कार्यकर्ता
कार्यकर्ता
मै उनके घर के बाहर खड़ा हूँ.भीतर बिलकुल सन्नाटा है.क्या वह कही बाहर गए है?मैंने बहुत झिझकते हुए दरवाजा खटखटाया.
“कौन है?”
भीतर से आवाज आयी.फिर दरवाजा खुला और वह दिखायी दिये.वह मुझे देखकर विस्मित से हुए.
“आईये.”
“मै सिर्फ यह पूछने आया था कि आप ठीक है?”
“मुझे ठीक से पता नहीं...मै अपने विषय में क्या कहूँ?
”मै सुन्न सा उन्हें देखता रह गया.... “आपकी तबियत?”
“आप भीतर तो आईये..” वह दरवाजे से हटकर खड़े हो गए.मै भीतर चला आया.वह शायद एक बेड पर लेटे पड़े होंगे या बैठे हो.खिड्की खुली थी बाहर की धूप अन्दर आ रही थी.
सर्दी के दिन थे.वे शायद कुछ पढ़ रहे थे.मैंने उनकी कलाई पकड़ी,जैसे कोई डॉक्टर नब्ज देखने परखने की कोशिश करता है.मैंने राहत की साँस ली,उन्हें बुखार नहीं था.मुझे और कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मै और क्या उनसे पूंछू?
“आप बहुत जल्दी घबरा जाते है.” उन्होंने कहा.उनके स्वर में उपहास नहीं था. मेरी चिंतित रुख को विराम दिया और आश्वस्त करते दिखे. वह पलंग में बैठे मुझे शांति और करुणायुक्त मुद्रा से निहारने लगे.
मै इधर उधर झाकने लगा.शायद मुझे चाची जी की तलाश थी.ऐसे मौके पर वही विषय परिवर्तन को अंजाम देती थीं.
मै अभी बाहर से काफी दिनों बाद लौटा था.कभी मै उनके सामने वाले मकान में रहता था.बचपन से जवानी तक मै वही रहा और उनकी तथा घर की गतिविधियों का मूक गवाह रहा था.मेरे पिता ने अपने रिटायरमेंट के बाद उस किरायेदारी वाले मकान को छोडकर अपने फण्ड के पैसे से नई बस्ती बर्रा में मकान खरीद लिया. हम सब साथ रहने लगे थे.नयी बस्ती से उनके पास आना कम से कमतर हो गया.उनका छोटा लड़का जो मेरा दोस्त और सहपाठी था उसका भी साथ छूट गया.कभी कभी वह मेरे घर आता और कभी मै उसके घर जाता था.मै नौकरी के सिलसिले में बाहर चला गया और इस बीच बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ कि वह अकेले रह गए.
वह अपने ढाई मंजिला मकान में पत्नी के साथ अकेले थे.एक दो बार मैंने उनका किरायेदार बनने की इच्छा जाहिर की जिसे उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया.कहा, “बच्चे लौटकर आएंगे,वे रहेंगे.” मेरा मुख्य मकसद यह था कि मै उनके किसी काम आ सकूँ.साथ रहूँगा तो किसी न किसी रूप में उनकी सहायता हो ही जाएँगी.मेरे माता पिता रहे नहीं थे और मै उनसे भावात्मक रूप से काफी जुड़ा था.इस तरह से मै उनकी आर्थिक,मानसिक और शारीरिक सहायता कर पाता.क्योंकि चाची अब उनकी देखभाल करते करते उनसे ज्यादा खुद बीमार रहने लगी थीं.
जिस घर में जीवित लोगों की संख्या घटती जाये और खाली कमरों में बढ़ोत्तरी होती जाये,उनमे यादों,धूल-गर्त के सिवाय क्या रह जाता है?अब वहां सिर्फ दो लोग थे.बहुत वर्षों बाद मैंने देखा था कि वह मकान खाली सा है.जो कभी हर समय गुंजायमान रहता था किसी न किस वजह से वह अब निस्तब्ध था.परन्तु मुझे वह सब अजीज था.मै उनका किरायेदार बनकर अप्रत्यक्ष रूप से उनकी मदद करना चाहता था.परन्तु उन्हें किसी की भी मदद लेने की आकांक्षा नहीं थी.जिसने सदैव दूसरों की मदद की हो उसे किसी और की मदद की दरकार नहीं थी.वह अपनी स्वत्रंता संग्राम सेनानी की अल्प पेंशन से ही संतुष्ट थे.चाची के पास अवश्य उनकी अपनी बचत समाप्त प्राय: थी.
