ढाई आखर प्रेम का
ढाई आखर प्रेम का
‘‘मांजी, देखिए तो कौन आया है,’’ अनुज्ञा ने अपनी सासू माँ के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।
‘‘कौन आया है, बहू…’’ उन्होंने उठ कर चश्मा लगाते हुए प्रतिप्रश्न किया।
‘‘पहचानिए तो,’’ अनुज्ञा ने एक युवक को उन के सामने खड़े करते हुए कहा।
‘‘दादीजी, प्रणाम,’’ वे कुछ कह पातीं इस से पूर्व ही उस युवक ने उन के चरणों में झुकते हुए कहा।
‘‘तू चंदू है?’’
‘‘हाँ दादीजी, मैं चंद्रशेखर। ’’
‘‘अरे, वही तो, बहुत दिन बाद आया है। कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई?’’ उसे अपने पास बिठाते हुए माँ जी ने कहा।
‘‘दादी माँ, पढ़ाई अच्छी चल रही है, आप के आशीर्वाद से नौकरी भी मिल गई है, पढ़ाई समाप्त होते ही मैं नौकरी जौइन कर लूँगा। सैमेस्टर समाप्त होने पर हफ्ते भर की छुट्टी मिली थी, इसलिए आप सब से मिलने चला आया। ’’
‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है। सुना बहू, इसे नौकरी मिल गई है। इस का मुंह तो मीठा करा। और हाँ, चाय भी बना लाना। ’’
मांजी के निर्देशानुसार अनुज्ञा रसोई में गई। चाय बनाने के लिए गैस पर पानी रखा पर मस्तिष्क में अनायास ही वर्षों पूर्व की वह घटना मंडराने लगी जिस के कारण उस की जिंदगी में एक सुखद परिवर्तन आ गया था।
दिसंबर की हाड़ कंपाती ठंड वाला दिन था। अमित टूर पर गए थे, शीतल और शैलजा को स्कूल भेजने के बाद वह रसोई में सुबह का काम निबटा रही थी कि गिरने की आवाज़ के साथ ही कराहने की आवाज़ सुन कर वह गैस बंद कर अंदर भागी तो देखा उस की सासू माँ नीचे गिरी पड़ी हैं। अलमारी से अपने कपड़े निकालने के क्रम में शायद उन का संतुलन बिगड़ गया था और उन का सिर लोहे की अलमारी में चूड़ी रखने के लिए बने भाग से टकरा गया था, उस का नुकीला सिरा माथे से कनपटी तक चीरता चला गया जिस के कारण खून की धार बह निकली थी। वे बुरी तरह तड़प रही थीं।
उस ने तुरंत एक कपड़ा उन के माथे से बांध दिया, हाथ से कस कर दबाने के बाद भी खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था तथा माँ जी धीरे-धीरे अचेत होती जा रही थीं। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
आसपास ऐसा कोई नहीं था जिस से वह सहायता ले पाती, अमित के स्थानांतरण के कारण वे दो महीने पूर्व ही इस कसबे में आए थे, घर को व्यवस्थित करने तथा बच्चों के ऐडमिशन के कारण वह इतनी व्यस्त रही कि किसी से जान पहचान ही नहीं हो पाई। घर भी बस्ती से दूर ही मिला था, घर अच्छा लगा, इसलिए ले लिया था।
