Haripal Singh Rawat (पथिक)

Abstract Inspirational

4.5  

Haripal Singh Rawat (पथिक)

Abstract Inspirational

गंवार

गंवार

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गंवार एक ऐसा शब्द जिसकी व्याख्या करना मेरे बस में कभी रहा ही नहीं। ठेठ पहाड़ी परिवेश से सभ्य शहरी बनने की कोशिशों में भी कई बार इस शब्द से रुबरु हुआ हूँ लेकिन बावजूद इसके अभी भी इस शब्द का मूल समझ नहीं आता। अत: मैंने अपने निजी अनुभवों के आधार पर इसका अर्थ साधारण मनुष्य के रुप में लिया है। मेरे विचार से हर वह मनुष्य जो नैतिकता की परिसीमाओं में है, शहरी चकाचौंध से दूर है अथवा दूर रहना चाहता है। सभ्य समाज की नजर में गंवार है।

मैं यह भली प्रकार से जानता हूँ कि आप इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं होंगें अतः मैं आप पर इस बात को मानने के लिये किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डालूंगा।अपने इस तर्क की सत्यता के परिमाण के रुप में मैं आपको एक गंवार की कहानी सुनाता हूँ।

कहानी ? हाँ कहानी ही तो . . . नहीं तो भला कौन सभ्य शहरी, कौन सा सभ्य आधुनिक इंसान इस बात पर यकीन करेगा की उनके सभ्य समाज में अभी भी इस प्रकार के गवांर लोग है, जिनका न होना ही बेहतर है।

यह कहते हुये मैंने सुजीत के कंधे पर हाथ रखा।

अच्छा चलो सुनाओ कौन सी कहानी सुनाना चाहते हो यह कहते हुये सुजीत ने अपने कदमों को विराम दिया और मेरे हाथ को कंधे से हटाते हुये कर्कश स्वर में पूछा।

अध्याय १ उद्गम

कार्बेट राष्ट्रीय अभ्यारण के एक नामी रिसोर्ट में अंकेक्षक के रुप में मेरा पहला दिन कुछ खास अच्छा नहीं रहा। दिनभर दस्तावेजों व लेखे-जोखे के झंझावातों से थका हारा तन मन लिये मैं रिसोर्ट के आंगन में बैठा काले आकाश में जगमगाते तारों से बातें करता व बोन फायर से मिलती हल्की गरमाहट से मिलते सूकून से कुर्सी पर ही सो गया।

यहाँ आसपास बहुत से जंगली जानवर घूमते हैं आपका इस तरह खुले में सोना सुरक्षित नहीं। आप जाकर अपने कमरे में सो जाइये। मैनेजर रामसिंह जी नें मुझे झकझोरते हुयें नीद से उठाया और तोते से लहजे में यह सारी बातें कह डाली।

क्या रामसिंह जी पहाड़ों में रहकर एक पहाड़ी को जंगली जानवरों का डर बता रहे हो।

आप जानते हैं न हमें गुड़ मॉर्निंग बोले हुये हिरण से शेर तक भोजन के लिये नहीं निकलते।

मैंने ठ्ट्ठा करते हुये कहा।

रामसिंह जी मुस्कुराते हुये बोले किसी दिन गुड़ मॉर्निंग मे भोजन मत बन जाना उनका।

चलो चलो आप भी चलो रात हो गयी सो जाओ। मैंने अंगडाई लेते हुये कहा।

आप सो जाइये कुछ कर्मचारी आने वाले हैं मैं उनका इंतजार कर रहा हूँ। इतना कहकर मैनेजर साहब मुख्य द्वार की ओर चल पड़े।

कमरे पर पहुंचकर ऐसी नींद आई कि सुबह के 10 बजे तक आँख नहीं खुली। रविवार का दिन था तो कोई जगाने भी नहीं आया।

मैं नहा धोकर बालकनी मैं धूप सेकने लगा इतनें में एक 20-22 साल का ठीक-ठाक कदकाठी का नया लड़का मेरे लिये कॉफी लेकर आया।

और झिझकते हुये बोला सर्र ००० कौफी!

