Neha Bindal

Abstract Others

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Neha Bindal

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पतिव्रता, माय फुट!

पतिव्रता, माय फुट!

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एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने गिरीश की कनपटी का निचला हिस्सा गुम सा कर दिया था। एक पल के लिए वो कुछ समझ न सका। वो उसे आँसुओं की तह के तले देख रही थी या शायद घूर रही थी ... वो अब भी तय न कर सका था।

वो बस यही सोच रहा था कि अभी कुछ देर पहले तक तो वो उससे यूँ हँसकर बात कर रही थी जैसे कि उससे बड़ा आशना नहीं कोई और अब अचानक ये?? ... वो कुछ भी समझ नहीं पा रहा था।


अभी कुछ दिन पहले बरसों बाद वो दोनों मॉल में मिले थे। वो आज भी उतनी ही ख़ूबसूरत और ज़हीन! शालीनता की मूरत। देखता ही रह गया था वो ... और, फ़िर उसकी नज़रें उसकी मांग पर जा ठिठकीं। सिंदूर से चमचमाती उसकी मांग उसके किसी और का होने की बयानगी दे रही थी। सकुचाते कदमों से उसके नज़दीक गया वो, आँखें झुक रहीं थीं उसकी। अतीत ने काफ़ी इम्तिहान लिए थे उसके। बड़े ही अपनेपन से मिली उसे वो। एक पल को वो स्तब्ध सा रह गया था। हैरत थी उसे, जिस रात बिछड़े थे वो, उस रात तो उसका चेहरा देख वो यही सोचता था कि उसे दोबारा देखेगी तो मुँह न तोड़ दे कहीं उसका!

"कैसे हो गिरीश? घर पर सब कैसे हैं?" ... नज़रों में झाँकती बोली थी वो, कई सवाल छुपे थे उसके इस एक सवाल में।

"ठी..ठीक हैं सब" हकलाता सा बोला वो। बातें बढ़ती गईं और कॉफ़ी स्टेशन आकर कॉफ़ी मग्स का स्टैक भी बढ़ता गया। न जाने कितने ही घंटे बातें करते रह गए थे दोनों।

उस रात के बाद गिरीश को लगा तो नहीं था कि इतनी नार्मल रह पाएगी वो कभी उसके साथ क्योंकि, उस रात एक ज्वाला सी देखी थी उसने उसकी आँखों में, जब प्रीति के साथ देखा था उसे। वो पल तार-तार हो गए थे जो उसके साथ बिताए थे उसने। समझ न सकी थी कि कहाँ कमी रह गई उसके प्यार में जो यूँ धोखा दिया उसने!

उसकी आँखें देख सहम सा गया था वो। वो बस आँखों से ही उसे धिक्कारती निकल गई थी वहाँ से। प्रीति का ऊँचे परिवार और पैसे वाले पिता की बेटी होना भारी पड़ गया था उसके निःस्वार्थ लेकिन गरीब प्यार पर। उसकी धूर्तता पर बस मन कचोटकर ही रह गई थी। कहने के लिए कोई शब्द न मिल सके थे। आईने के सामने खड़ी हुई भी वो बस मन से एक ही सवाल पूछ सकी थी, "क्या कमी थी मुझ में?"

आईना भी जवाब देने में असमर्थ था। लालच का जवाब प्रेम नहीं होता न! इतनी सी बात समझ न सकी थी।

प्रीति से शादी का कार्ड घर तक पहुँचाया था उसने। उस बेग़ैरत को आँखें मिलाने में भी शर्म न आई थी। शादी का कार्ड हाथ में थामे वो बस बैठी ही रह गई थी। उसके साथ बिताए वो लम्हें जो खुशियों भरे थे, उसकी आँखों के सामने तैर से रहे थे। कॉलेज में परवान चढ़ा उनका प्रेम कब क्लास रूम से निकल कर कैंटीन और फिर कैंटीन से निकलकर बाहर उसके घर तक पहुँचा था, किसी को ख़बर न हुई थी। जब-जब वह उसकी माँ और पिता के साथ बातें करता, निहाल हो उठती थी वो। अपने माँ पिता के सामने गर्व से उसका चेहरा खिल जाता कि इतना अच्छा साथी उसने चुना था अपने लिए! लेकिन उसकी पीठ के पीछे उसका साथी ये सब तिकड़म लगा रहा है वो कभी सोच भी न सकती थी।

