स्वदेश - एक अनकही दास्ताँ
स्वदेश - एक अनकही दास्ताँ
मैं कौन हूं और मेरी औकात क्या है, यह तो कद्र करने वाला ही जानता है वरना मैं तो एक कालखंड का एक छोटा सा हिस्सा हूं, जो धीरे धीरे बदलता रहता है। पुराने इतिहास को अपने सीने में दबाये और एक नया इतिहास लिखते हुए।
ऐसा नहीं है कि कई काल खंडो की अनुभूति मुझे अपने होने का अहसास न दिला गयी हो लेकिन मैं सिर्फ़ देख सकता हूं और अहसास कर सकता हूं लेकिन व्यक्त नहीं कर सकता। हां कुछ लेखक मेरे अंतर्मन में जब झांकते हैं तो उन्हें अपने दिल में छुपी दास्ताँ को सुना देता हूं।
ऐसी ही एक कहानी है पंडित दीना नाथ की, पंडित दीना नाथ बचपन से पढाई में बहुत तेज थे, शायद मुझसे भी तभी तो एक साधारण घर का बालक अग्रेजों के शासन काल में आई सी एस चुना गया था। पंडित दीनानाथ बहुत काबिल अधिकारी थे और उनके क्षेत्र में जब भी अंग्रेज अधिकारी आते थे तो उनके कार्यप्रणाली से बहुत खुश होते थे, जितने वह कड़क अधिकारी थे, उतने ही ईमानदार। उनकी पत्नी राधिका उस समय पढ़ी लिखी बिदुषी महिला थीं। धर्म - कर्म में लगीं रहती थीं। भगवान की असीम कृपा से उनके एक पुत्र था, जिसका नाम उन्होनें अंकुर रखा था।
अंकित धीरे धीरे बड़ा हो रहा था, उसके स्वाभाव में मां की तरह दूसरों के दुख में दुखी होने की कोमलता थी तो पिता की तरह किसी कार्य करने के लिए दृढ़ता और निर्भीकता भी।वह दस साल का हो गया था, एक दिन स्कूल से घर आया तो उदास था। दीनानाथ जी ने उससे उदासी का कारण पूंछा तो उसने कहा"
"बाबा, यह स्वदेश क्या होता है?" पंडित दीनानाथ एक मिनट चुपचाप उसके चैहरे को देखते रहे फिर बोले-"अपना देश, अपनी मातृभूमि."
"लेकिन बाबा, यहां तो अंग्रेजों का शासन है और हम गुलाम ठहरे तो गुलामों का अपना देश कौन सा है और बाबा स्कूल में सभी कहते हैं कि तेरे बाबा तो स्वदेश के लिए अड़ंगा डालते हुए दुश्मनों के पिट्ठू हैं और मुझे चिढ़ाते हैं।"
पंडित दीनानाथ जिनसे हर कोई घबराता था, जिनकी एक आवाज में पुलिस कप्तान किसी को भी अरेस्ट करके सीधे जेल में डाल देते थे, आज अपने बेटे के प्रश्नों का जबाब देने में हिचक गये थे। आई सी एस करना सरल नहीं था, एक प्रतिष्ठा थी लेकिन आज उसे अग्रेजीं सरकार का पिट्ठू कहा जा रहा है। जो लोग उसके सामने सर झुकाये खड़े रहते हैं। मन में क्या सोचते हैं, यह अनजाने में अपने बेटे के मुंह से सुन लिया था।
पंडित दीनानाथ तीन दिन से परेशान थे। अपने बेटे के कहे शब्द अंदर तक चुभ गये थे। उस रोज जब कचहरी के सामने वंदे मातरम् के नारे लगाते बच्चे - बूंढे और जवान पुलिस की लाठियां खा रहे थे, तब वह अंदर से टूट गये, मन में क्षोभ उभर आया कि यह अपने देश के अपने लोगों को उनके आदेश पर इस तरह रोका जा रहा है और वह कह ही क्या रहे है-वंदे मातरम् - - अपनी जन्मभूमि की वंदना"-।
उस दिन वह चुपचाप अपने बंगले पर आ गये, रात्रि में नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर आंख लगती तो लोंगों की चीख पुकार उनके कानों में गूंजने लगती और वह चौंक कर उठ जाते। उनकी पत्नी राधिका की नींद खुल गयी तो देखा पंडित जी पलंग से उठ कर खिड़की के पास खड़े अंधेरे में घूर रहे थे। वह उठ कर उनके पास आ गयीं-
"क्या बात है? आप कुछ बैचेन से हैं?राधिका ने पंडित जी के पास आकर पूंछा।
पंडित दीनानाथ कुछ देर सोचते रहे फिर बोले कि - -
