Nalanda Satish

Inspirational

5.0  

Nalanda Satish

Inspirational

रमाई

रमाई

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माता रमाई


असीम धैर्य, पावन हृदय का  कलश अमृत

करुणा का सागर ,उदात्त चैतन्य की संवेदना ।

पराकोटी की सहनशक्ति वात्सल्य का पंचामृत

कुर्बानियों को सीने में दफन करती विश्वरचना ।।


एक बहुत प्रचलित और पुरानी कहावत है कि 'हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है.' इस तथ्‍य को कई बार स्‍वीकारा जाता है मगर अकसर ही ख्‍यात और सफल व्‍यक्तियों के जीवन के कई बार सफलता का आधार बनी महिलाओं , खास कर उनकी जीवन संगीनी के योगदान को कमोबेश बिसरा दिया जाता है । मगर हमारे समाज के आधार स्‍तंभ कहे जाने वाले मनीषियों ने खुल कर महिलाओं को अपनी सफलता का श्रेय दिया है । ऐसा ही एक उदाहरण हैं संविधान निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनकी पत्‍नी रमाबाई दम्‍पत्ति का ।


यह महज एक संयोग था या कुदरत का खेल पर अनायास ही दिमाग सोचने पर मजबूर हो जाता है कि महात्मा फुले जी का निधन 1890 में हुआ और भीमराव आंबेडकरजी  का जन्म 1891 में । उसी तरह माता सावित्री बाई फुले का निधन 1897 में हुआ और माता रमाबाई का जन्म 1898 में हुआ ।  दोनों ही दम्पतियो के जीवन में आपको साम्य संयोग वश ही क्यों न हो नजर आ ही जाता हैं । यूँ लगता हैं कभी कभी जैसे महात्मा फुले और माता सावित्री , बाबासाहब और माता रमाई बनकर फिरसे अपना अधूरा कार्य पूरा करने धरती पर अवतरित हुए । अब इसमें कितनी सच्चाई है यह तो शोध का विषय हो सकता है । खैर बौद्ध धर्म मे पुनर्जीवन का स्थान भलाई नही रहा हो पर बरबस ही ध्यान इस ओर खींच जाता हैं ।



बहुजनों की महिलाओं के सशक्तिकरण का इतिहास  जब कभी भी  भारतवर्ष में लिखा जाएगा तो इसमे कोई दो राय  नही होगी की शुरुआत कहाँसे की जाए,,,,,यकीनन वह बाबासाहब अम्बेडकर और माता रमाई से ही  शुरू होगी। ‘भारतीय संविधान के निर्माता’ और भारत के पहले कानून मंत्री,डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने जीवन में हर कदम पर चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन वे कभी रुके नहीं,थके नही, हारे नहीं। उनके इस सफ़र में बहुत-से लोगों ने, अजिजो ने , हमदर्दियो ने उनका साथ दिया मगर इन सब लोगों के बीच एक और नाम था,जिनके ज़िक्र के बगैर बाबासाहब की सफलता की कहानी अधूरी है वह नाम है माता रमाबाई अम्बेडकर का। एक ऐसी नारी शक्ति जिनका  त्याग, बलिदान और  समर्पण समाज के प्रति निष्ठा के बदौलत बहुजन समाज, सर्व समाज की नारी शक्ति को भारत वर्ष में सम्मान से जीने का अधिकार मिला ।  हर एक भारतीय का यह  फ़र्ज़ होना चाहिये कि वह इन महान विभूतियों के जीवनदर्शन का दर्शन कर के ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करे ।


किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन में सफल होने के लिए जरूरी है कि वह संवेदनशील हो और साथ ही वह असंतोषी प्रवृत्ति का न हो। संवेदनशीलता जहां मानवता का प्राथमिक लक्षण है, वहीं संतोषी और संयमी होकर  जीवन में बहुत से अनिष्ट से बच सकते हैं। माता रमाई के स्वभाव में यह विशिष्ट गुण जन्म से ही अंतर्भूत थे ।


इस पृथ्वी तल पर जब कभी  संघर्ष का, धैर्य का, त्याग का  ,बलिदान का ,अदम्य साहस का, समर्पण और विश्वास का  उदाहरण दिया जायेगा माता रमाबाई का नाम अलख की तरह लिया जायेगा । जिनके बल पर डॉ अंबेडकर ने देश के वंचित तबके का उद्धार किया । भीमराव अंबेडकर "बाबासाहब "

कभी न बनते अगर माता रमाबाई ने पूरी शिद्दत से उनका साथ न निभाया होता ।


एक पत्नी का त्याग, एक माँ की ममता, अपने पति को समाज को अर्पित करने का साहस वही व्यक्ति कर सकता हैं जिसका दृष्टिकोण व्यापक हो, समाज की प्रति जो जागरूक और समर्पित हो, जो समाज का कल्याण , भला और मंगल चाहता हो.........जो जीवन के असहनीय दुख से रूबरू हो.........जिसे विपदा, गरीबी और दर्दनाक हालातों के सिवाय कुछ भी न मिला हो.............प्रणाम ऐसी शख्सियत को जो वज्र की तरह हरवक्त अपने जीवनसाथी के साथ उतनीही निडरता और कठोरता के साथ खड़ी रही एक चट्टान की भांति......... नमन उस ममतामयी  मूर्ति को जो अपना दुखदर्द भुलाकर समाज का दुखदर्द बाँटने और मिटाने अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ी हुई  । हम बात कर रहे है उन करोड़ो लोगो के दिलो पर जिन्होंने एक अर्से से राज किया है.... जिन्हें बूढ़े से लेकर बच्चों तक सब अपनी माता कहकर संबोधित करते हैं उस रमाई उर्फ रमाबाई उर्फ रामु उर्फ रामी उर्फ भागीरथी की........


एक धधकते ज्वालामुखी को जिन्होंने ताउम्र ठंडा न होने दिया........संघर्ष की मशाल हमेशा के लिए जलाये रखी.....गरीबी ने सुलगती आंच को कभी चेहरे की शिकन न बनने दिया.......उस पतिभक्त रामु की........सालो से तालु से चिपकी हुई जुबान को बोलने की आजादी देनेवाले बैरिस्टर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की सहचारिणी माता रमाई की..........जिसने जीवनसंगिनी के रूप में आंबेडकर का साथ आखिर दम तक दिया। 



"स्वर्णिम भविष्य की आस में रमाई ने अंधेरी रातो से रिश्ता निभाया था

अपनो का पेट काट काटकर हमारा उदर भराया था "


डॉ बाबासाहब आंबेडकर और  माता रमाई इनका  रिश्ता कुछ ऐसा था जैसे  दूध और   मलाई,  चाँद और चाँदनी, बरगद  और   परछाईं , तरुवर और शाख,  बोधिसत्व और उनकी प्रेरणा, बादल और बिजुरी ,सागर और नदी ,सरोवर और बावड़ी , बाबा और माता रमाई याने आसमान और  धरती जहाँ  एक होते है, मिलते है वह  क्षितिज , बाबा और  माता रमाई याने  सुबह की  भोर  और  सूरज की सुनहरी किरणों की प्रभा, उषा की लालिमा, बाबासाहब पूरा आकाश थे जिनकी छावं तले इस देशका हर नागरिक स्वाभिमान और अभिमान से जीवन व्यतीत कर रहा है । 


माता रमाई  करुणा की  सागर, ममता की  गागर, दया की  मूर्ती, चरित्रवान, पतिव्रता, सहनशील, स्वाभिमानी, कर्तृत्व की धनी, परिवारिक, मितव्ययी, जिन्हें भूखा रहना मंजूर था पर कभी भी किसीके भी आगे हाथ नही फैलाया ऐसी महान हस्ती, समाज की  व्यथा के आगे जिन्होंने अपनी व्यथा , दुख , कष्टों का बाजार नही होने दिया और न ही किसीको करने दिया, दुखों को निचोडकर पी जानेवाली अमृतमयी  माता रमाई । समंदर और उसकी लहरो को जैसे अलग नहीं कर सकते कुछ -कुछ ऐसा ही नाता था इन दोनों महान क्रांतिकारी विभूतियों का ।


तूफ़ान से उड़ती धूल को समेटने का सामर्थ्य था रमाई के व्यक्तित्व में ।

आँधी के साथ बहकर उसे योग्य दिशा में मोड़ना भलीभांति आता था रमाई को ।


आजादी के पहले और बाद के भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सामाजिक न्याय की चर्चा और इसके लिए संघर्ष एक तारीखी मोड़ है। यह पूरा प्रसंग जिस नाम के बिना अधूरा है, वह है डॉ भीमराव आंबेडकर। भारतीय सामाजिक जीवन में धार्मिक और जातिगत विषमता और अपमान का दंश आंबेडकर ने जिस तरह झेला और जिस तरह वे इसके लिए आजीवन संघर्ष करते रहे, जिसका सारा श्रेय किसी महान विभूति को अगर जाता हैं तो वह है सिर्फ और सिर्फ माता रमाबाई अम्बेडकर ।


पत्नी रमाबाई  के सहयोग से ही भीमराव अंबेडकर महापुरुष , भारतीय संविधान के  शिल्पकार,परमपूज्य, बोधिसत्व, कायदा पंडित,   क्रांती सुर्य, प्रज्ञासुर्य, त्यागपुरूष, युगपुरूष, विदवान, शिलवान, अर्थतज्ञ, भारत भाग्य विधाता, महानायक,  महामानव, समस्त स्त्री जाति के उद्धारक, 

दलितों के मसीहा और महामानव बन पाए । बाबासाहब  अपनी पत्नी रमा से अगाध प्रेम करते थे । अति निर्धनता में भी रमाबाई ने बड़े संतोष और घैर्य से परिवार का निर्वाह किया । हर मुश्किल वक्त में उन्होंने बाबासाहब का साहस बढ़ाया, धैर्य बँधाया और दृढ़ता से हर विपरीत परिस्थितियों का सामना किया और निश्चय को कभी डगमगाने नही दिया ।



रमाबाई की कहानी महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में वंणदगांव के  नदीकिनारे महारपुरा बस्ती से शुरू होती हैं जहाँ रमाबाई का जन्म 7 फरवरी 1898 को  एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता भिकु धुत्रे (वलंगकर) व माता रुक्मिणी  थी ।  उन्हेॅ ३ बहनें व एक भाई - शंकर था। रमाबाई के बचपन का नाम रामी था । पिता  भिकु दाभोल बंदरगाह में कुली का काम  करते और परिवार का पालनपोषण करते  थे। उन्हें छाती का दर्द था। रामी  के बचपन में ही उनकी माता का बिमारी से निधन हुआ था। माता के जाने से बच्ची रामी के मन पर आघात हुआ। छोटी बहन गौरा और भाई शंकर तब बहूत ही छोटे थे। कुछ दिन बाद उनके पिता भिकु का भी निधन हुआ और एक कुठाराघात हुआ । बच्चे खेलनेकुदने  की उम्र में अनाथ हो गए । रामी की बड़ी बहन की शादी दापोली में हो गयी थी । अब सारी जिम्मेदारी रामी पर आन पड़ी थी ....पर क्या 9 साल की उम्र जिम्मेदारी निभाने की होती हैं????? कहते है ना गरीब के बच्चे जल्दी समझदार होते है..... परिस्थितियां उन्हें हर वह चीज सिखाती है जो किताबो में नही लिखी होती । 