उसकी और प्रीति की शादी के दिन ही उसने अपने कमरे और मन की अलमारियों को उसकी यादों से खाली कर दिया। खूब घुट घुटकर रोई थी वो और फिर उस घुटन से भी उसने अपना कमरा और मन खाली कर दिया था।

अब उस मन के कमरे में अगर रह गया था कुछ तो उसका झूठ, छलावा और धोखा। जिसे बड़ा ही सहेजकर रखा था उसने, उस दिन तक जिस दिन उसकी मुलाक़ात अरुण से हुई।

अरेंज मैरिज की संस्था के तहत अरुण अपने माता-पिता के साथ उसके घर आया था और उसने बिना आँख उठाये, बिना किसी आवाज़ के इस शादी के लिए हामी भर दी थी।


मॉल की मुलाक़ात के बाद दोनों ने अपने नंबर एक्सचेंज किये और फिर मिलने का वादा लिए दोनों अपनी अपनी राह निकल गए।

नंबर एक्सचेंज करते वक़्त उसने कभी सोचा भी न था कि कभी उसके साथी रहे उस इंसान की सोच अब भी उतनी ही गिरी हुई होगी, या शायद उससे भी बदतर!


टिंग की आवाज़ के साथ उसका ध्यान स्क्रीन पर चला गया। गिरीश का मैसेज देखते ही उसने फ़ोन हाथ में लिया और अरुण के इंतज़ार में बैठी उसके पल कब गिरीश ने छीन लिए, उसे पता न चला।

शुरुआती हालचाल से शुरू हुई बातों का सिलसिला कब गिरीश के जीवन में उफान मारते खालीपन तक जा पहुँचा, दोनों को ही खबर न हुई।

अरुण को गिरीश के साथ हुई बातचीत की इत्तला देते हुए उसने गिरीश से आगे बातें करने की अनुमति ली।

शायद मन के एक कोने में जमी नफ़रत ने अब तरस का रूप ले लिया था।

पुराने साथी में वो एक नया दोस्त देखने लगी थी।

घंटों गिरीश की परेशानियाँ सुनने में बीत जाते। अरुण से समय चुराकर अब गिरीश को दिया जाने लगा।

अरुण ने भी उसकी दोस्ती का लिहाज़ ख़ामोशी से रख लिया।


बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाता गिरीश अब उसके निजी जीवन में झाँकने लगा था जो उसे ज़्यादा पसंद तो नहीं आया था लेकिन न जाने क्या सोचकर उसने हँस कर टाल दिया।

अक्सर ही वो उसे कुछ ऐसा बोल देता जो उसकी समझ के बाहर होता।

कभी उसकी खूबसूरती के कसीदे गढ़ता तो कभी अपने पुराने दिनों को याद कर उसके साथ बिताए लम्हों को प्रीति के संग से तौलता। हालाँकि उसे अजीब लगता था क्योंकि अब कोई मतलब नहीं था इन बातों का। तब तो उसने उसके प्यार पर पैसों को भारी रखा ... लेकिन वो गिरीश की मौजूदा हालात को सोच चुप लगा जाती। वो बस कोशिश करती कि गिरीश की ही सुने। अपने जीवन की खुशियों से वो गिरीश की तकलीफों को बढ़ावा नहीं देना चाहती थी।

एक दिन बातों-बातों में उसने कोशिश की कि वो प्रीति से गिरीश की दूरियों को कम कर सके।

वो उससे बोली, "अच्छा गिरीश! तुम प्रीति के साथ दूरियों को भरने की कोशिश क्यों नहीं करते?"

