Madhavi Nibandhe

Romance

5.0  

Madhavi Nibandhe

Romance

अढ़ाई कोस

अढ़ाई कोस

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 कभी-कभी पता ही नहीं चलता कि रास्ते ज्यादा लंबे हैं कि फासले । ऐसा भी होता है कि मंजिलें सामने होती हैं, पर पैरों में मर्यादाओं ,मूल्यों और एक अनाम से डर की बेड़ियां पड़ जाती हैं रास्तों को नापना तो आसान है पर बेड़ियों से भारी हुए पैरों से फसलों को नापना असंभव होता है। फिर ऐसे में अक्सर हम जहां खड़े होते हैं ,उस जगह को ही अपना मुकाम ,अपनी मंजिल बना लेते हैं ।


    “कृपया अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें विमान कोलकाता विमानतल पर उतर रहा है”...इसी सूचना के साथ सारा ने अपना सामान समेटा और कुर्सी की पेटी बांध ली, पर उसके हाथ किसी अनजाने डर से कप कपा रहे थे। सूरज ने उसके डर को भाप लिया और उसके हाथों को पकड़ लिया। सूरज ने कहा, “ सारा डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूं” सारा ने सूरज की ओर देख अनमने ढंग से मुस्कुरा दिया। जितनी तेजी से विमान नीचे उतर रहा था उससे भी ज्यादा तेजी से सारा की अनगिनत भावनाएं उफान भर रही थीं। कभी उसकी आंखों के सामने उसका बचपन अठखेलियां करता, तो कभी उसका पहला प्रेम उसकी स्मृतियों में जीवित हो उठता। सारा तय नहीं कर पा रही थी, कि अपनी भावनाओं को छिपाए या खुद को संभाले कोलकाता से सारा का पुराना रिश्ता ही नहीं था, बल्कि कोलकाता उसकी रगों में दौड़ता था ।वह कोलकाता को तब से जानती थी , जब कोलकाता कलकत्ता था और सारा शोनाली। शोनाली का सारा तक का सफर उतना ही नाटकीय था ,जैसे किसी फिल्म की पटकथा हो। विमान अब जमीन पर उतर आया था और सारा की स्मृतियों को भी धरातल मिल गया था।


   सूरज उससे कई तरह की बातें कर रहा था जैसे किसी भय से उसका ध्यान बटाना चाहता हो, पर सारा के कानों तक शायद ही उसका कोई शब्द पहुंच रहा था ,वह तो जैसे अब कोलकाता से बातें कर रही थी। कोलकाता जिसमें रोशोगुल्ला और सौंदेश थे ।कोलकाता जिसमें मां बाबा थे। कोलकाता जिसमें बहुत सारा प्यार करने वाले काकू थे, और सारी जिद्द मान लेने वाली काकी मां थीं। वह मिट्टी का आंगन शायद आज भी अपने वक्ष पर उसके पैरों की छाप लिए खड़ा था। “सारा ...सारा क्या तुम थक गई हो ?... क्या थोड़ी देर सोना चाहोगी हाटेल जा कर।” सूरज ने उसे जैसे किसी अंधेरे कुंजन से खींचकर बाहर निकाला। सारा ने हां में अपना सिर हिला दिया । जल्दी ही सारा और सूरज कार में बैठ गए। जैसे जैसे कार कोलकाता की सड़कों पर दौड़ती जा रही थी , वैसे वैसे सारा के मन में कई सारी भावनाएं एक साथ हिलोरे मारने लगीं, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोए या खुश हो। उसने अपने कोलकाता के भौगोलिक ज्ञान को खंगालना शुरू किया । तभी सूरज ने उसका हाथ पकड़ कर कहा “ सारा मैं समझ सकता हूं , कोलकाता से तुम्हारा रिश्ता पुराना है। क्या तुम्हें कुछ याद आ रहा है? दिमाग पर ज्यादा जोर मत दो, पर अगर कुछ याद आए तो मुझे बताओ। अगर तुम कहीं जाना चाहो तो बताओ, मैं तुम्हें ले जाऊंगा ।” सारा आश्वस्त तो थी पर उसने कुछ नहीं कहा बस सूरज के कंधे पर अपना सर रख दिया। जल्दी होटल भी आ गया ।सूरज खाना खाकर सो गया और सारा , सारा उस पंचतारा होटल के जगमगाते कमरे में भी अपनी स्मृतियों के दिए जला रही थी। बाबा के साथ साइकिल की सवारी करते हुए उसने कई बार उनसे पूछा था, “ बाबा हम होटल में खाना खाने कब जाएंगे….?”तब बाबा कहते, “ जब तुम बड़ी अफसरनी बन जाओगी तब जाएंगे” सारा के होठों पर वही बचपन वाली मासूम हंसी आ गई। तब उस होटल की जगमगाहट में उसे सितारे नजर आते थे और आज वही रोशनी उसके मन के अंधेरे को जरा भी कम नहीं कर पा रही थी। दृष्टिकोण और परिस्थितियां कब बदल जाती है समझ नहीं आता।


