Dr. Poonam Gujrani

Romance

3.9  

Dr. Poonam Gujrani

Romance

आइ लव यू मंगला

आइ लव यू मंगला

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सांयकालीन सैर से वापस आकर बनवारीलाल ने अभी जूते खोले भी नहीं थे कि बहू ने पूछा- "पापा आप रात के खाने में क्या खाएंगे....? क्यों कि हम सब तो बाहर जा रहे हैं।"


"अच्छा...." बनवारीलाल ‌ने विचारते हुए कहा। वैसे आज रविवार तो नहीं था, किसी की शादी हो ऐसा भी याद नहीं आ रहा। शायद किसी के जन्मदिन या वर्षगांठ की पार्टी होगी उन्होंने मन ही मन सोचा....। वैसे मुझे इससे क्या.... अपने विचारों को झटकते हुए उन्होंने जूते रेक में रखे और बहू की ओर मुखातिब होकर बोले- "ऐसा करना बेटा, तुम दो फुलके बना देना, मैं दूध के साथ खा लूंगा"।


"पापा, तीन फुलके सुबह के रखें हैं। आप अगर...." बहू ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था पर बनवारीलाल समझ गये थे कि बहू की नीयत फूलके बनाने की नहीं है। पर सुबह की घी वाली रोटी खाएंगे तो उन्हें गैस हो जाएगी।आज सुबह भी बहू ने बिना मिर्च की सब्जी भी नहीं बनाई तो उन्हें तेज़ मिर्ची-मसाले वाली तरकारी खानी पड़ी, अब तक खट्टी- खट्टी डकारें आ रही है। इस उम्र में पेट को संभालना, हाजमे को दुरुस्त रखना किसी बिगङैल औलाद को संभालने से कम नहीं है उन्होंने मन ही मन सोचा। प्रत्यक्ष में बोले- "इस उमर में सुबह की रोटी नहीं खा पाऊंगा, तुम्हें तकलीफ तो होगी पर....."।


"तकलीफ होगी...आपकी बला से.... कहेंगे मीठा-मीठा....पर चाहिए सब ताजा-ताजा....अब दो बनाओ की दस....काम तो उतना ही फैलेगा....आटा लगाओ, रोटी बनाओ, स्लैब साफ करो.... दिन-रात करते रहो इनकी चाकरी...." बहू भुनभुनाते हुए उठ गई थी।


बनवारीलाल के कानों ‌में मानो किसी ने पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो.... तौबा... तौबा....दो रोटी बनाने में इतनी तकलीफ़....मैनें कौनसे बत्तीस भोजन तैंतीस तरकारी मांग ली....। हद है भाई.... उन्हें तेज़ गुस्सा आया पर पी गये। गुस्सा भी तो वहीं पर किया जाता है जहां कोई सुनने वाला हो। आजकल बनवारीलाल का गुस्सा जितना तेजी से आता है उतनी ही तेजी से छू-मंतर भी हो जाता है पर शांत होते गुस्से के साथ मंगला की याद तेजी से आई और चिपक गई गलबाहियां डालकर....।


याद नहीं मंगला के रहते उन्होनें कभी बासी रोटी खाई हो.... रोटी के साथ तरकारी के अलावा दस चीजें और धर देती थी- मिठाई, नमकीन, पापङ,अचार, दही, छाछ जाने क्या क्या.....। पर आज....सोचकर उन्हें चक्कर आने लगे...।


"बहू रहने दो, मैं सुबह की रोटी ही खा लूंगा.... तुम्हें बेकार परेशानी होगी.... मेरी वजह से जाने में लेट न हो जाए, वैसे भी तुम्हारे हाथ की रोटी मुलायम होती है,चल जाएगी....।"


बहू को तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई। अपनी आवाज को मुलायम बनाते हुए पूछा- "आपको चाय पीनी है पिताजी....?"