"राधिका, अपने देश की आजादी के लिये लोगों का उत्साह बढ़ता जा रहा है और अब उनके इस उन्माद् को अब साधारण तरीके से रोकना मुश्किल हो रहा है और मैं अपने द्वारा अपने देश के लोगों का खून बहते नहीं देख सकता। लेकिन जब तक पद पर हूं, उन उन्मादित लोंगों को सरकारी संपत्ति का नुकसान भी नहीं करने दे सकता।"
एक पल रूक कर बोले-
"राधिका, इधर कुंआ तो उधर खाई, एक ओर पद की प्रतिष्ठा है तो दूसरी और राष्ट्र प्रेम का जज्बा, मैं कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूं। यदि मैं इन लोगों पर कठोर कार्यवाही करता हूं तो अग्रेजीं सरकार मुझे इनाम में प्रमोशन और तमगे देती है लेकिन अपनों का अपने देश के लिए यह यह युद्ध भी तो नाजायज नहीं है, मैं अपने बेटे को स्वदेश की परिभाषा नहीं समझा पा रहा हूं कि अग्रेजीं सरकार की दासता में कैसे और किसे अपना देश कहें।"
पंडित दीनानाथ लंबी श्वांस छोड़कर चुप हो गये, उनकी निगाहें आकाश में चमकते हुए तारों पर थी। राधिका उनके पास आयी और उन्हें पास रखी कुर्सी पर बैठा दिया, फिर उनके पीछे खड़ी होकर पंडित जी के बालों को अपने हाथों से सहलाती हुई बोली
"मैंने जब आपके साथ फेरे लिए थे तो सारा जीवन आपको समर्पित कर दिया था और आपके द्वारा लिए जाने वाले हर निर्णय में मैं पूर्ण सहयोगी बन कर रहूंगी। मैं जानती हूं कि यह निर्णय इतना आसान नही है लेकिन रोज रोज मानसिक रूप से मरने से अच्छा है कि जो भी निर्णय लेना है ले लिया जाये।"
उन्होंने अपनी पत्नी के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए और बोले-
"राधिका, नौकरी छोड़ने से यह ठाटबाट, नौकर चाकर, सुविधायें कुछ नहीं रहेंगी और तुम्हारे कोमल हाथों को - -"
राधिका ने उनके होठों पर अपनी उगली रख दी और बोली-
"आप मेरी और अंकुर की चिंता न करें। यह रोज रोज वंदे मातरम कह कर अपनी जान जोखिम में डालने वाले भी तो किसी के बेटे, पति और पिता हैं। सभी सुविधाओं के लिये घर पर बैठ जायेंगे तो स्वदेश कभी स्वदेश बन पायेगा? इतने भारतीयों के साथ एक परिवार यदि अपना बलिदान देता है तो कौन सी बात है।"
पंडित जी ने राधिका के हाथों को चूम लिया। उनकी आंखों में छलकते आंसुओं के साथ एक दृढ़ निश्चय था। मन का बोझ कम हो गया था। कल का सूरज एक नया संदेश लेकर उगने वाला था।
पंडित दीनानाथ ने अपना स्तीफा जब सौंपा तो अग्रेज गवर्नर आश्चर्यचकित था-
"वैल, पंडित जी, ऐ क्या कर रहा है, हम तुमको महारानी विक्टोरिया से मैडल के लिए रिकमंड कर रहा था। तुम्हारा फ्यूचर बहुत ब्राइट है।"
"लेकिन सर, अब मैं नौकरी नहीं कर सकता। अब अपने निहत्थे लोंगो अदरक गोली नहीं चलवा सकता। अब मैं अपने स्वदेश के लिए काम करूंगा।"
"मिस्टर पंडित, तुम समझता क्यों नहीं, ये फटीचर गांधी क्या तुम्हें आजादी दिला पायेगा? तुम अपने परिवार के साथ धोखा कर रहा है और हमारे साथ भी। तुम समझो पंडित तुम्हारी एक की नौकरी छोड़ने विक्टोरिया सरकार पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा बल्कि तुम जैसे दस हमें मिल जायेंगं।"
"मैं मानता हूं लेकिन एक दिन देश प्रेम का जलवा उनटेयक्रसर, यह मेरा फायनल डिसीजन है। अब मैं रानी विक्टोरिया के आधीन नहीं बल्कि स्वदेश के लिए लड़ूगां।"
पंडित दीनानाथ गवर्नर हाउस से बाहर आ गये। गेट से बाहर आते ही ऐसा लग रहा था कि सर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। कई दिन से वह अपने आप से लड़ रहे थे। बाहर स्वतंत्रता के लिये लड़ रहे लोगों की भीड़ खड़ी पंडित दीनानाथ का इंतजार कर रही थी और उस भीड़ ने उन्हें देखकर वंदे मातरम के नारे लगाने शुरू कर दी और उस भीड़ में राधिका सूती साड़ी पहन
