वह चमत्कारी क्रांतिकारी
वह चमत्कारी क्रांतिकारी


फरवरी सन 1832 .....
अमूमन भारत में फरवरी का महीना.... बड़ा खुशमिजाज और मनोरम सा होता है। ठूंठ हो चुके पेड़ों पर नई कोंपलें आ जाती है, तरह तरह के फूल खिलते हैं,तितलियों और भौरों के गुंजन से वातावरण सुवासित हो मनमोहक सा बन जाता है, मन की वीणा के तार झंकृत हो जाते हैं और फिर फागुन का रंग भी तो सिर चढ़कर बोलने लगता है।
लेकिन... इस बार रांची के आसपास की हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी उस सुरम्य घाटी में ऐसा कुछ बिल्कुल भी नहीं घट रहा था। वहां तो लगभग चार हजार लोगों को मोटी रस्सियों से बांधकर, बंदी बनाकर घसीटते हुए टेढ़ी-मेढ़ी घाटियों से पिठोरिया की ओर... एक सैन्य शिविर की ओर ले जाया जा रहा था और ....यह काम कर रही थी अंग्रेजी फौज जो शायद अपनें आपे से बाहर हो चुकी थी।
अपने परिजनों और घर के पुरुषों को इस तरह बंदी बना कर ले जाते और कोड़े बरसाते देखकर महिलाएं और बच्चे पहाड़ियों के ऊपर खड़े चीख और चिल्ला रहे थे। पूरा वन-प्रांत उनके आर्तनाद से गुंजायमान हो रहा था। बच्चे अपने पिता, ताऊ, चाचा और दादा का नाम ले-लेकर चीख-पुकार मचा रहे थे.........तो वहां के पेड़-पौधों और जंगली जंतुओं के दिल भी पिघल रहे थे। अगर नहीं पिघल सकता था तो वह फौज के रंगरुटों और अफसरों का हृदय जो शायद संवेदना से परे जाकर पाषाण बन गया था।
अंग्रेजी फौज का यह अमानवीय चेहरा किसी से छुपा नहीं था। बन्दी बनाये गए लोगों के परिजन अच्छी तरह जानते थे की उन लोगों साथ काफी अत्याचार किया जाएगा हो ..सकता है कि उन्हें वही मार भी दिया जाए । धीरे-धीरे आंखों से ओझल होते जा रहे इन बंदियों के परिजनों की रही सही आशा भी अब धूमिल सी होने लगी थी... उन्हें लग रहा था कि अब वे कभी अपने घर वालों के साथ होली नहीं मना पाएंगे.. गुलाल नहीं लगा पाएंगे।
लेकिन... इनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्हें एक व्यक्ति पर पूरा विश्वास था ... वह जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार करेगा और सभी को छुड़ा ले जाएगा..और सब कुछ एकदम से बदल जाएगा...जरूर वहां कोई चमत्कार होगा। शायद इसलिए .....महिलाएं और बच्चे अपने कुलदेवता के साथ-साथ उस चमत्कारी पुरुष की भी गुहार लगा रहे थे...।
यह सब अभी चल ही रहा था कि अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ...पूरी तरह से शुष्क मौसम और खिली धूप के बीच हवा ने अचानक रौद्र रूप ले लिया पूरा घाटी काले बादलों से गिर गई... कुछ ही समय में ही भयंकर चक्रवात आ चुका था। तूफान हवाओं नें ऐसा कहर बरपाया कि अंग्रेजी सैनिक हवा में उड़ने लगे उनके लिए किसी को पकड़ना तो दूर खड़े होना भी मुश्किल था। अंधेरे में उनके लिए एक दूसरे का चेहरा देखना भी कठिन हो रहा था। इसका नतीजा था उनके हाथों से रस्सियों की पकड़ ढीली होती गयी और ...सभी बंदी बनाये गए आदिवासी जो पहले से ही जंगल के हर रास्ते से बखूबी परिचित थे,उनकी पहुंच से दूर जंगलों में जाकर छिप गए। तूफान के थमने के बाद भी उनको ढूंढ पाना लगभग असंभव था ...एक किनारे सुरक्षित स्थान पर खड़ा अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा कैप्टन इम्पे इस तरह से अपने सैनिकों के असहाय होनें पर तरस खा रहा था।
भारत आने से पहले उसने ऐसे चमत्कारों की बातें किताबों में जरूर पढ़ी थी लेकिन ऐसा होते वह पहली बार अपनी नंगी आंखों से खुद ही देख रहा था। इस नजारे से हतप्रभ कैप्टन निराश जरूर हुआ था लेकिन वह कोई आसानी से हार मानने वाला अंग्रेज आफिसर नहीं था। हालांकि वह यह जरूर सोच रहा था कि वह अपनें गवर्नर जनरल और सीनियरों को क्या बताएगा ?...वो लोग ऐसी चमत्कारिक घटना पर यकीन कैसे करेंगे ? वो कैसे अपनें सैनिकों को मोटीवेशन देगा? क्या उसके सैनिक उसकी लाचारी और मजबूरी को सही संदर्भ में लेगें या फिर कैम्प में उसके पीछे उसकी खिल्ली तो नहीं उड़ाएंगे?
यह तो ऐसा अन्तर्द्वन्द था जो इम्पे के दिलो-दिमाग मे चल रहा था..लेकिन अभी आपके दिमाग में क्या चल रहा है..आखिर वो कौन सी ऐसी परिस्थितियां थी कि इतनें लोगों को एक साथ बंदी बनाया गया था... जबकि अन्ग्रेजी हुकूमत यह अच्छी तरह जानती थी कि इतनें लोगों को जेल में रखना न तो व्यवहारिक था ना ही इसे सैद्धांतिक रूप से सही कहा जा सकता था। इससे तो भयंकर विद्रोह की संभावना थी जिससे अन्ग्रेज हमेशा बचते रहे। अगर यह कोई विद्रोह था तो फिर उस नेतृत्व को पकड़ कर सलाखों के पीछे डालकर विद्रोह को दबाया जा सकता था..जिसका उपयोग अन्ग्रेज हमेशा से करते आये थे। तो क्या इसका मतलब ये माना जाये कि वह वांछित व्यक्ति उनकी गिरफ्त से अब भी बाहर था?