उस घर को उस समय भूचाल का समाना करना पड़ा था जब उनके बड़े बेटे का स्थान्तरण दुसरे शहर में हो गया और उसे अपने परिवार सहित जाना पड़ा.वह घर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ था.जब वे परहित,सेवा भाव और राजनीतिक कार्य में लगे रहते और कई कई दिनों से दुकान बंद रहती वह अपनी पढाई के साथ उसे भी सम्हालता था.पढाई बंद होते ही उसकी नौकरी लग गयी और उसके बाद तो चाचा जी और आजाद हो गए अपने सेवा भाव के कार्यक्रम में.उसके जाते समय चाची ने कहा था, “अब ये जरुर घर और दूकान पर ध्यान देंगे!.. यह बेफिजूल की राजनीतिक और सामाजिक सेवा से तौबा करेंगे और अपने घर परिवार की तरफ ध्यान देंगे.” परन्तु ऐसा हो न सका.वह पूर्ववत राजनीतिक और सामाजिक सेवा में व्यस्त रहे और घर, परिवार और दूकान उपेक्षित रहे.उन्हें जूनून की हद तक दूसरों की सहायता करने की आदत थी जो अब प्रवृत्ति में तब्दील हो गयी थी.हाँलाकि बड़े के रहते तीन बहनों की शादी और छोटे के शिक्षा करीब करीब पूर्ण हो चुकी थी.परन्तु उनके हटते ही छोटे बागी हो गया.उस पर बड़े का नैतिक दबाव गायब था और वह चाचा का धूर राजनीतिक विद्रोही था.एक दिन गायब हो गया.जिसका पता अभी तक नहीं चल पाया कि वह है भी कि नहीं.
“चाय पियोगे..?” यह कहते हुए चाची हिचकिचाई अवश्य थी.
“नहीं..” मै उनकी चाय से डरता था.उसमे दूध नाममात्र को होता था.परन्तु चाय पीते समय मै अतिरिक्त सावधानी बरतता था कि उन्हें मेरी अरुचि से ठेस न लगे.किन्तु वह मेरी नहीं को ताक में रखते हुए थोड़ी देर बाद चाय ले आती थीं.क्योंकि मेरी और चाचाजी का वार्तालाप काफी लम्बा चलता था.वे अपने जीवनोभव काफी विस्तार से वर्णन करते थे और मै उन जैसे निःस्वार्थ कर्मयोगी को बड़े अचरज से सुनता और मन ही मन सराहा करता था.
वह जन्मजात कांग्रेसी थे,एक समर्पित कार्यकर्ता.वह साल में तीन राष्ट्रीय दिवस कार्यक्रम अवश्य करते थे,स्वत्रंता,गणत्रंत और गाँधी जयंती.इन दिनों वह कुछ दूरी पर स्थित नहर से सटे मैदान पर झंडारोहण करते और जुट आये बच्चे और आदमियों को मिठाई वितरित करते.इस काम के लिए अवश्य कुछ साथी मिल जाया करते, उनमे एक प्रमुख थे उनके मित्र श्री मुन्नीलाल भारती.
उनके लिए दूसरों की सेवा या कार्य प्रमुख था.इस कार्य में वह चाहे जितने अस्त,व्यस्त,त्रस्त हो जाये या दूसरों शब्दों में उनका अपना कितना धन,समय खर्च या नुक्सान हो जाये और अपने घर परिवार की उपेक्षा या अहित भी हो जाएँ तो भी उन्हें दूसरों की सहायता या कार्य करने में कोई दुविधा नहीं रहती थी.सम्पूर्ण घर परिवार घर को उनसे यही शिकायत रहती थी मौन या मुखर दोनों रूप में. परन्तु उन्हें कोई परवाह नहीं थी.