पंद्रह वर्ष बड़े शहर में नौकरी के बाद इस छोटे से कसबे कासिमपुर में पोस्टिंग से अमित बच्चों की पढ़ाई को ले कर परेशान थे। उन का कहना था कि "तुम बच्चों को ले कर यहीं रहो पर अनुज्ञा का मानना था कि वहां भी तो स्कूल होंगे ही। अभी बच्चे छोटे हैं, सब मैनेज हो जाएगा।" दरअसल, वह माँ जी के उग्र स्वभाव के कारण छोटे बच्चों को ले कर अलग नहीं रहना चाहती थी। उन की चिंता का शीघ्र ही निवारण हो गया जब उन्हें पता चला कि यहां डीएवी स्कूल की एक ब्रांच है तथा उस का रिजल्ट भी अच्छा रहता है।
मांजी के कराहने की आवाज़ उसे बेचैन कर रही थी, सारी बातों से ध्यान हटा कर उस ने सोचा, टैलीफोन कर के एंबुलेंस को बुलवाए। टैलीफोन उठाया तो वह डैड था। उस समय मोबाइल तो क्या हर घर में टैलीफोन भी नहीं हुआ करते थे। अगर थे भी तो वे लाइन में गड़बड़ी के कारण अक्सर बंद ही रहते थे। अगर चलते भी थे तो आवाज़ ठीक से सुनाई नहीं देती थी। एसटीडी करने के लिए कॉल बुक करनी पड़ती थी। अर्जेंट कौल भी कभी कभी 1 से 2 घंटे का समय ले लिया करती थी।
मांजी की हालत देख कर उस दिन जिस तरह से वह स्वयं को लाचार व बेबस महसूस कर रही थी, वैसा उस ने कभी महसूस नहीं किया था। आत्मनिर्भरता उस में कूटकूट कर भरी थी। वह एक कंपनी में सोशल वैलफेयर ऑफिसर थी। विवाह के पूर्व तथा पश्चात भी उस ने कार्य जारी रखा था।
अभी सोच ही रही थी कि क्या करे, तभी डोर बेल बजी, मांजी को वहीं लिटा कर उस ने जल्दी से दरवाज़ा खोला तो सामने रामू को देख कर संतोष की सांस लेते हुए, उस से कहा, "तू जरा मांजी के पास बैठ कर उन के माथे को दबा कर रख। मैं तब तक गाड़ी निकालती हूं।"
"क्या हुआ मांजी को?" चिंतित स्वर में रामू ने पूछा।
"वे गिर गई हैं, उन के माथे से खून बह रहा है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। प्लीज, मेरी मदद कर।"
"लेकिन मैं?" वह उस का प्रस्ताव सुन कर हड़बड़ा गया था।
"मैं तेरी हिचकिचाहट समझ सकती हूं पर इस समय इस के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है, प्लीज मदद कर," अनुज्ञा की आवाज़ में दयनीयता आ गई थी।
वह मांजी की छुआछूत के बारे में जानती थी पर इस समय रामू की सहायता लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था, यह तो गनीमत थी कि उसे कार चलानी आती थी।
अब वह अकेली नहीं थी। रामू भी साथ में था। उस ने रामू की सहायता से माँ जी को गाड़ी में लिटाया तथा ताला बंद कर बच्चों के नाम एक स्लिप छोड़ कर ड्राइव करने ही वाली थी कि रामू ने स्वयं ही कहा, "मेमसाहब, हम भी चलें क्या?"
