Haripal Singh Rawat (पथिक)

Inspirational

4.9  

Haripal Singh Rawat (पथिक)

Inspirational

भागीरथी

भागीरथी

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(यह कहानी सत्य घटनाओं से प्रेरित है, तथा समाज में व्याप्त पितृसत्ता जैसी कई बुराइयों का खंडन करती है। नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए कहानी से सम्बंधित स्थान व पात्रों की पहचान को गोपनीय रखा गया है। यह कहानी केवल समाज में व्याप्त बुराइयों के प्रति पाठकों को जागरूक करने के उद्देश्य से लिखी गयी है, फिर भी यदि किसी के मन को ठेस पहुँचती है तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। )


भागीरथी: प्रथम अध्याय।

दिल्ली देखना बचपन में मेरे लिए एक बेहद खूबसूरत सपने जैसा था। शहर की चकाचौंध जीवन शैली, मेरे बाल मन को मोह ले गयी थी। और भला हम पहाड़ी लोग आखिर उस समय दिल्ली के सिवा जाना भी कहाँ चाहते ? दूरदर्शन पर दिल्ली का ही तो जिक्र बारहां मिलता था। खैर दिल्ली और उत्तराखंड दोनों ही मेरे दिल के बेहद करीब हैं।

लेकिन जो बचपन प्रकृति की निर्मल गोद में बीता हो, वह भला शहर की आबो हवा में कब तक सुकून की साँस ले सकता है? सच कहूँ तो पथिक मन बस बहाने तलाशता है... पहाडों की ओर लौट जाने के।

कई प्रयास भी किये कि रोजगार के लिए उत्तराखंड में ही रुक जाऊं। पर भला कहाँ मन की होती है। यदि सबके मन की होने लगी, तो पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना न बंद कर दे? सृष्टि के सारे नियम अनायास ही न बदल जाएँ ?

लेकिन मैं सौभाग्यशाली हूँ, मुझे कई बार प्रकृति धात्री ने अपनी गोद में पनाह दी है, असीमित स्नेह दिया है। शायद यही कारण है की यह पथिक मन कई बार एक शिशु की तरह धात्री से मिलने की हठ कर बैठता है। 

वर्ष २०१७ में पहाड़ घूमने का और पहाड़ी परिवेश में रहकर काम करने का पुनः अवसर मिला। तिथि तो ठीक-ठीक याद नहीं पर शायद मार्च के महीने में देहरादून स्थित एक पर्यटन क्षेत्र की संस्था की ऑडिटिंग करने का मौका मिला। संस्था व उनकी सह संस्थाओं की १२ शाखायें हिमाचल में और १५ शाखाएं उत्तराखंड में थी जिसमे से कि ५ गढ़वाल मंडल में और १० शाखाएं कुमाऊं मंडल में स्थित थीं।

मुझे घूमने का बेहद शौक़ है। ऊपर से प्रकृति प्रेमी, तो भला कोशिश करता भी तो खुद को उस संस्था से जुड़ने से नहीं रोक पाता। अतः मन की मर्जी के चलते मैं संस्था से जुड़ गया।

उस दौरान मैंने पहली बार गढ़वाल क्षेत्र के टिहरी जिले का भ्रमण किया था। 'बस ' यानि हमारे देश में यातायात का सबसे सस्ता और आसानी से उपलब्ध होने वाला माध्यम। आम आदमी का ही नहीं वरन पहाड़ों पर यातायात की जीवन रेखा और न जाने कितने अजनबी रिश्तों - कहानियों का मूल। उन दिनों मेरा ज्यादातर समय इसी यातायात के माध्यम के इर्द गिर्द या यूं कहिये इसी माध्यम के साथ सफर करते हुए व्यतीत हुआ। लगभग १५ दिनो का उत्तराखंड भ्रमण यानि कि उत्तराखंड के एक कोने से दूसरे कोने तक का भ्रमण। न जाने कितने अजनबी लोग, न जाने कितनी अनसुनी कहानियां, न जाने कितने अनुभव .... देखने - सुनने, जानने व महसूस करने को मिले। और उन्ही अनकही-अजनबी कहानियों में से एक है 'भागू' की कहानी जो ऋषिकेश से लेकर टिहरी तक मेरी उत्सुकता का मूल रही थी। जिन्हें आज भी याद करता हूँ तो आँखे नम हो जाती है। मन झन्ना उठता है यह सोचकर कि क्या... सच में कहीं कोई सच्चे-अच्छे लोगों के दुःख देखने वाला है? यदि है तो उनके साथ न्याय क्यों नहीं होता? क्यों उन्हें ताउम्र जतन सहने पड़ते हैं? मैं नास्तिक नहीं हूँ, पर जब कभी किसी सच्चे इंसान के साथ अन्याय होता देखता हूँ, तो यह सवाल आप ही परवरदिगार की ओर उछल जाते हैं।

उस रोज़ ऋषिकेश स्टेशन ....देर रात से पहुंचा। टिहरी के लिए 'बस' तो थी, लेकिन घने कोहरे के कारण थोड़ा विलम्ब से निकलने वाली थी। ठण्ड काफी थी तो मैंने पास की ही दुकान से एक कप चाय ली और जाकर 'बस' की खिड़की वाली सीट पर जाकर बैठ गया। मेरे साथ ही बगल वाली सीट पर एक बुजुर्ग महिला आकर बैठ गयी। झुर्रियों से भरा चेहरा, सिर पर फटी लाल टोपी से झांकते मैले-कुचैले बाल, हाथ में लाख की नीली चूड़ी, पुराना ठेठ गढ़वाली पहनावा और उसके ऊपर से एक गहरे नीले रंग का सॉल।

मैंने उनकी ओर देखा और विनम्र भाव से नमस्कार की मुद्रा में सिर हिलाया। उनके चेहरे की झुर्रियों से यह अंदाजा लगाना बेहद कठिन था कि उनकी प्रतिक्रिया क्या रही होगी। पर आँखों की चमक से मुझे यह महसूस हुआ कि उन्होंने मेरा अभिनन्दन स्वीकार कर लिया है।  