जब से मै इस मोहल्ले से निकला हूँ मुझे उनके बारे में ज्यादा कुछ मालूम नहीं था,परन्तु इतना यकीन था कि वह बदले नहीं होंगे.लेकिन निश्चय ही वह ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें देखने,सुनने और मिलने की उत्सुक्तता कभी कम नहीं होती थी.उनके विचारों से दो चार होना एक अलग अनुभूति को जन्म देती थी, जिसमे इस दुनिया को बेहतर समझने का माद्दा विकसित करती थी.
मुझे यह सोचकर काफी हैरानी होती थी कि जो बाते या वाकया वह कह चुके होते थे,उन्हें याद नहीं रहती थी कि वे उसे मुझे पहले भी सुना चुके है.किन्तु मैने उन्हें कभी टोका नहीं,कि यह मै पहले सुन चूका हूँ.क्योंकि उनके दोहराव से मुझे कभी ऊब पैदा नहीं होती थी और यह एक बेहतर जरिया होता था उनके भीतर झाकने का, जिसकी इच्छा कभी समाप्त नहीं होती थी.आदमी सबसे ज्यादा उसी के सानिध्य में रहना चाहता है जिससे अपना तारतम्य बैठा पाता है.मुझे यह सोचकर बड़ा अचरज होता है,कि जो चीजें हम अपनी जिंदगी में कर नहीं सकते उन्हें सुनना काफी अच्छा लगता है.यह दीगर बात है हम उनके बारे न कुछ सोच सकते है न कर सकते है और किसी दुसरे को बता सकने में भी परहेज करते है.मेरा मतलब यह है कि वह यकायक आपके उस बिंदु पर अंगुली रखतें है जहाँ आप अपने को निरुत्तर पाते है.वह अपने भीतर के अकेलेपन को सरकाकर किसी दुसरे से शेयर करते है और उसे हतप्रभ अकेला कर देते है.
वह सत्तर साल के हो गए थे और उनमे वह वह शक्ति और उर्जा नहीं बची थी जो कभी उनका संबल थी.किन्तु वह इस चीज के आदी हो गए थे एकदम शराबी की तरह कि वह किसी के काम आ सकते है तो क्यों न करें? यद्दपि इसमे अपना खो जाएँ तो कोई गम या पछतावा नहीं है.
एक बार क्या कई बार दुहराया जा चुका प्रकरण- उनके पड़ोस का एक मंदिर जीर्णशीर्ण अवस्था में था.मूर्तियाँ सब खंडित हो गयी थीं.दीवारे ढय जाने की अवस्था में थी.उस शिवाला मंदिर से उसका घंटा भी चोर चुरा कर ले गए थे.उस मंदिर में मोहल्ले के लोगो में कुछेक को छोड़कर पूजा अर्चना भी स्थगित कर दी थी,परन्तु उसमे सबकी श्रद्धा बरक़रार थी.उनसे देखा नहीं गया.वह मोहल्ले के धनवान और प्रभावशाली लोगों से मिले.सबने मिलकर यह फैसला किया कि मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया जाँय.इस कार्य के लिए भी उनके ऊपर जिम्मेदारी सौप दी गयी,चंदा उगाहने से लेकर मरम्मत और आवश्यक निर्माणकार्य तक.उन्होंने सभी कार्य मेहनत,श्रद्धा,लगन और ईमानदारी से अकेले अंजाम दिए.मंदिर का कायाकल्प हो गया.एक पुजारी भी नियुक्त हो गया.भक्तों और श्रद्धालुयों का आना प्रारम्भ हो गया था....जब सब कुछ दुरस्त हो गया तो उनसे मंदिर का प्रवंधन छीन लिया गया.उन्होंने कोई एतराज नहीं किया और सहर्ष सारे अधिकार सौप दिए. क्योंकि उन्हें मंदिर के जीर्णोद्धार से मतलब था किसी अन्य बात से नहीं...परन्तु उन्हें दुःख होता है जब वह देखते है कि मंदिर परिसर चोरों,व्यभिचारीयों और बेईमानों का अड्डा बन गया है और उसमे भद्र लोगों ने जाना बंद कर दिया है.उसमे पूजा अर्चना नाममात्र की रह गयी है.शीघ्र ही वह पुरानी अवस्था में आ जायेगा.मंदिर...! यह कहते हुए उनमे विषाद और क्षोभ की भावना आ गयी.परन्तु शीघ्र ही वह पूर्वस्थ हो गए.