"तुझे तो चलना ही होगा। यहां जो भी अच्छा अस्पताल हो, वहां ले कर चल। और हां, मांजी को पकड़ कर बैठना। "
हड़बड़ी में वह उसे बैठने के लिए कहना भूल गई थी। वैसे भी एक से भले दो, न जाने कब क्या जरूरत आ जाए। नई जगह भागदौड़ के लिए एक आदमी साथ रहेगा तो अच्छा है।
अत्यधिक खून बहने के कारण मांजी अचेत हो गई थीं, घबराहट में वह भूल ही गई थी कि यदि कहीं से खून निकल रहा हो तो उस स्थान पर बर्फ रख देने से खून के बहाव को रोका जा सकता है। माँ जी अचेत थीं, ब्लड प्रेशर के साथ डायबिटीज की भी उन्हें शिकायत थी। शायद इसीलिए उस के पट्टी बांधने के बावजूद खून का बहना नहीं रुक पा रहा था।
अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था, पहुंचते ही उन्हें ऐडमिट कर लिया गया। घाव में टांके लगाने के लिए उन्हें ऑपरेशन थिएटर में ले जाया जाने लगा तब उस की घबराहट देख कर रामू उसे दिलासा देता हुआ बोला, "मेमसाहब, धीरज रखिए, सब ठीक हो जाएगा।"
उस की बात सुन कर भी वह सहज नहीं हो पा रही थी, उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी। तभी सिस्टर ने आ कर कहा, "चोट लगने से मरीज के माथे के पास की एक नस कट गई है जिस के कारण ब्लीडिंग काफी हो गई है। ब्लड देने की आवश्यकता पड़ेगी, यहां तो कोई ब्लडबैंक नहीं है, इस के लिए शहर जाना पड़ेगा पर इस में शायद देर हो जाए।"
"सिस्टर, आप कुछ भी कीजिए पर मांजी को बचा लीजिए," अनुज्ञा की स्वर में विवशता आ गई थी। अमित की बहुत याद आ रही थी। काश, उन की बात मान कर यहां न आती तो शायद यह सब न झेलना पड़ता।
"आप डाक्टर साहब से बात कर लीजिए।"
डाक्टर साहब से बात की तो उन्होंने कहा, "स्थिति गंभीर है। अगर आप की स्वीकृति हो तो हम फ्रैश खून चढ़ा देंगे वरना"
"आप मेरा खून चैक कर लीजिए डाक्टर साहब पर मांजी को बचा लीजिए।"
"मेरा भी, डाक्टर साहब," रामू ने कहा।
आखिर रामू का खून मांजी के खून से मैच हो गया। अनुज्ञा से स्वीकृतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया। भरे मन से उस ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि इस के अलावा कोई चारा न था।
मांजी को जब रामू का खून चढ़ाया जा रहा था तब वह सोच रही थी, जिस आदमी को माँ जी सदा हीन और अछूत समझ कर उस का तिरस्कार करती रही थीं वही आज उन के प्राणों का रक्षक बन गया है।
घर में बेडरूम से अटैच बाथरूम को धोने के लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए बेडरूम में घुस कर ही बाथरूम जाया जा सकता था। तीन बेडरूम का मकान होने के कारण अलग से पूजा घर नहीं बना पाए थे। स्टोर में ही मंदिर रख कर पूजा घर बना लिया था पर स्टोर भी इतना बड़ा तथा हवादार नहीं था कि उस में कोई इंसान घंटे दो घंटे बैठ कर पूजा कर पाए। वैसे भी सुबह कई बार उसे स्वयं ही कोई न कोई सामान निकालने स्टोर में जाना ही पड़ता था जिस से मांजी की पूजा में विघ्न पड़ता था। मांजी ऐसी ढकोसलेबाजी में कुछ ज्यादा ही विश्वास करती थी। इसलिए आरती कर के वे बेडरूम में ही कुरसी डाल कर पूजा किया करती थीं।