इन्न ठण्ड कन्द्यायींच ऐंसुक साल...... बब्बा (बाप रे.. ऐसी सर्दी पड़ी है इस बार कि पूछो मत।)

मैंने अपना चाय का कप उनकी तरह बढ़ाते हुए कहा हाँ ठण्ड तो है।

महिला ने झिझकते हुए चाय का कप ले लिया और फिर चुस्कियों के साथ बातों का सिलसिला भी शुरु हो गया।

शुरुआत आम पहाड़ी संवादों से ही हुयी। मेरे बारे में सब कुछ पूछने के बाद वह शांत हो गयी। मुझसे खिड़की की तरफ बैठने का आग्रह करने और बस द्वारा विरामावस्था से गतिशील होने तक वह उसी मुद्रा में रही फिर अचानक से चुप्पी तोड़ पुनः मुझसे प्रश्न करने लग गयी। मैं अक्सर सफर करते समय हल्का संगीत सुनना पसंद करता हूँ। साथ ही अपने बैग में कुछ फल भी रखता हूँ ताकि जब भूख लगे तो होटल और बाहर के खाने से परहेज कर सकूं।

लेकिन संगीत की जगह उस दिन उनकी बातों ने ले ली और भूख उनकी कहानी के आगे बेजान जान पड़ गयी।

मैंने अधीर होकर पूछा, बोडी कख भटैक आणा छौ ? अर कख जाण तुमल ? (ताई जी! आप कहाँ से आ रहे हो? और कहाँ जाएँगें?)

बस यखी भटकी औ... अर अपुर घार लगु बुबा। (बाबू। ..! बस यही से आयी और घर जा रही हूँ ) इतना कहते ही उनकी आँखें छलक उठी।

मुझे यह तो अंदाजा था कि वह दुखी हैं पर कारण ज्ञात न था।

मेरे लाख पूछने पर भी जब उन्होंने मुझे कुछ नहीं बताया तो मैंने भी आगे पूछना उचित नहीं समझा।

मैंने मेरे शब्दों को विराम दिया और आँखें मूँदकर सोने की कोशिश करने लगा। उन्हे शायद मेरा इस तरह गुमसुम हो जाना अच्छा नहीं लगा तो उन्होने अपने भावों को आवाज देना शुरु कर दिया और जब उनके भाव मन की दहलीज पर पहुँचने लगे तो मेरे भाव भी नीर बन आंखों से छलकने लगे। उनको दिलाशा देना और कुछ कह पाना भी मेरे लिए चुनौती से कम न था। अब उन्होने गंभीर हो मुझे उनके बचपन से लेकर उस समय तक के सभी वृतांतो का सार बताना शुरू किया।

बेटा ! जीवन इतना दुखदायी होगा.... यह कभी सोचा ही न था ! हम नौ भाई-बहन थे। आठ बहने और एक भाई। बहनो में सबसे छोटी मैं और मुझसे छोटा मेरा भाई।

मैंने एक गरीब पहाड़ी परिवार में जन्म लिया और वह भी लड़की के रूप में। पापा बकरियों का व्यापार करते थे साथ ही गाँव के कुछ लोगों का हल भी लगाया करते थे। खाने के लिए अनाज खेतों से ही हो जाया करता था और थोड़ा बहुत पैसा... घी दूध व बकरियों के व्यापार से। ११ लोगों का परिवार उस समय किस तरह से गुजर बसर करता होगा आजकल की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। लड़की थी तो घर का काम पैदा होते ही शुरू कर दिया। माँ अक्सर कहा करती थी.... 'भागू' ने तो २ साल की उम्र से ही बर्तन धोने शुरू कर दिये थे।

हाय री लड़की की किस्मत? पैदा होते ही पापा ने पास ही के गांव के प्रधान जी के मंझले बेटे से मेरी सगाई पक्की कर दी थी। एक भ्यलि अर एक जोड़ी लत्ताम, शह्य मांगण ह्वेग्या बल। (एक जोड़ी कपडे और और एक भैली (गुड़) में मँगनी कर दी ऐसा कहते हैं। ) बचपन घर का काम और ससुराल जाने की तैयारी में बीता और १५ साल की उम्र में शादी हो गयी। सास ससुर बड़े ही सज्जन लोग थे। पर जिस लड़के के साथ जिंदगी गुजारनी थी उसने शादी के ५ साल तक जो बर्ताव मेरे साथ किया वह तो कोई दुश्मन से भी नहीं करता। और यही दुख मेरे भगवान स्वरूपी ससुर जी को काल बन निगल गया। सास ने किसी तरह खुद को संभाला ही था कि एक दिन मेरे देवर की गोट (बरसात के मौसम में जानवरों को घर से दूर खेतों में जिस अस्थायी छपरे के नीचे रखा जाता है ) पर आसमान से बिजली गिरी जिस की वजह देवर की मौत हो गयी। सास वह सदमा नहीं झेल पायीं और साल भर के भीतर उनका भी स्वर्गवास हो गया। जेठ जी (पति के बड़े भाई ) बहुत सीधे आदमी थे। जिनकी शराफत का गाँव के कुछ लोगों ने बहुत फायदा उठाया। पढ़े लिखे न होने की वजह से गाँव के कुछ बुरे लोगों ने जमीन के कागजातों पर उनके हस्ताक्षर ले लिए और इस तरह देखते ही देखते हम बेघर हो गए।