मैने कॉफी का कप लेते हुये पूछा. . . आप कल रात में आये ? नाम क्या है आपका

सर. . बिज्जु।

ओहो पूरा नाम बताओ।

बिरजेश सर।

कुछ व्यक्तिगत परिचय के बाद बिज्जु मुझ से घुल मिल गया।

घर की विकट परिस्थितियों के कारण उच्च शिक्षा पूरी न कर पाने तथा गरीबी से जूझते हुये वयस्क के शब्द कितने गहन होते हैं यह में भली प्रकार समझ सकता था फिर वह उसी ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा था जिसमें कि मैं। पहाड़ी जीवन कितना कठिन होता है इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। संसाधनों से वंछित होते हुये भी आधुनिक सभ्य समाज के साथ कदम मिलाकर चलने के लिये न जाने कितने त्याग और तप करने पड़ते है। अत: मेरा बिज्जु के प्रति सदभाव स्वाभाविक ही था।

मैं रोज बिज्जु से मिलने तथा बात करने के लिये व्याकुल रहता था। और वह भी छुट्टी होते ही रसोई से कॉफी का कप लिये ऑफिस में आ जाया करता था।

12 वीं मे प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद भी एक युवा अपना भविष्य रिसोर्ट के जूठे बर्तन धोने में खर्च कर रहा था। यह देख में बहुत दुखी था।

और दूसरी ओर बिज्जु 2-3 महीनों में ही रिसोर्ट के सारे कामों मे निपुण हो गया था। हर किसी की जुबां पर एक ही नाम होता था बिज्जु।

दिन बीतते गये और तनख्वाह वृद्धि का समय आ गया। रिसोर्ट का सकल लाभ अपेक्षा से कई बेहतर था। अतः दिल्ली हेड़ ऑफिस से वृद्धि की मंजूरी मिलने के बाद औसतन 15 प्रतिशत की वृद्धि के साथ सभी को वेतन का भुगतान करते हुये मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। इस वृद्धि से बिज्जु बेहद खुश था और में उतना ही चिंतित।

मेरी चिंता का मूल कारण बिज्जु का कमरतोड़ मेहनत के बाद भी एवज में मिलने वाले क्षुद्र प्रतिफल से संतुष्ट होना था। संतुष्टि मतलब विरामावस्था। दूसरा चिंता का विषय मैं खुद। क्योंकि में कब अंकेक्षक से लेखाकार बन गया मुझे पता ही न चला।

मेरे पास अब दिल्ली हेड़ ऑफिस लौटना संभव न था। चूंकि पूरे रिसोर्ट के सभी लेन देनों को मैंने अपने अधीन ले लिया था तथा उन दायित्वों का उत्तराधिकार लेने के लिये कोई भी कर्मचारी उपलब्ध न था। और संस्था को भला और क्या चाहिये था अंकेक्षक, लेखाकार, निरीक्षक, कनिष्ट प्रबंधक जैसे कई पदों का भार उठाने वाला एक ही व्यक्ति था मैं। भला वह क्यों मुझे हेड़ ऑफिस बुलाते।

अध्याय २ आत्म मंथन

मैंने दिल्ली स्थित कई कंपनियों मे लेखाकार/अंकेक्षक के कई पदों के लिये आवेदन भेजे और उनके प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।

महीने बीत गये लेकिन जिन कंपनियों से नौकरी का बुलावा आता वह अपेक्षानुसार मेरी कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे। मुझे भी वह माहौल भाने लगा था शायद इसी लिये कोई अन्य प्रस्ताव मुझे उचित नहीं जान पड़ते थे।

सुबह 7 से 4 बजे तक का दफ्तर, लग्जरी जीवन, लजीज खाना और पूरे रिसोर्ट पर दबदबा। भला कौन संतुष्ट न होता ?

मैं उस माहौल का आदी होने लगा था और इस बात का मुझे बखूबी आभास था। इसी दौरान मुझे एक भाई की शादी में सम्मिलित होने के लिए गाँव जाना था। शादी शनिवार को थी अतः अवकाश के लिये हेड़ ऑफिस ने हामी भर दी। मैं शुक्रवार शाम को दोस्त के साथ बाइक से गाँव के बाजार तक पहुँचा और वहाँ से टैक्सी लेकर गाँव। दो दिन खुद को गाँव की आबो हवा के हवाले कर जो सुकून मिला उसने मेरे मन में संतोष के मिथ्य भावों को उजागर कर दिया था। मेरा मन वापस रिसोर्ट लौटने का नहीं हो रहा था कुछ और दिन अपने गांव में व्यतीत करना चाहता था। पर जिम्मेदारियों के चलते शादी संपन्न होते ही मुझे रिसोर्ट के लिए निकलना पड़ा। गाँव से कोटद्वार के लिये परिवार के लोंगों के साथ ही उनकी कार से निकला। रास्ते में चाचाजी व उनकी पोती के संवादों ने मेरे संतुष्ट भावों की विरामावस्था को पुनः एक तेज धक्का देकर गतिशील कर दिया।

