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Rajeev Rawat

Romance

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Rajeev Rawat

Romance

स्पर्श - - एक अनुभूति

स्पर्श - - एक अनुभूति

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स्पर्श - - एक अनुभूति (एक हमसफर) 


------------राजीव रावत 


        सांझ धीरे धीरे अपने पंख फैला रही थी। सूर्य की किरणें दिन भर की थकान मिटाने के लिए अपने पैरों को समेट रही थी। बाल्कनी में कुर्सी डाले वह देख रहा था। आकाश पर रंग बिरंगे परिंदे अपने दड़वों के लिए वापिस आ रहे थे। 

          उसका दड़वा सिमट गया था, अभी सुबह तक कितनी रौनक थी। उसके रिटायर्मेंट और पैंसठवीं बर्ष गांठ के लिए दोनों बच्चे अपने अपने परिवार के साथ तीन दिनों केलिए आये थे। बच्चों की तोतली आवाजें-बच्चों का कोलाहल, सब थम गया था। दोपहर तक सभी चले गये थे। इन पक्षियों की तरह दूर बनाये अपने अपने घोंसलों में।.    

          किचिन से आज कुछ ज्यादा ही बर्तनों की आवाज आ रही थी, शायद इला मेरी पत्नी अपने दर्द को बर्तनों की उठा पटक में मुझसे छिपाना चाहती है। मैं उसे चालीस वर्षों से जानता हूं। वह कहां किसी बात को कहती है, बस अपने आप में अपनी खीजते, दर्द ऐसे ही किचिन में निकालती रहती है। 

             आज रिटायर्मेंट के बाद न जानें क्यों एक खालीपन सा लग रहा था। पहले सोचता थाकि बहुत काम कर लिया अब तो मस्त चादर  ओढ़कर सोऊंगा। शरीर की सारी थकावट पंलग पर निकाल दूंगा किन्तु अब जब फ्री हूं तो नींद नहीं आ रही--


             मैने इला को आवाज लगायी। इला अपने गीले हाथों को पोछते हुए आयी--

 - हां जल्दी बोलिए--

 - मैंने उससे पास पड़ी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा, उसने एकबार मुझे देखा और बोली-

 - -अभी कितना काम फैला पड़ा है--अभी खाना भी बनाना है--जल्दी बोलिए क्या काम है? - -

 मैने उसका हाथ पकड़ कर कुर्सी पर बैठाया तो वह आश्चर्य से मुझे देखने लगी-

 -इला आज शाम को हम बाहरखाना खाने चलेगें, अब रैलेक्स होकर बैठो न--

 -अचानक वह हंसते हुए उठी और मेरे सिर पर हथेली रख कर बोली 

 - टेम्प्रेचर तो ठीक है--लगता है अब पैसठ साल बाद सठियाने लगे हैं---! 

 - अच्छा एक काम करते हैं, तुम तैयार हो जाओ हम लोग नदी के किनारे चलते हैं, वहां मछलियों को आटा खिलायेंगे, तुम्हें याद है न जब हम पहली बार मछलियों को आटा की गोलियां खिलाने गये थे--प्लीज इला मना मत करो--चलो तुम तैयार हो जाओ--,मैंने इला से कहा

 -  न जाने दिल फिर जवान होने लगा था। नदी की निर्मल पानी में इला के साथ कागज की नांव चलाने--आशाओं और सपनों की एकबार फिर पतवार चलाने को दिल मचल रहा था---इला बिना कुछ कहे अंदर चली गयी--   


               लगभग चालीस बर्ष वीत गये। इला नई नई दुल्हन बन कर इस घर में आयी थी। मां बाबूजी,  बुआ और चाचा चाची कुल छै प्राणी थे। कमरे तीन---सरकारी मकान एलाट हो गया था किन्तु पजेशन अभी नहीं मिला था। स्टोर के छोटे रूम में हमारा बिस्तर लगा था। देर रात जब कमरे में जाने को मिला तो उस छोटे रूम में ढंग से जगह भी नहीं थी। जैसे तैसे पैर फैलाये तो टीन की पेटी पर रखा आटा का कनस्तर मेरे ऊपर गिर गया--एकदम सफेद भूत बन गया--तब जोर से पेट दबाकर हंसती इला और मैं रातभर आटा ही बटोरते रहे, दूसरे दिन मां से बहाना बना के कहा कि मंदिर के पुजारी ने कहा है कि नया जोड़ा यदि मछलियों को आहार देता है तो जैसै जैसे मछलियां खाने के लिए चारों ओर से आतीं हैं--वैसे ही मनोकामनाएं भी पूरी होती हैं और लक्ष्मी घर आती है--