भागीरथी: द्वितीय अध्याय।

किसी तरह लड़ झगड़ कर सिर के ऊपर की छत बचाने में मैं सफल तो हो गयी, लेकिन हम दाने-दाने को मोहताज हो गए। चरस में डूबे मेरे पति के कानो में उनके ताऊ जी ने भी मेरे खिलाफ ऐसा जहर घोला कि उन्होंने मुझे पीट-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया और शादी के मात्र दो साल में ही मैंने सास-ससुर, देवर, घर परिवार सब कुछ खो दिया और रही कसर पति ने घर से बेघर कर पूरी कर दी। एक सप्ताह मैंने छन्नी (गौशाला) में जानवरों के साथ व्यतीत किया। खेतों से कच्ची सब्जियां खाकर, ठण्ड में ठिठुरते हुए। नतीजा यह हुआ कि ठण्ड के कारण मेरी तबियत बिगड़ने लगी, मेरा शरीर मेरा साथ छोड़ने लगा। मैं दो दिनों तक अचेत अवस्था में गौशाला में ही पड़ी रही, फिर तीसरे दिन किसी तरह खुद के शरीर को घसीटते हुए गौशाला की दहलीज तक पहुँच गयी। मुझे अच्छे से याद है कि वह माह महीने की संक्रांति का दिन था, हमारे पड़ोस में रहने वाले मेरे पिता समान और रिश्ते में मेरे चाचा-ससुर, उस रोज जब हमेशा की तरह भौर में शौच के लिए जा रहे थे तो उन्होंने मुझे अचेत अवस्था में गौशाला की दहलीज पर लेटा हुआ पाया। किस्मत से उसी रोज वैद्य जी का भी हमारे गाँव में आना हुआ। मेरी हालत गंभीर थी तो चाचा ससुर जी और वैद्य जी ने मुझे गोद में उठाया और अपने आँगन में बिछी चारपाई पर ले जाकर लिटा दिया। चाचा ससुर जी भागकर कुटिया में गए और मेरे लिए एक मोटा ऊन का कम्बल ले कर आ गए। वैद्य जी ने काढ़ा बनाकर मुझे पिलाया तो थोड़ा शरीर में जान आयी। सच में ऐसे भगवान स्वरूपी लोग अब कहाँ मिलते हैं। चाचा ससुर ने मुझे हमेशा खुश ही देखा था, मैंने भी कभी उन्हें अपने दुःख की भनक भी नहीं लगने दी थी। सास ससुर के दुनिया से चले जाने के बाद जिस तरह मैने अपने बिखरे घर को संभाला था इसी वजह से शायद वह मुझे बहुत स्नेह करते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी तो मुझमें वह अपनी संतति को तलाशा करते थे। उस समय आज कल की तरह संचार के साधन नहीं हुआ करते थे। महीनो में जब चिट्ठियां मिलती थी या जब कोई आदमी संदेशा लेकर आता-जाता था तभी अपनों की खैर खबर का पता चलता था। मेरा मायका मेरे घर से दिखता था। लोग जोर-जोर से आवाजें लगाकर आपस में बातें किया करते थे। चाचा ससुर ने मेरे मायके में मेरे बीमार होने की खबर भी उसी माध्यम से पहुंचा दी थी। शाम होते-होते बाबा मेरे घर पहुंच गये। पर मुझे घर पर न पाकर उन्होने मेरे पति से मेरे बारे में पूछना शुरु किया और नशे मे धुत मेरे पति और उनके ताऊ जी ने मेरे बाबा को खरी खोटी सुनाना शुरु कर दिया। धीरे-धीरे उनकी करकश ध्वनियों से पूरा गाँव गूंजने लगा। तब गाँवों में बिजली नहीं हुआ करती थी। बाबा अँधेरे में मेरे आँगन में खड़े थे और में चाचा ससुर के घर पर थी । बेहद निवेदन करने के पश्चात आखिरकार चाचा ससुर मेरे बाबा को किसी तरह से मनाकर मेरे पास ले आये। मुझे देखते ही उन्होने फूट-फूटकर रोना शुरु कर दिया। काश आज जैसा समाज तब भी होता ..... आज एक छोटी सी नोकझोंक तलाक का कारण बन जाती हैं। वहीं उस समय मन में अलग होने का विचार भी नहीं विचरता था।

यह सुनकर मैं मन ही मन सोचने लगा, सच में समाज बदल रहा है... या पतन की और जा रहा है? यह जरुरी है कि हर किसी को सम्मान मिलना चाहिये। महिला-पुरुष एक समान ही हैं। पर न जाने क्यूँ अब ऐसा भी लगता है कि लोगों में सहनशीलता और समझदारी कम होती चली जा रही है। अभी कुछ दिनपहले की ही बात ले लीजिये, मेरा एक मित्र और उसकी प्रेमिका जो सात सालों के प्रेम-सबंध के बाद तीन महीने पहले ही शादी के पवित्र बंधंन में बंधे थे एक मामूली सी बात पर एक दूसरे से हमेशा के लिये कानूनी तौर पर अलग हो गये।

सोचता हूँ... कितना सभ्य और समझदार होता चला जा रहा है आज का समाज।

खैर इतना कहते ही बुजुर्ग महिला नें अपने मैले से आँचल से अपने आँसू पोंछना शुरु कर दिया। इतने में 'बस' संचालक आकर टिकट लेने का आग्रह करने लगा। मैंने जेब से ५०० रुपये का नोट देते हुये संचालक को बुजुर्ग महिला की टिकट काटने के लिये भी कहा।संचालक ने मुस्कुराते हुये और बकाया राशि मुझे सुपुर्द करते हुये कहा 'माता जी की टिकट पहले ही‌ हो चुकी है।' 

मैं जानना चाहता था कि किसने उनके लिये टिकट ली होगी, लेकिन उनकी भावनाओं को ठेस न पहुंचे यह सोचकर मैं चुप हो गया।

संचालक के जाते ही महिला ने मेरी ओर देखते हुये पुन: भरे मन से अपनी आत्मकथा को गति देना प्रारम्भ किया। मेरा मन भी भावों से भर चुका था और आँखे नम थी।

वह बोली- बाबा ने एक जोड़ी कपड़े, गुड़ व थोड़ा सा घी अपने झोले से निकाला और मेरे सिरहाने के पास रख दिया उनकी आँखे नम थी, स्वर रुग्ण और मन में मेरे लिये अथाह प्रेम।

मैंने तेरा बुरा कर दिया बेटी। पर यह गरीब मजबूर था। तेरे ससुर बड़े ही भले आदमी थे और मेरे परम मित्र भी बस उन्ही का अक्ष तेरे पति में भी तलाश रहा था।

किन्तु इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा न था कि वह ऐसा धूर्त निकलेगा।



भागीरथी: तृतीय अध्याय।

बाबा ने चार लोग देख रहे हैं, और लोग क्या कहेंगे? की अंध नीति को दरकिनार कर मन को कठोर करते हुये मुझे घर चलने को कहा।

सच कहूँ तो मेरे मन में एक क्षण को यह विचार आया भी... किन्तु फिर न जाने किस लोभ? किस बदिंश ने मुझे रोक लिया?