तो आखिर कौन सा वह अकेला व्यक्ति था जिसको पकड़ने के लिए इतना बड़ा और ऐतिहासिक अभियान चलाया जा रहा था? आखिर वो बना किस मिट्टी का बना था ? उसकी पृष्ठभूमि क्या थी ? उसके चमत्कारिक व्यक्तित्व के पीछे आखिर क्या राज छिपा था ...?
★★★★★★★★★★★★★
बुधु भगत का जन्म 1792 में वर्तमान रांची जिले के सिलागाई गांव के एक प्रतिष्ठित किसान परिवार में हुआ था। आज भी उस गांव के बगल से होकर ही कोयल नदी बहती है। चारों तरफ से पहाड़ियों से गिरा वह गांव प्राकृतिक रूप से काफी रमणीय दिखता है। बुधू के खानदान के लोग आदिवासी परंपरा से ही आते थे और उरांव जाति से संबंधित थे। इनका मुख्य पेशा खेती और पशुपालन था।
बुधू के दादाजी धर्म और परंपराओं में बहुत विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने गुरु, जो एक सिद्ध पुरुष और तंत्र मंत्र के जानकार थे से उस बच्चे की कुंडली जन्मकुंडली के बारे में बात की तो उन्होंने कहा-
" देखो भगत इस बालक का जन्म एक ऐसे मुहूर्त और ग्रहयोग में हुआ है जिसके प्रभाव में यह उच्च कौशल और नेतृत्व क्षमता प्राप्त करेगा। इसको चारों मां के आशीर्वाद से चमत्कारिक सिद्धियां प्राप्त होगी। इसकी बल बुद्धि और क्षमता का कोई सानी नहीं होगा। लोग इसे देवता की तरफ पूजेंगे इसका जन्म भी लोगों को मुक्ति दिलाने और जनकल्याण के लिए हुआ है"।
इतना कहकर वे एक क्षण रुके और बोले-
"लेकिन...
दादा नें कहा- "आप रुक क्यो महाराज..आगे की बात बताइए...."
"लेकिन इसका जीवन काल लंबा नहीं होगा ...परन्तु लोग इसे लंबे समय तक याद रखेंगें।" इतना कहकर पंडित चुप हो गए।
पोते के बारे में यह सब बातें सुनकर उनके दादा को बहुत गर्व महसूस हुआ और उन्होंने पंडित जी को काफी दान दक्षिणा देकर विदा किया लेकिन वही दादी को उसकी पोते की कम उम्र जानकर बड़ा दुख पहुंचा और वे उदास हो गई।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है कि उसे लाख अच्छी चीजें मिल जाए लेकिन कोई एक बात जब उसको नकारात्मक दिख जाती है तो उसी को लेकर रोता कलपता रहता हैI
बुधू की दादी को लगातार यह चिंता सताती रहती थी उनका पोता ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहेगा इसके लिए उन्होंने बहुत से सोखा-ओझा और पंडितों से संपर्क किया । उसकी लंबी उम्र के लिए व्रत रखा। कई धार्मिक स्थलों पर पूजा पाठ करवाया और गरीबों के बीच जाकर दान-पुण्य भी किया। चारो माता के मंदिर में बकरे की बलि भी चढ़ाई गई और ओझा द्वारा एक ताबीज के गले में बनाया गया।
जब बुधू दौड़ने और खेलने की उम्र में पहुंचा तो वह अपनें दोस्त- मित्रों के बीच बहुत लोकप्रिय था। उसके अंदर अद्भुत कौशल और दैवी शक्तियों का प्रादुर्भाव होना शुरू हो गया। यह सब देखकर इसे देखकर उसके घरवालों के साथ साथ पड़ोसी भी चकित थी। बालक बुधू खेलने में, शिक्षा में और कठिन कार्य करने में अपनें से दोगुनी उम्र के लड़कों को भी मात दिया करता था।
चूंकि बुधू के घरवालों का मुख्य पेशा खेती-बाड़ी करना था तो वह अपने पिता के साथ खेतों में भी जाया करता था और खेती के ऐसे तरीकों का सुझाव देता था जैसे वह बहुत अनुभवी और जानकार हो। उसके हाथ की लगाई बेलें तेजी से बढ़ती थी और फल भी बड़े और उन्नत होते थे।
बुधू भगत वनों से लकड़ियां काट के लाना और अन्य दैनिक कार्य भी मन लगाकर किया करते थे।
एक दिन.... जब वह अपने हमउम्र बच्चों के साथ जंगल के किनारे गायों को चरा रहे थे और अपनें हमउम्र बच्चों के साथ कुछ खेल खेल रहे थे, तभी वहां अचानक .....एक छोटे बछड़े को लकड़बघ्घों के झुंड ने घेर लिया और उस पर हमला बोल दिया। सभी चरवाहे यह दृश्य देखकर शोर मचानें लगे। लकड़बग्घे के झुंड से बछड़े को छुड़ाने के लिए वे सभी परेशान थे लेकिन जंगल के इलाके में रहनें के कारण वे अच्छी तरह जानते थे कि लकड़बग्घे कितने खतरनाक होते हैं इसलिये उनके बीच जानें कि हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। इधर अपने बच्चे को घिरा देखकर बछड़े की मां करुण क्रंदन कर रही थी। लकड़बग्घों में अपने शिकार को कब्जे में लेने का अद्भुत रणनीतिक कौशल होता है। उनके कब्जे से शिकार का छूट जाना लगभग नामुमकिन सा होता है।
...तभी अचानक बुधू के दिमाग में पता नहीं क्या आया कि वह अकेले ही लकड़बग्घों के झुंड में कूद पड़ा...उस समय उसकी आंखें लाल हो गई थी उसके होंठ भिचे हुए थे और ऐसा लगता था जैसे उसके अंदर किसी दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया हो.... उसके दोस्तों ने उसे वापस लौटनें को चाहा लेकिन उस वक्त बुद्धू को कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था... उसकी जलती आंखों के सामने भेड़िए टिक नहीं पा रहे थे उनका सारा जोश गायब हो चुका था और वे चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पा रहे थे फिर धीरे-धीरे भेड़ियों का झुंड बछड़े को छोड़कर पीछे जाने लगा और जल्दी ही वे हिंसक जानवर झाड़ियों में गायब हो चुके थे। बछड़े की मां कभी अपनें बच्चे को तो कभी बुधू को चाट रही थी जैसे उसे आशीर्वाद और धन्यवाद दे रही हो।
