Surya Rao Bomidi

Inspirational

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Surya Rao Bomidi

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अच्छाई

अच्छाई

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हमारे दैनिक जीवन में बहुधा सुनने में आता है कि फलां व्यक्ति बुरा है या फलां व्यक्ति अच्छा है। बुरे की बात तो समझ में आती है पर अच्छा कौन होता है, अच्छाई क्या और कैसी होती है।वास्तव में देखा जाए तो अच्छाई को किसी परिभाषा में बांध कर उसकी व्यापकता को सिमित नहीं किया जा सकता।


अभी हाल की बात है मेरे दामाद की ड्यूटी मेरे क्षेत्र में परीक्षक के रूप में लगी दसवी के बोर्ड एग्जाम में। बेटी ने फ़ोन कर खबर की और दामाद व् उनके मित्र के लिए भोजन आदि की व्यवस्था हेतु कहा।


भोजन के समय हमारे दामाद व् उनके मित्र त्रिपाठी जी साथ में आये। शुरुआत औपचारिक बातचीत से हुई फिर डिनर टेबल पर भी बातचीत हुई। फिर विदाई के पहले बातचीत का आखरी दौर चला। त्रिपाठी जी हमारे आवाभगत से अति संतुष्ट दिखे और उनकी जुबान पर भी वही बात थी।


"सर, आज का भोजन बहुत ही स्वादिस्ट रहा, आप लोगों से मिलकर बड़ा अच्छा लगा, कुछ कुछ लोग, कुछ कुछ मुलाकातें, जिंदगी में हमेशा एक मधुर स्मरण बन कर जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं और मेरे लिए आज की मुलाकात वैसी ही याद बन कर हमेशा जिंदगी में रहेगी।"


"त्रिपाठी जी, आप एक पढ़े लिखे, सुलझे हुए एक अच्छे इंसान हैं इसीलिए आप सामने वालों में भी अच्छाई देखते हैं, कहते हैं न 'आप भला तो जग भला' ; वैसे भी अच्छाई की परिभाषा हर व्यक्ति के स्वभाव के अनुरूप बदलती जाती है।"


त्रिपाठी जी एकटक मेरी तरफ देखने लगे और ध्यान से सुनने के बाद बोले -


"सर, आपके इसी तरह की सोच से अच्छाई का रास्ता निकलता है और सामने वाले के मन मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है, धन्य हैं आपकी संतान जो आपकी छत्र छाया में इस तरह के विचार और संस्कार ले कर पले बढ़े हैं, कभी समय मिला तो उनसे भी जरूर मिलूंगा।"


"त्रिपाठी जी, हमारे पास धैर्य की बहुत कमी होती है जिसके चलते हम बिना कोई देर किये सामने वाले के बारे में एक धारणा बना लेते हैं कि फलां बुरा है या अच्छा है। अपने आस पास कोई भी घटना होती है तुरन्त अपना निर्णय सुना देते हैं, हम बड़े ही जजमेंटल हो जाते हैं। गुस्से से तिलमिला जाते हैं और अपना धैर्य खो बैठते हैं।


अभी कुछ समय पहले की ही घटना है पता लगा मेरा अपना एक परिचित सुधीर दास अपने बेटे बबलू का घर छोड़ कर वृद्धाश्रम चला गया है। मुझे भी यकीन नहीं हुआ, उसके बेटे पर क्रोध आया और मुझसे रहा न गया, उसी शाम उसके बेटे के पास जा कर बिना रुके जी भर कर डांट पिलाई। उतने में बहु आ कर मुझे घर के अंदर बिठाई। बबलू एक शब्द नहीं कहा, सिर्फ मेरा डांट सुनता रहा।उतने में सुधीर की बेटी रानी सामने आई और मेरे चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ली और मेरे बगल में बैठ गई।


मैंने पूछा "तू बता रानी इस उमर में ये सब जरूरी था, उसने तुम दोनों को तुम्हारी माँ के गुजरने के बाद माँ बाप दोनों बन कर देखभाल की और तुम दोनों में ही अपनी दुनिया देखी, क्या उन सबका तुम दोनों इस तरह हिसाब चुका रहे हो।"


रानी बोली "अंकल आप पापा के अच्छे दोस्त हैं और हम दोनों परिवारों का सालों पुराना रिश्ता है, अगर मैं या बबलू कुछ कहते हैं तो छोटी मुंह बड़ी बात होगी, आप ही कभी पापा से मिल कर पूछ लीजियेगा कि वो क्या चाहते हैं।"