उन्होंने बताया था कि वह जन्मजात कांग्रेसी है.मै इसका निहितार्थ अर्थ तलाश करने की कोशिश करता. असफल रहता.मैंने उनसे कभी इसका अर्थ जानने की कोशिश नहीं की.मै अनुमान लगाया की उनके पिता, बाबा भी शायद कांग्रेसी रहे होंगे, ऐसा इसलिए कहते होंगे?वह सक्रिय कार्यकर्ता थे.हर चुनाव में चाहे पार्षद का, विधायकी का, या सांसद का उनकी अहमियत महसूस की जाती और उन्हें नेता लोग अपने साथ जोड़ लेते.मोहल्ले स्तर से लेकर शहर स्तर तक उनकी मांग रहती.वह दिलोजान से कांग्रेस को जिताने में लग जाते,बिना किसी प्रत्याशा के.जब कांग्रेस किसी स्तर पर जीत जाती तो उनके चेहरे पर जो संतोष का भाव उमड़ता वह अद्भुत व् अवर्णनीय होता.
मगर हर चुनाव के बाद उन्हें भुला दिया जाता.वह सिर्फ समर्पित कार्यकर्ता ही बने रहे.किसी ने उन्हें उससे ऊपर का ओहदा नहीं दिया.उन्होंने न माँगा,न दिया गया और वह ज्यादा के इच्छुक भी नहीं लगे.यहाँ तक की उन्हें कभी वार्ड का भी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनाया गया.एक बार जिला अध्यक्ष गुरु प्रसाद ने उन्हें पार्षद चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया,हांलाकि यह एक औचारिकता मात्र ही थी.जिसे उन्होंने सहजता और सरलता से अस्वीकार कर दिया.कारण वह भी जानते थे और जिला अध्यक्ष भी कि वह चुनाव लड़ने योग्यधन का इंतजाम नहीं कर पाएंगे.उनके बस का धनबल और बाहुबल का इंतजाम करना संभव नहीं था., जो चुनाव लड़ने की आवश्यक शर्त होती है.मगर इससे क्या वह कांग्रेस की जीत से ही संतुष्ट हो जाने वाले जीव थे.
अपने लिए वह कुछ बड़ा सोचते ही नहीं थे.वह अक्सर कहते थे इस दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है,सबके अपने विचार और उसके तदनुरूप कार्य हैं.
वह अपने स्तर से लोगों के दुःख दर्द हरने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.वह हर एक की सहायता या किसी प्रकार की सहायता या किसी भी प्रकार के काम के लिए सर्वसुलभ उपलब्ध थे.किसी की शादी व्याह का रिश्ता तय करवाना हो या पारिवारिक विवाद हो,गृहकलेश का निराकरण या बीमारी-हारी में उनकी उपस्थिति उन्हें लोग अपने साथ कर लेते थे.इस हेतु उन्हें अस्पतालों, स्टेशनों,पुलिस थानों,सरकारी कार्यालयों या अख़बार के दफ्तरों में फरयादी की पुकार बनकर घूमते देखा जा सकता था.इस कारण उनकी दूकान और घर परिवार की उपेक्षा होना स्वाभाविक होता रहा.