अनाथ हुए सब  बच्चो को वलंगकर चाचा और गोविंदपुरकर मामा  मुंबई में चले गये और वहां भायखला की चॉल में रहने लगे।


रमा और भीवा के मिलन की कहानी भी किसी परी कथा से कम नही ।

सुभेदार रामजी आंबेडकर  अपने बड़े पुत्र आनंदराव की शादी के बाद  पुत्र भीमराव आंबेडकर के लिए वधू की तलाश कर रहे थे। वहां उन्हे रमाबाई का पता चला, वे रमा को देखने गये। रमा की ,  इतनी छोटी उम्र पर जो समझदारी, भाई बहनों के प्रति उसका स्नेह और जिम्मेदारी ने रामजी अम्बेडकर का मन मोह लिया उन्होंने रमा को अपनी पुत्रवधू बनाने का फैसला कर लिया । पर यह शादी इतनी आसानी से नही हुई । कहानी में और मोड़ भी है । भीमराव की रमा के साथ शादी करने के लिए रामजी अम्बेडकर को हर्जाना तक भरना पड़ा था .....कहते है ना कोई खास मनचाही  चीज सस्ते में नही मिला करती ......उसके लिए कुछ न कुछ किंमत चुकानी पड़ती है .....रामजी अम्बेडकर के साथ भी कुछ यूँही हुआ ........... हुआ यूं कि रमा को देखने से पहले रामजी ने पुत्रवधू के रूप में और दो कन्याओं को पसंद किया था ......उनमे से एक कन्या से भीमराव की सगाई की रस्म भी अदा हुई थी...... बाद में कही से रामजी को रमा का पता चल गया...... रमा को देखते ही रामजी आश्चर्य चकित हो गए..... इतनी सुंदर, सुशील, समझदार बच्ची ,और इतनी से उम्र में ......! मैं यह क्या देख रहा हूँ ..मैं खुद अचंभित हूँ......मेरा मन कहता है मेरे भीवा का भविष्य इन्ही हाथो में सुरक्षित रहेगा .........फिर क्या था ...........रामजी ने अतिशीघ्र रमा को पुत्रवधू बनाने का निर्णय ले लिया..... जबकि उन्हें पता था इस काम की उन्हें पंचायत से  सजा मिलेगी ....पर वह राजीखुशी तैयार हो गए  थे.... रामजी अम्बेडकर ने जुर्माना भी भर दिया .......पर वह खुश थे .......जुर्माना भरने में उन्होंने जराभी आनाकानी नही की ....क्योंकि जुर्माने की वजह से रामजी ,रमा को पुत्रवधू के रूप से खोना नहीं चाहते थे ।


रमाबाई से डॉ. आंबेडकर की शादी 1906 में आंबेडकर के मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण होने के थोड़े ही दिनों के बाद करने की सोची । तब वे एल्फिंस्टन हाई स्कूल के छात्र थे।  पिता रामजी सूबेदार ने भीवा की शादी भिकू वलंगकर की पुत्री रामीबाई के साथ संपन्न कर दी।… आजसे सौ साल पहले उतनी सुख सुविधाएं उपलब्ध नही थी जितनी कि आज है । जो संशाधन मौजूद रहते थे उतने में ही निपटारा करना पड़ता था ।  तब वर्णव्यवस्था अपने चरमसीमा पर  थी, ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार वर्ण प्रचलित थे । सबको अपने अपने वर्ण के अनुसार कर्मकांड करने की सक्ती थी । मनुष्य अपने इच्छा के  अनुसार कुछ भी करने के लिए आजाद नही था । कहने को शुद्र भी हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा थे पर समाज ने उनपर इतने प्रतिबंध लगाये थे कि वह विवश थे । आप यह समझ सकते हो कि भले ही रामजी अम्बेडकर सूबेदार थे पर वह भी वर्णव्यवस्था से पूर्णतः बंधे हुए थे । अतः सीमित संसाधनों के साथ कार्य सम्पन्न करने की यूँ समझो कि लाचारी थी । रामजी अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बम्बई की चॉल में रहते थे जहाँ छोटे छोटे मकान एक दूसरे से सटे होने के कारण विवाह कार्य संपन्न करना मुश्किल था अतः रामजी अम्बेडकर ने विवाह स्थल बम्बई का भायखले बाजार  चुना । चुकी दिनमे बाजार भरता था, लोगों की चहलपहल रहती थी इसलिए शादी का समय रात बारह बजे तय किया गया , वहां घराती  और  बाराती दोनों खुशी खुशी  इकट्ठा हुए। चबूतरे का इस्तेमाल बेंच के रूप वर- वधु  को बैठने के लिए तैयार किया गया । बाजार के पूरे स्थल का इस्तेमाल-विवाह स्थल के रूप में किया गया, जहाँ यथासंभव रोशनाई की गई । फूलो से मंडप को सजाया गया.... और शादी की सारी रस्म अदायगी पूरी की गई.....…विवाह रात के समय ही  बड़े ही धूमधाम से संपन्न हुआ, बाबा रामजी अम्बेडकर ने अपने लाडले पुत्र के विवाह में कोई कमी नहीं होने दी ।  तब के रीतिरिवाजों के अनुसार वधु रामी और वर भीवा का विवाह हिन्दू संस्कार पद्धति से सम्पन्न हुआ ।



रामी का चेहरा दमक रहा था......इतना पढ़ा लिखा जीवनसाथी पाकर रामी धन्य हो चुकी थी...... उसे तो  सपने में भी इतना अच्छा पति मिलने कि उम्मीद नहीं थी , होती भी कैसे.... एक अनाथ बच्ची , जिसके मातापिता बचपन में ही भाईबहनों का बोझ नन्हे से कंधे पर डालकर स्वर्ग सिधार चुके हों और जिसकी परवरिश मामा गोविंदराव ने की हो वह अपने भाग्य से क्या अपेक्षा कर सकता है । आज रामी को अपनी माता रुक्मिणी की बहुत याद आ रही थीं ......आज उसकी माता का कहा सच होने जा रहा था .....वे अक्सर कहती थी "रामी तू बहुत भाग्यवान है ....तू भगीरथी है ....तुझे बहुत अच्छा और बड़ा पति मिलेगा जहाँ तू रानी की तरह राज करेगी " आज रामी बहुत खुश भी थी और दुखी भी ... ....खुशी इस बात की , उसे इतना पढ़ा लिखा पति मिला था ....और दुख इस बात का की आज उसे अपने भाई बहनों को छोड़कर ससुराल जाना पड़ेगा । आज मामा का घर जो कि  उसका पीहर था , उसे छोड़कर वह अपने पति  के घर  आ चुकी थी । अब यही उसकी दुनिया थी । परिवार में ससुर रामजी अम्बेडकर, सांस जीजाबाई जो कि रामजी अम्बेडकर की दूसरी पत्नी थी.....आत्या मीराबाई..... सखू... भीवा के बड़े भाई की लड़की....आनंदराव और उनकी पत्नी लक्ष्मी ...भीवा के भाई और भाभी,मंजुला और तुलसी ...भीवा की बहने  इतना भरापूरा परिवार रामी को मिला था । उस समय बाल विवाह का प्रचलन था । 


 

 विवाह के समय रमा की आयु महज 9 वर्ष एवं भीमराव की आयु 14 वर्ष की थी ।  9 वर्ष की  नन्ही सी आयु से आरंभ हुआ संघर्ष में साझेदारी का यह सिलसिला रमाबाई की अंतिम सांस  9 मई 1935 तक जारी रहा ।


"तिनका तिनका जोड़कर 

नीड़ का निर्माण करती है वह

अपनी मधुर स्नेह भारी मुस्कान से

सबके दिल को भांति रही खूब वह"


साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण अच्छे और नेक मिलते रहे । शायद कायनात की यह साजिश होती होंगी की जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन अपने बलबूते करना है उनका जीवन साथी उसी कद का मिले । बाबासाहब भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे, रमाबाई जैसी बहुत ही सहनशील और आज्ञाकारी पत्नी उन्हें  जीवन साथी के रूप में मिली । दोनों एक दूसरे के पूरक थे और सौभाग्यशाली भी , जिसका सारा श्रेय रामजी अम्बेडकर को जाता हैं जिन्होंने अपने कोहिनूर हीरे के लिए इस धरती का सबसे कीमती रत्न रमाबाई के रूप में ढूंढ ही लिया । 


ससुर रामजी अम्बेडकर रमाबाई का बहुत ख्याल रखते थे और हमेशा यही समझाते थे कि "रमा भीवा को बहुत बहुत पढ़ना है, उसे समाज को एक नई दिशा दिखानी है, उसे समाज की  कुरीतियों को समाप्त करना है  और इस  जिवनयज्ञ में तुम्हे भीवा का साथ निभाना है, मुझे पता है भीवा बहुत ही जिद्दी है, तुम्हारा ध्यान नहीं रखता, वह तो खुद का भी ध्यान नहीं रखता, पर तुम्हे उसका भी ,खुद का भी और पूरे परिवार का ध्यान पूरे मान सन्मान के साथ गरिमामय तौर तरीकों से  रखना है एक जलते हुए सूरज को मैं तुम्हे सौपता हूँ, उम्मीद है तुम मुझे निराश नहीं करोगी, मैने भीवा के भविष्य को लेकर बहुत सपने बुने है, रमा , अपना भीवा बहुत होशियार और बुद्धिमान है , इसकी चमक कभी भी फीकी नहीं होनी चाहिए, उसके जीवन का लक्ष्य कुछ अलग है " । नन्ही बच्ची रमा ससुर रामजी में अपने पिता का अंश देखती थी । रामजी के रूप में उन्हें पिता मिल गए थे । ससुर रामजी ने रमा से वचन लिया था कि किसी भी हालात में वह भीवा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगी  और किसी भी सूरत में उनका साथ नही छोड़ेगी ।


ससुर रामजी ने रमा को समझा दिया था कि समाज के दबे-पिछड़े , वंचितों, शोषितों, पीड़ितों और कई सालों से जिंदगी से कटे तबकों का उत्थान ही बाबा साहब के जीवन का अंतिम लक्ष्य  होना चाहिए ।  और यह तभी संभव था, जब वे खुद इतने शिक्षित हों कि पूरे देश में शिक्षा की मशाल जला सके। बाबासाहब के इस संघर्ष में रमाबाई ने अंतिम सांस तक उनका साथ दिया। बाबा साहब ने खुद भी अपने जीवन में रमाबाई के योगदान को विनम्रता के साथ स्वीकार किया है।