जिस समय रामू सफाई करने आता, वही उन का पूजा का समय रहता था। कई बार उस से उस समय आने के लिए मना किया पर उस का कहना था, नौ से पाँच बजे तक मेरी नगरनिगम के ऑफिस में ड्यूटी रहती है, यदि इस समय सफाई नहीं कर पाया तो शाम के पाँच बजे के बाद ही आ पाऊंगा।
मजबूरी के चलते उस का आना उसी समय होता था। उस के आते ही मांजी उसे हिकारत की नजर से देखते हुए अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढक लेती थीं तथा उस के जाते ही जहां जहां से उस के गुजरने की संभावना होती, पोंछा लग जाने के बाद भी फिर पोंछा लगवातीं तथा गंगाजल छिड़क कर स्थान को पवित्र करने का प्रयास करते हुए यह कहने से बाज नहीं आती थीं कि" इस ने तो मेरी पूजा ही भंग कर दी।"
अनुज्ञा चाह कर भी नहीं कह पाती थी कि वह भी तो एक इंसान है। जैसे अन्य अपना काम करते हैं वैसे ही वह भी अपना काम कर रहा है। अब उस के आने से उन की पूजा कैसे भंग हो गई। उन्हें समझाना उस के क्या अमित के बस में भी नहीं था। वैसे भी दो पुत्रियों के बाद फैमिली प्लानिंग का ऑपरेशन करवाने के कारण अनुज्ञा उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी। दरअसल, माँ जी को लगता था कि इस निर्णय के पीछे अनुज्ञा का हाथ है। किसी भी माँ को अपना पुत्र कभी गलत लगता ही नहीं है, अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो वह पुत्र नहीं, बहू के कारण हो रहा है। शायद, इसी मनोस्थिति के कारण सास-बहू में सदा छत्तीस का आंकड़ा रहता है।
अपने इस आक्रोश को जब तब छोटी-छोटी बात पर उसे जली कटी सुना कर निकालती रहती थीं। वह तो अभ्यस्त हो चली थी लेकिन जब वे शीतल और शैलजा को अपने आक्रोश का निशाना बनाती तब उस से सहन नहीं होता था, लेकिन फिर भी घर में अशांति न हो या जैसी भी हैं, अमित की माँ हैं, सोच कर वह अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास करती थी लेकिन शीतल और शैलजा चुप नहीं रहती थीं। यही कारण था कि उन की अपनी पोतियों से भी नहीं बना करती थी।
रामू तो रामू, काम वाली कमली की पाँच वर्षीय बेटी काजल भी यदि ग़लती से उन से छू जाती तो उसे भी वे कोसने से नहीं चूकती थीं, तुरंत साड़ी बदलतीं, काम वाली के धोए बरतन वे फिर पानी से इसलिए धुलवातीं कि कहीं उस ने प्राकृतिक मासिक चक्र के दौरान बरतन न धो दिए हों।
अनुज्ञा सोचती जिस चीज के कारण प्रकृति ने औरत को नारीत्व होने का सब से बड़ा गौरव दिया, भला उस के कारण वह ‘अपवित्र’ कैसे हो सकती है? वैसे काम वाली को सख्त हिदायत थी कि इन दिनों वह काम नहीं करेगी पर फिर भी उन्हें विश्वास नहीं था, उन के इस विचार के कारण कामवाली को चार दिन की अतिरिक्त छुट्टी देनी पड़ती थी।
व्यर्थ के बढ़े इन कामों के कारण कभी-कभी मन आक्रोश से भर उठता था पर घर की सुख शांति के लिए संयम बरतना उस की मजबूरी थी। वह जानती थी कि अमित को भी यह सब पसंद नहीं है पर माँ के उग्र स्वभाव के कारण वे भी चुप रहते थे। कभी वे कुछ कहने का प्रयास करते तो तुरंत कहतीं, "हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं। आज अगर तुम्हारे पिताजी होते, तुम्हारे घर का दानापानी भी ग्रहण नहीं करते। प्रकृति मुझे न जाने किन पापों की सजा दे रही है।" इस के साथ ही उन का रोना प्रारंभ हो जाता।