दादाजी दादाजी।

मुझे न हमारी मेथ वाली मेड़म की तरह बनना है।

मैं भी बच्चों को पढ़ाऊगीं, उन्हे अच्छी-अच्छी बातें सिखाऊंगी। 9 साल की गुड़िया ने नटखटअंदाज में कहा।

हाँ बेटा क्यों नहीं। लेकिन ये बताओ हमें गाँव आये 10 से ज्यादा दिन हो गये और तुमने एक दिन भी किताब नहीं खोली। पढ़ोगी नहीं तो टीचर कैसे बनोगी?

वो न वो हम शादी में आये न इसलिये नहीं खोली दादाजी।

अच्छा तो अगर रोज शादियाँ होंगी और तुम रोज किताब नहीं पढोगी।

नहीं दादाजी कल से पक्का दिल्ली पहुंचकर।

उनके ऐसे ही संवाद लंबे समय तक चलते रहे जब तक की गुड़िया तीखे मोड़ो से गुजरती गाड़ी के परेशान माहौल में थककर सो नहीं गयी।

हम कोटद्वार पहुंचे ही थे कि मैनेजर का फोन आया और वह बिज्जु के बारे में बुरा भला कहने लगा।

अरे सर ! ये एक नंबर के गंवार को काम पर रख लिया। उनके शब्द नैतिकता की लीक को पार कर रहे थे अतः मैंने व्यथित मन से उन्हें वहां पहुंचकर बिज्जु के बारे में बात करने को कहा।

मित्र के साथ उसकी बाइक पर में रिसोर्ट के लिए चल तो पड़ा, लेकिन मैनेजर के शब्द मुझे परेशान कर रहे थे।

गंवार ? आखिर जिस बिज्जु की तारीफ करते मैनेजर की जुबान नहीं थकती थी वही आज उससे इतना रुष्ट कैसे ? क्या किया होगा बिज्जु ने ? इन्ही सवालों के जवाब खुद से पूछता में रिसोर्ट पहुंचा।

शाम हो चुकी थी। हमें आता देख बिज्जु रिसेप्शन के पास से भागता हुआ हमारी और आया। आज उसके चेहरे पे गहरी उदासी छायी थी लग रहा था जैसे वह हमसे मिलने के लिए ही वहां रुका हुआ था। मेरे पास आकर उसने मुझसे कहा - सर मैंने कुछ नहीं किया। आप मैनेजर की बातों का भरोसा मत करना।

मैंने बिज्जु के कंधे पर हाथ रखा और कहा की मेरे लिए कॉफ़ी ले आओ रूम पर बात करते हैं।

मैनेजर मेहमानो को देख रहे थे अतः मैं सीधे अपने रूम में चला गया। कुछ देर में बिज्जु और शेफ मेरे पास आये।

ये लीजिये सर कॉफ़ी !

मैंने कॉफ़ी का कप बिज्जु के हाथ से लिया और दोनों को बैठने को कहा। इतने में मैनेजर भी रूम पर आ गए और सबको मीटिंग रूम में आने को कहा। मैं कॉफ़ी का कप लिए बिज्जु और शेफ के साथ मीटिंग रूम में पहुंचा। जहाँ मैनेजर द्वारा बताया गया कि विगत दो दिनों में बिज्जु ने न केवल मेहमानों की खातिरदारी में लापरवाही बरती अपितु शनिवार शाम को हुयी बारिश में जेनेरेटर ऑन कर गेस्ट रूम में लगे सभी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसों को ख़राब कर दिया है। मैनेजर ने पुन: अनैतिक शब्दों का प्रयोग करना शुरु कर दिया। शेफ ने बिज्जु के बचाव में कुछ कहने की शुरुआत ही की थी कि मैनेजर ने उसे भी चमकाना शुरु कर दिया।

मैंने बिज्जु को उसकी बात रखने के लिये कहा लेकिन तब तक वह रिसोर्ट से जाने का फैसला कर चुका था। मैंने बिज्जु को बहुत समझाया कुछ दिन रुकने का आग्रह किया लेकिन वह अपना निर्णय ले चुका था। हेड़ ऑफिस भी उसे रोकने के पक्ष में नहीं था। अत: उनसे बहस करना व्यर्थ था।