इस तरह बालक बुधू के साहस और चमत्कार के कारण उस बछड़े की जान बच गई । यह सारा खेल उनके मित्र मंडली के दोस्त देख रहे थे। घर आकर जब उन्होंने गांव वालों को यह बात कही तो वे लोग सहसा इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे। उल्टे बुद्धू को गाय चराने और जंगल की ओर जाने पर कुछ दिन के लिए रोक लगा गयी।
बचपन के संस्कारों का आदमी के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है और यह ताउम्र बना रहता है। वन क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों का जीवन सरल नहीं होता और उनको कदम कदम पर बाधाओं से जूझना पड़ता है। कभी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम होना पड़ता है ,तो कभी हिंसक जानवरों से भी दो-चार होना पड़ता है।
आदिवासियों और उनके बच्चों की परिस्थितियां कुछ ऐसी होती है उनके अंदर साहस, शौर्य और कठिन परिश्रम के गुण स्वमेव ही विकसित होते रहते हैं।
बालक बुधू का बचपन भी इन्हीं परिस्थितियों से जूझते हुए बीतता था।
एक दिन.....
बुधू जब अपने हमजोली बच्चों के साथ पेड़ों पर लुकम-छिपाई खेल रहा था तभी उसनें दो चिड़ियों को काफी शोर मचाते हुए सुना। उसका ध्यान जब उधर गया तो उसने एक विशालकाय अजगर को चिड़िया के घोंसले की और तेजी से बढ़ते देखा। तेज दिमाग के धनी बुद्धू को यह समझते देर न लगी कि वह घर उनके बच्चों को खाना चाहता है। उसे उनके नन्हे बच्चों को देखकर दया आ गई। वह बड़ी फुर्ती से ऊंचाई पर बने घोसले की ओर बढ़ने लगा।
इधर उसके मित्र चिल्लाकर उसे अजगर के पास जाने से मना कर रहे थे लेकिन उसने उनकी कोई परवाह नहीं की और अजगर और घोंसले के बीच दीवार बनकर अड़ गया। उनके मित्र चिंतित थे,उन्हें लगा कि अजगर उसे नहीं छोड़ेगा और हमला कर देगा। लेकिन उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ...जब उन्होंने देखा कि बिना कोई हमला किए वह दूसरी ओर उतरकर चुपचाप झाड़ियों चला गया। यह एक चमत्कार ही था.... दरअसल अजगर बुधू की आंखों से निकल रहे तेज का सामना नहीं कर पाया था। वे चिड़िया के जोड़े उसके सिर के ऊपर बार-बार उड़ रही थी मानो उन्हें अपने बच्चों की रक्षा के लिए धन्यवाद दे रही हो।
बालक बुधू के दादा के संरक्षण में बुधू को तीर चलाने, तलवार व बरछा फेंकने का प्रशिक्षण अन्य बच्चों की तरह दिया गया। तेज दिमाग और तीक्ष्ण बुद्धि से सम्पन्न बुधू ने सारी ये कलाएं न सिर्फ सीख ली बल्कि इसमें महारत भी हासिल की। उसका मुकाबला कोई भी उसका हमउम्र बालक नहीं कर पा रहा था।
इधर बुधू जब बच्चे थे, तो उन्होंने देखा था कि साहुकारों और जमींदारो के आदमी घोड़ो पे चढ़कर आते थे और गाँव वालों से जबरजस्ती अनाज व लगान वसूलते थे। यहां तक कि जो लोग लगान नहीं दे पाते थे उनके मवेशी भी उठा के ले जाते थे।
एक दिन शाम को...कुछ लोगों घोड़ों के टापों की धूल उड़ाते गाँव के बाहर दिखाई पड़े। उनको देखते ही लोग सहम गए। बच्चे और औरतें घरों के अन्दर दुबक गयी। वे लोग गाँव के कुछ लोगों का नाम ले रहे थे और उन्हें भद्दी भद्दी गालियां भी दे रहे थे..उनमें से एक बोल रहा था....
तुम लोगों की इतनी हिम्मत की जमींदार का लगान नहीं दोगे... हम लोग इस गाँव को जला देंगे और तुम्हें उठाकर ले जाएंगे।
इतना सुनकर,एक बुड्ढा से ग्रामीण बाहर आकर कहने लगा.".बाबू, इस साल बारिश कम हुई है, इसलिये फसल भी सूख गई है, अब हम लोग क्या खाएंगे और क्या लगान देंगे?"
वह आदमी बोला- "वो हम नहीं जानते जमीदार का हुक्म है तो देना ही पड़ेगा"
इतना कहकर वे लोग उसके घरवालों पर कोड़े बरसाने लगे।"
बालक बुधू दूर से यह सब देख रहा था, उसकी आंखों में खून उतर आया था।
बुद्धू बचपन से ही अपने गाँव और पास-पड़ोस में जमींदार के आदमियों को लगान वसुलनें के नाम पर अत्याचार होते देखता रहता था ।
एक दिन...
जमींदार के कुछ आदमी आए और घर के पास झोपड़ी में रह रही एक बुढ़िया के गाय और बछड़े को खोल कर लेते गये। बुढ़िया उनके हाथ जोड़ती और गुहार करती रही पर उनका दिल नहीं पसीजा। बालक बुद्धू को बछड़े से बहुत लगाव था।वह उसके साथ खेला करता था। उस के चले जाने के बाद वह बहुत रोया ।
बाद में उसके दादा ने पूछा- "तुम क्यों रो रहे हो?"