वह बड़े पैमाने पर प्रशिद्धय में तब आये जब नगर पालिका ने हाउस टैक्स और वाटर टैक्स की बेहिसाब बढ़ोत्तरी कर दी.बड़े और छोटे मकानों का टैक्स एक समान कर दिया.सामान्य गरीब मकान मालिक त्राहि-त्राहि कर उठे.उन्होंने अपने एक साथी मुन्नीलाल भारती, जो किसी प्रिंटिंग प्रेस में कार्य करता था और उसी मोहल्ले का निवासी था,वह भी कांग्रेसी था,के साथ मिलकर इसे कम करवाने का बीड़ा उठाया.मकान के साईज और और पानी के उपभोग के अनुसार कर निर्धारण करने हेतु उन्होंने भगीरथ प्रयास किया.इस कार्य हेतु उन्होंने उन्होंने अपने पैसे से प्रार्थना-पत्र फॉर्म छपवाए और उसे भरवा कर कार्यालय में जमा करवाए.उन्होंने इस कार्य हेतु नियमित पैरवी की,वह अपने प्रयास में सफल रहे.उनकी दूकान इस हेतु काफी दिनों बंद रही.प्रशासन ने उचित संशोधन करके, कर निर्धारण कर दिया,किन्तु उनका खुद का हाउस टैक्स व् वाटर टैक्स कम नहीं किया.यह भी विडम्बना रही कि इस कार्य को इमानदारी से अंजाम देने के दौरान उनके सबसे निकट साथी मुन्नीलाल भारती से मतभेद हो गए और उनका साथ छूट गया. कारण यह था कि भारती जिन्होंने सदस्यों के पैसों से ही अपना व्यक्तिगत खर्च भी निकाल लिया.अमानत में खयानत उन्हें बर्दास्त नहीं हुई.
एक बार उन्होंने खुद बताया और स्वीकार किया था कि जब से बड़े पढ़-लिखकर समझदार हो गए थे वह कुछ और निर्द्वंद हो गए, अपने अनुसार चलने में.उनके कार्यकलापों के कारण अक्सर बंद हो जाने वाली दूकान उनकी अनुपस्थिति में बड़े सम्हाल लिया करता था. इसमें व्यवधान तब पड़ा जब उसकी सरकारी नौकरी लग गयी. उसने घर की बिगड़ी अर्थव्यस्था पटरी पर ला दी थी.उसके अनुज और अनुजा उस पर निर्भर हो गए थे.परिस्थितियों के अनुसार दूकान फिर अपने मूल स्वरूप में वापस आ कभी बंद कभी खुली....इन्ही सब झंझावातों से झुँझते हुए तीनों लडकियों की शादी हो गयी,वे अपने घर में ख़ुशी और सम्पन्न है.उन्होंने बड़े की शादी में दहेज़ नहीं लिया था परन्तु उन्हें अपने लडकियों में देना पड़ा.उन्होंने तो कई रिस्ते इसी कारण छोड़ दिए. परन्तु बड़े के हस्तक्षेप और सहयोग के कारण उन्हें यह भी करना पड़ा, “वक़्त वक़्त के बात है.आखिर कब तक उन्हें बिठायें रखता.” कहकर उन्होंने उसाँस भरी.उन्हें इस बात का अब तक मलाल था.
छोटे मेरा दोस्त,सहपाठी विद्रोही हो गया.उनकी विचारधारा के एकदम उलट नक्सलवाद के आकर्षण में खो गया.उसमे ऐसा संलग्न और दीक्षित हुआ कि एक दिन घर से भाग कर कहाँ गया अभी तक पता नहीं चल पाया है.उसने कभी मुझे भी कुछ नहीं बताया था.अभी कुछ दिनों से कभी कभी उसका फ़ोन मेरे पास आ जाता है कि घर के लोग कैसे है?अपने विषय में कुछ नहीं बताता,कहाँ,कैसे है?मेरे पूछने से पहले ही फ़ोन कट जाता है.मैंने उन दोनों को बताया.चाची लालायित,उत्सुक और चाहना भरी नजरों से मेरी तरफ देखती.उनकी नज़रों में प्यार.स्नेह और आशीष छलक छलक जा रहा था, मेरे और छोटे के लिए.मै जब भी उनसे मिलता वह छोटे के विषय में अवश्य पूछती और कुछ न जानकार निराश हो जाती.जब मै कुछ नहीं बता पाता...उन्होंने इस समाचार को ऐसे ग्रहण किया जैसे छोटे के विषय में नहीं किसी और के विषय मे जिक्र हो? मैंने उनके भीतर टटोला परन्तु कुछ हाथ नहीं आया-न तकलीफ,न दुःख दर्द,न निराशा,न हताशा.