अध्याय तीन - परिपेक्ष्य

कहते हैं जीवन में जो कुछ भी होता है वह भले के लिये ही होता है। इस घटना नें मेरे संतुष्ट मन को भी विचलित कर दिया था मुझे अब किसी भी प्रकार से रिसोर्ट से निकलकर या तो हेड़ ऑफिस लौटना था या किसी अन्य संस्था में विस्थापित होना था। मैंने आवेदनों व साक्षात्कारों को प्राथमिकता देना शुरु कर दिया और मेरा चयन एक विश्वस्तरीय कम्पनीं के दिल्ली स्थित ऑफिस में लेखाकार के पद पर हो गया। हेड़ ऑफिस नहीं चाहता था कि मैं रिसोर्ट छोड़कर जाऊँ अतः उन्होने मेरे वेतन को पुन: 35 फीसदी बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। मैं उनके इस प्रताव के बाद कुछ सोच में पड़ गया। किसी प्रकार यह बात स्टाफ को पता चल गयी और उसी शाम शेफ मुझसे मिलने ऑफिस में आया। शेफ ने मुझे बताया कि किस प्रकार मैनेजर ने अपनी गलती की सजा बिज्जु को दी।

सर बिज्जु ने कुछ नहीं किया था । हेड़ ऑफिस से रिसोर्ट के सीईओ वहाँ आये थे जिनके साथ मैनेजर गेस्ट हाउस में पार्टी कर रहे थे। रात बहुत हो चुकी थी और बिज्जु अपने रुम में था इतने में मैनेजर ने उसे मैनेजर के कमरे से शराब लाने को कहा। बिज्जु ने शराब लाने से मना कर दिया तो मैनेजर ने उसे बहुत बुरा भला कहा। बिज्जु अपने कमरे मैं पहुँचा इतने में बिजली चली गयी वह भागता हुआ जैनेरेटर के पास पहुँचा तो देखा मैनेजर जैनेरेटर ऑन कर रहे थे । बिज्जु को पता था कि गेस्ट रुम के लिये जैनेरेटर स्टार्ट करना खतरनाक हो सकता है तो उसने मैनेजर को रोकने का प्रयास किया लेकिन शराब के नशे में मैनेजर ने जैनेरेटर ऑन कर दिया जिससे गेस्ट हाउस का पूरा कनेक्शन जल गया और कुछ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भी जल गये। मैनेजर और सीईओ ने सच जानते हुये भी उस बेचारे को दोषी ठहराया जिस कारण बिज्जु नौकरी छोड़कर चला गया।

बिज्जु के विषय में यह सब जानकर मैं बहुत दुखी हुआ और मैंने ठान ली कि किसी भी कीमत पर अब यहाँ नहीं रुकना है। शायद भावुकता में मेरा वह निर्णय गलत रहा हो लेकिन मुझे उस समय रिसोर्ट से चले जाना ही सही लगा।

हेड़ ऑफिस मेरे निर्णय से नाखुश था अत: उन्होने आखिरकार वेतन वृद्धि के साथ मुझे हेड़ ऑफिस में पदभार संभालने का प्रस्ताव दिया लेकिन तब तक मेरा निर्णय दृढ़ हो चुका था जिसे बदल पाना मेरे लिये भी संभव नहीं था।

मैं एक महीने की सूचना अवधि पूर्ण करने के बाद दिल्ली आकर काम करने लगा। इस दौरान बिज्जु से फोन से सम्पर्क करने की कोशिश की पर असफल रहा दिन बीतते गये और बिज्जु अतीत के किस्सों की तरह धुंधला - धुंधला होकर यादों की किताब के पन्ने सा बनकर रह गया जिस पर जीवन व्यस्तता की धूल जमने लगी।