तो उसनें पूरी घटना बताई।
बुधू नें दादा से पूछा- " जमींदार के सिपाही बुढ़िया की गाय को लेकर क्यों चले गए?"
दादा ने कहा-" उसने लगान नहीं दिया होगा।"
बुधू-" जब जमीन बुढ़िया की है तो फिर वो लगान जमींदार को क्यों देगी?"
दादा नें उसे समझाया-"बेटा, यह जमीन टैक्स होता है जो ब्रिटिश सरकार लगाया जाता है। खुद की जमीन होते हुए भी कुछ हिस्सा जमींदार के माध्यम से सरकार के खजाने को जाता है। हालांकि यह लगान बहुत पहले यहां नहीं लगता था "
बुधू नें पूछा- " ऐसा क्यों दादा?"
दादा- " इसके पीछे एक लंबी कहानी है....तब मुग़ल सम्राट का शासन था रातू महाराजा के वंशज दुर्जन राय नें मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया.. इसलिए उन्हें बंदी बनाकर ग्वालियर के जेल में रखा गया। वहां पहले से ही अलग-अलग क्षेत्रों के राजाओं को कैदी बनाकर रखा गया था।
एक दिन ...मुगल सम्राट के दरबार में असली और नकली हीरा पहचानने की प्रतियोगिता हुई। किसी ने मुगल सम्राट को बताया कि राजा दुर्जन के पास ऐसी चीज है जिससे वह तुरंत ही असली हीरे को पहचान जाते हैं। यह तरकीब किसी और को मालूम नहीं थी। मुगल सम्राट ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया तो राजा दुर्जन ने तुरंत ही अपनी तरकीब से असली और नकली की हीरे की पहचान कर ली। यह तरकीब पाकर सम्राट बहुत खुश हुआ और राजा दुर्जन के साथ ही अन्य राजाओं को भी मुक्त कर दिया। छोटानागपुर को भी स्वतंत्र कर दिया गया, यानी क्षेत्र के लोगों को आगे से लगान देने से छूट मिल गई।
बुधू जो अपने दादा की बात को बड़े ध्यान से सुन रहा था बोल उठा-" फिर क्या हुआ दादा जी?"
दादा- " होना क्या था? बाद में जब 1765 में बंगाल ,बिहार उड़ीसा के साथ ही जब छोटानागपुर की दीवानी भी अंग्रेजों को मिल गई तो उन्होंने नई व्यवस्था लागू कर दी और फिर से आम जनता पर लगान ठोक दिया गया।
बुधू-" क्या इस व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता?"
दादा-" बेटा, जब तक अंग्रेज लोग यहां रहेंगे तब तक वे लोग इसी तरह से जमींदारों को आगे कर अपना स्वार्थ पूरा करते रहेंगे।
बालक बुद्धू को यह अच्छी तरह समझ में आ गया था कि बिना अंग्रेजों को भगाए इस समस्या को दूर कर पाना संभव नहीं है। वह हमेशा अंग्रेजों को अपने क्षेत्र से बाहर खदेड़ने के बारे में सोचा करता था।
बुधूवीर धीरे-धीरे अब किशोरावस्था में पहुंच चुके थे। उनके घर से कुछ ही दूरी पर कोयल नदी का निर्मल जल प्रवाहित होता था। कोयल नदी के तट पर वो एक निश्चित स्थान पर स्नान किया करते थे। इसके बाद वहीं बैठकर ध्यान भी लगाते थे।
एक दिन ध्यान की अवस्था में ही उन्हें पता नहीं क्या सूझा, उन्होंने अपना धनुष उठाया और दक्षिण दिशा में एक तीर छोड़ दिया। तीर वहां से एक मील दूर एक चट्टान पर गिरा और वह चट्टान जमीन में धंस गई। फिर वहां से एक श्वेत जल धारा फूट पड़ी। उस चट्टान को बाद में लोग 'वीर पानी' के नाम से जाननें लगे।
दूसरी घटना....
एक दिन जब बुधू भगत जब स्नान- ध्यान के बाद डोंगरी की ओर गए तो उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया तुड़सी के पेड़ से सुखी डालिया तोड़ रही है। थोड़ी देर बाद उस पेड़ से बड़ी बड़ी डालिया टूटकर अपने आप गिरने लगी। यह देखकर बुधू ने थोड़े आश्चर्य से पूछा-
" दादी तूने इस पेड़ को क्या कर दिया है कि बड़ी-बड़ी डालियां अपने आप टूट कर गिरने लगी हैं?"
बुढ़िया बोली- " देखो जब मैंने अंगसी में रस्सी बांधी तो यह बार-बार टूट जाती थी। तब मैंने इस टोंगरी के पानी से रस्सी भिगोई तो ऐसा होना शुरू हो गया।"
बुधुभगत जब पास की चट्टान के पास गए तो उन्हें निर्मल जलधारा दिखाई पड़ी। उनको प्यास भी लगी थी तो अंजुली भर पानी को उठाकर पी लिया। पानी को पीते ही उनके शरीर में एक अलग तरह की दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव होने लगा।
बाद में जब अपना सिर उठाया तो बुढ़िया और बड़ी-बड़ी डालियां वहां से गायब थी। अब बुधूवीर को यह यकीन हो गया कि वह बुढ़िया कोई और नहीं, चोरो मां ही थी और उन्हें कोई संदेश देना चाहती थी। इसके बाद भी बुधू को अपनें शरीर में किसी दैवीय शक्ति के स्थापित होनें का आभास गाहे-बगाहे होता रहा।
बुधूवीर अब बड़े हो रहे थे वे बचपन और जवानी की संधि-स्थल अर्थात अपनें किशोरावस्था में प्रवेश कर चुके थे। वो अक्सर नदी के किनारे एक चट्टान पर बैठकर चिन्तन मनन किया करते थे। गांव के बगल में से बहतु कोयल नदी की निर्मल धारा उन्हें असीम शांति पहुंचाती थी। वह अकेले ही वहां बैठे बैठे देश से अंग्रेजों को भगाने और उनसे लोहा लेने की बातें सोचा करते थे।
एक दिन ..जब वह अपने किशोर मित्रों के साथ नदी के तट पर बैठकर कुछ बातें कर रहे थे ,तभी उन्होंने गांव के दक्षिण दिशा से आ रही घोड़ों के टापों की आवाज सुनी ...
