पहली मुलाकात-एक श्रद्धांजलि
पहली मुलाकात-एक श्रद्धांजलि
यह कहानी किसी प्रेमी "प्रेमिका की प्रथम मिलन की प्रेम सिक्त कहानी नहीं है।रिश्ते कितने विचित्र होते हैं। कभी कभी खून के रिश्ते भी अपनेपन की खोखली परिभाषा को ढोते हुए मिल जायेंगें और कहीं अपरिचित व्यक्ति के साथ हम ऐसे संबधों से बंध जाते हैं जिन्हें शायद शब्द भी देना अपर्याप्त हो जाता है, शायद उन संबधों को शब्दों के मायाजाल में बांधना उनका अपमान ही होगा।
मैं बालकनी में बैठा चाय पी रहा था। सामने पेड़ पर बैठे हुई चिड़िया अपने छोटे छोटेबच्चों को दाना चुगा रही थी। अपनी चोंच से लाये हुए दानों को एक एक कर उन्हें खिला रही थी। मां सचमुच मां होती है। वह भी जानती है कि थोड़ा सा बड़ा होने पर वह सारे बच्चे अपना नया घोंसला बनाने के लिए उड़ जायेगें लेकिन जितना समय है उन्हें अपने परों में समेटना चाहती है--अभी मैं उन मां बच्चों के बीच खोया ही था कि मेरी पत्नी की आवाज आई-
"सुनिये आपने आज व्हाटस एप खोलकर देखा क्या? "-
मैंने उसे छेड़ते हुए कहा कि आज कोई नया जोक आया है क्या?"
"आपको तो हरदम--सुनिये आज आपकी नीलम भाभी नहीं रही"
"नीलम कौन सी नीलम भाभी"?"
"अरे आपकी प्रिय पाठिका"
"मैं अचानक चौककर उठकर उसके पास आय आया। व्हाटस ऐप में उनके दुखद निधन का समाचार आया था। मैं शायद तीन चार साल पहले एक बार उनसे पार्टी में मिला था। सचमुच एक भली, स्मार्ट तथा व्यवहार कुशल लेडी थी। कुछ अजीब आकर्षण था उसमें, जितनी देखने में स्मार्ट थी, उतनी ही मिलनसार थी। हमारी परिवार की वह पहली मुलाकात थी, धीरे धीरे हम पार्टियों में मिलते रहे और उससे कभी कभी औपचारिक बातें फोन पर हो जातीं थीं। मैं और श्रीमती जी के घूमने अमेरिका चले गये, तीन माह बाद वापस लौटे तो काम में व्यस्त हो गये थे, मुलाकातों का सिलसिला खत्म हो गया था।
फिर एकदिन सुना कि वह बहुत सीरियस बीमार हो गयी थी। शायद बचना भी मुश्किल था। एक बार देखने अस्पताल गये थे लेकिन डाक्टरों ने लगभग मना कर दिया था। उसके बाद मुलाकात ही नहीं हुई।
रिटायरमेंट के बाद मैं खाली समय मैं शब्दों से खेलने की कोशिश करने लगा। कभी कहानियां और कविताओं को लिखने की कोशिश करने लगा, कहते हैं न कि जब आप किसी से सच्चे दिल से अपनी चाह प्रकट करते तो वहां से भी पोजेटिव रिस्पॉन्स मिलता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। शब्द जाने कब कहानी गढ़ने लगे पता ही नहीं चला। लिखे हुए शब्दों को फेसबुक पर डालने लगा और एक दिन अचानक एक फोन आया"
"नमस्ते भाई साहब पहचाना ?मै नीलम"
अचानक नीलम जी की आवाज सुनकर मैं चकित रह गया.
"भाईसाहब आप कहानी बहुत अच्छी लिखते हैं--हलांकि मुझे पढ़ने में प्रोब्लम होती है, मैं कम देख पाती हूं तो लेंस की सहायता से पढ़ती हूं लेकिन आपकी कहानियां दिल को छूती हैं."
अचानक मिली तारीफ से मैं भाव विभोरित हो गया। अब जब भी लिखता, नीलम को अवश्य टेग करता और वह भी हमेशा तारीफ करती। एक ऐसा संबध बन गया था कि यदि किसी कहानी पर उसका अंगूठा नहीं दिखता तो मन कच्चा कच्चा सा हो जाता शायद इन संबधो को हम कोई नाम नहीं दे सकते लेकिन स्नेह के धागों में अनदेखे ही पिरोये अपनत्व के मोती एक माला तो बना ही देते हैं--सच तो यह है कि हमारी भावना ही संबधो और रिश्तों का सृजन करती। हमअकेले तब होते हैं जब हमारी भावनायें सुप्त हो जाती हैं। वह आज नहीं है लेकिन यादों को क्या कहें, आज भी जब लिख कर कुछ पोस्ट करते समय अपने पाठकों और मित्रों को टेग करता हूं जाने अनजाने वह मुलाकात और वह नाम याद आ जाता है और आंखें नम हो जातीं है और उंगलियां उसको भी टेग कर देती हैं, यह जानते हुए भी कि अब वह नहीं पढ़ पायेगी और न ही अपने शब्दों में समीक्षा कर पायेगी लेकिन कभी कभी दिल सत्य को भी मानने से इंकार कर देता है, शायद यह हार्दिक संबध है जो हमें किसी के जाने के बाद भी हमें किसी न किसी के दिल में जीवित रखतें--हमेशा -हमेशा।