"मैं ग़लत था, उसमें तुम जैसी बात नहीं! मैंने ग़लती कर दी" ... गिरीश ने जवाब दिया।

उसकी बात सुनकर न जाने क्यों एक सुकून सा तैर गया था उसके मन पर! सुकून इस बात का कि, देर से ही सही लेकिन उसकी अहमियत समझ आ गई थी गिरीश को। शायद मन ही मन अब शिकायतों को माफ़ी दी जा चुकी थी।

अब बस यही इच्छा थी उसकी कि गिरीश और प्रीति का जीवन वो संवार सके जिसके लिए वो कोशिशें भी भरपूर करती।

लेकिन गिरीश उसकी हर कोशिश पर पानी फेर देता और वो हर बार अपना सा मुँह लेकर रह जाती।


उस दिन उसने बड़ी मिन्नतों के साथ उसे अपने घर बुलाया था। प्रीति से बीती रात उसका झगड़ा हुआ था और वो तुनककर मायके का रुख कर गई थी।

अजीब सी स्थिति में थी वो ... एक तरफ़ टूटा हुआ, बिखरा सा गिरीश था और दूसरी ओर इस तरह उसके घर जाने का संकोच ... लेकिन आख़िर में गिरीश की मिन्नतों ने जीत पाई। अरुण से इजाज़त ले वो गिरीश से मिलने, उसे संभालने उसके फ्लैट की ओर बढ़ गई थी।

लेकिन ये क्या ....??? ... गिरीश को संभालने के लिए दी गई उँगली का कब पहुंचा बनाकर उसने उसे थाम लिया, एक पल को वो समझ न सकी।

वो उसे बेतहाशा अपनी ओर खींच रहा था और वो छूटने की लिए बेचैन थी और तभी गिरीश की कनपटी को रौंदता वो थप्पड़ रसीद किया था उसने ...

गुर्राकर वो पीछे हट गया था और दनदनाती हुई वो बोली थी ,"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की? ... क्या सोचकर तुमने मेरे पास आने की हिमाकत की? ... जानते नहीं हो कि शादीशुदा हूँ मैं? ... पतिव्रता औरत को यूँ छूना कहाँ की शराफत है गिरीश ...???"

"पतिव्रता माय फुट!!! ... जब रातों को मुझसे बातें कर रही थीं, तब ख़्याल नहीं आया कि शादीशुदा हो तुम? .. जब हँस हँसकर मेरे साथ कैफ़े में घंटों बिताए तुमने, तब ख़्याल नहीं आया कि शादीशुदा हो तुम?..... और तो और, इतनी रात गए मेरे घर, मेरे एक बार बुलाने पर चली आईं, तब याद नहीं आया कि शादीशुदा हो तुम ... ??? ... हुँह ...पतिव्रता! नाटक बन्द करो तुम। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे थप्पड़ मारने की?"

लाल बरसती आँखें लिए वो बस उसे एकटक देख रही थी।

रातों को उसे समय एक दोस्त की तरह दिया था उसने। उसके ग़मों की ज़मीन पर उसने अपनी शिकायतें पिघला दी थीं, कैफ़े में बैठी कॉफ़ी के घूँट में अपनी उसके प्रति नफ़रत जैसे कहीं चीनी की तरह घोल दी थी उसने। उसके दर्द के पीछे अपने सारे आँसू, उससे मिली सारी घुटन कहीं छिपा दी थी उसने। अरुण के साथ ने उसे गिरीश को माफ़ कर आगे बढ़ने के लिए सदा ही प्रेरित किया और अरुण के साथ की वजह से ही वो इस वक़्त, इतनी रात गए, यहाँ आने की हिम्मत जुटा सकी थी, किसके लिए? उस आदमी के लिए जो आज उसके चरित्र पर लाँछन लगा रहा था!

आख़िर उसकी ग़लती क्या थी? वो ग़लत थी या गिरीश की सोच? सोचती हुई, आँखों में आँसू लिए वो फ्लैट से बाहर निकल गई।


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