े हाथ में आरती की थाली लिए खड़ी थी।
स्वतंत्रता सेनानियों में एक अजीब सी शक्ति आ गयी थी। चारों ओर पंडित दीनानाथ के नेतृत्व में छोटे छोटे जुलूस निकाले जा रहे थे। राधिका ने महिला मोर्चा संभाल लिया था। अंकुर ने अपनी बाल सेना बना ली थी, वह भी अपनी घर की छतों से अग्रेजीं सिपाही के आते ही बच्चों की टोली वंदे मातरम के नारे लगाने लगते। चारों ओर स्वतंत्रता के लिए संग्राम छिड़ गया था। स्वतंत्रता संग्रामी दो भागों में बंट गये थे, नर्म दल और गर्म दल। नर्म दल शांति से विरोध करके स्वतंत्रता चाहते थे और गर्म दल वाले क्रांति के द्वारा स्वतंत्रता चाहते थे। पंडित दीनानाथ नर्म दल के समर्थन थे, इसलिये गांधी टोपी और धोती कुर्ता पहने जब अपनी बुलंद आवाज से नारे लगाते हुए निकलते तो जन समूह उनके पीछे पीछे चल पड़ता था। सुबह प्रभात फेरी से रात तक यही कार्यक्रम चलता रहता। राधिका पहले सबके लिये भोजन पकवाती और फिर महिला मंडली नारेबाजी के लिए निकल जाती।
लगभग सात साल हो गये लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं आ रही थी। सभी क्षोभ में थे और नवजवान क्रोध में आकर क्रांतिकारी बन रहे थे। अंकुर अब सत्रह साल का हो गया था।
एक दिन वायसराय का दौरा था। सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी मांगों को लेकर उनका घिराव करने की योजना बनाई। पुलिस और सेना का जबरजस्त इंतजाम था और चौराहे के आगे स्वतंत्रता सेनानियों के जाने पर रौक थी क्योंकि वहां से रेलवे स्टेशन पास था, जहां वायसराय आ रहे थे। पंडित दीनानाथ की अगवानी में बहुत सारी भीड़ चौराहे पर एकट्ठा थी।
वायरस वापस जाओ, इंकवाब जिंदाबाद के नारों से वातावरण गूंज रहा था। घुड़सवार सैनिक पूरी तैयारी में थे। ट्रेन आने का समय हो गया , नारे वाजी तेज हो गयी। ट्रेन अभी स्टेशन पर पहुंची ही थी, कि भीड़ की आड़ में छिपे क्रांतिकारियों ने देशी बम्ब स्टेशन वंदे मातरम के नारों के साथ फेकं दिये। चारों ओर भगदड़ मच गयी, पुलिस ने अंग्रेज कप्तान ब्राउन के आदेश पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। चारों ओर लोग मारे जा रहे थे। पंडित दीनानाथ कप्तान ब्राउन के घोड़े के सामने खड़े हो गये और गोली रोकने के लिए कहने लगे, तभी कप्तान ब्राउन ने एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पर गोली चला दी और पंडित दीनानाथ उसे बचाने के लिए झपटे और गोली सीधे उनके सर पर लगी। वंदे मातरम के नारे के साथ वह नीचे गिर गये। पंडित दीनानाथ के गिरते ही भीड़ पुलिस पर टूट पड़ी।
अंकुर जो पास ही खड़ा था, वह तेजी से अपने पिताजी की और दौड़ा, पंडित जी का सर उसकी गोद में था - उनके होठों से यही निकला-
"-बेटा मैं तुम्हारे स्वदेश की परिभाषा पूर्ण नहीं कर सका, तुम जरूर स्वदेश स्थापित करना ताकि आने वाली पीढ़ी जान सके की स्वदेश क्या होता है। तुम स्वदेश की परिभाषा पूर्ण करोगे न?"उसने पिताजी के हाथों को अपने सर पर रख लिया और बोला-
"बाबा, हमें स्वराज समझने के लिये आपकी आवश्यकता है।"
लेकिन पंडित जी को बचाया न जा सका।
उस दिन पंडित की शवयात्रा के लिये हजारों की भीड़ एकट्ठी हो गयी हो गयी, जिसने भी सुना वहां के लिये चल दिया। दूर दूर तक अमर शहीद पंडित दीनानाथ का नाम गूंज रहा था लेकिन विद्रोह के डर से अग्रेजीं सरकार ने शव ही सौंपने से इंकार कर दिया और चुपके से उनके शव का दाह संस्कार कर दिया। इस कारण पूरे क्षेत्र में विद्रोह फैल गया।