रमाबाई को भीमराव प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और वो उन्हें ‘साहेब’ कहकर संबोधित करती थीं। शादी के पहले रमा अनपढ़ थी, पर वह पति का पुस्तक प्रेम समझ गयी थी, भीमराव का किताबो से लगाव के कारण कभी कभी उन्हें कोफ्त होती थी, पर करे क्या .......भीमराव थे ही वैसे........ एक बार पढ़ने बैठे की उनकी भूख प्यास सब बुझ जाती थी, समय का उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहता था............देर रात तक पढ़ना जैसे उनकी नियति हो चुकी थी........ इस वजह से पति के इन्तजार में वह भी भूखी प्यासी सो जाया  जाती थी........ रमा का यह निश्छल, निस्वार्थ, पवित्र प्रेम भीमराव को  ग्लानि से भर देता था.... वह मन ही मन कहते ' रमा मैं तुम्हे सिवाय दुखो के कुछ न दे सकूँगा, मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे तुम जैसी नेक और समझदार पत्नी मिली ' ।  भीमराव रमा को पढ़ने का महत्व समझाते और पढ़ाई के लिए हमेशा प्रेरित करते, पति के प्रयत्न से रमा थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना भी सीख गई थी, जो उस समय पूरे परिवार के लिए गर्व की बात थी । रमाबाई का परिवार कबीरपंथी था, जिसके कारण रमाबाई को कबीर के भजन मुँहजबानी याद थे, रमाबाई की आवाज भी बहुत सुरीली थी ....कभी कभी साहेब उनसे भजन गाने की फरमाइश कर बैठते .......रमाबाई बहुत सुंदर सुंदर भजन गाया करती थीं .....उन भजनों की सुंदरता और गहरे अर्थ रमाबाई की अनजाने में ही सही पर  संयम से जीवन जीने की कला सीखा जाते । उनका यह विशिष्ट गुण बहुत कम लोगो को पता है , की रमाबाई भजन गाने की कला में निपुण थी ।


घर की आर्थिक परिस्थिति कुछ अच्छी नहीं थी....तंगहाली में जीना जैसे आदत सी हो गयी थी ......भीमराव के किताबो का खर्च उठाने में ससुर रामजी को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता था । कभी गहने गिरवी रखकर तो कभी साहूकार से कर्जा लेकर पिता रामजी , भीमराव की हर ख्वाहिश पूरी करते थे........ जिससे रमाबाई को घर ख़र्च कम मिलता था........ पर न ही रमाबाई और न ही कभी रामजी ने इसकी भनक भीमराव को लगने  दी । रामजी नही चाहते थे कि घर की परिस्थिति के कारण भीमराव की पढ़ाई लिखाई में कोई व्यवधान उत्पन्न हो , जिससे उनका ध्यान भटक जाए ऐसा  घरका सदस्य हर तरह से सावधानी बरतता था ।  रामजी समान पिता मिलने को भी भाग्य लगता हैं। बहुत क़िस्मतवालो की ऐसे माता पिता नसीब होते है........ जो अपनी संतान के भविष्य का निर्माण अपनी जान की बाजी लगाकर करते है ।  कहते है ना पूत के पांव पालने में ही दिखाई देते हैं । बस पहचानने की नजर भर चाहिए । भीवा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । रामजी ने भीवा की प्रतिभा को पहचान लिया था । भीमराव बहुत ही तीक्ष्ण, विलक्षण  बुद्धिमत्ता के धनी थे  । वे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से ओतप्रोत भरे हुए थे ।  भीमराव की कीर्ति दिन दो  गुनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही थी  । 

पर रमा के माथे जीवन का संघर्ष ही लिखा था .........


 


साधनहीनता से लेकर सामाजिक तिरस्कार, अपमान, घृणा तक सब  कुछ बाबासाहब ने अपने जीवन में कदम-कदम पर सहा। इन सबके बीच उनके साथ रमाबाई एक मजबूत संबल की तरह बनी रहीं। बाबासाहब को लगता था कि बिना शिक्षा के सामाजिक न्याय का उनका संघर्ष आगे नहीं बढ़ सकता है। रमाबाई को बाबासाहब की यह बात बहुत पहले समझ आ गई थी। बाबासाहब वर्षों अपनी शिक्षा के लिए घर से बाहर रहे और इस दौरान तमाम तानों, अभावो के बीच रमाबाई ने घर की कमान संभाले रखी ।


बाबासाहब की पढाई ही उनके जिंदगी का मिशन था ! और इस मिशन के लिए उन्होंने खुद को समर्पित किया था ।  बाबासाहब का ध्यान पढाई से विचलित ना हो, इस लिए उन्होंने ऐसा कुछ किया है, जो इतिहास के पन्नो में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हुआ ।


माता रमाई ने बाबासाहब को चाँद के समान धीरे धीरे पूरे शबाब पर चढ़ते देखा.....और उतने ही तेज से सूरज समान आसमान पर चमकते देखा । हर वक्त वह बाबा की परछाई बनकर साथ चलती रही बिना थके बिना हारे ।

बाबासाहब के  जीवन में बड़ौदा के महाराज सयाजीराव गायकवाड़ का  बहुत ऊंचा स्थान रहा है । महाराज  बाबासाहब की योग्यता, प्रतिभा , उनकी शिक्षा के प्रति लगन, मेहनत को देखकर अचंभित थे, उस समय जाती व्यवस्था अपने चरम सीमा पर थी । पर एक शूद्र जाती का लड़का इतना बुद्धिमान हो सकता है इसका आश्चर्य भी था । 

 बाबासाहब की ऊँची पढ़ाई की पहली सीढ़ी 

बड़ौदा के महाराज  ही बने । उन्होंने समाज के सारे तानेबाने को अनदेखा करके  बाबा साहब को वजीफा दिया ।  


बाबा साहब विदेश जा कर पढ़ना चाहते थे तब उनके परिवार में पत्नी रमाबाई और पांच बच्चे थे। आर्थिक तंगहाली से जुझ रहे बाबा साहब के लिए वह बड़ा मुश्किलो का दौर था। उनके सामने बड़ी समस्या थी कि आखिर वे अपने परिजनों को इस हालत में छोड़कर कैसे जाएं। इसी दुविधा में उन्होंने रमाबाई से सहयोग मांगा। वे रमाबाई से कहने लगे 

रामु , बड़ौदा के महाराज ने मुझे वजीफा दिया है और मैं विदेश जा कर पढ़ना चाहता हूं। लेकिन जब मैं तुम्हारी तरफ मुड़कर देखता हूं तो दिखाई देता है  तेरे पास 5 बच्चे भी हैं, और  आमदनी का कोई साधन नहीं और मैं भी तुम्हें कोई पैसा भी  देकर नहीं जा रहा हूं। क्या ऐसी परिस्थिति में तुम मुझे विदेश जाकर पढ़ने की अनुमति दोगी? सच सच बताना रामु , मेरा दिल बैठा जा रहा है, क्या मैं बहुत स्वार्थों हो गया हूँ ??तब रमाबाई बोली  साहेब, यह बात सच है कि मेरे पास 5 बच्चे हैं और आमदनी का भी कोई साधन नहीं है मेरे पास । उपर से आप भी मुझे कोई पैसा देकर नहीं जा रहे हैं। लेकिन, मैं आपको भरोसा दिलाती हूं कि आप अपनी इच्छा को पूरी करके आयें। आप अपनी पढ़ाई को पूरी करके वापस लौटें। मैं इन बच्चों का और अपना पेट मैं खुद पाल लूंगी । आप चिंता न करें । इस समय आपका पढ़ाई करना ज्यादा जरूरी है । और रमाबाई ने बाबासाहब को विदेश जाने की अनुमति दी....... इस आधार पर .....बाबासाहब पढ़ लिखकर जब विदेश से वापिस आयेंगे तब हमारे साथ ही रहेंगे,,,,, उन्हें अच्छी तनख्वाह की नोकरी लगेगी और तब सुख की दिन लौट आएंगे 

 इसी सपने को लेकर रमाबाई दिन काटने लगी ......


 "ताबीज की तरह कलाई पर बांध दिया साहेब की पढ़ाई को 

 गर्दन पर डालकर ताउम्र नीले कंठ को छुपाती रही सलीब को"

 


पर जैसे जैसे दिन बीतते गए .....पास की जमा पूंजी खत्म होते गयी......फाकों की नौबत आयी । रमाबाई को समझ मे नहीं आ रहा था अब जीवनयापन कैसे करे । एक बड़ा ही यक्ष प्रश्न आ खड़ा हुआ था । तब अचानक रमाबाई को अपनी माता रुक्मिणी की याद आयी वह कहती थी " भगीरथी तू नसीब से भगीरथी है, पर कोई काम छोटा बड़ा नही होता..... अपने स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे ऐसा कोई भी काम कर लेने में कोई बुराई नहीं है  " । माँ के घर मे सीखे गोबर के उपले रमाबाई को भविष्य की राह तलाशने में मददगार साबित होने वाले थे । उन्होंने इस काम करने की ठान ली । क्या करे????? 

जब जीवन के सारे दरवाजे बंद होते हैं तब कही न कही से कोई खिड़की खुली रह ही जाती हैं ।


रमाबाई ने गोबर के उपले बनाकर बेचने निर्णय कर लिया । पर  साहेब  की इज्जत का प्रश्न था .......कहि लोग ताने न मारे की पति विलायत पढ़ने गया है और पत्नी उपले बेच रही है .....…..लोगों को पता न चले इस कारण माता रमाई मुँह अंधेरे में उठकर गोबर जमा करती थी और उसके उपले बनाकर बेचती थी  ।  उससे जो भी पैसा वह कमातीं, उसी से अपना और बच्चों का पेट पालती । तब इस काम से इतना पैसा नहीं आता था कि वह अपने बच्चों की परवरिश कर पातीं। कभी कभी  तो नौबत यहां तक भी आती थी कि कई बार उन्हें दूसरों के घरों में काम भी करने पड़ते थे । वे इस तरह हर छोटे-बड़े काम से पति की पढ़ाई के लिए पैसे भी जुटाती थीं। इस बीच, जीवन के कुछ दूसरे इम्तिहानो के दौर भी चलते रहे।   



 "संघर्ष को ढाल बनाकर 

जीवनयुद्ध से चार चार हाथ किये

उपलों की दहकती आग ने

आहुति के नाम पर जिगर पर कितने घाव किये"



इसी बीच रमाबाई पर एक और आघात हुआ , 1913 में पिता समान ससुर रामजी  इस दुनिया को अलविदा कर गए । रमाबाई का आधारस्तंभ भरभराकर गिर गया ।  पर करे क्या .......कुदरत के आगे सभी बौने साबित होते है । रमाबाई यह घाव भी सह गयी । जीवन किसके लिए रुका है कभी ......धीरे धीरे घाव भरते जाते है और जिंदगी पटरी पर आनी शुरू होती हैं । 


भले ही आंबेडकर का विवाह सन् 1906 में संपन्न हो गया था, लेकिन सही मायने में उनकी गृहस्थी बहुत बाद में शुरू हुई। जब आंबेडकर 1917 में लंदन से  लौट कर मुंबई आए। 



घर में खुशी छा गई। उनकी पत्नी रमाबाई को लगा कि हम लोगों ने अब तक जो भी दुख भोगा है, वह समाप्त हो चुका है। हमारे साहेब नौकरी करके पैसा कमाएंगे और सभी को खुशहाली में रखेंगे।…..  रमाबाई को लगा था कि हमारे और भी बच्चे होंगे और हमारा घर-संसार सुख-सुविधाओं से भरपूर होगा।