उनके मन के अंदर व् बाहर अद्भुत समानता थी.उन्हें किसी से कोई गिला शिकवा नहीं था, न खुद से न किसी और से.निःसंदेह उनके चेहरें पर सफलताये और असफलताओं की एक लम्बी फेहरिस्त होगी, परन्तु उनका प्रगटीकरण नदारत था.सिर्फ बीमारी और बुढ़ापा के अलावा कुछ नहीं था.परन्तु चाची की अक्सर आ जाने वाली बीमारी उन्हें त्रस्त प्रताणित और अस्तव्यस्त अवश्य कर देती थी.
“क्या आपको अपने व्यतीत किये जीवन से कुछ या कोई पछतावा..पश्चाताप है?” मैंने पता नही किस झोंक में यह पूँछा था,हाँलाकि मुझे तुरंत यह अहसास हुआ कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.प्रश्न इतना अचानक था कि वह भी हतप्रभ रह गए.उन्हें मुझसे यह उम्मीद नहीं थी कि मै ऐसा प्रश्न कर सकता हूँ?
“नहीं...बिलकुल नहीं..मैंने अपने लिए कोई फायदा नहीं उठाया.” उन्होंने बहुत शांत और ठन्डे स्वर में जवाब दिया.परन्तु मैंने महसूस किया कि कुछ किरच..किरच..किरच..उन्हें छील रहा था.कुछ सच्चाई इतनी मारक होती है कि कहने या न कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता.वह बाह्य रूप में प्रगट ना हो पाए किन्तु अंतर्मन में अवश्य मौजूद रहती है.
उन्हें अजीब सा संदेह हुआ कि मै उनके बारे में सब कुछ जानता हूँ जो कुछ उन्होंने बताया है या मैंने जो देखा है उसके अतिरिक्त मै उन्हें और कुछ जानता हूँ.उन्होंने एक अजीब अर्थभरी दृष्टि से मेरी और देखा और एक लम्बी ऊसाँस भरी और धीरे से कहाँ, “अब मै थक गया हूँ,आराम करना चाहता हूँ.”
मै अपने घर चला आया था परन्तु उनके प्रति एक लगाव भरी चिंता जेहन में भरी रही थी.
“अपने विषय में कुछ कहा करो?” उनके स्वर में आतुरता बनी रहती थी.मै कई बार उन्हें अपनी अखवार की नौकरी के विषय में बताया था.अपनी बीबी बच्चों और घर के बारे में- वे चुपचाप सुनते थे.चाची भी सुन लिया करती थीं.वह अक्सर श्रोता के रूप में बतकही में शामिल हुआ करती थीं.वह इतना चुप स्थिर रहती कि मुझे संदेह हो जाता कि वह सो तो नहीं गयी है?
पता नहीं मुझे क्यों यह खुशफहमी थी कि मेरे उनके पास जाने से उन्हें खुशी मिलती होगी.निःसंदेह मुझे खुशी शायद न भी मिले किन्तु एक संतोष का अहसास अवश्य होता था कि मै उन्हें ठीक देख पा रहा हूँ...मेरे अपने माता-पिता रहे नहीं थे..... एक बार उन्होंने मुझसे भी पूछा था,कोई मनोकामना,जिज्ञाषा लेकर आते हो या...?” उनकी तौलती आँखे मुझ पर टिकी हुई थीं. मैंने अपने भीतर झाँका वहां कुछ नहीं था सिर्फ एक लगाव था बचपन से जो उनके प्रति सहज और स्वभाविक रूप से दिल के एक कोने में अवस्थित था. उनमे मै अपने माँ-बाबू की छवि देखता था.
