सफ़र सपनों का
सफ़र सपनों का
मैं, मैं अपनी आज की इस सफलता को, इस बेस्ट सेलर के तमगे को और अपनी इस ज़िन्दगी को उसे समर्पित करता हूँ जो उस रात के घने साये में उम्मीद की किरण बनकर आई थी।
आसमान में उस रात चाँद भी न था, शायद मेरी नाकामयाबियों से रूठा वो जैसे कहीं चला गया था। हर तरफ़ से निराश, हताश मैं ऑफिस, हम्म! ऑफिस या कैदखाना, से निकलकर यहाँ इस ब्रिज पर चला आया था। जी, इसी ब्रिज के किनारे बनी 4 इंच की पट्टी पर खड़ा मैं समंदर की आती जाती काली लहरों को देखने की, महसूस करने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था। मेरी नाकामयाबियों में एक और नाकामयाबी जुड़ गई थी। आँखों के चारों और घनघोर अंधेरा था और मन के भीतर उससे भी घना! अपने मन से हार आख़िर मैंने उस पट्टी के आगे कदम बढ़ा ही दिया था कि अचानक उसकी आवाज़ कानों से टकरा गई। और कमाल की बात है, बढ़ चुके कदम अचानक ही रुक से भी गए!
"गोला खाओगे?"
मैं पलटा और उसी क्षण स्ट्रीट लाइट भी जगमगा उठी। कम से कम बाहर तो उजाला हो ही गया था। मैं हैरान सा उसकी ओर पलटकर देख रहा था और वो गोला खाने में मगन थी।
उसकी नज़र मुझसे मिलते ही मैंने उसे घूरा तो थोड़ा सा अचकचाकर बोली,"यार, मुझसे अकेले गोला नहीं खाया जाता, लेकिन आज वो गोले वाला टकरा गया तो साथ में किसी के न होने पर भी मैंने उससे ले लिया। अब अकेले मज़ा नहीं आ रहा। खाओगे क्या?"
ये क्या पागलपन था? क्या मैं उसे जानता था? नहीं, तो फिर मुझसे इतनी बेतकल्लुफ़ क्यों हुए जा रही थी वो?
"क्या मैं तुम्हें जानता हूँ?"
"नहीं, पर गोला बाँटने के लिए जानना ज़रूरी नहीं!"
मैंने उसे घूरा तो बोली," यार! यहाँ से गिरने पर मरोगे नहीं, इतनी गारंटी है मेरी। और वो गार्डस देख रहे हो? वो तुम्हें डूबकर मरने नहीं देंगे। अब हाथ पैर तुड़ाकर, घर में बिस्तर पर पड़े रहने का शौक है तो वैसे बताओ। मैं कुछ गुंडों को जानती हूँ, ज़्यादा अच्छा काम कर देंगे।"
यार! ये क्या बकवास कर रही थी वो, मैं ब्रिज पर खड़ा कभी भी कूद सकता था और इसे मज़ाक सूझ रहा था। पर कुछ तो था उसकी आवाज़ में जो रस्सी बनकर पैरों से चिपक गया था मेरे। नहीं कूद पाया मैं!नीचे उतरा तो मेरे हाथ में गोला पकड़ाकर वो आगे बढ़ गई। इसी गोले की तरह ही तो बस चू रही थी मेरी ज़िंदगी। बस धीरे धीरे यूँ ही तो ख़त्म हो रही थी। मैं उस गोले को घूर रहा था और वो वापिस मेरी ओर मुड़ गई।उसने मेरा हाथ थामा और लगभग मुझे खींचते हुए आगे बढ़ गई। एक अनजान लड़की, जिसे न कभी पहले देखा था, न ही जिसे मैं जानता था, उसका हाथ थामे मैं न जाने किस हवा में बहे जा रहा था। मुझे कुछ ख़बर न थी। वो मुझे अपने घर ले गई। मैं अब भी ग़ाफ़िल ही था। कुछ होश न था कि हो क्या रहा है! बस चले जा रहा था, उसके संग, उसके पीछे...
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अगली सुबह जब आँख खुलीं तो वो सामने बैठी कॉफ़ी बना रही थी। मेरी आँखें खुलते ही उसने मुझे गुड मॉर्निंग विश किया जिसका कोई जवाब मैं न दे सका। मेरी सुबह, मेरी रातें, मेरा जीवन अब "गुड" कहाँ रह गया था!
मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए उसने मुझे कॉफ़ी दी जिसे लेते हुए मैं काफ़ी हिचक रहा था। सबसे पहले तो किसी अनजान, वो भी लड़की, के साथ मैं यूँ इस तरह आधी रात को उसके घर चला आया। मुझे असहज करने के लिए इतना ही काफ़ी था। मेरी असहजता को शायद समझ गई वो और बोली,"इट्स ओके! तुम कॉफ़ी पियो। इतना सोचने की ज़रूरत नहीं।"
कॉफी पीते हुए एक बेहद ही जायज़ सवाल आ धमका मेरे सामने,"कल रात क्या कर रहे थे?"
मैं इसी सवाल का इंतेज़ार कर रहा था जैसे, उसने पूछा और मैं फट पड़ा,"मैं थक चुका हूँ। क्यों नहीं समझते वो कि मैं नहीं करना चाहता ये, नहीं होता मुझसे। मेरा दिमाग़ नहीं लगता इस सब में। ये आँकड़ें, ये स्टॉक्स, ये पैसा, नहीं है मेरी मंज़िल। नहीं है मेरा सफ़र। क्यों नहीं समझ आता कि मैं उनकी तरह नहीं बनना चाहता। नहीं बन सकता एक्चुअली!"
वो आँखें फाड़े मुझे देख रही थी। बोली,"किसकी तरह, कौन? किसकी बात कर रहे हो?"
"डैड! कभी नहीं समझे मुझे। नहीं समझ आता उन्हें कि उनकी कंपनी में मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं। उनके कहने पर मैं पिछले तीन सालों से कोशिश कर रहा हूँ लेकिन ये बिज़नेस मेरी समझ नहीं आता। सब कठपुतलियाँ लगते हैं मुझे उस ऑफिस में। रोज़ वही एक काम, वही एक रूटीन। ऐसा नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की। लेकिन मैं नाकामयाब रहा, फेल हो गया पापा को उनका मनचाहा रिजल्ट देने में। समझते ही नहीं वो कि मैं नहीं बना हूँ इन सबके लिए।" मैं हाँफने लगा था।
"किसके लिए बने हो फिर?"
"मैं लिखना चाहता हूँ। लेखक बनना चाहता हूँ। लेकिन वो माहौल ही नहीं मिलता मुझे।"
" लेखन को माहौल की नहीं, मन की ज़रूरत होती है।"बड़ी ही सहजता से बोल दिया था उसने। मैं अब उसे आँखें फाड़े देख रहा था।"
वो अपनी कॉफ़ी ख़त्म करके उठी और शायद मुझे समझ आ गया था कि मैं क्या करना चाहता हूँ!अपनी कॉफी ख़त्म करके मैं अपने रास्ते निकल गया, उसका अहसास मन में लिए!
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ग्लास डोर के आगे खड़ा मैं उसे देख रहा था। वो सागर की लहरों की तरह डोल रही थी। उसकी आँखें, उसके हाथ, बजते संगीत के साथ बह रहे थे और मेरी आँखें उसके साथ यहाँ वहाँ डोल रही थीं। वो बिल्कुल ग़ाफ़िल थी अपने नृत्य में और मैं खोया था उसमें कुछ यूँ कि अपनी भी ख़बर न थी मुझे। चंद लम्हों बाद उसका हाथ पड़ा मेरे कन्धे पर तो होश आया कि बाहर आ गई थी वो।
"कैसा था?"बस एक सवाल पूछा उसने। मैं क्या बताता उसे कि कैसा था बस नज़रें झुका कर सिर ही हिला सका। खिलखिला उठी थी वो। उसकी हँसी ले जा रही थी मुझे कहीं दूर, अपनी झल्लाहटों से, अपनी नाकामयाबियों से!