अमित के पिताजी गाँव के मंदिर में पुजारी थे, चार पीढ़ियों से चला आ रहा यह व्यवसाय उन्हें विरासत में मिला था। प्रकांड विद्वान होने के कारण आसपास के अनेक गाँवों में उन की बेहद प्रतिष्ठा थी। दान स्वरूप प्रचुर मात्रा में मिले धन के कारण धन दौलत की कोई कमी नहीं थी। पुरखों की ज़मीन अलग से धन वर्षा करती रहती थी। एक दिन वे ऐसे सोए कि उठ ही नहीं पाए। अमित परिवार में सब से बड़े थे। दोनों भाई बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे थे। कोई भी भाई अपने परिवार का पुश्तैनी व्यवसाय यानी पंडिताई तथा खेतीबारी अपनाने को तैयार नहीं था। इ
सलिए सबकुछ बेच कर तथा खेती को बटाई में दे कर वे माँ को ले कर चले आए।
उस समय शीतल दो वर्ष की थी, उस के कारण सर्विस में भी समस्या आने लगी थी। मांजी के आने से उसे लगा कि अब शीतल को संभालने में आसानी होगी पर हुआ विपरीत। दंभी और उग्र स्वभाव की होने के साथ उन की टोकाटाकी तथा छुआ छूत की आदत के कारण कभी कभी उसे लगता था कि उस का सांस लेना ही दूभर हो गया है। इस के साथ उन का एक ही जुमला दोहराना कि "हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं," उसे अपराधबोध से जकड़ने लगा था। ग़लती शायद उन की भी नहीं थी, बचपन से जो जिस माहौल में पला बढ़ा हो, उस के लिए इन सब को एकाएक छोड़ पाना संभव ही नहीं है। इन हालात में घर संभालना ही कठिन हो रहा था इसलिए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
तीन दिन तक मांजी को आईसीयू में रखा गया। दवाओं के बावजूद वे स्टेबल नहीं हो पा रही थीं। डाक्टर इस चिंता में थे कि कहीं इस का कारण, उन को दिया गया खून तो नहीं है, शायद उन का शरीर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है। रामू लगातार अनुज्ञा को देखने आता रहा था। जब वह घर जाती तब वह उस के पास बैठा रहता। शीतल और शैलजा की परीक्षाएं चल रही थीं। अंतिम दो पेपर बाकी थे इसलिए वे भी उस के पास ज्यादा देर तक बैठ नहीं पा रही थीं। सच तो यह है कि रामू के कारण वह संकट की इस घड़ी को आसानी से पार कर गई थी।
अमित भी सूचना पा कर शीघ्र लौट आए थे। आखिर पाँच वें दिन उन की हालत में थोड़ा सुधार आना प्रारंभ हुआ, तब चैन आया। माँ जी को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। उसी दिन शीतल और शैलजा के पेपर समाप्त हुए थे। वे भी माँ जी से मिलने आई थीं। उसी समय रामू भी मांजी का हालचाल लेने पहुंच गया। उसे देखते ही शीतल ने मांजी की ओर देखते हुए कहा, "दादी, रामू की सहायता से ही ममा आप को अस्पताल ले कर आ पाईं।"
"क्या इस ने मुझे छूआ?" मांजी ने हकबका कर कहा।
"दादी, रामू ने छुआ ही नहीं आप को अपना खून भी दिया," शैलजा ने कहा।
"क्या कहा तू ने, इस का खून मुझे चढ़ाया गया?"