बाबा ! जिन्होने जीवन में किसी भी बाधा के सामने हार नहीं मानी थी। आज बेटी के दुख से टूट चुके थे। मैंने बाबा को वापस लौट जाने को कहा। लेकिन उस पल न तो बाबा वापस लौटने को राजी थे और न मैं ही उनके साथ जाने को।

रात काफी हो चुकी थी ..... बाबा जी ने मुझसे सुबह वापस लौट जाने का वादा किया और मेरे सिराहने आकर बैठ गये। सिर पर दुलार भरे हाथों के स्पर्श और उनकी मीठी बातों ने मानो मेरे सारे दुख: स्वाह कर दिये थे। वर्षों बाद जैसे मैं स्नेह से रुबरु हुयी थी। सिर पर दुलार की थपकियों से आँखें धीरे-धीरे भारी होने लगी और मैं मृद स्नेह पा सपनों की दुनिया में कहीं खो गयी।

भौर जब आँख खुली तो खुद को कुटिया में अकेला पाया। बाबा और ससुर जी दोनों को अपने पास न पाकर में थोडा परेशा‌न हो उठी। हड़बड़ाहट में

धुप्प अंधेरी कुटिया से दौड़कर मैं आँगन में आ गयी और ससुराल से मायके तक जाने वाली पगड़ंड़ी को धुँधली आँखों से निहारने लगी।

गदेरे (नदी) से मेरे मायके के लिये खड़ी चढ़ाई वाले रास्ते व पानी के स्त्रोते के पास मैंने बाबाजी को सफेद रंग की कमीज व सिर पर रखे लाल गमछे से पहचाना।

मैं यह तो नहीं जानती कि उस समय बाबा किस अवस्था में घर को लौटे होंगे लेकिन एक पिता कितना मजबूर होता है इस बात से मैं भली प्रकार अवगत हो गयी थी।

मैं कित‌‌नी अभागन हूँ बाबा को सिवा (उत्तराखण्ड में बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर आर्शीवाद लेने की प्रथा।) तक नही लगा पायी थी। छोटे भाई के लिये एक झगुलु (कपड़ा) भी नहीं दे पायी।

दिन इसी कश्मकश में बीता, उधर घर जाकर बाबा ने मेरी स्थिति के बारे में माँ को बताया और शाम को ही एक राहगीर मे पास उनका फ़रमान आ गया। चिट्ठी लिखकर संदेश भेजते तो मुझे शायद बुरा नहीं लगता लेकिन राह चलते राहगीर के पास इतने कटु शब्द?

जैसी भी है... जिन्दा या मुर्दा अपने पति के घर में ही रह। यहाँ हमें दुख देने की जरुरत नहीं है। चाहे तेरा पति तुझे मारे-पीटे या तुझे लाश बना दे। हमें बताने की कोई जरूरत नहीं है। ज्यादा ही हो तो गले में फंदा लगाना और किस्सा खत्म कर देना लेकिन मायके आने की सोचना भी मत।

मैं यूँ तो पूरी तरह हिम्मत हार ही चुकी थी लेकिन फिर भी जो कुछ शेष था उसे माँ के उस संदेश ने खाक कर दिया था। मेरे जीवन का जैसे कोई मूल्य ही नहीं रह गया था। सच में मेरा क्या दोष था? क्यों सब के‌ लिये मैं इतनी गैर हो गयी थी?

मैंने भी सोच लिया था कि तिल-तिल मरने से बेहतर है कि क्षण भंगुर जीवन को समाप्त ही कर देना उचित है।

रुग्ण मन से मायके के रास्ते को निहारती, कभी आंगन पर टहलती खुद से बतियाती, रोती बिलबिलाती तो कभी गौशाला में बंधी भैंस से बातें करती। दोपहर तक मन ऐसे ही विचलित रहा। फिर जब लोग दिन का खाना खाकर आराम कर‌ने लगे तो मौका पाकर, कुछ हिम्मत जुटाकर गौशाला की खूंटी पर टंगी भैंस को बाँधने वाली रस्सी ली और गाँव से कुछ एक आध कोस दूर पानी के स्त्रोते के पास वाले भीमल के पेड़ (पर्वतीय इलाकों के जंगलों में पाया जाने वाला एक खास पेड़ है, जिसका बॉटनिकल नाम ग्रेवीया अपोजीटीफोलिया है, इसे वंडर ट्री के नाम से भी जाना जाता है ) के पास आ गयी। आस-पास किसी को न पाकर मैं भीमल के पेड़ पर चढ़ गयी। रस्सी को भीमल की एक शाखा से बांध मैं जोर जोर से रोने लगी। मन भर चुका था कई दुख चक्षुपटल पर विचर रहे थे और मुझे जीवन शून्य कर देने के लिये प्रेरित कर रहे थे।

भीमल का पेड़ तेज हवा से झूल रहा था, पत्ते सांय-सांय की आवाज करते हुये मुझे जैसे रोकने का प्रयत्न कर रहे थे। पास के ही गाँव के जीतू भैजी की बांसुरी की धुन रोज की तरह ही स्वरों से गुंथी थी फिर भी आज मुझे वह कुछ फीकी लग रही थी। उस भीमल के पेड़ से मेरा ससुराल नहीं दिखता था लेकिन मेरा घर (मायका) साफ नजर आता था। जब कभी भी मेरा मन विचलित होता था तो मैं उस भीमल के पेड़ की छांव में बैठ अप‌ने घर को निहारा करती थी। न जाने मन के कितने भाव मैंने अपने उस अचल बेवाज सखा से साझा किये थे। एक वही तो था जिसे मुझसे कोई शिकायत न थी जो मेरे दुख सुनता था।