“नो प्रॉब्लम..” कहकर मै हँस दिया.वह भी हँसे.हाँ बल्कि चाची को उनका यह पूछना नागवार गुजरा और उन्होंने बल्कि झिड़कने के अंदाज में कहा, “छोटे जैसा बच्चा है अपना भुवन,प्यार लगाव की वजह से आ जाता है. छोटे और भुवन में कोई फर्क नहीं है! इससे मिलकर आँखें जुड़ा जाती है.”
मुझे वह सुखी दम्पति देखने में अच्छे लगते थे जो एक दुसरे को चाहते भी हो,किसी मज़बूरी-वश नही बल्कि स्वाभाविकरूप से.उन्हें देखकर मै उलझन में पड़ जाता था कि क्या वे सुखी दम्पति हैं?क्या उनमे एक दुसरे के प्रति प्यार और सम्मान था या समय के अंतराल में स्वाभाविक रूप से विकसित हो गया है.यह संदेह मुझे तब गहराया जब कभी चाची उनकी बातों पे हंस दिया करती.ये हंसी मुझे स्वाभिविक न लगकर व्यंग्य की आपूर्ति लगती.उस स्वर में अजीब सा परायापन झलकता था.
क्या कभी ऐसा समय भी रहा होगा कि वे एक दुसरे से पृथक सोच और जी रहे होंगे? क्या चाची को शिकायत नहीं रही होगी कि उन्होंने ठीक ढंग से पति और पिता की जिम्मेदारी निभाही? आजकल विचारों में साम्यता मजबूरीवश है या एक दुसरे पर निर्भरतावश है?उनमे संतोष के जो भाव परिलक्षित हो रहे है वह अर्जित किये हुए है या समयांतर पर खुद विकसित हो गए है?या सिर्फ मेरा भ्रम हो जो उनके प्रति अतिशय चिंता से उपजा मेरा खंडित मन?
उन्हें अपनी स्मृतियों से संतोष था.मैंने महसूस करने की कोशिश की क्या उन्हें अपने व्यतीत जीवन के प्रति कोई कटुता विद्यमान है? जब मै उनकी और देखता हूँ तो आश्चर्य होता है कि उनमें आपस में कोई कडुवाहट नहीं थी.अब वे शायद उन्हें यह समझाने में सफल रहे थे कि अब उनकी प्राथीमिक्तायें पत्नी से प्रारंभ होती है.समय के अनवरत बहते यातायात में एक वही थी जो उनके पुराने स्टेशन सी एक जगह ठहरी थी.
मैंने उन्हें कभी उपदेश का एक भी शब्द वाक्य कहते नहीं सुना था.जहाँ तक मैं जानता था,वे बिन मांगे सलाह भी नहीं दिया करते थे.मै जानता था कि उनकी राजनीतिक व् सामाजिक स्थिति चाहे जितनी अच्छी रही हो उनकी आर्थिक अवं शारीरिक स्थिति ठीक नहीं है.मेरे अपने अवलोकन के अनुसार वह राजनीतिक संत ही नहीं बल्कि सामजिक संत भी अवश्य थे.दूसरों की सहायता करने को तत्पर,अपने अहित हो जाने के हद तक.
उनका जब मन करता या फुर्सत पाते वह अपनी दूकान खोलकर बैठ जाते, कुछ बिक्री हो जाती तो ठीक नहीं तो वे ग्राहक जरुर आ जाते जो उनके अनुभव,विचार,सलाह और सहायता बिना दाम के ले जाते थे.
मेरी उनके प्रति एक लगाव भरी चिंता सदैव बनी रहती.जिसका मुख्य कारण था उनका संत लाइक दृष्टिकोण.अपना सब कुछ दूसरों पर लुटा देने के बावजूद होश न आना.अब भी वह दूसरों की सहायता के लिए निकल पड़ते थे.यद्दपि वह उतने स्वस्थ व् निरोग नहीं रह गए थे और चाची उनकी और अपनी देखभाल में कमतर होती जा रही थी.मैंने महसूस किया है कि वे अपनी कमी,विपदा,कष्ट कभी भी शेयर नही करते थे,मुझसे भी नहीं.क्या वह सन्यासी थे?परमार्थ की सक्षमता धीरे धीरे छीज रही थी,परन्तु उनके मन मष्तिष्क और शरीर में पूर्णरूपेण विद्यमान थी.