कप्तान फिलिप को विद्रोह कंट्रोल के लिए भेजा,उसने बेरहमी से न जाने कितने सत्याग्रहियों को मौत के घाट उतार दिया, महिला बिग्रेड की बहुत सी महिलाओं को पुलिस पकड़ ले गयी थी और उन्हें छुड़ाने के लिए राधिका के साथ बहुत सी महिलाएं थाने की ओर चल दीं। तभी खबर मिली कि तीन दिन पहले गिरफ्तार महिलाओं में से कुछ को बहुत बुरी तरह प्रताड़ित किया गया और बलात्कार तक किया गया। जिससे दो क्रांतिकारी महिलाओं की मृत्यु भी हो गयी। उस रात थाने पर महिला बिग्रेड ने थाने को घेर लिया और सारी गिरफ्तार महिलाओं को छोड़ने के लिये कहा लेकिन उन निहत्थी महिलाओं पर कप्तान फिलिप में शराब के नशे में गोली चला दी और राधिका सहित तीन स्वतंत्रता संग्राम महिला सैनानियों की मृत्यु हो गयी। उनकी लाश का आखिरी संस्कार नहीं करने दिया गया बल्कि उन सत्याग्रही महिलाओं को हत्यारी क्रांतिकारी ग्रूप की बता कर खुले मैदान में गिद्धों, चीलों और कौवों को खाने के लिये छोड़ दिया गया।
इस घटना के तीन दिन बाद कप्तान फिलिप को गोली मार दी गयी और गोली मार कर फरार होने वाला और कोई नहीं अंकुर और उसका गुट था जो अब क्रांतिकारी बन गया था, सत्याग्रह छोड़कर उसने दूसरी क्रांति का रास्ता अपना लिया था।
अंकुर के घर में आग लगा दी गयी थी। घर अब खंडहर हो चुका था। समय बीत रहा था, अंकुर और उसके साथी पुलिस द्वारा पकड़े न जा सके थे। लेकिन छुपछुप कर उनकी कार्यक्रम चल रहे थे। गली गली में देश जागरण के परचे मिलते थे और एक दिन पुलिस का मालखाना लूट लिया गया और उनके हथियारों को लूट लिया गया, लगभग ग्यारह से बारह अग्रेज सिपाहियों को मार डाला गया। लेकिन इस घटना को अग्रेजीं सरकार ने दबा दिया था क्योंकि उसे डर था कि इस घटना से क्रांतिकारियों का मनोबल बढ़ जायेगा। लेकिन क्रांतिकारियों को पकड़ने की गतिविधि तेजी से बढ़ गयी। इधर गांधी जी का आंदोलन जोर पकड़ रहा था और उधर क्रांतिकारी अपनी जिन पर खेलकर हमले कर रहे थे।
जगह जगह परचे बंट रहे थे जिसमें लिखा था कि स्वदेश का अर्थ अपना देश और ऐसा देश जिस पर अपना अधिकार हो। और एक दिन जब भारत के दो टुकड़े करने का प्लान बन रहा था तब अंकुर और उसके साथियों ने अपने स्वदेश के साथ होने वाली गद्दारी के विरोध में जबरदस्त आक्रमण बिट्रिस सेन्य टुकड़ी पर कर दिया था लेकिन जैसी हमारे देश में गद्दारी की परम्परा के लिऐ कोई न कोई जयचंद मिल जाता है, वैसे ही वहां हुआ। चंद सिक्के में बिके किसी गद्दार ने पहले से इस आक्रमण की खबर कर दी थी और सतर्क सैन्य टुकड़ी ने चारों ओर से अंकुर और उसके साथियों को घेर लिया था।
दोनों ओर से गोलियां चल रहीं थी लेकिन क्रांतिकारियों की गोलियां खत्म हो रहीं थी और अतिरिक्त सैन्य बल आ गया था। उस दिन सताईस स्वदेश की आंकाक्षा लिए क्रांतिकारियों को मार दिया गया था और उनकी लाशों एक ही चिता में जला दिया गया था।
15 अगस्त को देश स्वतंत्र हो गया था, पंडित दीनानाथ और राधिका की एक भी मूर्ति या फोटो कहीं नहीं लगायी गयी और स्वदेश के लिए क्रांतिकारी देवनाथ को लोग भूल गये थे। कुछ समय बाद बड़े नेताओं के शानदार स्मारक बनबाये गये लेकिन सही स्वदेश की परिभाषा के लिये जान की बाजी लगाने वालों को लोग भूल गये। शायद यही है स्वदेश का सुराज जो कल भी उस पर राज करने वालों का था और आज भी और शायद यही परम्परा चलती रहेगी।