बहरहाल मन को थोड़ा और कठोर करते हुये मैंने रस्सी का फंदा बनाया और उसे अपने गले में ड़ाल दिया। बस अब थोड़ी सी और हिम्मत जुटाना बाकी था और फिर सब दुख हमेशा के लिये शू्न्य, सारी शिकायतें स्वाह।

मैंने अपनी आँखे बंद कर ली और गहरी सासें भरने लगी। हवा से हिलते पेड़ के पत्तो के फ़ड़फडाने की आवाज और जीतू भैजी की बांसुरी की धुन मुझे रोकने पर तुली हुई थी। मैंने अपनी आंखे खोली और अंतिम बार अपने मायके के घर की ओर निहारा.... घर के आंगन में कोई न था, आखिरी विदाई लेने के लिये मैंने ज्यों हाथ उठाये मुझे घर के आगे वाले खेत में बाबा दिख गये। मेरी आंखों से आँसू झरने लगे मैं जोर-जोर से रोने लगी। मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। गले से फंदा निकाल कर मैं अंधेरा होने तक पेड़ की उसी टहनी पर बैठी बाबा और अपने घर को निहारती रही फिर सिसकियों की गति भी शाम ढ़लने के साथ-साथ धीमी होने लगी। मैं भीमल के पेड़ से नीचे उतर आयी। पेड़ के तने को एक सहेली की तरह गले लगाकर कुछ भार कम किया तथा उसे अंतिम क्षण तक मेरा साथ देने के लिये धन्यवाद कहा और फिर घर की ओर लौट गयी।

घर पर कोई न था चाचा ससुर भी नहीं लौटे थे। भैंस और गाय दोनों मेरे कदमों की आहट पाते ही अपने भूखे प्यासे होने की शिकायतें करने लगे। मैंने उन्हे घास-पानी दिया और आंगन के खूँटे से खोलकर गौशाला के कमरे में बांध दिया। फिर ख्याल आया चाचा ससुर जी का.... वह भी भौर में बाबा के साथ ही घर से निकले थे। लेकिन मुझे कहाँ यह ध्यान रहा। मेरा पूरा दिन तो खुद से जूझने में ही निकल गया था। यह सोचकर कि रोज की तरह चाचा ससुर गाँव में किसी बुजुर्ग के घर पर बैठने गये होंगे। मैंने चाचा ससुर के लिये चार मंडुये की रोटियां बनायी। अपने लिये काली चाय बनाई और छज्जे पर बैठ कर चाचा ससुर की राह देखने लगी। रात धीरे-धीरे और काली होने लगी। मैं छज्जे से सटे कमरे की दहलीज कर जाकर बैठ गयी। मन तो सुबह से ही मेरे वश में न था पर अब जी घबराने लगा था, चाचा ससुर कभी भी ऐसा नहीं करते थे। मुझे बिना बताये वे कभी भी कहीं नहीं जाया करते थे।मध्यरात्रि तक उनकी कोई खैर खबर नहीं मिली तो मैं घबराहट में जोर जोर से चिल्लाने लगी, उनको आवाजें लगाने लगी।

जी.......! (आदरपूर्वक सम्बोधन)

कख गो तुम.....?(कहाँ गये आप?)

हे.... दी....! शान्ता दी। (हे...! दीदी..! शान्ता दीदी।)

हे... काकी.... गांठ्या काकी। (हे.... चाची... गांठ्या चाची।)

तुमल भी द्यखी ...म्यार ज्योरु??? (तुमने भी देखे मेरे ससुर?)

हे.... गांवलो! तुमल‌ भी देख्यी कैन? (हे.. गांव वालो तुमने भी देखा किसी ने?)

मेरी आवाजों से पूरा गाँव झन्ना उठा और कुछ ही देर मैं सारे गाँव वाले मेरे आंगन में जमा हो गये लेकिन चाचा ससुर के बारे में किसी को कुछ पता न था। सब ने चाचा ससुर को ढूँढना शुरु कर दिया।

गाँव के सभी लोग मशालें लेकर गाँव के आसपास के इलाके में उन्हे ढूंढने लगे। सुबह होने को थी मैं हताश होकर घर को लौट आयी। शान्ता दीदी मुझे ढाँढस बंधा ही रही थी, गाँव की कुछ औरतें जोर-जोर से चाचा ससुर को आवाजें लगा रही थी। कि इतने में मेरे पति और गांव के कुछ लोग चाचा ससुर जी को कंधे पर उठाकर ले आये।

मैं सीढ़ियों से उतरकर चाचा ससुर की तरफ दौड़ी लेकिन उनकी खून से सनी हुई कोटी (भेड़ के ऊन से बना पारम्परिक कोट) देखकर बेहोश हो गयी।



भागीरथी: चतुर्थ अध्याय।

फिर जब होश आया तब तक दोपहर हो चुकी थी। चाचा ससुर को लोगों ने कमरे में लिटा दिया था। लोग वैद्य जी को भी बुला ले आये थे। मेरे पति और उनकी ताई दोनो उनके पास खड़े थे। मेरा सिर भारी-भारी सा लग रहा था और जी भी घबरा रहा था जिस कारण में चाचा जी के कमरे की दहलीज पर ही बैठ गयी थी। मैं यूँ तो ताई जी के स्वभाव से परिचित थी लेकिन उस दिन मुझे लगा जैसे अभी भी उन्हे मैं पूर्णतः समझ नही पायी हूँ। भला इतनी नाजुक स्थिति में ऐसे कटु वचन कौेन बोल सकता है ? वह चाचाजी को खरी खोटी सुना रही थी। चाचा जी एक दम चुप होकर उनकी भली-बुरी बातों को सुन रहे थे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा था। मैंने अपने पूरे जीवन में उन जैसा सहनशील व्यक्ति या यह कहना अनुचित न होगा कि उन जैसा सभ्य-भला मानुष नहीं देखा।

ताई जी अब उनके साथ और भी बुरे तरीके से व्यवहार करने लगी थी। उनके स्वर्गीय माँ बाप और मेरे सास-ससुर को भी बुरा भला कहने लगी। एक दो बार मेरे पति ने उन्हे समझाने का प्रयत्न भी किया, शायद जीवन में पहली बार।