   लैंप की पीली रोशनी में सारा का चेहरा चिंतामग्न जरूर दिख रहा था, पर चिंता उसके सावले सौंदर्य को जरा भी कम नहीं कर पाई थी। सांवला पर चमकदार चेहरा , मछली की तरह कटीली आंखें ,औसत ऊंचाई, पर शरीर नपा-तुला….। वैसे तो उसकी शादी को 2 साल हो चुके थे, पर अभी भी कौमार्य किसी किशोरी सा ही था। ऐसा लगता था कि कोलकाता का काला जादू उसके काले बालों से ही निकला है शायद इसी काले जादू ने सूरज को अपने मोहपाश में बांध रखा था , पर क्या सिर्फ सूरज ही था जो इन बालों की काली मां पर मोहित था ? या फिर इससे पहले भी कोई इन में उलझा था। इस पहेली को सारा सुलझा नहीं पा रही थी, पर उसने अपनी लटो को जरूर सुलझा लिया था, और वह सोने चली गई ।


सूरज पेशे से डॉक्टर था। वह खुद अनाथ था ,इसलिए अकेलेपन और बेबसी के दर्द को अच्छे से पहचानता था। वह एक सेमिनार के लिए दिल्ली से कोलकाता आया था, अब अगले 10 दिनों के लिए यह होटल का कमरा ही उसका घर था। चूंकि उसे पता था कि सारा का कोलकाता से कुछ रिश्ता है इसलिए वह उसे भी यहां ले आया, पर उसे यहां लाकर उसने ठीक किया या नहीं यह तो आने वाला समय ही बताने वाला था।

“ गुड मॉर्निंग…” इस प्रफुल्लित आवाज से सूरज ने सारा को जगाया , “तो सारा , आज तुम चाहो तो कोलकाता घूम आओ , मैं शाम 5: 00 बजे लौटूंगा फिर हमें मेरे एक साथी के घर डिनर के लिए जाना है।” सारा ने हां में सिर हिला दिया। थोड़ी ही देर में सूरज चला गया सारा होटल के 11वीं मंजिल के अपने कमरे की खिड़की से पूरा कोलकाता देख रही थी ।‌अब उसके विचारों स्मृतियों को नई चौखट मिल गई थी वह सोचने लगी खिड़की से सब कुछ कितना छोटा नजर आता है, और कितना साफ भी ऐसा लग रहा था, मानो उसे कोई दूरबीन मिल गई हो। उस कांच की खिड़की से बाहर की गरम धूप अंदर नहीं आ रही थी , पर सारा धूप को छूना चाहती थी उसे महसूस करना चाहती थी। इस धूप का सारा की परछाई से कोई ना कोई रिश्ता तो जरूर था पर क्या यह रिश्ता सारा को परेशान कर रहा था या वह इस धूप को अपनी परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए ढूंढ रही थी। वह पूरा दिन सारा ने होटल में ही गुजारा। अब शहर ने धूप की चुनरी उतारकर, सितारों का घूंघट ओढ़ लिया था। सूरज भी वापस आ चुका था। “ सारा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुई ।” सूरज ने पूछा सारा ने चौक कर कहा, “ अरे !हां सूरज मैं भूल ही गई थी हमें किसी के घर जाना था।” सूरज ने कहा, “कोई बात नहीं सारा अब तैयार हो जाओ हमें यही पास में ही जाना है।”


 कुछ ही देर में सूरज और सारा अपनी कार में सवार हो गए। अंधेरा शायद हमेशा ही हमें अतीत की सैर कराता है और अब सारा को ऐसा लग रहा था मानों वह किसी कार में नहीं बल्कि टाइम मशीन में बैठी हो, और यह टाइम मशीन समय कि जिस गली से गुजर कर जा रही थी वह उसे जानी पहचानी लगी। 