मै उनके पास जाना चाहता था.साथ रहना चाहता था.मेरा सिर्फ एक मकसद था कि किसी तरह मै उनके किसी काम आ सकुं.चाची जी उनकी देखभाल करते करते खुद बीमार रहने लगी थीं.मै उनकी हेल्प करना चाहता था,अर्थत्यात्मक और भावात्मक.मैंने चाची से अपनी मंशा जाहिर की.वह प्रसन्न हो गयी.ख़ुशी में उनकी आँखे नम हो गयी.चोक हो आये गले से उन्होंने कहा, “अपनी जरुरत बताओगे तो तुरंत राजी हो जायेंगे परन्तु हमारी मदद करने की कोशिश करोंगे तो असफल रहोगे.उन्हें दूसरों की मदद करने की लत है.खुद अपने लिए मदद लेने पाने से परहेज है.कोई जबरदस्ती करेंगा तो नाराज हो जायेगे.
अचानक मेरे में एक विचार क्रौधा और उसके साथ हल भी साथ चला आया.कई बार मेरी पत्नी घर से दूर किसी और जगह रहने की घर लेने की जिद किया करती थी,क्योंकि घर में रहने जगह छोटी होती जा रही थी. जिसे मै टाल दिया करता था.अब क्या यह ठीक नहीं रहेगा?
“चाचा जी, “मेरे अपने घर में जगह की कमी हो गयी है.तीन भाईयो का परिवार पांच कमरों में गुजारा करना मुश्किल हो रहा है. एक कमरा बैठक में निकल जाता है.दोनों बड़े भाईयो के बच्चे बड़े हो रहे है उन्हें भी जगह चाहिए.मेरा अपने पास एक बहुत ही छोटा कमरा है.छोटी छोटी बातों के लेकर आपस में भाभियों में चिक-चिक होने लगी हैं..मुझे डर है कही यह भाईयों में न फ़ैल जाये.मेरा भी परिवार बढेगा.यदि आप...” यह कहकर मै चुप हो गया.उन्होंने मुझे उपर से नीचे तक एक संदेह की दृष्टि से देखा,मेरे कहे की सत्यता परखने की कोशिश की.
“तो फिर यही क्यों? बर्रा के पास तो काफी अच्छे अच्छे पोर्शन,फ्लैट मिल जाते है किराये में?” यह कहकर वह फिर मुझे ताकने लगे.
‘वह तो ठीक है ,परन्तु वहां से मेरे प्रेस की दूरी काफी है और आपका घर एकदम नजदीक.पैदल भी जाया जा सकता है.फिर आपका स्नेह भी प्राप्त होता रहेगा.” मैंने अनुनय विनय की.सहायता करने का अनुरोध किया.
“ठीक तो कह रहा है,भुवन.” चाची ने सिफारिश की.
“ अच्छा..परन्तु ध्यान रहे! कोई किराया देने की कोशिश मत करना,नहीं लूँगा.” उन्होंने सख्त लहजे में कहा.
‘तो मै नहीं आऊंगा!’ मेरी आवाज में तेजी थी.दोनों चौक कर मुझे देखने लगे.
कुछ क्षण, कुछ पल सब कुछ रुक सा गया.निश्तब्धता व्याप्त थी..शनैः..शनैः वारावरण गंभीर होता जा रहा था.कि...
“ठीक है..” उनके स्वर में कुछ ऐसी निस्संगता थी जो शायद ही किसी आदमी में पायी जाती हो?
मुझमे संतोष और स्फूर्ति की एक लहर दौड़ गयी थी जिसमे प्रसंनता की अतिरिक्त मात्रा शामिल थी जो किसी विजयोपरांत होती है.सबसे ज्यादा मुझे इस बात की तसल्ली थी कि बाहर पोस्टिंग होने के कारण मै माँ-बाबू की कुछ सेवा नहीं कर पाया अब उनके रूप में मै शायद कुछ कर पाऊँ.