लेकिन वह और भी कटुता और अभद्रता से बातें करने लगी। मेरा सब्र भी जवाब गया और मैं खुद को रोक नहीं पायी उनके दुर्व्यवहार के कारण मैं क्रोधाकुल उनसे झगड़ पड़ी। मैंने उन्हे चाचाजी को अकेला छोड़ देने के लिये कहा।

ताईजी आगबबूला हो गयी और मुझे व मेरे मायके वालों को भला बुरा कहते हुये अपने घर की और चल पड़ी लेकिन मेरे पति को मेरे खिलाफ करने की बात भी डँके की चोट पर कह गई। और तो और चाचाजी का हुक्का पानी बंद करवाने तक की भी धमकी दे गयी। खैर मेरे पति मेरे साथ थे ही कब? जिन्हे वह खिलाफ करती। किन्तु मैं चाचाजी के लिये चिन्तित थी। ताई-ताऊजी व मेरे पति का इस तरह का व्यवहार मेरे लिये चकित करने वाला न था किन्तु इसी दौरान एक अजीब घटना घटी, मेरे पति ताई-ताऊ जी से छिपकर चाचाजी का हाल चाल पूछने आने लगे। और धीरे-धीरे उन्हे ताई-ताऊजी का स्वभाव भी समझ में आने लगा। वो समझ चुके थे कि उनके सगे ताऊ-ताईजी उन्हे नशे का आदी बना रहे हैं। जिससे कि वह हमेशा उनके साथ ही रहे और जब चाहे वह उन्हे हमारे खिलाफ खड़ा कर सकें।

सेहत ठीक होते ही चाचा जी ने धार(पहाड़ की चोटी) वाले घर को मेरे और मेरे पति के नाम कर दिया। ताई को यह बात पसंद नही आयी और उन्होने मुझे और मेरे पति को अलग करने के लिये एड़ी चोटी का दम लगा दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि मेरे पति का मोह ताई ताऊ जी से हट गया और मुझे मेरे पति और उनका स्नेह देर-सबेर ही सही लेकिन मिल गया। चाचाजी और वैद्य जी के सुझाव व उपचार से मेरे पति चरस की बुरी आदत से भी धीरे-२ उबरने लगे थे।

खुशियों ने मेरे आंगन में भी पाँव पसारने शुरु कर दिये थे। और सबसे बड़ी खुशी हमे दो जुड़वा बच्चों के रुप में मिली। एक परी और एक राजकुमार के रुप में। यह दोनों हमारे जीवन में कई नये सुख व परिवर्तन लेकर आये जिनमें से सबसे बड़ा परिवर्तन था मेरे पति का अपनी जिम्मेदारियों को समझना।

मेरे मायके में भी जब यह खबर पहुंची तो माँ ने भी मेरे घर पर आकर खुशी को दोगुना कर दिया। 

चाचाजी की सेहत तो सुधर गयी थी पर चोट के कारण उनका शरीर अब पहले जैसा नहीं था। जिस कारण उन्होंने बची-कुची जमीन भी हमारे नाम कर दी। मुझे अच्छे से याद है जब उन्होने जमीन के कागज मेरे पति को सौंपे तो रुग्ण स्वर में बोले.... बस जिन्दामा द्वी गफ्फा खाणु अर म्वरणक बाद आग दे दियां ये बुड़्या थे बस। ( बस जीते जी दो निवाले खाना और मरने के बाद आग दे देना इस बुजुर्ग को बस इतना ही चाहिए मुझे)।

जीवन सामान्य होने लगा था और जीवन के प्रति मेरा मोह भी बढ़ने लगा था। लेकिन खुशियों को नजर लगते भला कहाँ देर लगती है?

ज्येष्ठ महीने की दस-बारह गते ही रही होंगी जब हमारे इलाके में एक- एक करके अधिकतर बुजुर्ग बीमार पड़ने लगे थे। वे सब एक ही प्रकार की बीमारी से ग्रस्त थे। जिसमें शुरु में दस्त व उल्टियां होती थी जो उनके शरीर को कमजोर बना देती और फिर सही देख-रेख के अभाव में हफ्ते दस दिन में निश्चित मौत। वह बीमारी जंगल की आग की तरह इलाके में फैलने लगी। धीरे-धीरे गर्भवती महिलायें, दुधमुहें बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आने लगे।

मेरे दोनों बच्चे उस समय सात साल के थे जब वह दैत्यरुपी बीमारी हमारे इलाके में फैली। आज के समय के जैसे तब साधन नहीं हुआ करते थे। अस्पताल और डॉक्टर तो तब किसी ने देखे भी नहीं थे। वैद्य जी और इलाके के कुछ लोग घर-घर जाकर लोगों को हिदायतें देने लगे। लोगों को संक्रमण न फैलाने और संक्रमित व्यक्ति से बचाव के‌ बारे में बतानें लगे। 

मैं बेटी जमुना और चाचाजी को दो दिन बाद अपने साथ लेकर आऊंगा फ़िलहाल तू बेटे पूरण को अपने साथ लेकर मायके चली जा यह कहते हुए मेरे पति ने मेरे हाथ में कपड़ों की एक पोटली थमा दी। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था आस-पास के सभी इलाकों में भयानक कोहराम मचा हुआ था। लोग गाँव छोड़कर अन्य पहाड़ी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे थे।

मैंने भी गठरी भर सामान सिर पर रखा और अपने बेटे पूरण को साथ लिये अपने मायके चली गयी। और वायदे के अनुसार अपने पति, बेटी व चाचाजी का इंतजार करने लगी। दो दिन उनकी राह निहारते-निहारते गुजर गये थे। लेकिन मेरे पति, बेटी जमुना और चाचाजी की कोई राजी खबर नहीं मिली तो मैंने बाबा को मुझे ससुराल भेज देने की बात कही।