अतीत का शोर उसे कर्कश सा लगने लगा ।कई सारे चेहरे उसे हर तरफ से घेरने लगे । कार एक संकरी सी गली में मोड़ी, अब सारा की धड़कनें रेलगाड़ी की रफ्तार से दौड़ रही थीं। सांस इतनी तेज, मानो अभी लंबी दौड़ लगाकर आई हो ।उसने सूरज की ओर शंकित नजरों से देखा, पर वह बिल्कुल शांत था। उसने पूछा , “सूरज हम किस के घर जा रहे हैं ,कौन सा घर है उनका….” सूरज ने आश्चर्य से सारा की ओर देखा और पूछा, “क्या तुम इस जगह को जानती हो, सारा.. क्या तुम्हें कुछ याद आ रहा है?” सारा को लगा मानों उसकी चोरी पकड़ी गई हो । उसने कहा, “नहीं …..नहीं, सूरज मैं तो बस ऐसे ही …..। तभी गाड़ी एक जर्जर परंतु हवेली नुमा घर के सामने से गुजरी । सारा बड़ी देर तक उस हवेली को देखती रही, मानों उसकी आंखें ,आंखें ना होकर कोई एक्सरे मशीन हों, जो दीवारों को अंदर तक भेद जाएंगी। सूरज ने सारा को हिलाकर कहा, “ चलो सारा, हम पहुंच गए... क्या तुम ठीक हो ?” सारा ने अपनी असमंजस की स्थिति को छुपाने के लिए चेहरे पर नकली मुस्कान की रेखा खींच दी । सारा बेहोशी की स्थिति में सूरज का हाथ थामे खुद को आगे धकेल रही थी। उसकी स्मृतियां वही उस पुराने खंडहर में कुछ खोया हुआ ढूंढ रही थीं, पर कुछ अगर उसके हाथ लग रहा था तो वह ही रिश्तो की विडंबनाएं ।जिस खंडहर को सारा निहार रही थी उसी के पड़ोस में होने दावत के लिए बुलाया गया था। पर अब सारा को ना भूख लग रही थी और ना ही प्यास, वह तो बस अब शिष्टाचार निभा रही थी। खाना खाने के बाद सभी दीवानखाने में बैठे सूरज के साथी ने कहा, “ भाभी हमने सुना है, आप शास्त्रीय संगीत की अच्छी समझ रखतीं हैं , तो कुछ सुनाइए...।” इससे पहले सूरज ने भी सारा से कई बार गाने की दरख्वास्त की थी, पर वह अक्सर ही टाल देती ,इसलिए उसने कहा , “अरे नहीं-नहीं सारा की तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती…. तो उस पर दबाव मत डालो।” उसकी बात को बीच में ही काटते हुए सारा ने कहा, “ कोई बात नहीं सूरज, मुझे अब बेहतर लग रहा है।” और उसने राग बिहाग की एक बंदिश गाई। कहते हैं कि इंसान सब कुछ भूल जाए, पर मस्तिष्क सीखी हुई कलाओं को कभी नहीं भूलता। उस समय ऐसा लग रहा था मानो सारा स्वयं स्वरों की देवी हो , उस दिन शायद सारा अपने सुरों से उस खंडहर की एक एक दीवार भेद कर किसी को देखना चाहती थी, किसी के स्पर्श को महसूस करना चाहती थी।


 रात को होटल में वापस आकर सारा उसी खिड़की के पास बैठी थी, तभी सूरज ने आकर उसका हाथ थाम लिया और कहा, “ सारा मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं ,पता नहीं अगर तुम नहीं होती तो मेरा क्या होता? कहने को मैंने तुम्हारा इलाज किया है ,पर सही मायनों में तुमने मुझे जीवनदान दिया है।” कहते - कहते सूरज सारा की गोद में सिर रखकर सो गया। सारा उसके बालों में अपनी उंगलियां घुमाती रही।


 खिड़की के बाहर काले आसमान में चांद आज भी उतना ही आधा अधूरा था , जितना उस रात रेलगाड़ी की खिड़की से दिख रहा था। कितना कठिन था नई नवेली दुल्हन को अपने बस कुछ महीने पुराने पति को छोड़कर जाना। उनका प्रेम किशोर अवस्था को भी पार नहीं कर पाया था। अचानक सारा के सामने वह वीरान सी हवेली दुल्हन सी सजी थी, और कार से उतरकर सुजीत ने अपनी नई नवेली दुल्हन शोनाली को हाथ का सहारा देकर बाहर निकाला, जैसे ही शोनाली बाहर आई शंखों की गूंज ने उसका स्वागत किया।