"हाँ दादी, अगर यह नहीं होता तो आप को खून नहीं मिल पाता।"
"इस का खून मुझे क्यों चढ़ाने दिया, इस से तो मुझे मर ही जाने देते," मांजी ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा।
यह सुन कर रामू ने सिर झुका दिया तथा बिना कुछ कहे चला गया।
"माँ, मेरी अनुपस्थिति में इस ने तुम्हारी सेवा की, जो काम मुझे करना चाहिए वह इस ने किया। इस का हम से कोई संबंध नहीं है, है तो सिर्फ इंसानियत का और तुम इसे गलत समझ रही हो। तुम्हें इस के खून से परहेज है क्योंकि तुम्हारी नजरों में वह नीच जाति का है। पर माँ खून तो खून ही है, इस का धर्म और जाति से भला क्या वास्ता। अगर ऐसा होता तो तुम्हारा खून इस से कैसे मेल खाता। माँ, हर इंसान का खून एक जैसा है, हम इंसानों ने ही कभी कार्य, कभी जाति तो कभी धर्म के आधार पर एक दूसरे को बांट दिया है।"
‘माँ, यह रामू का नहीं, उस के जैसे अनेक लोगों का दोष है कि उन्होंने एक सवर्ण के घर नहीं बल्कि तथाकथित निम्नवर्ण में जन्म लिया। माँ, वह छोटा नहीं, हम से बड़ा है। जहां हम अपनी गंदगी स्वयं साफ करने में झिझकते हैं, वहीं इन्हें उसे साफ करने में कोई संकोच नहीं होता। जरा सोचो, माँ, अगर यह भी हमारी तरह गंदगी को साफ करने से मना कर दे तो? क्या यह दुनिया रहने लायक रह पाएगी?" अमित उन की बात सुन कर चुप न रह पाए तथा उन्हें समझाते हुए कहा।
अमित की बात सुन कर आशा के विपरीत वे कुछ नहीं बोलीं पर उन की मुखमुद्रा से स्पष्ट लग रहा था कि वे कुछ सोच रही हैं। शायद, पुत्र की बात आज उन्हें सही लग रही थी पर वे चाह कर भी दिल की बात जबां पर नहीं ला पा रही थीं। नहीं कह पा रही थीं कि "तू ठीक कह रहा है बेटा, आज तक व्यर्थ ही मैं इन ढकोसलों में पड़ी रही। मैं भूल गई थी, कार्य ही इंसान को महान बनाते हैं।"
"कैसी हैं मांजी आप?’ डाक्टर ने अंदर प्रवेश करते हुए पूछा। "अब ठीक हूं, तुम ने बचा लिया, वरना" मांजी ने चौंकते हुए कहा।
"मांजी जी, मुझे नहीं, अपनी बहू और रामू को धन्यवाद दीजिए। यदि ये समय पर आप को यहां नहीं ला पाते या रामू अपना खून न देता तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता," डाक्टर विनय ने उन से कहा।
मांजी सोच रही थीं कि डाक्टर सच ही कह रहे हैं। अनुज्ञा, जिसे पुत्र न दे पाने के लिए वे सदा कोसती रहीं आज उसी ने बेटा बन कर उन की सेवा की तथा जिस रामू को सदा हिकारत की नजर से देखती रहीं, उसी के खून से उन की जान बच पाई।
दूसरे दिन वे अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं।
रामू अपने नियत समय पर काम करने आया, उसे देख कर पलंग पर लेटी, माँ जी ने कहा, "आ बेटा, इधर आ, मेरे पास आ।"
"नहीं मांजी, कहां आप कहां हम, अपने पास बुला कर हमें और शर्मिंदा न कीजिए। वह तो मेमसाहब अकेली परेशान हो रही थीं, इसलिए हमें आप को छूना पड़ा वरना" कह कर वह चला गया।