बाबा ने मुझे समझाया और टोकते हुये कहा - मैं कल तेरी बुआ के गाँव जा रहा हूँ। तेरा ससुराल बीच में ही पडता हैं, अतः लौटते समय उनकी भी राजी-खबर लेता हुआ आऊंगा। मेरा मन घबराया हुआ था पर बाबाजी की बात टालना भी उचित नहीं लगा।

बाबा अगली भौर बुआ के गाँव के लिये चल दिये। सफर काफी लम्बा था और उन्हें वहाँ पहुँचते-पहुँचते रात हो जाती तो मैंने उन्हे रास्ते के लिये चार रोटी बाँध दी। बेटी के लिये कुछ दाने अखरोट व एक टुकड़ा गुड़ एक कपडे में बाँध कर उनके झोले में रख दिया। बाबा को एक दिन बुआ के घर रुकना था और एक शाम को मेरे ससुराल यानि कुल मिलाकर चार दिन का सफर।

तीन दिन मन आशाओं के समन्दर में गोते लगाते बीता लेकिन चौथे दिन शब्र टुटने लगा था। दिन भर मन व्यथित रहा शाम को माँ ने खाना बनाया और भाई और पू्रण को खिलाकर सो गयी। पर मैं रातभर बाबा की राह निहारती रही। शाम धीरे-धीरे रात में तब्दील हो गयी और धीरे-धीरे बाट पर बिछी पलकें, क़ृषक देह और व्यथित अश्रुपूरित मन तीनों थक कर घर की चौखट पर ही सो गये। बाबा उस रात घर नहीं लौटे। रतब्याटम (रात खुलने के समय) बाबा जी के खांसने की आवाज सुनकर मेरी नींद खुली और में आखें मसलती हुई आंगन की ओर दौड़ी बाबाजी को देख मैं खुश थी। मैंने जैसे ही अभिवादन में उनके पैर छूने के लिये अपने हाथ बढ़ाये बाबाजी ने मुझे रोकते हुये कहा। बेटी पैर मत छू। जाकर गौशाला से गोमूत्र लेकर आ और मुझ पर छिड़क दे और हाँ एक बंठा (गगरी) पानी भी दे दे नहाने के लिये।

मैं यह सुन हकबक सी रह गई। बाबा ने आवाज कुछ कड़क करते हुये पुनः अपनी बात दोहराई।

गोमूत्र छिड़कर मैंने बाबा को नहाने के लिये पानी दिया। बाबा नहाकर आये और रसोईघर में जाकर चाय बनाने लगे। इतने में माँ भी गाय को चारा देने के लिये उठ गई। मैं बाबाजी के पास जाकर बैठ गयी। माँ ने बाबाजी के पैर छूते हुये पूछा- आ गये अपनी दीदी से मिलकर? कैसे हैं वहां सब?

इतना सुनते ही बाबा की आँखे छलक पड़ी। वह बोले वहां तो सब ठीक है लेकिन इसके ससुराल में..।

इतना कहकर बाबा मुझसे लिपटकर रोने लगे।

कुछ नि बचि वख, त्यार जवैं नोनि अर ताई तिन्या खत्म ह्वेगी बाबा।

(कुछ नहीं बचा वहाँ । तेरा पति,बेटी और ताई तीनो अब इस दुनिया में नहीं रहे।)

य बिमरि कन काल ह्वै बाबा ? (यह बीमारी किसे काल बनी बेटा ?)

मैं हतप्रभ होकर जमीन पर गिर गयी।

नखिरि बिमरि (बेकार बीमारी) जिसे आज हैजा के नाम से जाना जाता है सब कुछ तबाह कर गयी।

बब्बा ! वे जमन त छ्वट्टा नौनोकु समिणी नामीभि नि लिन्दा छ्याई ईं बिमरिकु।(बाप रे उस समय तो छोटे बच्चों के सामने इस बीमारी का नाम भी नहीं लेते थे।)

इस सदमें से यूं तो मैं अब भी नहीं उबर पायी हूँ लेकिन उस समय मन कठोर करने का बस एक ही कारण था 'पूरण' ।   

इतना कहते ही बुजुर्ग महिला के शब्द सिसकियों में कहीं विलुप्त हो गये। आँखों से भर-भर कर नीर छलकने लगा। करुणामयी नदी का धैर्यरुपी बांध टूट चुका था जिसे किस तरह रोका जाय न तो मुझे सूझ रहा था न आप बुजुर्ग महिला को ही मेरे मुँह से भी शब्द निकाले नहीं निकल रहे थे। मन बहुत गमगीन था जो भावों के रुप मे आँखों से नीर बन स्त्रावित हो रहा था।कुछ समय के लिये हम दोनो शब्दशून्य हो गये।

बस परिचालक भी अब बुजुर्ग महिला की आपबीती में रुचि दिखाने लग गया था। बुजुर्ग महिला की तरफ पानी की आधी भरी बोतल बढ़ाते हुये परिचालक ने प्रश्न किया: तो फिर चाचाजी और ताऊजी का क्या हुआ? क्या उन्हे भी....?

महिला नें भरी आवाज में कुछ कहा किन्तु उनके वे शब्द 'बस' के हार्न की आवाज में कहीं खो गये । शायद परिचालक उनका जवाब सुनने में सफल रहे हों क्योंकि उन्होने अपना प्रश्न पुनः दोहराया नहीं।  

यह सोचने में भी कितना भयानक लगता है, आज जिस तरह कोरोना संक्रमण के कारण विश्वभर में त्राहिमाम फैला हुआ है, महामारी के उस दौर में बुजुर्ग महिला व अन्य लोगों ने कितनी चुनौतियों काम सामना किया होगा। अपने पति,बेटी व ताई सास के देहान्त के पश्चात भी बुजुर्ग महिला ने हिम्मत नहीं हारी और अपने बेटे के लिये जीवन जीने का निर्णय लिया। मैं अपनी आँखे बंद कर मन को संतुलित करने के विफल प्रयत्न कर रहा था। कि अचानक बुजुर्ग महिला व्यगंरुपी और तीव्र स्वर में बोली... मेरे पति चाहते थे कि हमारा बेटा खूब पढें और पोस्टमास्टर चाचा की तरह सरकारी मुलाजिम बने। तो मैंने भी ठान लिया कि अब मुझे इसी सपने के लिये जीना है। अपने पूरण के लिए जीना है।  

यह प्रण लिये में अपने ससुराल को लौट गयी। पूरण को स्कूल भेजने के लिये मेरे पास पैसे नहीं थे लेकिन मेरे छोटे भाई ने पूरण के दाखिले की बात ऋषिकेश के समीप के एक प्राथमिक विद्यालय में कर दी थी। उस समय में पैसा कहाँ था? और मेरा तो था भी कौन कमाने वाला ? 