मथ्थू- " तुमने कुछ सुना बुद्धू ...ये घोड़ों की टप टप की आवाज... मुझे लगता है ये जमींदार के आदमी है।"
सत्तू- "हां मुझे भी ऐसा ही लगता है...
ये लोग जरूर किसी गरीब आदिवासी से लगान वसूलने के लिए आ रहे होंगे, मुझे तो लगता है कि गांव वालों को एक साथ लगान देने से मना कर देना चाहिए।"
मनका - "तुम्हारी बात तो सही है लेकिन मना करने पर वे लोग गांव वालों का जीना हराम कर देंगे। सुना है उनके पास बड़ी फौज है इसलिए कोई हिम्मत नहीं करता उनसे टकराने की। एक बार... एक नौजवान ने उनके खिलाफ बगावत की थी तो वे लोग उसे बांध कर घसीटते हुए ले गए थे ...बाद में उसकी लाश झाड़ियों में मिली थी।"
बुधू- (खड़े होकर) यही तो बात है मित्र, जिसके कारण हम आदिवासियों को घुट घुट कर जीना पड़ता है... हमारा कोई संगठन नहीं है, कोई एक नेता नहीं है, सभी लोग आपस में बंटे हुए हैं....... सबसे पहले तो हमें अपने लोगों में यह आत्मविश्वास भरना होगा कि ...अगर एकजुट होकर उनके खिलाफ विद्रोह किया जय तो वे लोग जरूर भाग जाएंगे।"
सत्तू-" तुम सही कहते हो मित्र लेकिन इस काम की पहल कौन करेगा? आदिवासी तो कई अलग अलग कुनबों और जातियों में बैठे हुए हैं।"
बुधू- " हताशा और कायरता की बात मत करो.. कमजोर बनकर रहोगे और आपस में बंटे रहोगे तो कोई भी तुम्हें सताएगा और इसी तरह तुम लोगों पर अत्याचार होता रहेगा।
(एक क्षण रुककर) अब हमें निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी, बताओ कि तुम तीनों इस युद्ध में मेरा साथ दोगे? इस लड़ाई में अगर तुम लोग मेरा साथ दोगे तो हम अंग्रेजों के छक्के छुड़ा देंगे।"
तीनों में जोश भर चुका था... तीनों मित्रों विद्रोह की इस लड़ाई में साथ देने का वचन दिया .... हाथ पर हाथ रखकर चारों युवकों नें एक स्वर में प्रतिज्ञा ली...
"हम सभी लोग अपनें वन-देवता की शपथ लेते हैं... हम लोग तब तक शांति से नहीं बैठेंगे जब तक हम अपनीं जमीन अपने जंगलों और पहाड़ों को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त नहीं करा लेते।"
सूर्य अस्ताचलगामी होता है, पशु- पक्षी अपने अपने घरौंदों को जा चुके है, चारों मित्रों ने आपस में विदा ली और अपने घरों को प्रस्थान कर गए।
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अगले दिन..
. चारों मित्र एक गुप्त स्थान पर फिर से मिलते हैं...
मथ्थू- (हांफते हुए) "सुना तुम लोगों ने कल सिपाही लोग गुनथू काका को लगान न देने के कारण उठा के ले गए हैं। उनके बच्चे भी अभी छोटे हैं और पत्नी बीमार है। जमींदार के आदमी को उन्हें कोड़े मारते हुए घसीटते हुए ले गए..उनकी पत्नी और बच्चे गुहार करते रहे लेकिन उनको थोड़ी भी दया नहीं आयी।"
सत्तू- मेरे भी पड़ोस से कई लोगों के लगान बाकी होने के कारण उनके गाय-बैल खोल कर ले गए हैं।
बुधू - "यही तो मैं भी कहता हूं ..जब तक लोग एक साथ संगठित होकर मजबूती से लड़ाई नहीं लड़ेंगे तो ऐसे ही अत्याचार हमारे लोगों पर होता रहेगा।
मनका- "तुम हम लोगों के सरदार हो...अब तुम्हीं बताओ ... हम लोगों को इसके लिए क्या करना पड़ेगा । वैसे अगर हमने कुछ नहीं किया तो ये लोग मानेंगे नहीं और इनका अत्याचार दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाएगा।"
बुद्धू- तो सुनो... उनसे लड़ने के लिए हमें अपनी एक फौज बनानी होगी। हम लोग कल से ही लोगों को संगठित करना शुरू कर देंगे । पहले हमें लोगों से मिलकर उन्हें सच्चाई को समझाना होगा कि जमींदार के आदमियों के बहानें असल में अन्ग्रेज ही हमारे जुल्म ढा रहे है।
लोगों को संगठित करके फिर हम आदिवासियों की एक मजबूत सेना तैयार करेंगे ..जिन्हें तीर-तलवार- फरसा-खुकुरी व अन्य हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा ...ताकि जब भी जरूरत पड़े तो उनका मुंह तोड़ जवाब दिया जा सके। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि.. अंग्रेजों को हमारे जंगल और पहाड़ों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है।हम मानते हैं कि उनके पास बड़ी फौज है लेकिन हमारे पास गुरिल्ला युद्ध करने की अचूक शैली है जिसके आगे वे लोग निश्चित रूप से घुटने टेकनें को मजबूर हो जाएंगे"
इसके बाद वे सभी लोग मिलकर आस पास के गांवों में लोगों से मिलना उन्हें जगाना और संगठित करना शुरू कर देते है।
बुधु भगत और उनके साथी आस-पास के गांव में जमींदारों के विरुद्ध लोगों को संगठित करने की मुहिम चला रहे थे।इसी बीच उनके एक रिश्तेदार के कहने पर ,जिन्हें एक फर्जी मुकदमे में वहां के जमींदारों ने फंसा दिया था, उन्हें लोहदगा जाना पड़ा।
वहां के मुंसिफ कोर्ट में जब वे पहुंचे ..तो पता चला कि वहां गैर आदिवासी व ठेकेदार आदिवासियों को लूटने में जमींदारों की सहायता करते थे। वे लोग हमेशा पैसे देकर कुछ नकली गवाह सेट करके रखते थे। पैसों पर बिकनें वाले ये गवाह अक्सर यह साबित कर दिया करते थे कि उस आदिवासी का वहां की जमीन-जायदाद पर कोई मालिकाना हक नहीं है। जो लोग अपना हक मांगते उन्हें देशद्रोही बता कर जेल भिजवा दिया जाता था।
उन्हें वहां एक बात और भी पता चली ...बाहर से आए ठेकेदार और महाजन आदिवासी महिलाओं के साथ गलत संबंध स्थापित करते थे अगर कोई इसका विरोध करता था तो उन लोगों को गलत आरोप में फंसा देते थे।
वहाँ प्रवास के दौरान एक बूढ़े आदिवासी ने बुधुभगत को बताया .....