1918 में भीमराव  ने सीडनेहॅम कॅालेज में प्रोफेसर की जगह पर नोकरी करना शुरू कर दिया ।  भीमराव को पहली तनख्वाह रु 450 /- मिली । घर में आने के बाद  भीमराव ने पूरी तनख्वाह  रमाई के  हाथ में दे दी, और बोले 'रामू ! गिनकर बताओ कितनी तनख्वाह है । रमाईं की आंखों में आँसुओं की बदली उमडघुमड़ कर छा गयी ....कभी वह भीमराव को तो कभी ससुर रामजी सुभेदार की फ़ोटो को देख रही थीं....... उनकी समझ मे नही आ रहा था क्या करे....तब रमाई ने  तनख्वाह सुभेदारजी के  फोटो के सामने रख दी और बोली  ' आज आपके पुत्र की पहली तनख्वाह आयी हैं आप इसे स्वीकार करे ' ......इतना कहकर वह रोने लगी । 

तब  भीमराव बोले ' रामू ! रो क्यों रही हो ... तनख्वाह गिनो कितनी है..... रमाई बोली  ' मैं आपके समान पढ़ीलिखी थोड़ी हूं । मुझ अनपढ को कहाँ तनख्वाह गिननी आती है ? और रमाई जमीन पर बैठ गई , जमीन पर बैठकर उन्होंने बीस रुपये के हिसाब साढ़े चार सौ रुपये की एक रक करके पूड़ी बनायी,  उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ .......अचरज से उनके मुहँ से निकला ' बाय बाय बाय ' इतना सारा पैसा........ .अपने पति विद्वता को देखकर उनकी छाती भर आयी....भीमराव उनके मासूम चेहरे को देखते ही रह गये ........।


एक दिन बाबासाहब  कॉलेज में पढ़ाने के लिए जाते समय रमाबाई को खर्च के लिए पैसा देना भूल गए रात को जब वापस लौटे तो देखा कि कमरे में दिया नहीं जल रहा है, कमरे में अंधेरा देख बाबासाहब ने पूछा "रामू आज दिया क्यों नहीं जलाया” ? जाते समय आप पैसा देना भूल गए थे,रमाबाई ने धीरे से कहा । बाबासाहब ने पुनः कहा " पड़ोस में किसी से मिट्टी का तेल और दियासलाई की तीली मांगकर कमरे में कम से कम दिया तो जला देती " । माता रमाबाई ने उत्तर दिया " " "किसी से मांग कर गुजारा करना मैं अच्छा नहीं मानती। अगर ऐसा होता तो आप भी सरकारी नौकरी करके हम सबको सुखी बना सकते थे। मेरा भी दृढ़ निश्चय कुछ और है  । मैं पड़ोसियों से मांग कर जीने की बजाय भूखी रहना ज्यादा पसंद करती हूं" । इतना उच्च कोटि का स्वाभिमान माता रमाई में था ।

कहते हैं ना जब तक हमारे जीवन के आदर्श ऊंचे नहीं होंगे तबतक हम जीवन की ऊंचाइयों को नहीं हासिल कर सकते । हम अपने लक्ष्य तक नही पहुंच सकते । जितने  कठोर परिश्रम और परीक्षा उतने  ही सफल परिणाम !!! यही दुनिया की रीत है ।


सिडेनहैम कॉलेज के वक्त की एक घटना है , बाबासाहब रमाबाई से कहते है रामु मेरे पगार के दिन नजदीक आ रहे है ......दो चार दिन में पगार मिल जाएगी .....रमाबाई खुशी से भर उठती है  और कहती है "साहेब मेरे लिए नई साड़ी और बच्चो के लिए नए  कपड़े लायेंगे ना आप " 

रमाबाई की बात सुनकर बाबासाहब कहते है " रामु बहुत दिनो से कुछ ग्रंथ खरीदने की सोच रहा था पर पैसो के अभाव में खरीद न पाया , इस बार सोचता हूँ पगार से कुछ ग्रंथ और किताबे खरीद ही लूँ ......बोलो क्या कहती हो ......ठीक है ना "

रमाबाई इसके आगे कुछ भी नहीं बोली .........बोलती भी क्या ??? उन्हें पता था साहब का किताबों पर कितना प्रेम है .....वह किताबो को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते है .....एक तरफ परिवार तो दूसरी तरफ किताबे ।

ऐसी कितनी तो भी घटनाएं हुई जिनका जिक्र करना असंभव है जब रमाबाई को अपने मन को मार कर परिस्थितियों से समझौता करना पड़ा । तभी तो इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया ......इतिहास उनका यह त्याग कभी नही भूलेगा ....यूँही उनको त्यागमूर्ति रमाई के नाम से नही जाना जाता 

.............


करीब दो-ढाई वर्षों तक रमाबाई के साथ रहने के बाद पुन: आंबेडकर अपनी पढ़ाई पूरी करने 1920 में लंदन चले गए। रमाबाई के साथ रहते हुए भी उनके साथ कितना रह पाए, इसका अंदाज तो इस बीच आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता से लगाया जा सकता है। जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चलता रहा ।  रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन गौरा-दोनों छोटी-मोटी मजदूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही ।


"इन कठिन रास्तो पर चलने की आदि हूँ मैं

तुम चिंता मत करना बड़ी सौभाग्यशाली हूँ मैं"


इधर रमाबाई बच्चों और भाई-बहन के साथ आधे-पेट या भूखे रहकर जीवन गुजार रहीं थीं, तो उधर कमोवेश यही हालात डॉ. आंबेडकर की  लंदन में भी थी । रमाबाई ने घर की इस आर्थिक हालात का वर्णन करते हुए एक पत्र उन्हें लिखा। जिसका जवाब इन शब्दों में आंबेडकर ने दिया–


लंदन,  दिनांक 25 नवंबर 1921

प्रिय रामू,

नमस्ते।


पत्र मिला। गंगाधर  बीमार है, यह पढ़कर दुख हुआ। स्वयं पर विश्वास और भरोसा रखो, चिंता करने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी पढ़ाई चल रही है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। पैसों की व्यवस्था कर रहा हूं। मैं भी यहां अन्न के दाने-दाने को मोहताज हूं। तुम्हें भेजने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ न कुछ प्रबंध कर रहा हूं। अगर कुछ समय लग जाए, या तुम्हारे पास के पैसे खत्म हो जाएं तो अपने जेवर बेचकर घर-गृहस्थी चला लेना। मैं तुम्हें नए गहने बनवा दूंगा। यशवंत और मुकुंद की पढ़ाई कैसी चल रही है, कुछ लिखा नहीं?


मेरी तबियत ठीक है। चिंता मत करना। अध्ययन जारी है। सखू और मंजुला के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हुआ। तुम्हें जब पैसे मिल जाएं तो मंजूला और लक्ष्मी की मां को एक-एक साड़ी दे देना। शंकर के क्या हाल हैं? गौरा कैसी है?


सबको कुशल!

भीमराव


   एक एक दिन एक एक युग जैसा कटा

   साहेब के इंतजार में रमा पर पहाड़ सा टूटा


जैसे तैसे गुजर बसर हो रही थी कि  उनका बड़ा बेटा गंगाधर बीमार हो गया। इलाज के पैसे नहीं थे, जहाँ इंसान खाने को मोहताज हो वहाँ डॉक्टरी इलाज करवाना एक दिवास्वप्न जैसा प्रतीत होता है। पैसे की तंगी के कारण इलाज नहीं करवाया और जो नहीं होना था वही हो गया ।    रमाबाई खुद को सांत्वना देती रही पर गंगाधर को नहीं बचा पायी  । गंगाधर इस दुनिया को छोड़ कर चला गया। रमाबाई पर पहाड़ टूट पड़ा  रमाबाई को सदमा सा लगा....... उनकी आंखें रो-रोकर पथरीली सी हो गई थी...  ।  बेटे गंगाधर की मृत्यु के बाद उसकी मृत देह को ढ़कने के लिए नए कपड़े खरीदने को पैसे नहीं थे, तब रमाबाई ने अपनी साड़ी से टुकड़ा फाड़ कर दिया और फिर शव को वही ओढ़ाकर श्मशान घाट ले जाया गया और दफना दिया । समय भी कैसे कैसे खेल खेलता है........ एक माँ से उसका लाल छीन लिया गया और वह इतनी बदनसीब हैं कि उचित संस्कारों से बच्चे का अंतिम संस्कार भी नही कर सकती ......उस अभागें बच्चे के पिता को नही बता सकती ...…वाह रे निष्ठुर काल !!! ऐसी अंतहीन परीक्षा ईश्वर किसी के भी हिस्से में नही दे । काल ने समय समय पर जो विष रमाबाई  दिये उसे अमृत समझकर वह  पी गई  । बेटा खोने का दुख वह अकेले ही निगल गयी , शायद इसीमे समझदारी थी । यह बात माता रमाबाई ने बाबा साहब को नहीं बताई। इस बीच बाबा साहब का एक खत उन्हें प्राप्त हुआ ।


नानकचंद रत्तू  बाबासाहब के बहुत करीबी थे,  उन्होंने खत पढ़ते हुए कहा 'बाबा साहब कहते हैं कि रमा मैं यहां अगर एक वक्त का खाना खाता हूं तब भी मेरा काम नहीं चल पा रहा है। मैं अपना जीवन बड़ी मुश्किल में व्यतीत कर रहा हूं। में अपना सुबह का नाश्ता दोपहर में करता हूं और शाम को मैं पानी पीकर अपना काम चला रहा हूं। मैं जानता हूं कि तुम्हारे सामने भी बहुत विकल परिस्थितियां हैं। तुम्हारे पास पांच बच्चे हैं और आमदनी का भी कोई साधन नहीं है। फिर भी अगर हो सके तो कुछ पैसा भिजवा देना।


रमाबाई की चिंता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही थी.....पैसे का बंदोबस्त करना कुछ आसान काम नहीं था । पर रमाबाई  कहाँ हार माननेवाली थी । हार मानती वह रमाबाई कैसी???? माता पिता और ससुर रामजी ने रमा को वज्र जैसा कठिन और कठोर बनाया था ।  रमाबाई ने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसा इकट्ठा किया  लेकिन उनकी बेटी इंदु बीमार हो गयी अब रमाबाई के सामने एक बहुत बड़ा सवाल था कि वे उस पैसे से अपनी बेटी का इलाज कराएं या अपने पति को दिए गए वचन को निभाएं। कशमकश से जिंदगी गुजर रही थी............बहुत सोचा - समझा पर कोई हल न निकला.......आख़िरकार उन्होंने वह पैसा बाबा साहब को भेज दिया और इधर उनकी बेटी इंदू ने भी इलाज नहीं होने के कारण दम तोड़ दिया। रमाबाई पर यह कुदरत का दूसरा बड़ा आघात था । अबतक वे दोनों संतानों को खो चुकी थीं । बड़ी दयनीय स्थिति से रमाबाई गुजर रही थी । न बात उगलते बनती थी और न निगलते ..........आखिर उन्होने निश्चय कर लिया कि यह बात भी बाबा साहब को नहीं बताई  जाये.......जिसके पीछे का मकसद यह था कि अगर बाबासाहब को संतानो के गुजरने की बात पता चली तो वे पढ़ाई अधूरी छोड़कर वापिस आएंगे जो कि रमाबाई बिल्कुल ही नहीं चाहती थी, इसलिए उन्होंने छातीपर पत्थर रखा .....और नतीजा यह हुआ .........बाबा साहब पढ़ते रहे। कुछ समय के बाद बाबा साहब अपनी पढ़ाई छोड़कर बड़ौदा के महाराज की रियासत में नौकरी करने के लिए आते हैं तो रमाबाई खुश होती हैं, और सोचती है साहेब अभी डॉक्टर बन के आ रहे है। अब वह नौकरी करेंगे और तनख्वाह कमा कर लायेंगे,  अब तो अपने बच्चों को मैं भरपेट खाना खिलाऊंगी, अब तो मेरे दिन बदल जाएंगे । पर नियति को कुछ और ही मंजूर था ।