"कोई खास तलब नहीं है बहू, अपने लिए बनाओ तो मेरी भी बना देना वरना रहने देना.... "बनवारीलाल ने अपनी तलब को जबरदस्ती दबाते हुए कहा। इस उम्र में अपनी इच्छाओं को दबा देना ही श्रेयस्कर होता है अपने आपको समझाने लगे थे वे....।


"मैं अपने लिए बनाने जा रही हूं आपकी भी बना दूंगी" कहते हुए बहू रसोई में घुस गई।


"चलो ये भी ठीक है" .... कहते हुए बनवारीलाल ने लम्बी नि: श्वास छोड़ी।


वाह री जिंदगी..... लाखों की जायदाद आज भी मेरे पास है, ये घर भी अभी मैनें बेटे के नाम नहीं किया। इकलौता बेटा है तूं मेरा, मरने के बाद तुम्हारा ही है कहकर बेटे की इस तरह की पेशकश वे कई-कई बार ठुकरा चुके हैं। बैंक एकाउंट में भी काफी पैसा जमा है इसके बाद भी अगर एक प्याली चाय और दो ताजा गर्म रोटी के लिए तरस जाए तो उन बूढ़ों की क्या हालत होती होगी जिनके पास जमा पूंजी के नाम पर अतीत की यादों के अलावा कुछ भी नहीं होता ।


बनवारीलाल ने आराम कुर्सी पर आंखें बंद की तो तुरंत मंगला मैडम उपस्थित हो गई-" इसीलिए कहती थी- थोङा बहुत रसोई काम हर मर्द को आना चाहिए।पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए । अपने हाथ जगन्नाथ होते हैं" । वो हाथों को नचाकर बोली तो बनवारीलाल हंस पड़े।


" आपको हंसी आ रही है। अरे भई, जरूरत पूछकर तो नहीं आती ।कम से कम आदमी को भूखा तो नहीं रहना पड़ता....पर आपने तो चाय बनाना भी नहीं सीखा.....उस समय अगर मेरी बात सुन ली होती तो आज यह दिन ....." । मंगला की अधूरी बात का अर्थ और दर्द दोनों को बखूबी समझते थे वो, पर क्या कहे.....जो देह से अनुपस्थित हो उसकी बात का क्या जवाब देते वो....जब से मंगला गई है बनवारीलाल का आधा दिन और पूरी रात इसी तरह की प्रतिध्वनियों से आच्छादित रहती है।


बनवारीलाल की आंखों से आंसू छलक कर गालों पर लुढ़क गये, मानो मंगला ने अपनी उपस्थिति को जीवंत कर दिया हो।


जब तक मंगला थी गृहस्थी का कोई काम उन्होंने किया हो ऐसा उन्हें याद नहीं। बस आर्थिक पक्ष का ध्यान रखना ही उनकी जिम्मेदारी थी। जिस पर उनकी पकड़ हमेशा ही बङ़ी मजबूत रही। उनके कपङ़े के व्यापार ने सदैव उनका साथ दिया जिसकी बदौलत घर बनाना, बच्चों की पढ़ाई, शादियां सब आराम से संपन्न हो गई और जरूरत भर पैसा आज भी हाथ में है। यूं मंगला के हाथों में अच्छी बरकत थी। फिजूलखर्ची तो नाम मात्र भी नहीं थी। न ज्यादा महंगें कपड़ों और गहनों का शौक, न ही कहीं किटी पार्टी, न ही आए दिन फिल्म जाने की ललक, न होटलों का कोई शौक। सदैव दूसरों कुछ खुशी में खुश होती वो सुधङ गृहणी बनवारीलाल के किसी पुण्य का फल रही थी।


यूं बनवारीलाल भी भरपूर प्यार और इज्जत करते थे अपनी पत्नी मंगला की, पर कभी उसके सामने इस बात का इजहार नहीं कर पाये। काश! कभी उसकी तारिफों के पूल बांध पाते, कभी बालों में गजरा लगा पाते, कभी बांहों में बांहे डाले घूमने जा पाते, कभी फिल्म देखते हुए किसी रोमांटिक सीन पर थियेटर में ही बांहों में जकड़ा लेते ऐसे न जाने कितनी बातें जो वे करना तो चाहते थे पर कर नहीं पाये। कभी आई लव यू मंगला.... जैसे अदद चार शब्द भी नहीं बोल पाये। रोजमर्रा की भागम-भाग का असर कहें या जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हुए इंसान की मजबूरी या फिर इसे झिझक नाम दें पर सच्चाई यही थी कि कहने सुनने की बहुत सी बातें मन में धरी की धरी रह गई।जिसकी कसक मंगला के जाने के बाद उन्हें हमेशा महसूस होती रही पर अब पछताए क्या त हो जब चिङिया चुग गई खेत।