"अभी कुछ दिन पहले ही कोलहान के विन्द राय मानकी की पत्नी को वहां का एक ठेकेदार भगा ले गया है और उसकी दो बहनों के साथ बलात्कार भी किया गया। बाद में आदिवासी लोगों को यह बात पता चली तो आदिवासी इलाकों से आदिवासी तीर धनुष लेकर उतर आए और उस ठेकेदार की हत्या कर दी। इसके पूरा कोल्हान क्षेत्र कुछ दिनों तक अशांत रहा।"
बुद्धू नें उस बृद्ध से पूछा -
"बाबा फिर क्या हुआ ?"
वृद्ध व्यक्ति-" होना क्या था आदिवासी आंदोलन को अस्थायी विद्रोह मानकर अंग्रेजी फौज द्वारा, उसे भी हर बार की तरह दबा दिया गया। सच्चाई यह है कि जो भी विद्रोह होता है उसमें कुछ लोग अंग्रेजों की तरफ मिल जाते हैं.. अंग्रेजी में लालच दिखाकर मिला लेते हैं । फूट डालो राज करो की नीति पर चल कर अंग्रेज अपना उल्लू सीधा करते हैं।
बुधू भगत- "इसका मतलब तो यही है कि लोग आपस में बंटे हुए हैं, उनका कोई एक नेता नहीं है। इसी का फायदा शायद अंग्रेज और उसके पिट्ठू जमीदार उठाते हैं और पिसती है उसमें आम जनता।"
वृद्ध आदमी : "सही समझ रहे हो बेटा, अब आदिवासियों को ही देख लो .....इनके सैकड़ों कबीले हैं, हर कबीला एक दूसरे से दूरी बनाकर रखता है। ये लोग कभी एक साथ जुड़ना भी नहीं चाहते हैं और तो अंग्रेजों के पिट्ठू जाकर कुछ ऐसी अफवाह फैलाते हैं की लड़ाई में साथ देना तो दूर एक दूसरे का विरोध तक करने लगते हैं।"
बुधू भगत को यह बात पूरी तरह से समझ में आ गई थी कि जमींदार लोग तो एक बहाना है, इसमें सारी चाल अंग्रेजों की ही है।
घर वापस आने के बाद वह अपने मिशन में लग गए। अब उनको अंग्रेजों के बारे में कई बातें भी पता चल चुकी थी इन बातों को उन्होंने अपने मित्रों से भी बताया।
इसके बाद वे लोग दिन-रात अपने मिशन पर लग गए इसी बीच उनके माता-पिता को उनके विवाह की चिंता हुई... उन्होंने उनकी शादी पड़ोस के गांव की एक सुंदर व सुशील कन्या से तय कर दिया । वे नहीं चाहते थे कि उनके रास्ते में कोई बाधा पहुंचे इसलिए उन्होंने मना कर दिया.. लेकिन बाद में उनकी होने वाली पत्नी के द्वारा यह वचन दिए जाने के बाद कि वह उनके कार्य में कोई बाधा नहीं पहुंचाएगी... विवाह के बंधन में बंध गए। उनके दो पुत्र और पुत्री पैदा हुए । दोनों पति पत्नी ने अपने बच्चों को कभी कायर व भीरु नहीं बनने दिया कालांतर में यह सभी बड़े होकर कुशल घुड़सवार और लड़ाका बनकर उभरे।
इधर गृहस्थ जीवन में आने के बाद भी बुद्धू कभी अपने मिशन से डिगे नहीं। वह बहुत अच्छे वक्ता और चमत्कारिक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। वे लोगों के बीच गांव गांव घूम घूम कर लोगों को जागरूक करते रहते थे। वे जात-पात से दूर रहकर एकजुट होने की बात करते थे उनकी बातों का लोगों के ऊपर चमत्कारिक प्रभाव पड़ता भी था और वे जल्द ही उनके अनुयाई बन जाते थे।
बुधु भगत स्वयं में एक कुशल घुड़सवार तीरंदाज थे। वे जंगलों में जाकर नौजवानों को पारंपरिक शस्त्रों और गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग दिया करते थे। धीरे उनके बारे में यह खबर अंग्रेजों को भी मिलने लगी थी लेकिन एक खास बात यह थी कि उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व और जादुई शक्ति से खौफ भी खाते थे।
उस समय उनके गांव के आसपास के इलाकों में आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच तलवारबाजी घुड़सवारी तथा अन्य खेल प्रतियोगिताएं भी होती रहती थी। उनमें वही प्रतियोगी सफल होते थे जिनको बुधू भगत का आशीर्वाद प्राप्त होता था।
1831- 32 का कालखंड
अंग्रेजों के अत्याचार से तंग आकर कोल और मुंडा आदिवासियों ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया .... शुरुआत बुंडू तमाड़ इलाके से हुई। इसका नेतृत्व सिंगराय व बिंद राय मानकी कर रहे थे। यह विद्रोह युद्ध की शक्ल अख्तियार कर तमाड़ से रांची, मांडर, पिथोरिया और बिजुपाड़ा होते हुए चानहों तक पहुंच गया धीरे-धीरे इस आंदोलन ने पूरे रातू महाराजा क्षेत्र को अपनें गिरफ्त में ले लिया।
इसमें प्रमुख भूमिका निभाने वाले थे- बुधूवीर, जिन्होंने इस आंदोलन को जन आंदोलन का रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आंदोलन सिर्फ मुंडा-मानकियो का विद्रोह न होकर छोटा नागपुर के समस्त भूमि-पुत्रों व किसानों का आंदोलन बन चुका था।