रिसोर्ट छोड़ने के लगभग चार साल बाद पुन: एकबार उत्तराखण्ड जाने का अवसर मिला। मैं और ऑफिस के लगभग 10 और लोग। दिन भर के सफर के बाद हम शाम को अल्मोड़ा जिले के एक बेहद नामी होटल पँहुचे। खाना खा कर सब अपने कमरे में सोने चले गये और मैं जाकर चौकीदार के साथ बातें करने लगा। इतने में होटल स्टाफ के कुछ लोग किचन के पास शोर करने लगे। चौकीदार टार्च लिये उनकी ओर गया पीछे-पीछे मैं भी। कुछ ही देर में उन्होने मजाक करते हुये चौकीदार को कंधे पर उठा लिया। मैं भी भागकर उनके पास गया। मुझे उनकी ओर आता देख वो चुप हो गये। उनमें से एक लड़का मेरी ओर बढ़ा और बोला अरे ये तो अपने ही भाईजी है। और सबने पुनः शोेर करना शुरु कर दिया। मैंने सब को चुप होने को कहा। वह कोई और नहीं वही शेफ था जिसने मुझे बिज्जु के बारे में बताया था। मैं उसे देखकर बहुत खुश हुआ हम देर रात तक बोनफायर के पास बैठकर पुरानी बातें करते रहे। मैंने बिज्जु के बारे में पूछा तो बस यही पता चला की वह दिल्ली में ही कहीं है। होटल से विदा होते समय मैंने शेफ से कहा हमें उसे ढूँढना चाहिये।

हाँ आपको कुछ पता चले तो मुझे फोन करके बताना और यदि मुझे कुछ पता चलता है तो आपको बताता हूँ यह कहते हुये शेफ ने मुझे अपना मोबाइल नम्बर एक कागज पर लिखकर दिया। मैंने भी शेफ को फोन कर अपना नम्बर शेफ से साझा किया।

पुरानी यादें फिर से ताजा हो गयी थी और उत्तराखण्ड से दिल्ली लौटने पर मैं अपने सम्पर्क सूत्रों की मदद से बिज्जु को ढूँढने लगा। फिर लगभग दो महीने के बाद एक दिन शेफ का फोन आया सर बिज्जु का नम्बर मिल गया वह दिल्ली में ही है। आप खुद बात कर लो।

मैंने बिज्जु को फोन मिलाया और मेरे हेलो बोलते ही उसने मुझे पहचान लिया।

मेरी भी खुशी का ठिकाना न रहा।

उसने मेरा पता लिया और कुछ दो-तीन दिन बाद मुझसे मिलने मेरे घर आ गया।

वह रविवार का दिन था दोनों के ऑफिस का अवकाश। दिन के भोजन के साथ-साथ बातों का सिलसिला शुरु हुआ। बिज्जु से बात करके पता चला की वह सरकारी विभाग में लिपिक के पद पर काम कर रहा है। यह जानकर मुझे जितनी खुशी हुई उससे कई ज्यादा आश्चर्य हुआ। जो युवा पाँच हजार की मासिक आय में सन्तुष्ट था भला वह कैसे खुद के लिये सरकारी नौकरी का परिपेक्ष्य तय कर सकता था। अत: आतुरता के अधीन मैंने अपनी शंका बिज्जु के सामने जाहिर की। अपने चार साल के संघर्ष की रुपरेखा बताने के पश्चात अंत में बिज्जु भावुक हो गया और बोला: उस दिन मुझे जिस तरह बार-बार रिसोर्ट में गाँव का गवांर, दैहाती बेअक्कल, वेवकूफ जैसे शब्दों से मैनेजर व सीईओ ने बेइज्जत किया। मैंने तय कर लिया कि यह गंवार इनसे बेहतर इंसान बनकर दिखायेगा। लेकिन हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि यहाँ अमीर होना ही सभ्य होने की परिभाषा है भले उसके लिये जीवनभर नैतिकता का गला घोंटना पड़े। अंह के चलते बिज्जु जैसे लोंगों को गंवार कहना पड़े। इतना कहकर मैंने बिज्जु को गले लगा लिया। शाम की चाय के बाद बिज्जु ने मुझसे विदा ली और में शून्य होकर कई दिनों तक सोचता रहा कि आखिर सभ्य होने का परिमाण क्या है? आखिर असल जीवन में गंवार कौन है? बिज्जु ? या मैनेजर जैसे लोग ?

इतने में सुजीत ने जवाब दिया: सभ्य असल में वह लोग है जो नैतिक मूल्यो को लिये चलते हैं। इन्ही लोगों की वजह से दुनिया में इंसानियत जिन्दा है।

बिज्जु घर आये तो मुझसे भी मिलवाना।

चलो अब देर हो रही है मिसेज इंतजार करती होगी।

इतना कहकर सुजीत अपने घर चला गया और मैं अपने कमरे की और बढ़ने लगा।


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