वो सोचते काश! कभी तो मंगला को पास बिठाकर हाथों में हाथ लेकर आई लव यू कहा होता, कभी तो गाङी में बिठाकर बेमतलब दूर तक सैर करवा दी होती, कभी शाम को आते हुए खुशबू से लबरेज वेणी ले आते , कभी तो कोई सरप्राइज दे देते, पर नहीं..... ऐसा कुछ भी नहीं कर पाये वे....। यहां तक कि माता वैष्णोदेवी के दर्शन करवाने के लिए मंगला ने कई बार कहा पर उसकी ये इच्छा हर साल अगले साल पर टल जाती और वे इसे भी पूरी नहीं कर पाये। गृहस्थी और जिम्मेदारियों की चक्की में पिसते हुए कब मंगला की इच्छाएं उसकी मौन साधना में तब्दील हो गई पता ही नहीं चला।


जब उनकी शादी हुई हनीमून जाने का प्रचलन शुरू हो चुका था पर शर्मीले बनवारीलाल ये सुख भी मंगला को नहीं दे पाये। कभी-कभी शुरुआती दिनों में मंगला हनीमून पर न ले जाने का मीठा ताना बनवारीलाल को देती पर वे हंसकर कहते-   " जब भी घूमने जाएंगे तभी हनीमून समझ लेना , प्रेम कभी पूराना होता है क्या, घूमने जाना कौनसी बङ़ी बात है, बस जिम्मेदारियों से जरा राहत मिले तो चलें....." पर न नौ मन तेल हुआ न ही राधा नाची.... ।


पहले माता पिता की सेवा, फिर बच्चे, गृहस्थी के सैकड़ों झंझटों कै बीच सैर-सपाटा, मौज- मस्ती कै लिए अवकाश कहीं था ही नहीं।


उन्होंने देखा काव्या और कुंतल दोनों ट्यूशन से घर लौट आए थे।आते ही बस्ता फैंका और चढ़ गये बनवारीलाल के कंधों पर- दादू, चलो.... नीचे चलते हैं। बस यही कुछ पल होते हैं जब बच्चों के साथ वे बच्चा बनकर सब कुछ भूल जाते हैं.... इनकी मुस्कराहट देखकर जिंदगी को दो पल का सकून मिलता है।


बनवारीलाल कुछ कहते इससे पहले बहू की आवाज आई -"चलो छोड़ो दादू को।आज पार्टी में जाना है। पापा आते ही होंगे। पहले कुछ खा पी लो फिर पार्टी के लिए तैयार हो जाओ।"


अनुशंसित बच्चों की गलबाहियां ढीली पड़ गई....वो मां के पास दौङ गये।


काव्या आठ साल की थी तो कुंतल दस साल का। बस इनकी संगत में बनवारीलाल सारी व्यथा भूल जाते हैं। निश्छल, निष्कपट इनकी मुस्कराहट, मीठी-मीठी बातें, छोटी-छोटी फरमाइशें मन मोह लेती है। जब भी इनके साथ होते हैं दुनिया को क्या, खुद को भी भूल जाते हैं वे।


बच्चों की दुनिया ‌मनोरम होती है।बनावट से दूर एकदम सच्ची। सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम् का रूप देखना हो तो कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं, बस बच्चों को जी भर निहार लो, इनकी मासुमियत को आंखों में भर लो, उनके साथ बच्चे बन जाओ....सारा तनाव, सारी थकान , सारी परेशानियों छुमंतर.... सोचते हुए बनवारीलाल बालकनी में आ गये।


हलकी सी ठंडी हवा ने उनका स्वागत किया तो उन्होंने दोनों हाथों को आपस में लपेट लिया....। मंगला फिर उपस्थित थी...." अरे मफलर, शॉल कुछ तो लपेट लो बदन पर आपको ठंड लग जाएगी.... फिर न कहना कि बताया नहीं...."।


बनवारीलाल हल्के से मुस्कुरा दिए फिर किसी ढीट बच्चे की तरह वहीं कुर्सी खींच कर बैठ गए। देखा पवन भी आ गया है।बहू उनकी चाय बालकनी में पकङा गई, जिसे वे घूंट-घूंट पी रहे थे। पी क्या रहे थे बाकायदा निगल रहे थे। न अदरक, न इलायची बस कम चीनी वाला गर्म पानी भर थी ....।


"हां, आज बहू के जाने के बाद खुद अपनी चाय बनाऊंगा।अदरक, इलायची, डालकर मसाले के साथ अच्छी शक्कर वाली मीठी चाय....और उसी के साथ खा लूंगा दो रोटी सुबह वाली.....।" रोटी के बारे में सोच कर मूंह का जायका फिर बिगड़ गया पर कोई उपाय नहीं था.....।