छोटानागपुर में तैनात एक एक अंग्रेज ऑफिसर नें अपनें आकाओं को एक पत्र में लिखा-
"यहां चोरया, टीको, सिलगाई व अन्य पड़ोसी गांवों की पूरी आबादी हमारे लिए दिन-ब-दिन खतरा बनती जा रही है ...ये लोग पूरी तरह से संगठित होकर लड़ते हैं...ये बड़े खतरनाक तरीके से हमला करते हैं, ये गुरिल्ला युद्ध में माहिर है। हमारे लिए इनको इनके क्षेत्र में घेरना असंभव होता जा रहा है... क्योंकि इनको नेता के रूप में बुधु भगत जैसा आदमी मिल गया है जो ना सिर्फ दुस्साहसी है बल्कि वह कुछ चमत्कारिक सिद्धियां भी जानता है... हमें जब उसके किसी एक जगह होने की खबर मिलती है और जब तक हम वहां पहुंचते हैं, तभी खबर मिलती है कि वह वहां से मीलों दूर कुछ लोगों को संबोधित कर रहा है...हमारे गिरफ्त में नहीं आने कारण उसकी सुपर नेचुरल शक्तियां भी हैं... लोग उस पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं ।मेरी राय में उसे पकड़ लिए जानें पर ही वहां के विद्रोह को दबा पाना संभव होगा।"
इससे पहले एक और घटना हुई जिसका उल्लेख एक गजेटियर में किया गया ....
11 दिसंबर 1831,
आज का दिन उस बड़ी वारदात के नाम रहा जिसमें हजारों आदिवासियों के एक सशस्त्र गिरोह ने एक पशु व्यापारी और कॉन्ट्रेक्टर के सैकड़ों काड़ा- बैल को लूट लिया है और पशुओं को जंगल में छोड़ दिया है... डर के मारे ठेकेदार और उसके आदमी अपनी गाड़ियों को छोड़कर और जांन बचाकर ।आयेऔर थाने पर गुहार लगाई।
20 दिसंबर 18 31....
आज के दिन इस इलाके में आदिवासियों द्वारा कई स्थानों पर लूटपाट की गई और ठेकेदारों को घायल कर दिया गया। तमाड़ के शिवि मुंडा, तोपा मुंडा तथा अन्य द्वारा विदेशियों पर आक्रमण की जबरदस्त तैयारी की जा रही है।"
बुधू भगत के रणनीतिक कौशल के कारण सारे विद्रोहियों और आदिवासियों को एकजुट होकर हमला करने को प्रेरित किया । यह तय किया गया कि 11 जनवरी की शाम को गोविंदपुर पर चार हजार की संख्या में चढ़ाई करके उसको अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे। लेकिन तभी वहां के कुंअर नें जिसने लड़ाई सहायता देने का वचन दिया था बीच रास्ते से भाग गया और योजना परवान नहीं चढ़ पाई।
लेकिन अगले ही दिन बुधू भगत नें लोगों को संगठित कर योजनाबद्ध तरीके से गोविंदपुर और आसपास के इलाकों पर हमला बोल दिया। सरकारी खजाने को लूटा गया और कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया। आसपास के थानों में आग लगा दी गई धीरे-धीरे अंग्रेजो का सारा माल-असबाब आंदोलनकारियों के कब्जे में आ गया ।
इस तरह 26 जनवरी 1832 तक पूरा छोटानागपुर आंदोलनकारियों के कब्जे में आ चुका था... वहां कार्यरत कर्मचारी या तो मारे जा चुके थे या फिर उन्हें बंधक बनाया जा चुका था। छोटा नागपुर की ऐसी हालत देखकर जब अफसरों ने अंग्रेजी हुक्मरानों को यह खबर भेजी तो वे लोग सकते में आ गए...... फिर क्या था बनारस, पटना, शेरघाटी से घुड़सवार सैनिकों को तत्काल भेजने की कार्यवाही शुरू हो गई। साथ ही अंग्रेजों ने अपने मित्र राजाओं को दोस्ती का वास्ता देकर अपनी सेना को तत्काल भेजने को कहा।अंग्रेजो के आह्वान पलामू और मगध के देवराजा अपनी सेना और लश्कर के साथ पिठौरिया और पलामू पहुंचने लगे। कुछ अन्य अन्ग्रेजों के पिठ्ठू राजवंशों ने इस लड़ाई में उनका साथ इसलिये दिया ताकि भविष्य में उनकों भी अपनें स्थानीय बिद्रोह को दबानें में उनके साथ कि जरूरत पड़ सकती थी।
बुधू भगत के नेतृत्व में छोटानागपुर व अन्य इलाकों में फैले जबरजस्त विद्रोह से घबराकर देशभर में अलग-अलग सैन्य शिविरों से, जहां से भी सैन्य मदद जल्दी मिल सकती थी, वहां वहां से घुड़सवार व फ़ौज छोटानागपुर के इलाके में भेज दी गई । साथ ही अंग्रेज सेना के सबसे तेज कमांडरों में से एक कैप्टन इम्पे को इस हिदायत के साथ कि हर कीमत पर बुधू भगत को जिंदा या मुर्दा पकड़ लेना है,
भेजा गया।
कैप्टन इम्पे जो बहुत ही शातिर व तेज तर्रार अफसर था, कैंप करते ही बुधु भगत के ऊपर नकद इनाम रखते हुए ऐलान किया .."