               मनोकामनाओं का तोपता नहीं लक्ष्मी की बात पर मां राजी हो गयीं और मैं घर की भीड़ से बाहर नदी किनारे इला को लेकर आ गया था। जीवन का शायद वह पल सबसे कीमिती पल था जो मैने इला को दिया था। उस नदी के किनारे बीती संध्या को चालीस बर्ष हो गये, आफिस और परिवार के झमेले में फिर कभी न नदी के किनारे जा पाया और न ही बाहर कहीं ले जा पाया। पापा - मां-बुआ चाचा और चाची की तीमारदारी और उसके बाद बच्चों के पैदा होने से--बड़े होने--पढाई--नौकरी - - शादी के चक्कर में जीवन चक्र एक निर्धारित दायरे में घूमता रहा--न तो उसके बाहर झांकने की फुर्सत थी और न ही क्षमता--धीरे धीरे सारे कामों से फ्री हुआ और अब रिटायर्मेंट के बाद ऐसा लग रहा है कि करने के लिए कुछ बचा ही नहीं। 

               आज पता नहीं क्यूं जब इला को छूआ तो एक सिहरन सी हुई--ऐसा लगा यही एक स्पर्श है जो शायद जिन्दगी के इन पड़ावों मे हमेशा हमेशा साथ रहेगा---एक हमसफर बन कर चाहे सब छूट जाए यह नहीं छूटेगा। 


          दो दिन ही अभी गुजरे थे, बादल पानी की बूदें छलकाकर हल्का होकर फिर समुद्र से पानी लेने के लिए उड़ रहे थे--तभी शर्मा जी ने दुखद समाचार सुनाया भार्गव अंकल नहीं रहे, हम सब कालोनी के लोग ही सुख दुख के भागीदार रह गये हैं। सच तो यह है अब यही हमारी फैमली है। तीन साल हो गये थे, भार्गव अंकल के दायें शरीर मे लकवा लग गया था, तब से हम सभी देखते थे कि रोज सुबह एवं शाम को आंटी व्हील चेयर पर अंकल को लेकर कालोनी के गार्डन में आ जातीं थी। अपने पहाथ से अंकल को कुछ खिलाती, उनके रहे सहे बालों को संभालतीं--चश्मा को साफ करतीं - - अंकल कुछ ठीक से बोल भी न पाते थे--लेकिन बायें हाथ से आहिस्ता से आंटी की उंगलियों को थाम लेते और आंखो से निकलते अनकहे शब्द - - इस उम्र में ढलते तन मन की संध्या में मात्र किसी अपने के छूने काअह्सास ही जीवन जीने का एक तत्व बन जाता है--आंटी उम्र के इस पड़ाव में पहली बार अपने को असहाय महसूस कर रहीं थीं, जब उनके एकलौते बेटे का शव सीमा पर शहीद होने के बाद आया था, तब भी आंटी अंकल के असहाय कंधो पर अपना सिर रखकर इतनी नहीं टूटी थी और उस गम को सह गयीं थीं क्योंकि किसी अपने का सहारा था किन्तु आज पहली बार - - पहली बार आंटी को टूट कर बिखरते देखा--शायद अपने किसी का एक साया भी जीने का अबलम्ब बन जाता है--अपने होने का अह्सास ही काफी होता है--


          शाम को चाय लेकर ईला आई तो चुपचाप मेरे पास की कुर्सी पर बैठ गई। उसके चैहरे पर एक उदासी की परत थी। आज मैंने बहुत दिनों बाद इला को ठीक से देखा, बालों में सफेदी झलकने लगी थी-उम्र के साथ साथ चश्मे का नम्बर भी बढ गया था, किन्तु कल भी इस परिवार के लिए लगी थी और आज भी--सरकार ने मुझे सीनियर सिटीजन घोषित कर दिया किन्तु क्या कभी मैं इला को सीनियर सिटीजन घोषित कर छूट दे पाऊंगा--