चाय सुङक कर वे रसोई में कप रखने गये, देखा बहू बेटे के कप पहले से ही धूले हुए हैं। उन्होंने चुपचाप अपना कप धोकर रख दिया....। हाय री किस्मत! किसी मर्द को बुढ़ापे में बिना ‌औरत का न रखना....न जीते बनता है....न‌ मरते....।


वो अपनी राय राम लिखने वाली पुस्तक उठकर फिर बालकनी में आकर बैठ गए।हवा में ठंडक अब ओर बढ़ गई थी। सब पंछी अपने-अपने नीङ की ओर लौट रहे थे। शांत आसमान में बादलों के सफेद टुकड़े इस तरह फैले हुए थे मानो सफेद परियां अपने पंखों को फैलाते हुए नृत्य कर रही हो। अस्ताचल की ओर जाता हुआ सूरज आसमान में अपनी अरुमाणिमा बिखरते हुए धरती से कल फिर आने का वादा करता हुआ मुस्कुरा रहा था। ये सब देखने और महसूस करने के क्रम में उनकी नजर बालकनी की मुंडेर पर रखी हुई तुलसी पर पङ़ी तो लगा झर-झर झरते तुलसी के मुरझाए पत्ते अपनी दुर्दशा की शिकायत सीधे-सीधे बनवारीलाल से कर रहे थे। उन्होंने एक लौटा पानी लाकर तुलसी में डाल दिया और उसे निहारने लगे। दो चार मिनट बाद ही उन्हें लगा कि तुलसी का मुरझाए चेहरे पर मुस्कान लौट आई थी जिसे देखकर उनके चेहरे पर भी स्मित उभर आया था। उन्होंने मन ही मन रोज तुलसी की सार-संभाल करने और पानी पिलाने का संकल्प लिया तो एक आत्मसंतुष्टि से भर उठे वे।


उन्हें याद आया मंगला रोज सुबह तुलसी मैया को पानी पिलाती और सांझ के समय तुलसी के बारे पर दिया जलाते हुए जाने क्या क्या गाती थी।अब तो संध्या दीपक न भगवान के आगे जलता है न तुलसी जी के बारे पर....। जाने कितनी बातें, कितने संस्कार और कितनी परमपराएं है जो मंगला के साथ ही इस घर से विदा हो चुकी है।


बेचारी बहू भी क्या-क्या करे.... घरेलू काम, बाजार, बच्चों की देखभाल, किटी पार्टी, रिश्तेदारी, सहेलियां.....एक अनार सौ बीमार....। सास थी तो सहारा था । वैसे सुबह बाजार से सौदा, ताजा फल-सब्जियां बनवारीलाल ले आते थे, शाम को कुंतल और काव्या को पढ़ा भी देते पर उससे क्या होता है।


मंगला....,अभी इस घर को और मुझे तुम्हारी बहुत जरुरत थी। तुमने तो धोखा दे दिया मुझे ।साथ निभाने का वादा तोङ कर मझधार में छोड़ कर चली गई मुझे....। न देखभाल का अवसर दिया न सेवा का....बस तीन दिन बुखार और ....चली गई....भला ऐसे भी कोई जाता है.... बनवारीलाल की आंखों में नमी उतर आई थी।


"बाबूजी कहां बैठे हो आप। ठंडी हवा आ रही है और आप बालकनी में बैठे हो, ठंड लग जाएगी.... चलिए भीतर...." बेटे ने कहा तो वे आज्ञाकारी बच्चे की तरह उठकर भीतर आ गये। 


बेटा,बहू,पोता,पोती सब पार्टी में जाने को तैयार थे। किसी ने उनसे झूठ-मूठ भी साथ चलने के‌ लिए नहीं कहा।भला कबाब में हड्डी किसी को कब पसंद आने लगी, वैसे भी अब उम्र हो चुकी है मेरी, बच्चों की पार्टी में क्या करना है मुझे.,...अब तो हरि भजन में मन लगाने की बेला है बावरे... बनवारीलाल ‌मन ही मनबुदबुदाये।


पापा आप खाना खा लेना और दवाई लेकर सो जाना। ज्यादा देर तक जागना आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं है।हम लोग लेट हो जाएंगे,आप गेट बंद कर लेना, हमारे पास चाबी है।