.विद्रोही बुधु भगत का जो कोई भी सही ठिकाना बताएगा और पकड़वाने में मदद करेगा उसे एक हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा और उसकी पहचान भी गुप्त रखी जाएगी।"
पैसे के लालच में कुछ गद्दारों ने अंग्रेजों सेना को बुधूभगत के एक जगह सभा में मौजूद होने की सूचना दी, लेकिन बुधूभगत, जो चमत्कारी शक्तियों से संपन्न थे, को पकड़ पाना आसान नहीं था।
जब तक अन्ग्रेजी सैनिक वहां पहुंचते बुधू वहां से मीलों दूर पहुंच कर कहीं दूसरी जगह सभा कर रहे होते, जहां पर पहले उन्हें देखा गया था।
फरवरी 1932 का पहला हप्ता ...
अंग्रेजी सेना के तेजतर्रार कैप्टन इम्पे के गुप्तचरों को पक्की सूचना मिलती है... कि बुधु भगत चान्हो में एक बड़ी सभा करने वाले हैं। कैप्टन अपनें नेतृत्व में गोला-बारूद और बंदूकों से लैस सेना लेकर वहां पहुंच जाता है....अंग्रेजी सेना हजारों लोगों की निहत्थी भीड़ को चारों ओर से घेर लेती है... पहले लोगों से पूछा जाता है कि बुद्धू कहां है ? लेकिन कोई भी अपना मुंह नहीं खोलता है। फिर बुधू भगत का पता पूछनें के नाम पर लोगों पर कोड़े बरसाए जाते हैं.. लोगों की भीड़ हिंसक हो जाती है...फिर वहाँ हजारों लोगों की भीड़ पर फायरिंग की जाती है..तभी वहां बुधू भगत के कुछ लड़ाके वहां जाते हैं और प्रतिरोध करते हैं.. उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है..इसमें उनके बहादुर पुत्र और लड़ाका पुत्रियां रुनिया-झुनिया भी होती हैं। गांव में लोगों के घर जला दिए जाते हैं और भयंकर अत्याचार किया जाता है ...फिर लगभग चार हजार की संख्या में लोगों को गिरफ्तार करके पिठौरिया कैम्प की और अन्ग्रेजी फौज उन्हें घसीटते-पीटते ले जाने लगती हैं तभी.. रास्ते में बहुत तेज तूफान आ जाता है (पहले अध्याय में इसका वर्णन किया जा चुका है)
दूसरे दिन .....अपने फौज की दुर्गति देखकर और क्रांतिवीर बुधु भगत को नहीं पकड़ पाने से कैप्टन बहुत गुस्से में है और बौखलाया हुआ है तभी एक गद्दार द्वारा उसे सूचना मिलती है कि बुधू भगत अपने गांव सिलागाई में ही मौजूद है।
तत्काल सेना की एक बड़ी टुकड़ी उस गांव के लिए प्रस्थान करती है... रास्ते में कोयल नदी जो पहले शांत बह रही अचानक उफनाने लगती है ...अंग्रेजी सेना के सामने समस्या है कि वह उस नदी को कैसे पार करें? तभी उन्हें एक बुढ़िया मिलती है और बताती है कि इसके लिए उन्हें किसी की बलि चढ़ानी होगी। वे लोग एक घायल सैनिक का सिर काटकर नदी में फेंक देते हैं और इस तरह उफनती नदी में थोड़ी देर के बाद पानी कम हो जाता है।
सेना अब गांव को चारों तरफ से घेर लेती है और ऐलान करती है कि जल्दी बुधू भगत को उनके हवाले करो नहीं तो पूरे गाँव को फूंक दिया जाएगा। बुधू गुस्से में एक घर से हाथ मे चमकती तलवार लेकर बाहर निकलते हैं, भीषण फायरिंग के बीच उनकी रक्षा में तीन सौ लोग मानव दीवार बनाकर खड़े हो जाते हैं ..अंग्रेजी फौज लगातार फायरिंग कर रही है ...एक के बाद एक लोग गिरते जा रहे हैं ... अपने लोगों को मरते देख कर बुधू आगे बढकर गुस्से में कई अंग्रेज सैनिकों का सिर कलम कर देते हैं... बाद में उन्हें महसूस होता है कि उनके सारे लोग मारे जा रहे हैं तो उनके जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं है और वह अपनी तलवार खुद एक सैनिक को देते हैं और उसको अपने ऊपर वार करने को कहते हैं ..वह सैनिक उनकी गर्दन पर वार करता है। उनका सिर कहीं और जाकर गिरता है और धड़ वहीं रह जाता है...और इस तरह वह अमर योद्धा अपनी मातृभूमि और स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिदान हो जाता है।
इस लंबे चले आंदोलन में हजारों की संख्या में आदिवासी योद्धा मारे गए थे उन्होंने अपना शीश कटाना पसंद किया लेकिन अंग्रेजों के सामने कभी झुके नहीं। बाद में इस महान विद्रोह की कड़ियाँ एक दूसरे से अलग हो गयी और नेतृत्व के अभाव में यह आंदोलन बिखर गया और अंग्रेजी फौज नें पूरे क्षेत्र का नियंत्रण फिर से अपनें हाथों में ले लिया।
अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले इन जाबांज आदिवासी योद्धाओं को,दुर्भाग्य से स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में कभी उचित जगह नहीं मिल पायी इस धारावाहिक के माध्यम से उन्हें याद करने और श्रद्धान्जलि देने की मेरी एक कोशिश मात्र है।
उन्हें हमारा शत शत नमन....