 लाल सुर्ख साड़ी, लाल चुडा ,हाथ पैरों पर आलता…... उस दिन तो सुंदरता की देवी भी शोनाली के सामने फीकी पड़ जाती । यह चमक सिर्फ श्रृंगार की नहीं थी ,बल्कि उस खुशी की थी जिसे वह बहुत समय से चाहती थी। सुजीत सोनाली के बड़े दादा के दोस्त थे ,अक्सर ही घर आया जाया करते थे ।सोनाली को तब से सुजीत पसंद था अक्सर ही उनके आने के बाद सोनाली कभी चाय देने तो कभी कोई किताब लेने दादा के कमरे में जाती थी कई बार तो उनसे बातचीत भी हो जाती थी उनकी एक झलक के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। दादा शायद शोनाली के मन की बात भाप गए थे। शोनाली के कॉलेज की पढ़ाई पूरी होते ही उन्होंने अपने इस दोस्त से सोनाली की बात चलाई। परिवार पहले से ही एक दूसरे को जानते थे, और शायद मन ही मन सुजीत भी यही चाहता था ।


वह रात अरमानों की रात थी। इस रात के लिए शोनाली ने कई मान मनौतियां करी थी। सुजीत ने जब पहली बार उसे अपनी बाहूपाश में बांधा,तो उसे ऐसा लगा मानो इस बंधन में बंधने के लिए वह आतुर थी। जब सुजीत की उंगलियों ने शोनाली की उंगलियों को छुआ तो मानों सितार के सारे तारे एक साथ बजे उठे। यही आधा चंद्रमा उस दिन भी आसमान से ताक झांक कर रहा था, और उस रात का साक्षी भी था। 


सिर्फ सुजीत ही नहीं ,बल्कि उसकी मां भी अपनी बहू पर जान छिड़कती थी उसे अपनी सांस से मां का प्यार और वात्सल्य मिल रहा था। अक्सर ही शोनाली की मां शोनाली से कहती, “ शोनाली कुछ काम में हाथ बटाया कर नहीं तो, सास घर से निकाल देगी।” और सोनाली खिलखिलाकर हंसती और जवाब देती, “ मां मेरी सांस मेरे बिना 1 मिनट भी नहीं रह सकती, घर से निकालना तो दूर की बात है।”... अक्सर ही ज्यादा खुशियां किसी बड़े गम की दस्तक होती हैं, पर शोनाली को अपने स्वप्नलोक के आगे ना तो कुछ दिखाई दे रहा था और ना ही सुनाई ।पता नहीं भगवान किसी की नियति को इतना उलझा क्यों देता है पर आगे उलझन कभी किसी को नजर नहीं आती कुछ दिखता है तो बस सुखद वर्तमान।


शोनाली इसी वर्तमान को गुजरने नहीं देना चाहती थी और रोज रात को कमरे की बालकनी में बैठकर सुजीत का उसके बालों को सुलझाना उसे बहुत अच्छा लगता था अक्सर सुजीत कहता, “ सोनाली कभी पूनम के गेरुए चांद को देखा है ? बिल्कुल ऐसा ही दिखता है जब काले बादलों में छिपता है।” और शोनाली शरमा जाती।


 सुजीत ने एक बार कहा था, “ सोनाली तुम्हारे केश जादू करते हैं, इन्हें कभी किसी और के सामने खुला मत छोड़ना”, तब शोनाली इस बात को हंसी में उड़ा देती। शादी के 2 महीने बाद दादा शोनाली को लेने आए थे, उन्हें किसी रिश्तेदार की शादी में शरीक होने 1 हफ्ते के लिए दिल्ली जाना था। सास बहुत रोई थी, सुजीत रोया तो नहीं पर हां उसने एक सवाल पूछा था, “ जाना जरूरी है क्या…?” उस पर सोनाली ने कहा, “ सुजीत ...बस 5 दिनों की तो बात है, यू कट जाएंगे और तुम उदास तो ऐसे हो रहे हो मैं मानों मैं कभी वापस ही नहीं आऊंगी।” सुजीत ने तपाक से कहा , “कभी मजाक में भी ऐसी बात मत कहना” उस समय अनजाने में शोनाली सुजीत को किसी प्रकांड पंडित की भांति भविष्य बता रही थी। उसे भी कहां पता था, कि अब उस हवेली की तरफ जाने वाला हर रास्ता उसके लिए भूल भुलैया के समान हो जाएगा। अगले दिन रात की ट्रेन थी, सुजीत शोनाली को छोड़ने स्टेशन गया था। वह शोनाली के लिए उसकी पसंद की लाल चूड़ियां भी लेकर गया था । सोनाली खुश थी ,क्योंकि उसे यकीन था कि 5 दिनों बाद वह अपने सुजीत की बाहों में होगी ,पर सुजीत को किसी अनजाने अपशकुन का भय सता रहा था ।