              आज मेरी चालीसवीं मैरिज इनवरसरी थी, बिना कुछ कहे मैं मार्केट निकल गया। अभी कुछ दिनों पहले बहू के साथ सिल्क एम्पोरियम में गयी थी, वहां बहू के लिए साड़ी खरीदी थी। उन्हीं में एक लाल बाँडर वाली साड़ी इला को बहुत अच्छी लगी उसने क़ीमत पूँछ कर चुपचाप रख दी थी किन्तु आते आते भी उसकी निगाहें उस पर अटकी हुईं थी, उस समय तो मेरे मन में कुछ विचार नहीं आया था किंतु आज मैं चाहता हूं वह यह साड़ी पहने, इसलिए चुपके से मैं वह साड़ी लेकर आ गया। 

              शाम को जब मैने उसे वह साड़ी दी तो इला की नजरों में वही चमक थी जो पहली मिलन रात्रि को थी---

-तुम आज यही साड़ी पहनोओगी---

--, ठीक है लेकिन एक शर्त पर -

 - मैने उसकी ओर देखा---अपने साड़ी के पल्लू से एक चश्मे का कवर मेरी ओर बढ़ा दिया---आप यह पहनकर मुझे देखोगे---

 - मैने चश्मे का कवर खोला उसमें गोल्डन कलर का प्रोगेसिव लेंस वाला चश्मा था जो मैं मंहगा होने के कारण बहाना बना कर नहीं लिया था-

 - --मैने अपनी बचत से खरीदा है, कैसा लगा--

-शायद उस समय शब्द कहीं खो गये थे ले और उस शांत वातावरण में दिल की धड़कनें बहुत कुछ कह रहीं थीं-। -मैंने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों मे ले लिया-

--तुम मुझे बीच में छोड़कर तो न जाओगी--हमेशा साथसाथ रहोगी न हमसफर बनकर? 

इसअचानक असमय हुए प्रश्न और प्रक्रिया से इला के चैहरे पर हल्की सी लालिमा आ गई-

-आप सचमुच में सठिया गये हैं--इस उम्र में यह हरकतें-

--वह उठ खड़ी हुई--मैनै आहिस्ता से उसे रोका - - सच इला आज मैने महसूस किया कि जीवन की इस बेला में हम ही एक दूजे के संबल हैं--जीवन अभी तक दूसरों के लिए जीते रहे--बाकी बची श्वासों को अब सिर्फ अब एक दूजे के नाम करेगे--- कुछ संबध होते हैं जिनमें उम्र की अहमियत नहीं होती है बल्कि एक उम्र के बाद उन रिश्तो में रवानी पैदा हो जाती है--इस उम्र में न तन का--न मन का और न ही धन का अह्सास चाहिए--बस स्पर्श का अह्सास चाहिए--बोलो तुम साथ दोगी न--,? 

इला की आंखो की कोरों से दो बूंद छलक कर उसके हाथों पर गिरी--जिन्दगी ये क्षण शायद पति-पत्नी के अस्तित्व को परिभाषित करते हैं। उसने चुपके से सिर मेरे कंधे पर रख दियाऔर हाथ में हाथ ऐसे रख दिया जैसे चालीस साल पहले शादि के मंडप अपने को समर्पित करते हुए रखा था - - अन्तर्मन मे एक समर्पण की प्रेम ज्योति प्रज्वलित हो रही थी--सांझ ढल रही थी - - चांद आहिस्ता आहिस्ता आकाश पर आ रहा था और हम हम कहां थे - - ऐसा लगता था मानो बर्षों प्यासी धरती के आंचल से ठंडे और मीठे पानी का झरना अचानक फूट कर प्रवाहित होने लगा हो और हम उस धारा में तन मन से भींगते हुए स्वर्ग की अनुभूति में खो गये हों - - जीवन को निश्छल और निरापद जीने के लिए मिलने वाली स्पर्श की अनुभूति शायद महसूस की जा सकती है,शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं होती।


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