आशा के विपरीत माँ का रामू के प्रति सद्व्यवहार देख कर सभी हतप्रभ रह गए किंतु रामू की प्रतिक्रिया सुन कर मेरे मन में मंथन चलने लगा, सदियों से चले आ रहे इस भेदभाव को मिटाने में अभी बहुत वक्त लगेगा। जब तक अशिक्षा रहेगी तब तक जातिपांति की इस खाई को पाट पाना मुश्किल ही नहीं असंभव सा है।
रामू जैसे लोग सदा हीनभावना से ग्रस्त रहेंगे तथा जब तक हीनभावना रहेगी उन का उत्थान नहीं हो पाएगा। उन की इस हीनता को आरक्षण द्वारा नहीं बल्कि शिक्षा द्वारा ही समाज में जागृति पैदा कर दूर किया जा सकता है।
आश्चर्य तो इस बात का है कि आरक्षण के बल पर इन का उत्थान चाहने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि आरक्षण के द्वारा इन दबे कुचले लोगों का नहीं बल्कि इन के उन भाइयों का ही फायदा हो रहा है जो पहले से ही इस का लाभ प्राप्त कर अच्छी स्थिति में आ गए हैं। इन में से कुछ लोगों को तो यह भी नहीं पता होगा कि सरकार के द्वारा इन के लिए क्या क्या सुविधाएँ दी जा रही हैं।
दूसरे दिन से मांजी के व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आ गया था। कमली उन के कमरे में सफाई के लिए गई तो उस से उन्होंने कहा, "कमली, मेरे लिए एक गिलास पानी ले आ।" कमली को अपनी ओर आश्चर्य से देखते देख बोलीं, "अरे, ऐसे क्या देख रही है, मैं ने कहा, एक गिलास पानी ले आ।"
"अभी लाई, मांजी। "
"तेरी बेटी काजल क्या कर रही है," पानी पी कर गिलास पकड़ाते हुए पूछा।
"क्या करेगी मांजी। पढ़ना चाहती है पर हम ग़रीबों के पास पैसा कहां? लड़के को तो उस के बापू ने स्कूल में डाल दिया पर इस को स्कूल में डालने के लिए कहा, तो कहता है, लड़की है इस पर पैसा खर्च करने से क्या फायदा।"
"लड़की है तो क्या हुआ, अगर यह पढ़ना चाहेगी तो इस की पढ़ाई का ख़र्चा मैं दूंगी।"
"सच, मांजी ?"
"हां कमली, एक लड़की का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है क्योंकि वह अपने बच्चे की पहली शिक्षक होती है, अगर वह पढ़ी लिखी होगी तभी वह अपने बच्चे को उचित संस्कार दे पाएगी। "
हम सभी मांजी में आते परिवर्तन को देख कर अतिप्रसन्न थे। उन की टोकाटाकी कम होने से शीतल और शैलजा भी काफी प्रसन्न थीं। स्कूल से आने के बाद वे अपना काफी समय दादी के साथ बिताने लगी थीं। यहां तक कि एक दिन उन्होंने अनुज्ञा से भी कहा, "अनुज्ञा, अगर तू कोई काम करना चाहती है तो कर ले, घर मैं देख लूंगी, कमली तो है ही।"
"ठीक है मांजी, प्रयत्न करती हूं।"
रामू से भी अब वे सहजता से बातें करने लगी थीं। एक दिन रामू खुशी-खुशी घर आया, बोला, "मेमसाहब, आज मैं काम नहीं करूंगा। बहू को अस्पताल ले जाना है। वह पेट से है, दर्द उठ रहे हैं। "
शाम को उस ने पुत्र होने की सूचना दी तो मांजी ने उस के हाथ में सौ रुपए का नोट पकड़ाते हुए कहा, "जा, मुहल्ले में मिठाई बंटवा देना।"
उस के जाने के पश्चात अनुज्ञा को पांच सौ रुपए देते हुए सासू माँ ने कहा,
"बहू, इन रुपयों से बच्चे के लिए कपड़े ले आना। "
एक दिन उन्होंने अमित से कहा, "बेटा, रामू के लिए तो मैं कुछ कर नहीं पाई पर सोचती हूं, उस के पोते के लिए ही कुछ करूं।"
"आप क्या करना चाहती हैं?"