बाबा साहब ने बड़ौदा महाराजा के दफ्तर में नोकरी  करना चालू किया ,पर जातिगत भेदभाव उनका इतनी जल्दी कहाँ पीछा छोड़ने वाला था....यहाँ तो  चपरासी भी फाइल डंडे से उठा कर देता था । बाबा साहब कहते .....यह  क्या बदतमीजी है? यह क्या हो रहा है? तुम एक चपरासी होकर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हो? तब चपरासी  बोलता .......आंबेडकर, तुम पढ़-लिख जरूर गए हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम हमारी बराबरी  करोगे । तुम आज भी नीच हो और तुम्हारे साथ काम करके मैं अपना धर्म नष्ट नहीं कर सकता। बाबा साहब  कहते .......क्या मतलब? मेरे साथ काम करने से तुम्हारा धर्म कैसे नष्ट हो सकता है? तुम जानते हो कि मैं तुम्हें नौकरी से निकाल सकता हूं। चपरासी  ऊँची आवाज में कहता.......आंबेडकर, यह बात मैं अच्छे से जानता हूं। तुम मुझे नौकरी से भले ही निकाल दो लेकिन मैं तुम्हारे साथ  इस दफ्तर में काम नहीं कर सकता।


बाबा साहब  ऐसे अपमानजनक स्थान पर और अधिक नौकरी नहीं कर सकते थे ।

और वही हुआ .....बाबा साहब ने 11वें ही दिन अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और और घर जाने के लिए बड़ौदा के रेलवे स्टेशन पर पहुंच गए...... वहां उनकी ट्रेन 4 घंटे लेट थी । बाबा साहब एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचते है....

 'मैं पहले यह सोचता था कि हमारे लोग मरे पशुओं को उठाते हैं। उनकी खाल खींचते हैं और उनका मांस खाते हैं। हमारे लोग दूसरों का  मैल  अपने सर ऊपर उठाकर फेंकने का काम करते हैं। मेरे लोग गंदे रहते हैं। उनके पास पहनने के लिए अच्छे कपड़े नहीं है और उनके पास पैसा भी नहीं है। हो सकता है यह लोग हमारे लोगों से इसलिए ऐसा व्यवहार करते हैं  , हो सकता है कि ये लोग हमारे लोगों को इसीलिए नीच कहते हैं। लेकिन, आज तो मैंने यूरोप के कपड़े पहने हैं। अमेरिका और इंग्लैंड की यूनिवर्सिटियों से शिक्षा प्राप्त की है और एक अधिकारी बनकर मैं यहां आया हूं। जब ये मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं तो जो मेरे समाज के अशिक्षित और अनपढ़ लोगो के  साथ कैसा व्यवहार करते होंगे '। उनकी  पिघलती हुई आंखों में आक्रोश भर जाता हैं और वे सोचते है  ' अगर मैं अपने समाज को इस ग़ुरबत और गुलामी से आजाद नहीं करा पाया तो मैं वापस बड़ौदा लौट कर कभी नहीं आऊंगा और खुद को गोली मार लूंगा। '


बाबा साहब जब नौकरी छोड़कर अपने घर पहुंचते हैं और यह बात रमाबाई को पता चलती है तो रमाबाई को बहुत दुख होता है।

घर पहुँचकर वे रमा से कहते है......रमा, मैं नौकरी तो करना चाहता था लेकिन वहां का चपरासी मुझे फाइल डंडे में बांध कर देता था। पानी के घड़े को उठाकर अलग रख लेता और वहां के लोगों ने भी मुझे मारने की योजना बनाई थी । मैं ऐसे अपमानजनक स्थान पर नौकरी नहीं कर सकता था। इसीलिए मैं नौकरी छोड़ कर चला आया। मुझे  माफ़ कर दो रमा मैं तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा । रमाबाई  ,बाबा साहब को कहती है साहेब  आपने ठीक किया , आपको जैसा अच्छा लगे, आप वैसा काम करें। मैं आपके साथ हूं।


रमाबाई कभी भी बाबासाहब के मन के विरूद्ध काम नहीं करती थी...... पतिसेवा ही उनकी सच्ची ईशसेवा थी......अपने पति का साथ हर हाल में देना वह अपना धर्म समझती थी । 


बाबा साहब को अपनी अधूरी पढ़ाई और बड़ौदा रेलवे स्टेशन पर लिए गए संकल्प का ख्याल आता है तो बाबा साहब फिर से विदेश जाकर हम सब की गुलामी का कारण जो हिंदू धर्म के ग्रंथों में लिखा हुआ है उसे खोजते हैं। इधर उनका तीसरा बेटा रमेश भी इलाज के अभाव में  इस दुनिया को छोड़ कर चला जाता है। इस प्रकार से बाबा साहब के तीन बच्चे  1914 से 1917 के बीच कुर्बान हो जाते हैं । रमाबाई के लिए 1913 से मृत्यु का जो तांडव शुरू हुआ था वह रुकने का नाम नही ले रहा था । ससुर रामजी की मृत्यु के बाद एक एक करके सब जीजाबाई, आत्या मीराबाई , तीनो बच्चे , आनंदराव का लड़का मुकुंद सब काल के गाल में समाते गए और रमाबाई मूकदर्शक बनकर देखती रही  ...........जब हाथो में कुछ करने लायक न हो तो मौन रहकर सिर्फ देखते रहना ही शायद मुनासिब होता है ।


जब बाबा साहब विदेश से लौट कर आते हैं और हमारी गुलामी व नीचता का कारण हमें बताते हैं। वे कहते है कि मैं कड़ी मेहनत और लगन से यह जान पाया हूं कि हमारे समाज के लोगों के साथ जो नीचता भरा और गुलामी का व्यवहार हो रहा है उसका कारण हिंदू धर्म ग्रंथ हैं । मैं आज यह घोषणा करता हूं कि 25 दिसंबर सन 1927 को पूरी देश के मीडिया को सूचना देकर इस हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ को अग्नि की भेंट चढ़ा कर आप सब को आजाद कर दूंगा। मैं ऐसी किसी भी बात को नहीं मान सकता जो अमानवीय है और आज के बाद ऐसा कोई भी विधान व कोई भी कानून मेरे समाज के लोगों पर लागू नहीं होगा जो अमानवीय हो । क्योंकि यह विधान जबरदस्ती हमारे समाज के लोगों पर थोपा गया है ।


अमानवीय व्यवहार, छुआछूत, जातिभेद को जड़ से समाप्त कर दूंगा ।

गर नही सका मैं यह सब को तो खुद को गोली से उड़ा दूंगा ।


बाबासाहब कहते थे .........

रमा, मैं ज्ञानपिपासुओं की तरह सागर से ज्ञान निकाल रहा हूं , यही मेरी साधना भी है और तपस्या भी । मुझे और किसी का भी ध्यान नही रहता है। परंतु यह अंदरूनी ताकत जो मुझे मिलती है, उसमें तुम्हारा हिस्सा बहुत बड़ा  है। तुम मेरी प्रेरणा हो, अगर तुम न होती, मेरा हौसला न बढ़ाती तो क्या मै ज्ञान अर्जित कर पाता ??? तुम मेरा संसार संभाले बैठी हो, तुम्हारे आंसुओं का  अभिषेक मेरा मनोबल बढ़ाते है , तुम हो तो मुझे घर की चिंता नहीं होती, तुम जैसे तैसे घर परिवार का गुजारा कर ही लेती हो। इसलिए मैं बेबाक तरीके से ज्ञान के अथाह सागर को ग्रहण कर पा रहा हूँ । रमा तुम्हारा महिमामंडन मैं कैसे करूँ, यह मेरा सौभाग्य है जो मुझे तुम जैसी अर्धांगिनी मिली, मैं तो कृतज्ञता भी व्यक्त नही कर सकता क्योंकि तुम उसके भी पार निकल चुकी हो । तुम महान हो रमा.....समाज तुम्हारे त्याग को कभी भुला नहीं पायेगा.......... 


उन्होंने रामू  के निधन (1935) के करीब 6 वर्ष बाद 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया’ को रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित किया है– 


‘रामू की याद को  समर्पित


उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।’


बाबासाहब रमाबाई को कितना आदर और मान देते थे इसका अंदाजा आप लगा सकते है, यह किताब  रमाबाई को समर्पित करते हुए बाबासाहब ने लिखा है कि उन्हें मामूली भीमा से डॉ आंबेडकर बनाने का सम्पूर्ण श्रेय रमाबाई को जाता है। जिसमें लिखा था “रामु  को उसके मन की सात्विक, मानसिक, सदाचार, सदवृत्ति की पवित्रता व मेरे साथ कष्ट झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब मेरा कोई सहायक न था, सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वप्न भेंट करता हूं… ।  महादेवी वर्मा जी कहती है कि संसार ने नारी के महान से महान त्याग को भी  उच्च दृष्टि से स्वीकार न कर उसे उसकी दुर्बलता माना पर बाबासाहब की बात ही अलग थी......वह स्त्रीजाति को भी उतना ही महत्व देते थे जितना के पुरूष जाति को ।


समर्पण के इन शब्दों से कोई भी अंदाज लगा सकता है कि डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते थे और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। 


घर संसार स्त्री और पुरूष दोनों के बदौलत ही चलता है जहाँ दोनों पतिपत्नी का सामंजस्य , प्रेम,त्याग जीवन में सार्थकता प्रदान करते है । 

यह जीवन को स्वाभाविक बनाते हैं ।


- पत्‍नी को अपनी सफलता का इस तरह श्रेय देने के उदाहरण कम मिलते हैं ।   बाबासाहब के कृतित्‍व को याद करते समय ही उनकी जीवन संगीनी रमाबाई के योगदान को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इस किरदार को लाइट हाउस तरह मानते हुए जीवन संघर्ष के हर मोड़ पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना चाहिए । इतना ऊँचा, महान व्यक्तित्व रमाबाई का बाबासाहब के जीवन मे था ।

रमाबाई के बगैर बाबासाहब के जीवन की कल्पना तक नहीं कि जा सकती । 


"नारी के बगैर न कोई नर पूरा है

जो दे नारी को सन्मान वही पूजने योग्य हैं "


बाबासाहब रमाबाई को समझाते थे , रमा 

..... हमारे पास सिवाय दुख के कुछ भी नही है। दरिद्रता, गरीबी के सिवाय हमारा कोई साथी नही। मुश्किलें और दिक्कतें हमें छोड़ती नही हैं। अपमान, छलावा, अवहेलना , अनादर यही चीजें हमारे साथ छांव जैसी बनी हुई हैं।

सिर्फ अंधेरा ही है। दुख का समंदर ही है। हमारा सूर्योदय हमको ही होना होगा रमा। हमें ही अपना मार्ग बनाना है। उस मार्ग पर दीयों की माला भी हमें ही बनानी है। उस रास्ते पर जीत का सफर भी हमें ही तय करना है। हमारी कोई दुनिया नही है। अपनी दुनिया हमें ही बनानी होगी।


हम ऐसे ही हैं रमा। इसलिए कहता हूं कि यशवंत को खूब पढाना। उसके कपड़ों के बारे में फिक्रमंद रहना। उसको समझाना-बूझाना। यशवंत के मन में पढ़ाई के प्रति ललक पैदा करना। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। यशवंत की याद आती है। मैं समझता नहीं हूं। ऐसा नही है रमा, मैं समझता हूं कि तुम इस आग में जल रही हो। पत्ते टूट कर गिर रहे हैं और जान सूखती जाए ऐसी ही तू होने लगी है। पर रमा, मैं  क्या करूं? एक तरफ से पीठ पीछे पड़ी दरिद्रता और दूसरी तरफ मेरी जिद और लिया हुआ दृढ  संकल्प ज्ञान का!