पूरण वहीं अपने मामा-मामी के पास रह कर पढ़ाई करने लगा। पाँचवीं कक्षा के बाद मामा-मामी ने भी अपना फर्ज़ पूरा कर दिया और पूरण मेरे पास गाँव आ गया लेकिन मुझे किसी भी तरह अपने पति की आखिरी इच्छा को पूरा करना था। मैंने अपने सबसे उपजाऊ खेतों को गाँव के प्रधान को २५रुपये में बेच दिया। फिर पोस्ट मास्टर चाचाजी के लड़के से निवेदन कर श्रीनगर के समीप के ही एक सरकारी विद्यालय में छठी कक्षा में पूरण का दाखिला करवा दिया। मन पर पत्थर रखकर मैंने कैसे ६साल बिताये बेटा क्या बताऊं। उसके लिये कितने देवी देवताओं की सेवा भेंट की, लोगों के खेतों में काम किया। 

और आखिरकार भगवान ने मेरी सुनी पूरण को सरकारी कार्यालय में बाबू की नौकरी मिल गयी। लगा जैसे मैं गंगा तर गयी. कुछ दिन बाद पूरण मुझे अपने साथ ही श्रीनगर ले गया। जीवन स्थिर हो गया संघर्ष भी मानों विलुप्त हो गये। पूरण ने मुझे बिना बताये अपनी मन मर्जी से शादी कर ली। मुझे उस बात का भी दुःख न था लेकिन एक पल को यह भी जरूर लगा कि मेरी परवरिश में कमी रह गयी। सोचती हूँ की अगर पूरण शादी के लिए मुझसे सहमति लेता तो क्या मैं उसे मना करती ? खैर धीरे -धीरे समय का पहिया घूमने लगा और पूरण का परिवार फलने-फूलने लगा।

समय के साथ-साथ मेरा शरीर भी दिन-ब-दिन ढ़लने लगा था। लेकिन शरीर ढ़लने पर आप का वजन दिखने या तोलते में भले ही कम लगए किन्तु आप असल में इतने भारी होने लगते हैं कि आप अपने ही बच्चों पर बोझ बनने लगते हैं। न चाहकर भी आप उनकी खुशी के बीच रोड़ा बन जाते हैं। जिसे हटाने के लिये अपनी संतति ही जी जान लगा देती है। जिस सुत के लिये पूरा जीवन तपस्या की तरह गुजरता है, जिसे नौ माह उदर में रख असीमित परेशानियों को उसकी किलकारियों को सुनने की लालसा में हँस कर झेल लेते हैं, जिसे अपने अंतर का रुधिर पिलाकर धरा पर लाने योग्य बनाते हैं और फिर असहनीय प्रसव पीड़ा सहकर धरा पर लाते हैं। जीवन भर खून जला - जलाकर जिसे अस्तित्व प्रदान करते हैं भला वह सुत आपको बोझ नहीं समझेगा तो कलजुगी मानुष का धर्म कैसे पूर्ण होगा? 

इतना कहकर एक पीड़ा भरी मुश्कान के उनके शब्दों व 'बस' की गति शिथिल हो गयी। पीछे बैठे एक सज्जन जिन्होने बुजुर्ग महिला का टिकट खरीदा था उनके पास आये और उन्हे उतरने के लिये आग्रह करने लगे।

मैं भाव विभोर हो गया और भरे मन मैंने से उस देवी के पैर छू लिए। उन्होने मेरी ठुड्डी को हाथ से छुआ और फिर अपने हाथ को चूमने लगी । (उत्तराखंड में जब भी कोई अपने से बुजुर्ग या से बड़े लोगों के पैर छूता हैं, तब बड़े बुजुर्ग उन्हें आशीर्वाद देते हुए इसी प्रकार अपने स्नेह का परिचय देते हैं। किन्तु आधुनिक समय में यह रीति भी धीरे- धीरे विलुप्त होती जा रही है। )

मेरे सिर पर दुलार भरे उनके हाथों का स्पर्श पाते ही लगा जैसे सचमुच किसी दिव्य आत्मा ने मुझे छुआ हो। माँ गंगा की भूमि पर सचमुच ऐसी ही कितनी नारियाँ है जिन्होने आजीवन दूसरो के दुखों को ही दूर किया है मानों भागीरथी की तरह पृथ्वी पर जन कल्याण के लिये ही अवतरित हुई हों। इन्ही अहसासों और मन में कई प्रश्न को समेटे में खिड़की से उन्हे निहारता रहा और वह उन्ही गुत्थियों, उन्हीं सवालों के साथ बस से उतर गयी और पहाड़ी मोड़ पर मेरी आँखों से अह्नभर में ओझल हो गयी।  

किन्तु मेरे मन में आज भी तीन असुलझे प्रश्न वक्त बेवक्त विचरते हैं? पहला यह कि वह सज्जन कौन थे जिन्होने उस महिला के लिये बस का टिकट लिया था? दूसरा यह कि बुजुर्ग महिला के चाचाजी और ताऊजी की मृत्यु कब और कैसे हुई?

और तीसरा यह कि क्या बुजुर्ग महिला आप ही घर छोड़कर दर-ब-दर की ठोकरें खा रही थी? या फिर पूरण ने ही अपनी माँ को घर से निकाल दिया था?

खैर उत्तर चाहे जो भी हो लेकिन नारी की स्थिति समाज में आज भी वही है जो कि उस दौर में थी। नारी की स्थिति समाज में तभी सुधर सकती है जब पितृसत्ता जैसी सामाजिक कुरीतियों का अन्त होगा।


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