खिड़की से हाथ दिखाती शोनाली अब ओझल हो गई थी। रात को बड़ी देर तक शोनाली सुजीत की याद में चांद को ताक रही थी, लगभग रात के 2: 00 बजे होंगे सभी गहरी नींद में थे। शोनाली की पलकें भी बोझिल हो रही थीं। तभी ऐसा लगा ट्रेन जोर की आवाज के साथ उछल पड़ी। ट्रेन पटरी से उतर गई थी ।लोग बदहवास और नींद की स्थिति में जहां ट्रेन उन्हें फेंक रही थी वहां गिर रहे थे। इससे पहले कि सोनाली कुछ समझ पाती, वह टूटी ट्रेन से बाहर जमीन पर गिर गई और उसके सिर पर किसी भारी भरकम चीज ने आघात किया ।जब उसे होश आया तो वह किसी डॉक्टर की देखरेख में घटनास्थल के ही पास थी।

 रात भर में उसका सामान, मंगलसूत्र, चूड़ियां सब कुछ चोरी हो गया था। बहुत पूछने पर भी उसे कुछ याद नहीं आ रहा था। दुर्भाग्य ऐसा कि वह उन लाशों के ढेर में पड़े अपने मां बाबा दादा और काकू काकी को भी नहीं पहचान पाई । सूरज भी उसी ट्रेन में था, पर सुरक्षित था। और सब की मदद भी कर रहा था । शोनाली की मानसिक स्थिति को देखते हुए उसे कैंप में अकेले छोड़ ना उसे सुरक्षित नहीं लगा । वह अधिकारियों को सूचित कर उसे अपने साथ दिल्ली ले गया। शोनाली का इलाज दिल्ली के अच्छे अस्पताल में कराया । 


लगभग २ महीने अस्पताल में रहने के बाद डॉक्टरों ने सूरज को अस्पताल में बुलाया और कहा, “ सूरज कितने दिन इसे यहां रखोगे…? शारीरिक तौर पर वह बिल्कुल स्वस्थ है ,और अब रहा सवाल याददाश्त का तो वह 1 दिन में भी आ सकती है या कभी भी नहीं। मेरी मानो इसे किसी आश्रम में डाल दो कितना खर्च करोगे इसके पीछे??” सूरज ने कहा , “यह अच्छे घर की लगती है , , और उम्र से भी छोटी है ऐसे में इसे कहीं और छोड़ना गलत होगा जब तक इसकी याददाश्त वापस नहीं आती मैं इसे अपने घर पर रखुंगा।


सूरज के घर जाते ही सारा के नए अध्याय की शुरुआत हो गई । शुरुआत में शोनाली डरी-डरी रहती पर 6-8 महीनों में उसे उस घर की आदत हो गई। सरकार ने दुर्घटना पीड़ितों के नए पहचान पत्र बनवा दिए और शोनाली बेनाम जिंदगी को “सारा” नाम मिल गया । लगभग साल 2 साल बाद सारा फिर से हंसने बोलने लगी, पर अतीत की यादों के नाम पर आज भी उसके पास बड़ा शून्य ही था । शायद अब यह शून्य ही उसके लिए अच्छा था क्योंकि उसके अतीत में लिखी हुई कहानी अब उसे घांव ही देने वाली थी। सूरज ने सारा के बारे में बहुत छानबीन की ।यहां तक की पुलिस की मदद भी ली। पर कहीं कुछ पता ना चला और शोनाली भी पता ना चला कि कब सारा सूरज का आदर करते करते उससे प्रेम करने लगी ।


धीरे-धीरे 3 वर्षों का समय बीत गया। दोनों ने एक-दूसरे के साथ जीवन की गाड़ी का संतुलन बखूबी जमा लिया था। दोनों साथ रहते थे पर मर्यादाओं की रेखाएं दोनों ने खींच रखी थी। लगभग 2 साल सारा किसी अनजाने भयावह सपने को देखकर रात को चीख पड़ती, तब सूरज उसके कमरे में सोफे पर ही सो जाता । 3 सालों तक सारा के डर और मानसिक जटिलताओं के साथ सूरज डटकर मुकाबला कर रहा था। इन 3 सालों में शोनाली की मानसिक स्थिति में ही नहीं बल्कि शारीरिक संरचना में भी काफी बदलाव आए थे, सिर पर लगी चोट के कारण उसके सारे बाल काटने पड़े थे। वह केश अब नहीं थे जिनका जादू सुजीत के सर चढ़कर बोलता था। 3 सालों का लंबा समय साथ बिताने के बाद एक दिन सूरज ने सारा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। सारा आज भी उतनी ही खुश थी जितनी शोनाली सुजीत से विवाह तय होने के बाद थी। उस दिन सारा लाल जोड़े में तैयार हो रही थी, इतने में कमरे में सूरज आया ,वह बोला, “ सारा देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं, मेरा कोई अपना तो नहीं है, तो मैं ही तुम्हारे लिए लाल चुनरी और चूड़ियां लाया हूं।” चुनरी और चूड़ियां पहनने के बाद जब सारा ने खुद को दर्पण में देखा, तो धीरे-धीरे उसे आईने में दौड़ती हुई ट्रेन दिखी, फिर खून में लथपथ मां बाबा दिखे , स्टेशन पर अलविदा कहता सुजीत दिखा और बस थोड़ी ही देर में सारा बेहोश हो गई ,जमीन पर गिर पड़ी।