दिन बीत रहे थे। ऑफिस में मेरा ध्यान अब लगने लगा था। पापा के चेहरे पर सुकून बिखरने लगा था। मैं खुश था। इसीलिए नहीं कि स्टॉक्स उछाल ले रहे थे, इसीलिये भी नहीं कि क़लम को गति मिल रही थी। बस इसीलिये क्योंकि उसका खिलखिलाता चेहरा अब मेरे सामने होता था। वो जब नाचती थी तो मेरा मन भी मोर की मानिंद नाचता था। वो जब डूब जाती थी उस संगीत में, उस धुन में, जब थिरकती थी उस ताल पर तो मेरा मन भी उसके साथ ही थिरकने लगता था उसकी ताल पर।
कुछ तो था जो उसमें अलग था। शायद उसका चीज़ों को, लोगों को, जीवन को देखने का नज़रिया या फिर शायद उसकी मौजूदगी ही, जो सच्चाई से भरी थी। खुशमिज़ाज सी वो जब भी मेरे क़रीब होती तो एक सुकून तैर जाया करता था हवा में जैसे। जब भी कभी सड़क पर होती तो उसका ध्यान कभी सड़क पर न होता। कभी आसमान को देखती तो कभी सरपट दौड़ती गाड़ियों को। हमेशा कहती,"ये सड़क कभी थमती नहीं न?
अगर ये थम जाए तो क्या हो?
क्या हो अगर इसके कोनों पर बैठी कुछ ज़िंदगियों को कोई सुकून दे दे?
क्या हो अगर यहाँ जीवन को ढर्रे पर लाने के लिए बैठे लोगों पर ध्यान जाए किसी का!
क्या हो अगर ये तेज दौड़ती गाड़ियाँ थम जाएँ किसी बेजुबान को देख और न फ़ैले सड़क पर खून उनका जिनके रहने की जगह छीन ली हमने। वो जो कभी कह नहीं पाते कि हमारी जल्दबाज़ी किस क़दर भारी पड़ती है उन्हें!"
वो बोलती जाती और मैं बस सुनता जाता। बहुत कमज़ोर सी थी वो। आँखों के नीचे गड्ढे, ऐसा लगता था जैसे सदियों की बीमार है, लेकिन उसकी आँखों की चमक! ऐसी थी कि उसकी आँखों से नज़रें हटने ही नहीं देती थीं। मैं बस उन आँखों में ही खोकर रह जाता था।
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हमेशा की तरह आज भी उसकी नृत्य कक्षा के बाद उसके बदन से बह रहे पसीने को अपने रुमाल से साफ़ करता मैं उसे अपने बेहद क़रीब महसूस कर रहा था। थकी हारी सी वो मेरा हाथ थामे कक्षा के एक कोने में जा बैठी। जब भी वो नाचकर हटती तो उसके चेहरे पर अलग ही नूर होता
था। जैसे कि उन धुनों को जीती थी वो।
मैंने उससे पूछा," तुम्हें ये सब बहुत भाता है न?"
"बहुत?" आँखें चौड़ी करती हुई वो बोली।
"बेहद....
दीवानी हूँ मैं संगीत की। जब जब उपकरणों से उठती धुन सुनती हूँ तो लगता है कि जैसे बाँसुरी की लय मुझमें से ही कहीं उठ रही है। जब जब ढोलक पर थाप पड़ती है तो मेरा दिल ख़ुद पर एक थाप महसूस करता है। जब भी घुँघरू छनछनाते है मेरे पैर ख़ुद ब ख़ुद ही हिलने को बेक़रार हो जाते हैं। ये संगीत, ये नृत्य मेरी रग रग में समाया है। तुम जानते हो, घर पर पापा हमेशा चाहते थे कि मैं इस सबपर पर ध्यान न देकर केवल पढ़ाई पर ही दिमाग़ लगाऊँ। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन ये संगीत मेरी रगों से नहीं निकला। और फिर मैंने संतुलन बिठाने की ठानी।
तुम्हें उस रात ब्रिज पर जब देखा मैंने, तो मुझे अपने ही दर्शन हुए। किसी वक़्त मैं भी यूँ ही हताश और निराश थी। बस फ़र्क़ यही था कि तुम्हारी तरह ख़ुद को गंवा देना मंज़ूर न था मुझे। बड़ी मुश्किलें आईं इस संतुलन को बिठाने में लेकिन आज मैं न सिर्फ़ अपना सपना पूरा करने की तरफ़ कदम बढ़ाए हूँ बल्कि अपने पापा की आँखों के ख़्वाबों को भी पूरा करने की कोशिश में हूँ। इसीलिये कहती हूँ, माहौल नहीं, मन महत्व रखता है।"अक्सर ही ऐसी बातें बड़ी सहजता से कह जाया करती थी। और मैं बस उसकी बातों में ही सुकून ढूँढ लिया करता था।
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दिन ब दिन ढल रही थी वो। बेहद ही कमज़ोर होती जा रही थी। मैं जब भी उससे पूछता तो वो मज़ाक में दबा जाती। कहती,"घरवाले खाने को नहीं देते न, इसीलिये पतली हो रही हूँ।"