"मैं चाहती हूं कि इस की पढ़ाई का ख़र्चा भी मैं उठाऊं। इस का दाख़िला भी किसी ऐसे वैसे स्कूल में नहीं बल्कि अच्छे स्कूल में हो तथा तुम स्वयं समय समय पर ध्यान दो।
"ठीक है माँ, जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा। पर"
"पर क्या, बेटा, तू सोच रहा होगा कि मेरे अंदर इतना परिवर्तन कैसे आया। बेटा, मानव मन जितना चंचल है उतना ही परिवर्तनशील। उस दिन की घटना के बाद से मेरे मन में हर दिन उथलपुथल होने लगी है। जितना सोचती हूं उतने ही मुझे अपने कर्म धिक्कारते प्रतीत होते हैं। जिस बहू को सदा नकारती रही, उस ने मेरी बेटी की तरह सेवा की। रामू, जिसे सदा तिरस्कृत करती रही, उस ने मेरी जान बचाने के लिए अपना खून तक दिया और जिन नातिनों को लड़की होने के कारण कभी प्यार के लायक नहीं समझा, उन्होंने मेरा प्यार पाने के लिए क्या कुछ नहीं किया पर अपनी मानसिकता के कारण उन के निस्वार्थ प्यार को नकारती रही। मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं, बेटा।
तुम ने ठीक कहा था बेटा, सभी इंसान एक जैसे ही होते हैं। हम स्वयं ही अपनी सोच के अनुसार उन्हें अच्छा या बुरा, उच्च या नीच मान बैठते हैं। मेरे मन में आजकल कबीरदासजी की वाणी रहरह कर गूंजने लगी है : पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, भया न पंडित कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय," वास्तव में जीव मात्र से प्रेम करना तथा अपने सांसारिक कर्तव्यों को निभाना ही इंसानियत है।
जब से मुझे सहज मानव धर्म समझ आया तब से मैं ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं स्वयं में बदलाव लाने का प्रयत्न करूंगी। व्यर्थ के रीतिरिवाज या ढकोसलों को, जिन की वजह से दूसरों को दुख पहुँचता है, अपने मन से निकालने का प्रयत्न करूंगी। मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं। काजल की पढ़ाई का ख़र्चा देने की बात तो तुम से पूछे बिना ही मैं ने कर दी। एक नेक काम और। अगर तुम ठीक समझो तो, क्योंकि मेरे बाद तुम्हें ही मेरी यह जिम्मेदारी पूरी करनी होगी। "
"माँ, प्लीज, ऐसा मत कहिए। हमें आप के साथ और आशीर्वाद की सदा आवश्यकता रहेगी पर इतना अवश्य विश्वास दिलाते हैं कि जैसा आप चाहेंगी वैसा ही होगा,’ अमित ने कहा था।
चाय के उबलते पानी की आवाज़ ने अनुज्ञा के विचारों के भंवर में विघ्न डाल कर उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया। विचारों को झटक कर शीघ्रता से नाश्ता निकाला, चाय बना कर कप में डाली तथा कमरे की ओर चल दी।
मांजी को चंदू को अपने हाथों से मिठाई खिलाते देख कर वह सोच रही थी, रिश्ते खून के नहीं, दिल के भी होते हैं। अगर ऐसा न होता तो इतने वर्षों बाद हम सब एक दूसरे से जुड़े नहीं होते। कासिमपुर में तो हम सिर्फ पाँच वर्ष ही रहे। पहले पत्रों के जरिए तथा बाद में मोबाइल के जरिए आपस में जुड़े रहे। पिछले महीने ही काजल का विवाह हुआ। हम सभी गए थे। हमें देख कर कमली की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। काजल और उस का पति विक्रम एक ही स्कूल में अध्यापक हैं। रामू तो नहीं रहा पर चंदू के जरिए उस परिवार से भी हम सब जुड़े रहे। पिछले वर्ष जब शीतल का विवाह हुआ तो कमली और काजल के साथ चंदू के माता पिता ने विवाह की तैयारियों में काफी मदद की थी। शीतल जहां सौफ्टवेयर इंजीनियर है वहीं शैलजा मैडिकल के अंतिम वर्ष में। आज मांजी दोनों की प्रशंसा करते हुए अघाती नहीं हैं। दोनों ही उन को बेहद प्रिय हैं।
मांजी ने जो निश्चय किया उसे क्रियान्वित भी किया। लोग कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ इंसान अड़ियल या जिद्दी होता जाता है पर मांजी ने यह सिद्ध कर दिया अगर इंसान चाहे तो हर उम्र में स्वयं को बदल सकता है पर इस के लिए उसे अपने झूठे अहंकार को त्याग कर प्यार के मीठे बोलों को अपनाना पड़ेगा।