 उसका दिमाग अतीत में लगे इस झटके को सहन नहीं कर सका। आज सारा के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली थी। जब उसे होश आया तो सूरज उसका हाथ हाथों में बैठा था, साथ ही मेहमान व दोस्त भी थे। सूरज ने कहा,“ सारा अब कैसा लग रहा है? क्या तुम्हें कुछ याद आया !” अर्धमूर्छित सारा ने जवाब दिया, “ कोलकाता” सुरज ने कहा, “ क्या कोलकाता…. और कुछ याद आया” सारा झेंप गई और बोली , “नहीं ,कुछ नहीं बस कुछ देर आराम करना चाहती हूं” अब उसकी पूरी दुनिया, उसका अतीत किसी ग्लोब की भांति गोल-गोल घूम रहा था। सारा को कुछ समझ आता उससे पहले मंडप शहनाइयों से गूंज उठा । समय की चोट ने सारा के जीवन को 360 डिग्री घुमा दिया था ।पूरी रात वह अपने अतीत की कड़ियां वर्तमान से जोड़ने में लगी हुई थी, पर कहीं से भी उसका भूत वर्तमान के साथ समझौता करने को तैयार नहीं था। उसका मन एक ओर सुजीत की खोज खबर के लिए बेचैन था तो दूसरी ओर सूरज के साथ बिताए 3 सालों को भी नजरअंदाज नहीं कर पा रहा था। इन सबके बीच वह दर्दनाक हादसा उसे झकझोर जाता। उसकी जिंदगी दो स्टेशनों के बीच त्रिशंकु सी लटक रही थी, तभी दरवाजे की आवाज से अंदर बैठी सारा चौंक गई ,सूरज ने कमरे में आते ही कहा, “ सारा तुम आराम से सो जाओ, मैं जानता हूं तुम थक गई हो ,और हां इत्मीनान रखो जब तक तुम नहीं चाहोगी हमारा रिश्ता वैसा ही रहेगा जैसा शादी से पहले था, मैंने तुमसे प्यार किया है इसलिए तुम्हारे भीतर चल रहे युद्ध की वेदना को भी समझ सकता हूं।” इतना कहकर सूरज सामने वाले सोफे पर सो गया। सारा अपनी थकान के साथ रात भर जागती रही । जब जब वह सूरज को देखती तो सोचती विस्मृतियों में कितना सुख था , यह स्मृतियां ही इंसान को विडंबनाओं के चक्रव्यूह में फंसा कर कमजोर कर देती हैं। प्रीति आसिफ को जीवित रखती हैं और कभी-कभी जीवित व्यक्ति को निर्जीव देती हैं।

 अगले 2 साल सारा स्मृतियों और असमंजसताओ की नदी में समय की नाव के साथ बह रही थी। यह लहरें तब सुनामी की लहरों में तब्दील हो गई जब सूरज उसे अपने साथ कोलकाता ले जाना चाहता था। वह चाहता था कि सारा को सब याद आ जाए पर सारा अपनी स्मृतियों में विस्मृति ढूंढना चाहती थी।


विचारों के हिलौरो ने सारा को अचानक भूत से निकालकर वर्तमान में फेंक दिया सूरज का सिर अब भी उसकी गोद में था। सूरज का सिर अपनी गोद में लिए खिड़की से उस आधे चांद को ताकती हुई सारा आज फिर एक बार अपने अंक में वर्तमान और आंखों में अतीत लिए बैठी थी। रह-रहकर उसके जहन में वह मृत हवेली जीवित हो रही थी ।अपने प्रथम प्रेम की स्मृतियों को पोंछ नहीं पा रही थी।


