सुकून
सुकून


कोरोनावायरस, एक अभूतपूर्व घटना थी जिसने न केवल लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया था बल्कि समाज के लिए असंख्य चुनौतियां पेश कर रहा था, उसकी बुनियाद ही हिलाकर मानवीय रिश्तों की ताकत की परीक्षा ले रहा था जिस तरह से विभिन्न स्थानों पर कोरोनावायरस संक्रमण के पीड़ितों के शवों का निपटान किया जा रहा था, उससे पता चलता था कि लोगों के लिए न केवल अपनी रक्षा करना महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि नागरिक समाज का आधार बनाने वाले मानवीय मूल्यों की भी रक्षा और पोषण किया जाए।
हमारे ही पड़ोस के फ्लैट में एक बुजुर्ग दम्पति रहते थे, उनकी बेटी की शादी हो चुकी थी और वो अहमदाबाद में रहती थी। इनका एक बेटा भी था जो बैंगलोर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। उस वक्त हालत ऐसे थे कि जो कुछ घर पर मौजूद है उससे ही गुजारा करना पड़ता था।
पड़ोस के अंकल काफी एक्टिव थे जबकि ऑन्टी को गठिया रोग था जिससे वो बिना किसी सहारे के चल नहीं पाती थी। उस दौर में हर कोई टीवी में लगातार समाचार देख रहा होता था।
दोपहर का समय था, बालकनी से देखा एक एम्बुलेंस हमारे फ्लैट के आगे रुकी, और कोरोना किट पहने तीन चार पैरामेडिकल के लोग उतर कर हमारी फ्लैट की तरफ लपके। उन्हें देख दिल धड़कने लगा कि किसे करोना हुआ है। अचानक पड़ोस से किसी महिला के रोने की आवाज आई, धीरे से दरवाजा खोल कर देखा तो वो लोग पड़ोस के पटेल अंकल को ले कर जा रहे थे। जैसे ही बाहर निकलने की कोशिश की तो मेरी बुजुर्ग माँ ने रोक कर कहा:
"बेटा, बाहर मत निकल घर में मैं हूँ, छोटे बच्चे हैं, इस हालत में ऊपर वाले से पटेल अंकल के ठीक ठाक घर वापसी की प्रार्थना ही कर सकते हैं।"
मैंने अपने बढ़ते कदम वापस खींच लिए और मजबूर, असहाय सा अंकल को एम्बुलेंस में ले जाते हुए देखता रह गया।
तीन दिन बाद जिसका डर था वही हुआ, पटेल अंकल गुजर गए, ऑन्टी का रो रो कर बुरा हाल था। कोई भी उनसे मिलने जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था। लॉकडौन के चलते उनके बेटा बेटी कोई भी पहुंच नहीं पाया।
मुझसे
रहा न गया, घर वालों के मना करने के बावजूद ऑन्टी से मिलने उनके घर चला गया। उनको बहुत ढांढस बंधाया पर कोई लाभ न हुआ। मैं ऑन्टी के मानसिक स्थिति को समझ रहा था, अंकल बिना ऑन्टी का जीवन कैसा होगा, कल्पना करने से भी डर लग रहा था।
बड़ी मुश्किल से ऑन्टी को शांत कराया।
ऑन्टी बोली "बेटा मेरी एक मदद कर, इन हालातों में मदद मांगना भी स्वार्थ होगा, पर स्वार्थी ही सही बस हाथ जोड़ कर याचना करती हूँ बेटा ये मदद कर दे मैं जिंदगी भर तुम्हारी ऋणी रहूंगी।"
"ये क्या कह रही हैं ऑन्टी, जो मदद हो सकेगा मैं जरूर करूँगा।"
"बेटा, रोज टीवी में देख रही हूं किस तरह शवों को लावारिस की तरह गड्ढों में डाल कर अंतिम संस्कार पैरामेडिकल वाले कर रहे हैं, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे अंकल की वो हालत हो। मैं मजबूर हूँ कहीं जा नहीं सकती, लॉकडौन के चलते बेटा बेटी या कोई रिश्तेदार नहीं आ सकता। मैं एक उम्मीद के साथ तुम्हें ही विनती कर सकती हूँ।"
मैं निशब्द, किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया, कोई जवाब दे न सका पर मन बार बार कुरेद रहा था कि मानवता के नाते व् एक पड़ोसी होने के नाते भी मेरी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि ये जिम्मेदारी निभाऊँ।
"ठीक है", कह कर मैं घर चला गया।
जब घर पर बात चली तो पूरा घर वाले जैसे मुझ पर टूट पड़े, माँ को बहुत समझाया, एक माँ होने का वास्ता दिया तब कहीं जा कर माताजी मानी।तुरन्त करोना पी पी किट पहन कर पड़ोसी ऑन्टी के पास पहुंचा, मुझे देख ऑन्टी के ख़ुशी का ठिकाना न रहा, ऑन्टी ने कुछ अंतिम क्रिया की रस्में समझाई, फिर घर से हॉस्पिटल की तरफ बढ़ गया।
औपचारिकता निभाने के बाद वहीं शव गृह के एक करोना चिन्हित स्थान पर ऑन्टी के कहे अनुसार अंतिम संस्कार निपटाया।
घर आ कर, नहा धो कर बॉलकोनी में बैठ चारों तरफ निहारने लगा, कहीं कोई नहीं, चारों तरफ शांति। पर न जाने क्यों दिल में एक सुकून सा महसूस कर रहा था, मन शांत था। मुझे न चाहते हुए भी अपने आप पर गर्व हो रहा था कि मैं ऐसे विषम परिस्थिति में भी एक असहाय महिला की मदद कर मानवीय मूल्यों की रक्षा की है।