सच कहूं रमा,मैं निर्दयी नहीं। परंतु, जिद के पंख पसारकर आकाश में उड़ रहा हूं। किसी ने पुकारा तो भी यातनाएं होती हैं। मेरे मन को खरोंच पडती है और मेरा गुस्सा भड़कता है। मेरे पास भी हृदय है रमा! मैं तड़पता हूं। पर, मैं बंध चुका हूं क्रांति से! इसलिए मुझे खुद की भावनाएं चिता पर चढ़ानी पड़ती हैं। उसकी आंच तुम्हारे और यशवंत तक भी कभी-कभी पहुंचती है। यह सच है। पर, इस बार रमा मैं बाएं हाथ से लिख रहा हूं और दाएं हाथ से उमड आए आंसू पोंछ रहा हूं।  यशवंत को सम्भालना रमा। उसे पीटना मत। मैंने उसे पीटा था। इसकी कभी उसे याद भी नही दिलाना। वही तुम्हारे कलेजे का इकलौता टुकड़ा है।


"क्रांति तिलक मे लहु मांगती है, 

नीव के पत्थर में अहिल्या की शिला मांगती है"


इंसान के धार्मिक गुलामी का, आर्थिक और सामाजिक ऊंच-नीचता एवं मानसिक गुलामी का पता मुझे ढूंढना है।इंसान के जीवन में ये बातें अडिग बन कर बैठी हैं। उनको पूरी तरह से जला-दफना देना चाहिए।समाज की यादों से और संस्कार से भी यह चीजें खत्म कर देने की जरुरत है।


रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने तीन पुत्रों और एक पुत्री को भी  खोया। जब वे अमेरिका में अध्ययनरत थे, तब उनके पुत्र गंगाधर की मृत्यु हुई थी। उसके बाद यशवंत का जन्म हुआ। फिर रमेश, इंदू और राजरत्न का जन्म हुआ, लेकिन बाद की ये तीनों बच्चे भी काल के गाल में समा गए। 


किसी भी माँ को अपनो पुत्रों की मृत्यु अपनी आंखों से देखना सबसे ज्यादा दुखदायी होता हैं । तीनो बच्चो ने ( गंगाधर, इंदु और रमेश) रमाई की गोद मे दम तोड़ा । कारण ......भूख , गरीबी, समय पर इलाज न मिलना, पैसे की तंगी....... पर स्वाभिमान गजब का था..... किसी भी हालत में इस माता ने कभी भी किसीके भी आगे झोली नही फैलायी न ही कोई मदत माँगी ।  बहुत लोगों ने रमाबाई की मदद करने की सोची और पैसा इकट्ठा कर देने घर भी आये पर स्वाभिमानी रमाई ने पैसा लेने से इनकार कर दिया । इससे बड़ा और क्या दुख होगा कि जीते जी अपनी संतानों की चिताओ को अग्नी देना ।    उनकी चार बच्चो में से तीन बच्चो की आहुति टिस बनकर रमाई को चुभती रही ।    सिर्फ यशवंत ही जीवित रहे। अपने चार संतानो की कुर्बानी समाज के महायज्ञ में देना एक बड़ा आघात था। पर इन सबके बीच रमाबाई ने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि वे खुद बाबासाहब का मनोबल बढ़ाती रहीं।


एक पत्र में रमाबाई ने अपनी व्यथा को शब्दों का सहारा दिया और लिखा 

"पएबावड़ी

मुंबई

सबसे सन्मानित पति,

भीमराव अंबेडकर की सेवा में,

नमस्कार,


आपको यह बताते हुए बहुत दुख हो रहा है की रमेश ने हमे छोड़ दिया । उसकी बीमारी जानबूझकर आपको नही बतायी गयी ,ताकि आपकी पढ़ाई में कोई बाधा न बने । इतनी दूर तक सहन करने के लिए और फिर यह दुर्घटना  ! न जाने मुझमे इतनी ताकत कहाँसे आती है ??? आप दर्द को मुझ को सौप दे । इसे अपने अध्ययन में बाधा न बनने दे । इसे अपने भोजन पर असर न पड़ने दे । अपनी सेहत का खयाल रखें ।मैं यहाँ सब कुछ ध्यान रखूंगी ।

मैं यहाँ रुकती हूँ ।

तुम्हारी पत्नी

श्रीमती रमाबाई


इस पत्र से यह दृष्टिगोचर होता हैं कि चार संतानों को खोने के बाद भी यह माता अपनी पति की पढ़ाई और सेहत का कितना ध्यान रखती है क्योंकि उन्हें पता है कुर्बानी दिए बगैर किसीको मुफ्त में कुछ नहीं मिलता ।

इतिहास उन्ही लोगो का जिक्र करता है जिन्होंने अदम्य और अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया है ।


विलायत से डिग्री लेकर बाबासाहब जब मुंबई आए तब उनके स्वागत के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था.....seaport जाने के लिए रमाबाई का दिल तो तड़प रहा था, लेकिन फटी साडी पहनकर हजारों के भीड में कैसे जाती ? साहब के इज्ज़त आबरू का सवाल था.......रमाबाई अपनी गरीबी को ऐसे सरेआम नीलाम  नही कर सकती थी.......पर साहब का बंदरगाह से स्वागत का नजारा देखना उनकी उत्कट इच्छा थी .......ऐसे में राजर्षी शाहू महाराज ने बाबासाहब को पहनाया हुआ फेटा परिधान कर पोर्ट पर बाबा की एक झलक पाने के लिए रमाबाई गयी ! साहेब उनको पहचान न ले इसलिए वह भीड़ का हिस्सा बनी । पर बाबासाहब भी नजर के पारखी थे , अपनी रामु को इतनी भीड़ में भी उन्होने ढूंढ निकाला ।  एक ना दो... उनके त्याग के ऐसे कई किस्से है , जो हमारे दिल को छलनी करते है, आंखों में आंसू लाते है !


माता रमाबाई कर्मठता की मूर्ति थीं.वह अपने पति के जनहितकारी कार्यों में यथायोग्य उनका साथ देती थी। 20,मार्च,1927 में महाड़ सत्याग्रह की जो योजना बनी थी, जिसका नेतृत्व बाबा साहब को करना था इस सत्याग्रह आंदोलन में महिलाएं भी जाने को उतावली थी ! हर कोई अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहता था , और बाबासाहब का तो शुरुआत से ही कहना था कि जिस आंदोलन में महिलाएं बढ़ चढ़कर हिस्सा ले तो वह आंदोलन सौ फिसदी यशस्वी होकर रहता है........ महिलाओं में सुप्त शक्तियां होती है...... तब  बाबासाहब ने हंसकर रमाबाई से कहा “उन महिलाओं का नेतृत्व तुम्हें करना चाहिए, तब माता रमाबाई  ने कहा “मैं आऊंगी,लेकिन सत्याग्रहियों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करूंगी।

बाबासाहब  ने हंसकर कहा ,”कम से कम दस हजार लोग होगें,जिनकी भोजन व्यवस्था करनी होगी।

रमाबाई का यह उत्तर था,”चाहे जितने लोग हो इसकी चिंता नहीं.,दिन-रात पाकशाला में रहूंगी और सबको रोटी बनाकर खिलाउंगी।  माता रमाई का यह साहसिक उत्तर सुनकर बाबासाहब  को बहुत संतोष हुआ और नाज भी ।

जहाँ इतनी गरीबी का जीवन जी रही थी वहीं आत्मसम्मान भी उनमें में कूट-कूटकर भरा था ।


डॉ.बाबासाहब को बहुत से लोग मिलने के लिए आते थे .....कोई मशवरा लेने आते थे, किसीकी कोई निजी समस्या या फिर कोई सामाजिक विषयापर चर्चा करने तो कोई सिर्फ उनके दर्शन करने की उत्सुकता से आते थे ।  डॉ.बाबासाहब उन सबका हसते हुए स्वागत करते थे ।  उनसे बात करते करते वह किताब भी पढ़ते रहते थे और चर्चा में भी  सहभागी होते थे । पर नजऱ उनकी किताबों में ही टिकी रहती थी ....उनको किताबो से अलग करना याने शरीर से प्राण को निकाल लेने जैसे था ।


हरदम की तरह रमाई बाबासाहब को खाना खाने के लिए बुलाते बुलाते थक जाती थी..... खाना ठंडा न हो इसलिए खाने की थाली उनके पढ़ाई के कक्ष में ले जाकर घन्टो बैठी रहती थी.......पर साहेब का ध्यान कहाँ भंग होता था...…....तब रमाई कहती थी " साहेब आप मुझे बताओ ऐसा कौनसी किताब में लिखा है कि अपनी पत्नी और बच्चो के तरफ ध्यान नहीं देना "........तब बाबासाहब दिलखुलास हंसते और रूठे हुए रमाई को मनाते । उनकी ज्ञान की भूख इतनी अधिक थी कि वे भूखप्यास सबकुछ भूल जाते थे ।

पेट की भूख से उनकी ज्ञान की भूख बहुत ज्यादा थी ।


इसी बीच बाबा साहब मुंबई की कोर्ट में वकालत कर रहे थे तो उनका चौथा बेटा राजरतन बीमार हो गया । रमाबाई नानकचंद रत्तू को बाबा साहब को बुलाने के लिए भेजती हैं। बाबा साहब दौड़कर घर पहुंचते हैं और जैसे ही राजरतन को गोदी में लेते हैं वह दम तोड़ देता है। यह घटना 1926 की है ।


रमाबाई की सब्र का बांध टूट जाता है , आज उनका सबसे छोटा बेटा काल के गाल में समा चुका था , रमा बाबासाहब को कहती है ' साहेब बस कीजिए । आपके समाज सुधार की लालसा ने और ज्ञान पाने की लालसा ने मेरा पूरा घर उजाड़ के रख दिया है। मैंने एक-एक करके अपने 4 बच्चों को दफन कर दिया है। अब तो बस करिए।


बाबा साहब रमा को सांत्वना देते हुए कहते हैं रमा, तुम तो मुझे रो-रो करके बता पा रही है। मैं तो रो भी नहीं पा रहा हूं। मैं तो रोज ऐसे सैकड़ों बच्चों को मरते हुए देखता हूं। रमा, चुप हो जाओ। चुप हो जाओ।


रमाबाई  कहती है साहेब मैंने आज तक आपकी हर बात को माना है और इस बार  भी मान लेती हूं और चुप हो जाती हूं। लेकिन, आप मुझे इतना बता दें कि आप बड़े फख्र से कहते थे कि तेरा बेटा राजरतन देश पर राज करेगा। लेकिन, अब यह इस दुनिया में नहीं रहा। आप बताएं, यह कैसे इस देश पर राज करेगा? साहेब मुझे बता दें कि यह कैसे देश पर राज करेगा?