 उसके होटल से सुजीत के घर की दूरी कुछ अढ़ाई कोस के करीब थी और उसने दूसरे दिन उस अढ़ाई कोस की दूरी को तय करने का निर्णय लिया। सुबह सूरज ने सारा से कहा, “ तुम अगर कहीं घूम आना चाहो तो जाओ, मैं कार भेज देता हूं, बस खुद का ख्याल रखना।” सारा ने कहा, “हां, सोच रही हूं आसपास कुछ शॉपिंग कर आऊं” सूरज के जाते ही सारा ने होटल के स्टाफ से 1 बुरका मंगवाया। यूं तो सारा अपनी पहचान छुपाने वाली थी, पर फिर भी उसके श्रृंगार में कोई कमी नहीं थी। कार में बैठते ही विचारों की गाड़ी फिर पटरी पर आ गई, कैसे दिखता होगा सूजीत ,क्या उसने भी शादी कर ली होगी , क्या 5 सालों बाद भी मैं उसे याद होऊंगी, क्या आज भी मां ही खाना बनाती होगी ?? सवालों के काले मेघ छटते ही उसे सामने यथार्थ खड़ा दिखा। हवेली आ गई थी वह कई भावनाओं के मिश्रण के घूंट पीकर अंदर गई। झुमरी बाग में पानी दे रही थी । यही झुमरी 5 साल पहले नौकरानी ना होकर ससुराल में उसकी पहली सखी बनी थी। उसने अनजाने में पूछा, “ झुमरी….. बड़े दादा घर पर हैं…?” झुमरी ने कहा, “ हां है ना……. पर 1 मिनट रुकिए ,आपको मेरा नाम कैसे पता…?” सारा झेंप गई ,उसने जैसे तैसे खुद को संभालते हुए कहा, “ अरे ….मेरा केस काफी सालों से वकील बाबू के पास है, इसलिए अक्सर मैं यहां आती जाती हूं, तुमने देखा नहीं होगा।” किसी तरह उसे यकीन दिला कर वहां अंदर गई झुमरी ने कहा , “आप यहीं इंतजार करें …..” दीवानखाने में बैठकर वह सोच रही थी कि आज जिस दीवान खाने में मुझे रोक दिया गया, उसी घर के कोने कोने में मैं बेधड़क घूमती थी।


 इस घर की तो दहलीज भी मेरे कदमों की आहट पहचानती हैं, तो क्या तो क्या जीता जागता सुजीत मुझे सिर्फ एक बुरखे की वजह से नहीं पहचानेगा ? और अगर उसने मुझे पहचान लिया तो…? कहीं यहां आने का निर्णय गलत तो नहीं लिया मैंने ? पर यह प्रश्न खुद से पूछने में सारा ने देर कर दी थी पीछे से आवाज आई, “जी नमस्कार, मैंने आपको नहीं पहचाना, क्या मैं आपका केस लड़ रहा हूं?? आजकल कुछ याद नहीं रहता….।” सारा ने अपने हाथ को दिल पर रख लिया जैसे कि अपनी धड़कनों को पकड़कर रखना चाहती हो। अपनी आंखें बंद कर वह सुजीत की ओर मुड़ी, धीरे से उसने अपनी आंखें खोली, अब उसका अतीत उसके सामने वर्तमान बनकर खड़ा था सूजीत उससे उसके बारे में पूछ रहा था पर अब सारा को कहां कुछ सुनाई दे रहा था ।वह अपने मन में सुजीत से वार्तालाप कर रही थी, “ओह! सुजीत यह तुमने अपनी क्या हालत बना ली है? तुम्हारा रुबाबदार चेहरा इतना फीका क्यों पड़ गया? बालों पर सफेदी और यह तुम्हारी जादू करने वाली आंखें इतनी पीली कैसे पड़ गईं ? क्या तुम्हें मैं याद हूं ?” 