लेकिन मैं जानता था कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है। बेसुध सी नाचती वो अब हाँफने लगी थी। पूरा चेहरा उसका ढलता जा रहा था। आँखों की चमक भी जैसे अब खोने को जा रही थी। धीरे धीरे वो अब पहले जैसी नहीं रहती जा रही थी। मैं ज़िद करता कि चलो डॉक्टर के पास चलो, लेकिन वो हमेशा ही मेरा हाथ पकड़कर मुझे दूसरी ही दिशा में खींच ले जाती। मैं चाहकर भी कुछ कह नहीं पाता था उसे।
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बड़ी संजीदगी से वो अपनी नृत्य साधना में रमी हुई थी। उसका एक ही सपना था। खचाखच भरे हॉल में, वो सबके सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करना चाहती थी। लेकिन उसके सपने पूरे होने में कसर थी , और उसकी वजह थी पैसा! न ही उसको स्पॉन्सर्स मिलते थे और न ही इतना पैसा था कि ख़ुद अपने लिए कुछ कर पाए। वो कुछ कहती तो नहीं थी लेकिन आँखें, उसकी ख़ामोशी, सब कुछ बोल जाती थी।
एक दिन मैंने उसे अपने क़रीब बिठाया। उसके बालों में मैं हाथ फेर रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई थी। शायद उसे अच्छा लग रहा था। आज बहुत थकी हुई सी लग रही थी। शायद जब अपनी मेहनत का कोई सकारात्मक परिणाम न मिले तो थकावट तारी हो ही जाती है।
मैंने उसके सिर को उठाते हुए देखा तो बड़ी ही ज़हीन होकर बोली,"क्या मैं कभी अपना सपना पूरा नहीं कर पाऊँगी?"
मैंने उसे बहलाते हुए कहा,"अरे ऐसा क्यों कह रही हो? तुम ज़रूर कामयाब होंगी देखना।"
मुझे गहराई से देखती बोली,"तुम जानते हो, पैसा बड़ी बुरी चीज़ है। अक्सर काबिलियत से मौके छीन लिया करता है!"
उसकी बात सुनकर मैं सन्न रह गया। जानता था कि भ्रष्टाचार सब जगह फैला है लेकिन जब तक किसी बहुत करीबी के साथ न हो हमें फ़र्क कहाँ पड़ता है!
उसी के इंस्टीट्यूट से न जाने कितने ही उससे कम काबिलियत वालों को आगे बढ़ता देखा था मैंने। उसकी बात का गहरा असर रह गया था मुझपर। मुझे अब शायद समझ आ गया था कि उसकी आँखों की चमक गायब होने की पीछे की वजह क्या थी?
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मैंने पापा के सामने अपनी बात रखने की हिम्मत पहली बार जुटाई थी। शहर में होने वाले एक डांस कॉन्सर्ट को अब हमारी कंपनी स्पॉन्सर कर रही थी।
मैं उसके सपने को पूरा करने के बस एक कदम दूर था। मैं जानता था कि उसे बस एक मौके की ही ज़रूरत थी। उसके बाद वो अपनी उड़ान ख़ुद भरने में सक्षम थी। मैंने ज़ोर शोर से तैयारियाँ शुरू कर दी थी, उसकी आँखों की चमक और उसकी मुस्कुराहट वापिस लाने की।
इस सबमें बस एक ही दिक्कत थी। मैं उससे मिल नहीं पा रहा था। उसके सपने को पूरा करने की ज़िद में उसे देखे हुए भी महीना बीत चुका था। उसको बता न सका था कि ये सब उसके लिए ही कर रहा हूँ, उसके आत्मसम्मान को गिराकर उसके सपने नहीं पूरे करना चाहता था। अक्सर मुझसे उलझ जाया करती कि क्यों समय नहीं दे पा रहे मुझे और मैं बस मंच पर थिरकते उसके कदमो को सोचकर मन ही मन खुश हो लेता और उसको बिजी हूँ कहकर टाल देता।
एक दिन अचानक ही सुबह उसका फोन आया। उसकी खनखनाती आवाज़ आज ज़्यादा ही ख़ुश सुनाई पड़ रही थी। लगभग चीखते हुए ही बोली थी वो," मुझे मौका मिल गया। आज सुबह ही सर(उसके नृत्य शिक्षक) का फ़ोन आया। आने वाले शहर के सबसे बड़े कॉन्सर्ट में मुझे परफॉर्म करने का मौका मिल रहा है। आई एम फीलिंग लाइक ऑन टॉप ऑफ द वर्ल्ड! मैं बहुत खुश हूँ। तुम आज मिल सकते हो क्या?"