चार बच्चो के बलिदान ने रमा को धराशायी कर दिया

कातर विव्हलता की संवेदना ने व्रुक्ष को चरमराते गिरा दिया

कुठाराघात हुआ ऐसा वाणी भी जवाब दे गई

भीमा की भिमाई मूक बधिर हो गई ।


बाबा साहब कहते हैं,  रमा यह सच है कि तेरा यह पुत्र अब इस दुनिया में नहीं रहा। लेकिन मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं और राजरतन के पार्थिव शरीर की सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं अपने जीवन में ऐसा काम करके जाऊंगा कि हर रमा की कोख से पैदा हुआ राजरतन इस देश पर राज करेगा। मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं कहते कहते वे बिलखने लगते है ।


जिस दिन रमाई का पुत्र  राजरत्न की  अचानक मृत्यु हुई उसी दिन  डॉ. बाबासाहब को पहली गोलमेज कॉफ्रेंन्स के लिए लंदन जाना था ...... बाबासाहब के बड़े भाई कहते हैं 

"भीम" तू कहाँ जा रहा है   राजरत्न अभी नही रहा ,  बाबासाहेब जहाँ थे वही ठिठक गए .... दिल की धड़कन जैसे रुक गई..... साँसों ने जैसे  ज्वारभाटे का रूप धारण कर लिया........... आंखों में अश्रुओं की जलधारा निरंतर बह रही थीं........ पर उन्होंने खुद को संभालने का प्रयास किया..... रुंधे हुए गले से बोले " भाई , आज अगर मैं लंदन नही गया तो करोड़ो अस्पृश्य लोगो के हक और अधिकारो की मिस्टर गांधी और उनकी कंपनी हत्या कर देंगे , मैं एक बच्चे के लिए मेरे करोड़ो बच्चों का बलिदान नही दे सकता " यह वाकया इतना संवेदनशील है कि बरबस आँखो से पानी निकल आता है.......धन्य है वह माता पिता जिन्होंने ऐसे महान सपूतों को जन्म देकर इस धरा का, मानवता का , करोड़ों वंचित ,शोषित, पीड़ित लोगों का उद्धार किया ,  धन्य हैं वह मातृभूमि जिसके लाल दूसरों  की खातिर फना हो गए । ........


चार-चार बच्चों की मौत ने रमाबाई और आंबेडकर को भीतर से तोड़ दिया। दोनों तड़प उठे और दुख के अथाह सागर में डूब गए। इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति डॉ. आंबेडकर द्वारा अपने मित्र दत्तोबा पवार को लिखे पत्र में हुई है। यह पत्र अंतिम संतान राजरत्न की मत्यु के बाद लिखा गया है। इस पत्र में आंबेडकर लिखते हैं- “ पुत्र निधन से हम दोनों  को जो आघात पहुंचा है, उसे अतिशीघ्र भूल पाना संभव नहीं है। अभी तक तीन पुत्र और एक पुत्री को श्मशान पहुंचाने का काम इन हाथों ने किया है। जब भी ये यादें सताती हैं, तो मन दुख से विचलित हो उठता है। उनके भविष्य के बारे में जो सोचा था, वह सब धराशायी हो गया। हमारे जीवन  पर दुख के बादल मंडरा रहे हैं। बच्चों के निधन से हमारा जीवन ऐसे निस्वाद हो गया है, जैसे भोजन बिना नमक के हो जाता है। बाइबिल में कहा गया है, ‘तुम धरती का नमक हो। नमक का स्वाद ही गया तो, उसे खारा ,नमकीन कैसे बनाया जा सकता है? मेरे शून्य जीवन में इस वचन की सार्थकता सिद्ध होती है। मेरा अंतिम पुत्र असामान्य था। उसके जैसा पुत्र मैंने शायद ही देखा हो। उसके जाने से जीवन कांटों भरे बगीचे के समान हो गया। दुखी-पीड़ित अवस्था के कारण कुछ ज्यादा लिखा नहीं जा रहा है। 

दुख से व्यथित तुम्हारे मित्र का तुम्हें नमस्कार।”


रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने एक साथ मिलकर समाज के लिए कितना और किस कदर कष्ट उठाया इसका वर्णन उन्होंने बहिष्कृत भारत की एक संपादकीय में भी किया है। उन्होंने इस बात विशेष जोर दिया है कि जिंदगी के एक बड़े हिस्सें में जब आंबेडकर विदेशों में पढ़ाई कर रहे थे, गृहस्थी का सारा बोझ रमाबाई ने अपने कंधे पर उठा रखा था। 


वे 1923 में जब भारत लौटे तब दोनों की जिंदगी थोड़ी पटरी पर लौटी। लेकिन आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गई, उन्हें संघर्ष के कई मोर्चों पर सक्रिय होना पड़ा और सामाजिक कामों में इस कदर लग गए कि उनके पास 24 घंटे में से आधा घंटा भी रमाबाई के लिए नहीं बचता था। रमाबाई उस वक्त भी गृहस्थी का सारा बोझ अकेले उठाती थीं। बस फर्क यह पड़ा था कि अब आंबेडकर आर्थिक सहायता करने की स्थिति में थे।


रमा को हमेशा इस बात का ख्याल रहता था कि पति के काम में किसी तरह की बाधा न आए. यह महिला संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी , भीमराव अंबेडकर हमेशा घर से बाहर ही रहते थे ।  अपनी कमाई वे हमेशा रमा के हाथों में देते और जब जितनी जरूरत पड़ती उनसे मांग लेते । रमाबाई घर चलाने के बाद उसमें से कुछ पैसे बचा भी लेती थी ।


उन्होंने हमेशा ही बाबासाहब का पुस्तकों से प्रेम और समाज के उद्धार की दृढ़ता का सम्मान किया ।भीमराव अंबेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाबाई की सहभागिता रहती थी ।दलित समाज के लोग रमाबाई को ‘आईसाहेब’ और डॉ. भीमराव अंबेडकर को ‘बाबासाहेब’ कह कर बुलाते थे।


रमाबाई  सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की गृहणी थी।  कभी-कभी रमाबाई धार्मिक रीतियों को संपन्न करने पर हठ कर बैठती थीं

पुरी जिंदगी में बाबासाहब को कुछ भी न मांगने वाले रमाईने अपनी आखरी दिनों में एक  इच्छा प्रकट की,  "एक बार मुझे पंढरपूर के विठोबा का दर्शन करना है.."

 महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मणी का प्रसिध्द मंदिर है। मगर, तब हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी। आंबेडकर, रमा को समझाते कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो। मगर, रमा नहीं मानती थी।  एक बार रमा के बहुत जिद करने पर बाबा साहब पंढरपुर ले ही गए। किन्तु , अछूत होने के कारण उन्हें मन्दिर के अन्दर  प्रवेश नहीं करने दिया गया था। विठोबा के बिना दर्शन किये ही उन्हें लौटना पड़ा । इससे दोनों का मन विषाक्त से भर गया..... रमाई की नजर में शून्यता भर गई...... वे बहुत आहत हो गयी...इस पर बाबासाहेब रो पडे. और दुःखद अंतःकरण से कहा " रामू... जो भगवान हमें मंदिर में आने नहीं देता, वहां भला हमे क्यों जाना ? मै तुम्हारे  लिए ऐसा तीर्थक्षेत्र बनाऊंगा, जो सभी मानव जाती के लिए खुला होगा..." यह घटना है 1935 की... 

 और इस बात को बाबासाहब ने असली जामा 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में दीक्षाभूमि के रूप में पहना दिया.... जहाँ उन्होंने अपने 9 कोटी जनता के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करके बिना तलवार हाथ में लिए.....रक्त की एक भी बूँद धरती पर न गिराते हुए इंसानो की गुलामी  की जंजीरों को तोड़ दिया ........उन्हें इंसान बनाया , मनुवादियों की दासता से मुक्ति दिलायी....... अब कोई भी इंसान मंदिरों में जाकर अपनी इच्छा अनुसार ईश्वर के दर्शन कर सकता था.......सदियो की मान्यताओं को तोड़कर बाबासाहब ने नया इतिहास रच डाला..... एक नया भारत बनाया ..........जहाँ इंसान , इंसानो में भेद नही कर सकता था........... अब मंदिर प्रवेश आम जनता के लिए खुला था........दुख इस बात का है कि यह काम रमाई के जीते जी नही हो सका ...... 

 उन के जिते जी न सही पर डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर ने नागपूर में ऐसे तीर्थ क्षेत्र का निर्माण किया जो सभी जाती, धर्म, बच्चे, बुढ़े, महिलाओं के लिए खुला है । आज दुनिया जिसे 'दीक्षा भूमी' के नामसे जानती है...!