बङ़ा ख्याल है मेरी सेहत का, पिछले सप्ताह भर से डॉक्टर को दिखाने के लिए कह रहा हूं। रक्तचाप बढ़ा हुआ है, शुगर की स्थिति क्या है ये भी जानना जरूरी है, सांस भी जरा सा चलते ही फूल जाती है और उखङ़ने लगती है पर कहता है- ये सब तो बुढ़ापे में होता ही है, ज्यादा वहम मत रखो.....। वाह बच्चु वाह.... बूढ़े बाप के पास बैठने के लिए घङ़ी भर का समय नहीं....पर पार्टी के लिए समय ही समय.....इस साहबजादे के पास....पर जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो शिकायत किससे....। दिमाग में फसी इन तमाम बातों के बावजूद प्रत्यक्ष में उन्होंने हामी में सर हिला दिया।


बनवारीलाल हॉल में रखी कुर्सी पर बैठ गये। बच्चे जा चुके थे। अभी खाना खाने का भी मन‌ नहीं था सो उन्होंने टीवी चालू कर लिया। पता चला आज वेलेंटाइन डे है। टीवी वाला विपिन बता रहा था- आज देश का पूरा युवा वर्ग वेलेंटाइन डे के बुखार में तप रहा है,इसकी चकाचौंध से बाजार अटे पङ़े है। ग्रीटिंग, बुके, गीफ्ट आइटम सभी की ज़ोरदार बिक्री है ।सभी अपने-अपने पार्टनर, अपने अपने वेलेंटाइन को खुश करने में लगे हुए हैं।आज प्रेम के इजहार का दिन है, प्यार का दिन है, मोहब्बत का दिन है। जश्न की इस रात के लिए लोगों ने क्लबों,होटलों, थियेटरों में खास इंतजाम किए हैं। जगह-जगह शानदार पार्टियां चल रही है, डांस, डिस्को का आनंद लेते हुए लोग अपने साथी के साथ थिरक रहे हैं, झूम रहे हैं, दोस्तों के साथ इन्जॉय कर रहे हैं। शराब और शबाब भी इस जश्न में अपनी भागीदारी निभाने में लगे हैं।


अच्छा तो ये बात है बेटा-बहू, बच्चे सब वेलेंटाइन डे मनाने गये हैं। हमारे समय में प्रेम तो होता है पर पूरी उम्र निकल जाती थी इजहारे मोहब्बत करने में....। प्रेम भी तो शादी के बाद ही होता था वो भी पुरखों के आदेश पर.... सोचते हुए बनवारीलाल ने ठहाका लगाया।


हमारे समय में तो वसंत पंचमी के दिन को प्रेम का दिन कहा जाता था और मनाया जाता था बिल्कुल सादगी से। पीले फूलों से पीले कपड़े पहनकर मां सरस्वती की पूजा कर ली बस....। प्रेम के इजहार का माध्यम तब प्रकृति थी। चांद, तारे, नदी, पहाङू, फूल और खेत थे 

। फिल्मों तक में दो फूलों का मिलन दिखाकर नायक नायिका के मन की बात दर्शकों तक संप्रेषित कर दी जाती थी।आज की तरह न तो कोई पार्टी थी, न ही महंगे गिफ्ट, न ही कोई शोरगुल.....। बिना दिखावे का सात्विक सच्चा प्रेम जीवन भर महकता था उसकी खुशबू तन- मन में हमेशा के लिए बस जाती मगर चुपके-चुपके। हां यह भी सच है कि तब प्रेम में कोई रिश्क भी नहीं था। न शादी टूटने का रिश्क....न ही प्रेमिका के न मिलने पर कोई एसिड अटैक और न ही खुदकुशी की कोई वारदात....।


वे उठकर टहलने लगे। सामने ही पीले रंग पर लाल बार्डर वाली साङ़ी पहने मंगला की मुसस्कुती हुई फोटो सजी थी, वे उसे निहारने लगे।


हां, प्रेम तो उन्होंने भी किया था मंगला से।जीवन‌ भर किया, जी जान से किया, बस कभी उसे जता नहीं पाये। कभी आई लव यू नहीं कहा, कभी झूठे-सच्चे वादे नहीं किए, न कभी उसके जन्मदिन पर कोई तोहफा लाए, न सालगिरह पर दोस्तों को पार्टी थी। बस मंदिर में जाकर भगवान के‌ दर्शन कर आते, ज्यादा से ज्यादा नये कपड़े पहन लेते और कभी कभार मन हुआ तो घर पर सत्यनारायण की कथा करवा लेते सोचते-सोचते बनवारीलाल कहीं अपने अतीत की झांकियों में खो गये थे। इस समय उनके होंठों पर मुस्कान और आंखों में नमी एक साथ देखी जा सकती थी।