वह जाकर सुजीत से लिपट जाना चाहती थी , उसे छूना चाहती थी, पर वह बेबस थी, बुर्के के अंदर उसकी आंखें सावन बरसा रही थी। कमरे के सन्नाटे को तोड़ते हुए सुजीत के शब्द खाली घड़े में कंकड़ की तरह खनके , “मोहतरमा आपने बताया नहीं, आपको मुझसे क्या काम था” सारा ने स्थिति संभालते हुए कहा, “ जी…. जी मैं वह मैं शोनाली की सहेली हूं , कई सालों बाद कोलकाता लौटी हूं, मेरा नाम शाहीन है, मुझे पता चला यह उसकी ससुराल है ।” सुजीत के चेहरे पर ऐसी छाई उदासी छाई मानों पहले से पतझड़ से जूझ रहे जंगल में आग लगा दी हो ।सुजीत ने साहस जुटाते हुए कहा, “ शायद आपको पता नहीं ,आज से 5 साल पहले शोनाली जिस रेलगाड़ी से सफर पर निकली थी, वह रेलगाड़ी कभी वापस कोलकाता नहीं आई। वह रेल पता नहीं मेरे शोनाली को किस स्टेशन पर उतार आई ।सब खत्म हो गया, मेरी शोनाली…. मेरा जीवन, सब खत्म हो गया………... पर शाहीन जी! पता है मुझे आज भी शोनाली के होने का एहसास होता है।” सारा घबरा गई उसने अपने नकाब को हर तरफ से ठीक किया। आगे सुजीत ने कहा, “ आज भी घर के हर कोने में उसकी खिलखिलाहट है, बगीचे की गीली मिट्टी में उसके पैरों की छाप है, तानपुरे की हर तान उसकी आवाज की झंकार है। लोग कहते हैं कि मेरी शोना मर गई पर मैं नहीं मानता …… वह तो मेरे साथ यहीं इस छत के नीचे है ।” इतना कहते ही सुजीत के सब्र का बांध टूट गया। वियोग वेदना बनकर आंखों से बह निकला। करुणा की यह बाढ़ सारा को अपने साथ बहा कर ले ही जा रही थी कि तभी सूरज का फोन आया। सारा अतीत के कुंए से निकलकर वर्तमान की जमीन पर पहुंची उसने फोन उठाया, “ हां मैं बस आ रही हूं।” इतना कहकर रख दिया। वह सुजीत की ओर बढ़ी , “सुनिए मुझे माफ करें ,जाने अनजाने पुरानी बातें छेड़ कर मैंने आपका दिल दुखाया है। मैं आपसे बस यह कहना चाहती हूं कि ऐसा होता है ,कभी-कभी एक ही रास्ते पर चलने वाले हम सफरों की मंजिल अलग हो जाती है । ना चाहते हुए भी किसी ऐसी दुनिया में जाना पड़ता है, जिससे वापसी असंभव हो जाती है, उस नई दुनिया में नई परिस्थितियां जन्म लेती हैं जिनके अनुसार चलना ही नियति बन जाती है। मैं आपका दुख तो काम नहीं कर सकती, पर हां आपसे कहना चाहती हूं कि परछाइयों का हाथ पकड़कर, अंधेरे में रास्ता ढूंढना बंद कर दीजिए ।…...चलिए अब मैं चलती हूं…” सारा ने अपना रुख मोड़ लिया ।उसका एक एक पैर जैसे कई मन भारी हो गया था । फिर से एक बार उस देहलीज़ को लांघने की हिम्मत वह करने जा रही थी। तभी सुजीत ने आवाज दी , “सुनिए ….शाहीन जी, आप कहां रहती हैं ,अगर समय मिले तो फिर आइए। आज आपसे बात करके अच्छा लगा ,कृपया फिर आइएगा।” सारा अपने आप को किसी तरह समेट रही थी उसने रोते हुए रुंधे गले से कहा , “सुजीत जी, मैं यहीं कुछ अढ़ाई कोस पर रहती हूं , पर शायद आज के बाद कभी ना आ पाऊं। हम आज - कल में ही शहर छोड़कर जा रहे हैं।” 


सारा वापसी की ओर चल पड़ी वह घर से निकल कर होटल की ओर चल दी। हाटेल में नीचे बगीचे में ही बैठकर उसने जी भर कर विलाप किया। जैसे वह कोठी में शोनाली का अंतिम संस्कार करके आई हो ।उसके वर्तमान और अतीत के बीच की दूरी सिर्फ अढ़ाई कोस थी। पता नहीं यह अढ़ाई कोस का रास्ता ही मंजिल था या उसके दो छोर। आगे सफर शुरू करने से पहले किसी एक छोर से अपना दामन छुड़ाना जरूरी था। तभी सूरज बगीचे में आया उसने सारा का हाथ पकड़ा और कहा, “ सारा तुमने मुझे जीवन की सबसे बड़ी खुशी दी है , मेरे खालीपन को पूरा भर दिया , परिवार इस शब्द के मायने मुझे तुमने सिखाएं ।” सारा अवाक सी उसे देख रही थी ।उसे लगा जैसे वह उसके अंदर चल रही कशमकश को जानता है ,और रुकने को कह रहा है । पर बात कुछ और ही थी। आगे सूरज ने कहा, “ सारा अब मैं परिवार को जीऊंगा, अब मेरा भी परिवार होगा ,क्योंकि हम माता पिता बनने वाले हैं। अभी दिल्ली से डॉक्टर का फोन आया था। सारा तुमने मेरे जीवन से अनाथ का कलंक मिटा दिया।” 


 सारा खुश थी कई दिनों बाद इस आनंद की अनुभूति उसे हुई थी सारा अपना परिवार खो चुकी थी ऐसे में इस खबर ने उसे नया जीवनदान दिया था। और मन ही मन ,उस अढ़ाई कोस के रास्ते को एक खूबसूरत मोड़ देकर, उसने हमेशा के लिए छोड़ दिया।

  


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