मुझ से और रहा न गया और मैं गाड़ी उठाया और सीधे उस वृद्धाश्रम की तरफ बढ़ गया जिसमे मेरा दोस्त सुधीर रह रहा था।जैसे ही वृद्धाश्रम के द्वार पर पहुंचा तो अंदर से जोर जोर के ठहाके सुनाई पड़े। मैं सीधे अंदर चला गया। वहां पर सुधीर अपनी हमउम्र कुछ चार पांच बुजुर्गों के साथ बातचीत में तल्लीन था और बीच बीच में किसी बात पर सब ठहाके लगा रहे थे।


मैंने गुस्से में चिल्ला कर पुकारा "सुधीर, ये क्या तमाशा है कि तू घर छोड़ कर यहाँ रहने को आ गया, ये भी जरूरी नहीं समझा कि एक बार इस दोस्त से विचार विमर्श कर लेता। मैं अभी तेरे घर से ही आ रहा हूँ, मैंने बबलू और रानी को खूब खरी खोटी सुना कर आ रहा हूँ।"


"तू बैठ तो सही", सुधीर बोला, मैं वहीं पास में पड़े कुर्सी खींचकर बैठ गया। तब सुधीर बोलने लगा।


"तू तो जनता है कि मैं कभी भी किसी के परेशानी का कारण बनना नहीं चाहता। बबलू और रानी दोनों सर्विस में हैं, दो छोटे बच्चे हैं उनकी जिम्मेदारी अलग। चारो सुबह निकल जाते हैं तो फिर शाम को ही लौटते हैं। शुरू शुरू में बहु सुबह सुबह चारो का टिफिन बांध कर मेरे लिए भी खाना बना कर रख देती थी और मैं दोपहर को गरम कर भोजन कर लेता था।वो लोग बहुत चाह कर भी समय नहीं दे पा रहे थे। फिर दोनों ने ये फैसला भी कर लिया कि बहु नौकरी छोड़ कर घर और मेरी देखभाल करेगी। जब मुझे ये बात पता लगी तो मुझे ग्लानि महसूस होने लगी कि मेरे खातिर ये लोग इतना बड़ा त्याग करने जा रहे हैं।


एक रविवार भोजन के वक्त मैंने इसी मुद्दे पर चर्चा की और अपना निर्णय बताया, बस बहु बेटा दोनों रोने लगे, तुरन्त रानी को फोन कर दिए, वो अलग डांटने लगी। ये सब देख मुझे बहुत ख़ुशी हुई और मेरे अंदर दिल के कोने से आवाज आई "बेवकूफ इतना चाहने वाली संतान होने के बावजूद वृद्धाश्रम की बात तेरे मन में कैसे आई"

फिर क्या दिल और दिमाग में संघर्ष चालू, दिल कहे रुक जा, दिमाग कहे नहीं, इतना स्वार्थी मत बन, उन बच्चों का सोच, निजी नौकरी, दोनों बहू बेटे के नौकरी करने के बावजूद मुश्किल से घर चलता है और अगर बहू नौकरी छोड़ दे तो फिर घर कैसे चलेगा।


दूसरी बात बहु बेटा चाह कर भी समय नहीं निकाल पा रहे हैं, अगर समय देते हैं तो बहू को ट्यूशन छोड़ना पड़ता, मैं भी दिन भर अकेला रह नहीं पा रहा था। और बहुत सोच समझ कर, बबलू व् रानी को बड़ी मुश्किल से मना कर यहाँ आ पाया हूँ, इसमें उन दोनों की रत्ती भर भी दोष नहीं है तू बेकार में ही उनको डांट पिला दी।"


तब मुझे अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और मेरे इस तरह के रूखे व्यवहार पर उन दोनों के सकारात्मक प्रतिक्रिया को बिना सराहे नहीं रह सका। तब मुझे ये एहसास हुआ कि हमें कभी भी बिना पूरे परिस्थितियों को जाने सीधे अपने निर्णय दूसरों पर थोपकर जजमेंटल नहीं होना चाहिए। 


फिर बोला "देखिये त्रिपाठी जी फिर यहां आ कर हम उसी मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां हमें अच्छाई की परिभाषा खोजने की जरूरत है कि यहाँ कौन अच्छा है, सुधीर, एक पिता या बेटा बहु। सभी तो अच्छे हैं बस अपने अपने अच्छाई की अपनी अपनी परिभाषा है।"


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