उन्होंने टीवी पर देखा, लोग लाल कपड़े पहने, बङे-बङे फूलों के गुलदस्ते लेकर ग्रीटिंग खरीद रहे थे। पता नहीं अचानक उन्हें क्या हुआ कि उन्होंने आपना पर्स उठाया, घर की चाबियां ली और छङ़ी उठाकर बाहर निकल गये।


शीत हवाओं ने उनका स्वागत किया तो शरीर में झुरझुरी सी हुई पर बिना परवाह किए वे पैदल ही आगे बढ़ने लगे।


जगमगाता शहर, दौङ़ते वाहन, चमकीले लाल परिधान पहने हुए स्त्री पुरुष भागे जा रहे थे मानो सबकी लॉटरी आज ही निकलने वाली हो। सबके बीच चलते हुए बनवारीलाल ऐसे लग रहे थे मानो किसी शानदार फूलों वाले बगीचे के बीच अॉक का पौधा....इन सबसे बेखबर बनवारीलाल का दिल, दिमाग और मन तीनों अपने जीवन के घटनाक्रमों में लगातार उलझ रहा था।


बार-बार मंगला को याद करते , आंसू पौंछते वे नुक्कड़ तक जा पहूंचे। उनकी सांस अब फूलने लगी थी।नुक्कड़ के आइसक्रीम पार्लर पर अच्छी खासी भीड़ थी। जिनकी जेब होटल, क्लब का खर्चा नहीं उठा सकती वे यहां आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक, कोल्ड कॉफी का मजा ले रहे थे।


उखङ़ती हुई सांसों के उतार चढ़ाव को महसूस करते हुए वे वहीं पर एक कुर्सी पर विराजमान हो गये। तभी एक बैलून बेचने वाली लड़की ने पुकारा- दादा बैलून लोगे, घर जाना है, बस थोड़े से ही बचे हैं....।


बनवारीलाल ने देखा लगभग दस-बारह रंग- बिरंगे गुब्बारे थे। गुब्बारे मंगला को भी खूब पसंद थे ।जब बच्चे छोटे थे वो उनके साथ गुब्बारों से खूब खेलते हुए खुद भी बच्ची बन जाती थी। पर अभी वो बैलून लेकिर क्या करे....। बैलून बैचने वाली की आंखों में सच्चाई और मासुमियत उनका ध्यान खींच रही थी। मंगला जब भी बाहर निकलती दो- चार रूपयों की रेज़गारी जरुर लेकर निकलती थी जो जरूरतमंदों में बांट देती थी। कभी वो टोकते तो हंसकर कहती- भगवान का शुक्र है कि हमें लेने वालों की नहीं देने वालों की कतार में रक्खा है और एक-दो रूपयों के बदले आपको लाखों की दुआ मिलती है, फिर इतना सा बचाकर हम कोई महल तो खङ़ा नहीं कर पाएंगे....।


बनवारीलाल ने उस लड़की को पूरे दो सौ रूपए दिए और सारे बैलून खरीद लिए। लङ़की विस्फारित नेत्रों से उनको देखते हुए बैलून उन्हें देकर चली गई। पर जाते जाते भी तीन-चार बार मुङ़-मुङ़कर पीछे देखती रही।


बनवारीलाल हाथों में पकड़े रंग-बिरंगे बैलून निहार रहे थे, आंखों से टप टप टप आंसू बह रहे थे। फिर अचानक जाने उन्हें क्या हुआ। उन्होंने आंसू पोंछे और बीच सङ़क पर आ गए। बैलून हवा में उङ़ाते हुए जोर से चिल्लाए- "मंगला ....आइ लव यू....आइ....आइ...." उनकी सांस तेजी से फूलने लगी।आस पास खङ़े लोग जब तक कुछ समझते.... उन्हें थामते....वे लङ़खङ़ा गये.... सांस बेकाबू हो गई और वे धम्म से सङ़क पर गिर पड़े, मूंह से अस्फूट शब्द निकले- आइ...आइ...लव....यू....मं...ग...ला....।


लोगों को समझ में नहीं आ रहा था क्या हुआ .... कैसे हुआ.....कौन है ये शख्स....जितने लोग उतनी बातें हवा में तैर रही थी पर उन सबसे बेखबर बनवारीलाल मोह-माया की इस दुनिया से प्रयाण कर चुके थे। उन्हें बहुत जल्दी थी अपनी मंगला के पास जाकर उसे आइ लव यू बोलने की....।






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