 बाबासाहब ने रमाई की इच्छा का आदर किया ,  और जो बात कही थी वह सच कर दिखाई । इतिहास में ऐसे दाम्पत्य जीवन का वर्णन और कही देखने को नही मिलता हैं ।


"धन्य हो तुम  रमा , धन्य तुम्हारे साहेब

कोहिनूर हो इस धरा के जैसे खनकती पाजेब"


राजगृह की भव्यता और बाबा साहब की चारों ओर फैलती कीर्ति भी रमाताई की बिगड़ती तबियत में कोई सुधार न ला पायी। उलटे,  वह पति की व्यस्तता और सुरक्षा के लिए बेहद चिंतित दिखी। कभी-कभी वह उन लोगों को डांट लगाती जो 'साहब' को उनके आराम के क्षणों में मिलने आते थे।  रमाताई बीमारी के हालत में भी, डा. आंबेडकर की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी। उन्हें  अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी के  पति को घर में आराम पहुँचाने की। माता रमाई जीवन की राजसत्ता को पूरे मान सम्मान के साथ गौरवान्वित करती रही ।

उनके चेतन और अवचेतन मन पर साहेब सदा राज करते रहे , या यूं कहें वह सदा ही उनके तन मन पर  छाए रहे ।।।


आंबेडकर के भारत लौटने के बाद भी उनके पास घर-गृहस्थी के लिए वक्त नहीं रहता। हां आर्थिक हालात थोड़ी संभली। लेकिन रमाबाई का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था ।


दूसरी ओर , डा.आंबेडकर अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाबाई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे। एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से रमाबाई ने अपना दुःखडा कह सुनाया -  'गुरूजी , मैं कई महीनों से बीमार हूँ।  डॉ साहब को मेरा हाल-चाल पूछने की भी फुर्सत नहीं है। वे हाई कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे के पास खड़े हो कर मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछते हैं और वही से चले जाते हैं।


असल मे बाबासाहब रमाबाई से राजरत्न की मृत्यु के बाद दूरी बनाकर रहते थे.....क्योंकि डॉक्टर ने बाबासाहब को आगाह किया था कि अब और एक  बच्चे को जन्म देना रमाबाई को मौत के मुहँ में ढकेलने जैसा होगा....आपको सावधानी बरतने की बहुत जरूरत है, और  रमाबाई को आराम की आवश्यकता है । उनका शरीर अब खोखला हो चुका है..... आप इनका खयाल रखें...हो सके तो हवा पानी बदलने का प्रयास करें..... इस बात से रामबाई अनभिज्ञ थी....., और रमाबाई को यह गलतफहमी हो गई थी साहेब उनके पास नहीं आते ,,,,,उनका हालचाल दूरसे ही पूछकर चले जाते है........साहेब को अभी उनसे प्रेम नही रहा.......जब कि बाबासाहब रमाई के स्वास्थ्य के बारे में बहुत ज्यादा फिक्रमंद थे । 


"क्या हो गई मुझसे खता, क्यो दूरियाँ आ गयी

डर लगता हैं साहेब जब परछाई तुम्हारी गुजर गयी "


बाबासाहब ने डॉक्टर की बात को तवज्जो देकर हवाबदली के लिए धारवाड़ अपने दोस्त वराले काका के घर भेजा ताकि रामबाई को थोड़ी राहत मिले...... उनकी तबियत में सुधार हो.....रोजाना की खटपट से दूर कही शांत , नैसर्गिक सौंदर्य के स्थान पर उनका चित्त शांत हो......उन्हें खुशी मिले , आनंद मिले....अपनी मनमर्जी के साथ जिंदगी के कुछ पल चुराये जो वक्त की आपाधापी में उनको नसीब न हुए । वराले चाचा उस समय धारवाड़ में छोटे बच्चों का छात्रावास चलाते थे ....

रमाबाई को बच्चो के छात्रावास की कल्पना थी मगर जब वह वहाँ पहुंची तो उन्हें वराले दाम्पत्य बहुत ही दुखी मालूम हुआ ......बच्चे भी खेलने कूदने नही आये .....कहि कोई कुछ भी बताने को तैयार नहीं था...... वराले पतिपत्नी को लगा ,रमाबाई हमारे यहाँ अतिथि के रूप में पधारी है....अपनी समस्या उनको बताकर हमें उनकी चिंता को और नही बढ़ाना चाहिए .......पर रमाबाई चेहरे पढ़ना बखूबी जानती थी .........आखिरकार रमाबाई ने उनकी समस्या जान ही ली......

वराले चाचा से उन्हें जानकारी मिली कि दो तीन दिनों से बच्चे भूखे है......अनाज का जो अनुदान सरकार द्वारा मिलता था वह भी नही मिला । अनुदान राशि मिलने के लिए और दो तीन दिन लग सकते है । इतना सुनने के बाद संवेदनशील मन कि रमाबाई को जबरदस्त आघात लगा । उन्हें अपने चारों बच्चो के चेहरे याद आये ......पेट की भूख क्या होती हैं यह रमाबाई से ज्यादा और कौन जान सकता था । रमाबाई का मातृत्व फिरसे एक बार जाग उठा.....बच्चो के भूख से वह तड़प उठी ......अपने हाथों की सोने की चूड़ियां उतारकर उन्होंने वराले चाचा को थमा दी और कहाँ ......आप इन्हें गिरवी रखकर बच्चो के खाने का इंतजाम कीजिए । बच्चे अगर भूखे रहे तो मुझसे एक निवाला भी नहीं खाया जायेगा । वराले चाचा ने मना किया, वे बोले अगर बाबासाहब को पता चला तो वे बुरा मान जाएंगे ......आप हमारी मेहमान है और आपकी मेहमान नवाजी करना हमारा धर्म है .......तब ममतामयी मां ने कहाँ अगर साहेब यहाँ होते तो वह भी यही करते ...हमारे होते हुए बच्चे भूखे रहे यह कदापि नहीं हो सकता । आप मेरी माने और बच्चों के लिए खाना जितनी जल्दी हो सके उपलब्ध कराए......रमाबाई जिद करके बैठ गई.....वराले दम्पति को उनके हठ के आगे हार माननी पड़ी .......तुरंत ही खाने का प्रबंध हो गया ....रमाबाई ने अपने हाथों से खाना बनाकर बच्चो को खिलाया..... बच्चो को खाना खाते देख उनके मन को तृप्ति हुई ... वह प्रसन्न हो गई .......वराले दंपती ने रमाबाई का आभार प्रकट किया और तबसे रमाबाई को लोग रमाई के नाम से पुकारने लगे .........

बाबासाहब को जब यह बात पता चली तो उन्हें अपनी रामु पर गर्व महसूस हुआ .......उन्होंने रमाई की इस बात को बहुत सराहा और प्रशंसा की । उनका मन  रमाई के प्रति आदर भाव से भर गया। 


जो लम्हे नसीब से साथ हैं, 

उन्हें जी भर के जी लीजिये....

कमबख्त ये जिंदगी अब तो

भरोसे के काबिल नही रही ...


रमाबाई के स्वास्थ्य कारणों का जिक्र करते हुए आंबेडकर के जीवनीकार धनंजय कीर लिखते हैं- “बाबासाहब की पत्नी श्रीमती रमाबाई बीमार थीं। पिछले दस वर्षों में अपने परिवार का ध्यान देने के लिए बाबा साहब को समय कभी मिला ही नहीं। जब-जब उन्हें थोड़ा समय मिल जाता, तब-तब वे पारिवारिक बातों की ओर ध्यान देते। एक बार रमाबाई को हवा बदली करने के लिए धारवाड़ ले गए थे। लेकिन उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो पा रहा था।….पत्नी के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो इसके लिए बाबा साहब ने काफी प्रयास किए।”  लेकिन इलाज का असर नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे उनका शरीर कमजोर पड़ता गया। मृत्यु से पहले वे छह महीने तक बिस्तर पर रहीं। वैवाहिक जीवन के शुरूआती वर्षों में उन्हें लंबे समय तक भूखे या आधा पेट खाकर जीना पड़ा था। इस स्थिति ने उन्हें शारीरिक तौर पर तोड़ दिया चार-चार बच्चों की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। अंत में साहेब की रामू उन्हें सदा-सदा के लिए छोड़कर 27 मई 1935 को  किसी और दुनिया मे प्रस्थान कर  गईं। रमाबाई की मृत्यु एक रात पहले ही आंबेडकर लौटे थे। उनकी मृत्यु के समय वे उनकी शैय्या के पास बैठे थे।  । बाबा की छांव चली गई... जिसने भीमरावजी को बाबासाहब बनाने के लिए अपनी पुरी जिंदगी कुर्बान की ऐसी हमारी माता हमसे विदा हो गई ।


"उषा की रक्तिम लालिमा चेहरे पर छा गयी

आज माता रमाई  विदाई की अर्जी दे गयी

सुख न जाये कंठो से प्राण यह कैसी घड़ी आ गयी

बिलखता हमे छोड़कर माँ तुम कहाँ चली गयी"


दस हज़ार से अधिक लोग रमाबाई की अर्थी के साथ गए। डॉ. आम्बेडकर की उस समय की मानसिक अवस्था अवर्णनीय थी। उनका अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। उनको विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था। रमाबाई ने अतीव निर्धनता में भी बड़े संतोष और धैर्य से घर का निर्वाह किया और प्रत्येक कठिनाई के समय उनका साहस बढ़ाया। 28 साल तक माता रमाई ने बाबासाहब का साथ निभाया, उन्हें एक पल के लिए भी तन्हा न छोड़ा ......हरपल साथ निभानेवाले शायद ऐसे ही एक दिन हरदम के लिए तन्हाई देकर विदा होते हैं....... जिंदगी भर का गम देकर रुखसत होते है कभी न मिलने के लिए.... यादो के खजाने छोड़ जाते है  ..........


बाबासाहब भारी दिल से, गंभीर मुद्रा, विचार और दुख से व्याकुल मन: स्थिति के साथ वे शवयात्रा के साथ धीमे-धीमे चल रहे थे। श्मशान यात्रा से लौटने पर वह दुख से व्याकुल होकर कमरे में अकेले बंद होकर पड़े रहे। एक सप्ताह तक छोटे बच्चे की भांति वे फूट-फूटकर रोते रहे


उन्हें रमाबाई के निधन का इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने अपने बाल मुंडवा लिये। उन्होंने भगवे वस्त्र धारण कर लिये और गृह त्याग के लिए साधुओं का सा व्यवहार अपनाने लगे। वह बहुत उदास, दुःखी और परेशान रहते थे। वह जीवन साथी जो ग़रीबी और दुःखों के समय में उनके साथ मिलकर संकटों से जूझता रहा और अब जब कि कुछ सुख पाने का समय आया तो वह सदा के लिए बिछुड़ गया। साहेब की जिंदगी खामोश हो गई...दूर धरती कि धुरी पर कालचक्र अपनी ही गति से घूम रहा था ......अब बहुत कठिन हो जायेगा उन रास्तो पर चलना जहाँ तुमने अपनी यादों की गठरी मेरे जीवन के हर लम्हे से बांध रखी थी रामु........

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माता रमाई बाबासाहब की अस्मिता और अस्तित्व की सृजन थी ।  रमाई उनके घर का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज का अलंकार थी । रमाई के संघर्ष की प्रेरणा से प्रेरित होकर हमे अपने घर और समाज का पुनर्निर्माण करना होगा और इसे सुसंस्कृत समाज बनाने में योगदान देना होगा..........माता रमाई का बलिदान किसी भी सूरत में व्यर्थ नहीं जाना चाहिए......जिन्होंने हमारे हिस्से की वेदना और पीड़ा को  खुद सहा है.....वे अपनी असह्य कष्टो से परिचित थी.....वे कोमल थी पर दुर्बल नही .....इस बात को उन्होंने पग पग पर साबित करके दिखाया .......स्त्री  अपने आप मे सम्पूर्ण दिव्य आभा है ....जो खुद का मार्ग प्रशस्त करके औरो का जीवन भी प्रकाशित कर सकती है । माता रमाई स्वर्ण थी पर जीवन की आग में तपकर वह कुंदन बन चुकी थीं , एक ऐसा कुंदन जिसका औरा ब्रम्हांड की चारो दिशाओ में फैल चुका था , और अपनी सुनहरी आभा से सबको दैदीप्यमान कर रहा था ।  आशा है कि  माता रमाई हमारे जीवन में सदा दीपक की भांति जीवन ज्योत बनकर  पथ  प्रदर्शित करती रहेगी ।।।।


ममतामयी माँ जीवन प्रकाशमान कर गयी

धन्य हैं वह बच्चे जिन्हें आप जैसी माँ मिल गयी ।


समाप्त


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