मैं बस पीछे दीवार से सिर टिकाकर ही रह गया था। ये ख़ुशी, ये खनक ही तो मैं सुनना चाहता था। आज आख़िर मुझे वो मिल ही गया था जो मैं चाहता था।
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उसके कदम थिरक रहे थे। आज फिर बेसुध होकर वो नाच रही थी। उस बड़े से हॉल में, उबल पड़ने को तैयार भीड़ के बीच आज उसका सपना पूरा हो गया था। उसकी साधना मंज़िल तक पहुँच गई थी। संगीत ख़त्म होने पर तालियों की गूँज ने पूरे हॉल को गुँजा दिया था। लेकिन वो तालियों की गूँज ज़्यादा देर टिक न सकी। अपने कथक के आख़िरी फेरे लेते हुए , तालियों की गूँज के बीच गश खाकर वो गिर पड़ी।
पूरे हॉल में सन्नाटा सा पसर गया। मैं उसे अब गोद में लिए कार की ओर बढ़ चला था। नाक से उसके खून बह रहा था। ऐसा लग रहा था कि एक और नाकामी मुझे जकड़ने को तैयार खड़ी थी।
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बीप बीप बजती मशीनों के बीच घिरी वो मुश्किलों से साँस ले पा रही थी।मेरी आँखों से शिकायतें बह रही थीं। उसकी आँखें खुली तो बस इतना ही कह पाया था मैं,"तुम जानती थीं न?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया था। तब भी मैं समझ गया।
"क्यों किया ये सब? तुम जानती थी कि तुम्हारे लिए ज़्यादा चलना भी कितना खतरनाक है फिर ये सब करने का रिस्क क्यों लिया?"
काँपते होंठो के साथ बस यही कह पाई वो,"मेरा सपना अधूरा कैसे छोड़ देती मैं? जाने से पहले जीना चाहती थी मैं। बस इसीलिये! अब सुकून से मर सकूँगी। तालियाँ रिकॉर्ड तो हो गई होंगी न?"उसकी बुझी आँखों में भी चमक उतर आई थी।
ल्यूकीमिया था उसे। ब्लड कैंसर। लास्ट स्टेज पर थी वो जब उसे मालूम चला। उस बड़े से शहर में इलाज के लिए उसका नंबर आने तक वो लगभग समाप्त हो चली थी। दवाइयों का असर नहीं था और कीमो के लिए पैसे नहीं थे। क्यों नहीं उसने मुझे बताया? अगर मैं उसके इतने भी काम न आ सका तो फिर मेरी मौजूदगी का क्या फायदा था?
ख़ुद पर भी चिढ़ थी मुझे, क्यों मैंने उससे ज़बरदस्ती नहीं पूछा?मैं उसका हाथ अपने हाथ में थामे बस बैठा ही रह गया।
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6 महीने के इलाज़, और कीमो के बाद भी मैं उसे बचा न सका। लेकिन मेरे मन में ख़ुद को बसा गई थी वो। जाते जाते भी अपने सपने के लिए जीने का हुनर सिखा गई थी वो। कोई भी काम को करने के लिए माहौल की नहीं, बस मन की ज़रूरत होती है, इसका अहसास पुरजोर करा गई थी वो।
मेरी ये किताब, उसी चलती सड़क के किनारें बैठे लोगों का दर्द, उनकी तकलीफें और उनका समाधान उप्लब्ध कराती है। उसके साथ रहकर उसकी आँखों से मैं जितना इस सड़क को, इसकी तेजी को और इसके लोगों को देख सका, वो सब क़लम के ज़रिए कागज़ पर उतार दिया मैंने। और कर दी है शुरुआत अपने सपने को पूरा करने के सफ़र की।