अग्नि परीक्षाएं अब तलक दे चुकी हूँ मैं
कभी चूल्हा बनकर जली, कभी भट्टी की आग में जली हूँ मैं।
मैली हो चुकी हूँ मैं, झूठन से तुम सबकी।
अपने सारे रंग, अपनी चमक और अपना सब कुछ खो चुकी हूँ मैं।
अब तो बरसात भी इतनी नहीं होती कि मैं खुद को साफ़ कर सकूँ।
तुम खुद को रिश्तेदार कहती हो न मेरा!
अगर ऐसा ही मानते हो तो बताओ - क्या तुम वापस लौटा पाओगे मुझे पहचान मेरी?
क्या तुम वापस लौटा पाओगे मुझे मासूमियत मेरी?
न जाने कब तक चलती रही ये गुफ़्तगू मेरे और मिट्टी के बीच।
जब जेब से अपना फ़ोन निकालकर वक़्त देखा मैंने तो हैरान ही रह गयी मैं,
रात के एक बज चुके थे।
भुला चुकी थी मैं अपनी सारी बेचैनियां।
सिवाय इस बेचैनी के, कि
"क्या मैं कभी दे पाऊँगी उन सारे सवालों के जवाब जो कुछ देर पहले मेरी मिट्टी ने पूछे थे मुझसे?"
"हो गयी जाने-अनजाने खता जो मुझसे, क्या उस खता के लिए मिट्टी से क्षमा मांग पाऊँगी मैं?"