Raja Singh

Others

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Raja Singh

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"पुनः"

"पुनः"

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वह भीकाजी कामा प्लेस में स्थित केन्द्रीय पेन्सन आफिस की सीढ़ियां चढने ही वाला था कि उसे अपना रिश्ते का नाम सुनाई पड़ा। उसका नाम किसी और का भी हो सकता हैं। यह सोचकर वह दो चार सीढ़ियां चढ़ गया, लेकिन आवाज जिस बच्चे की थी और वह कुछ पहचानी सी लगी, परन्तु भ्रम बरकरार था। वह थम गया और पीछे मुड़कर देखा, जहां से आवाज आई थी।

        लेकिन आवाज का श्रोत्र नदारत था। वह आवाज की तलाश में एकटक उसी तरफ देखने लगा। पीछे लोगों की भीड़ थी, परन्तु बच्चे की आवाज नहीं थीं, न कोई बच्चा दिख पड़ा।

वह मुड़ा और फिर चलने को हुआ, तब उसने उस आवाज को दुबारा सुना, एकदम स्पष्ट एवं तीव्र ........डैडी.........। वह आवाज महीनों-महीनों बाद सुनने को मिलती है, और इस आवाज के मालिक से मिलने के लिए वह हर दम बेचैन रहता हैं। वह ठिठक गया।

        वह, बच्ची अपनी मां के साथ आ रही थी और अपने छोटे छोटे हाथों को हिलाकर उसे बुला रही थी। उसने उन्हें दूर से ही पहचान लिया। वह दोनों उस चौड़ी गली के मुहाने पर थे। वह उनकी तरफ बढ़ा। मां बेटी ने भी उसे चलते नहीं देखा और उसी की तरफ आने लगी।

        बीच में, वे मिले, फिर एक तरफ सिमट कर खड़े हो गये। बच्ची ने फिर डैडी कहा और कस कर अपनी माँ का हाथ और उसकी अंगुली थाम रखी थी।

वह त्रिशा थी, बच्ची बेबी। अभी तक उसे, यही नाम याद रहा था। उसे लगा कि त्रिशा ने बच्ची के मुंह से जानबूझकर उसके लिए आवाज लगवाई है, बाप बेटी को मिलवाने की गरज से।

        वह क्षण मिहिर के लिए अकल्पनीय और विचित्र था। बेबी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसे देख रही थी-साथ में अपनी मां से सटकर, चिपककर खड़ी थी और त्रिशा अपनी आंखें उस पर से हटाकर दूसरी तरफ देख रही थी।

  ‘बेबी! यहां कैसे ? बच्ची ने मां की तरफ देखा जवाब के लिए। उसे शायद जबाब पता नहीं था। उसने बेबी को अपनी गोद में उठा लिया। वह थोड़ा मचली फिर हैरानी से उसकी गोद में रहते हुए मां की तरफ शरारत से देखने लगी।

 ‘तूने डैडी को पहचाना नहीं?‘ उसने पूछा।

‘पहचाना, तभी उसने आवाज दीं।‘ बेबी की जगह त्रिशा ने कहा।

 ‘यहां कैसे?‘ उसने डायरेक्ट मां से पूछां।

‘पासपोर्ट आफिस आई थी।‘ उसने और कुछ नहीं पूछा।

 ‘डैडी घर चलो।‘ बेबी ने कहा।

  ‘जरूर ........जरूर‘, परन्तु आज नहीं, कल।‘ उसका जबाब बेटी से ज्यादा मां को संतुष्ट कर गया।

 ‘आज आफिस के काम से पेंशन आफिस आया हॅूं। आज काम निपट जायेगा, फिर आऊंगा।‘ उसने बच्ची से मुखातिब होकर कहा। त्रिशा ने ऐसे सुना जैसे उसे कोई उत्सुकता नहीं हो।

क्षण भर के लिए उसकी आंखें बच्ची की मां से मिल गईं परन्तु अगले ही क्षण दोनों दूसरी तरफ देखने लगे।

        वह दोनों अपने गंतव्य को बढ़े। बेबी को उसने गोद में उठा लिया था। कुछ ही कदमों के बाद पासपोर्ट आफिस था। उसने बाय-बाय कहकर बेबी को उतारा और पेंशन आफिस की ओर चल पड़ा। मां ने उसकी तरफ नहीं देखा, वह सिर्फ बेबी को देखती रही थी।

        कोर्ट के फैसले ने उसे यह राहत दी थी कि वह माह में एक बार बेबी से मिल सकता है। यह त्रिशा की जिम्मेदरी थी कि बेबी को उसके पास एक दिन के लिए छोड़ें। अकसर त्रिशा के घर का नौंकर बेबी को लेकर आता था और बेबी को उसके पास छोड़कर चला जाता था। शाम, अंधेरा होने से पहले ही वह बेबी को त्रिशा के घर, बाहर से ही छोड़ आता था। शुरू के दिनों में उत्सुकता वश, प्रेम वश वह खुद महीने के पहले रविवार को त्रिशा के घर जाता और बिना घर की चौहद्दी में प्रवेश किये, वह बेबी को प्राप्त कर लेता था। फिर वह और बेबी दिनभर खेलते-कूदते, खाते-पीते, मटरगस्ती करते हुए घूमते रहते थे, और शाम के बाद मिहिर अपने घर में नौंकर के आने तक बेबी के साथ रहता। नौंकर सदैव सांय 6 से 7 के बीच आ जाता था। बेबी उसके पास काफी खुश रहती और वापस जाने पर अनमनी सी हो जाती थी।

        त्रिशा के पिता को उसका आना पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि बेबी को नौकर के हाथ ही भिजवा दिया जाय और वापस भी नौंकर ले आये। और उन्होंने दो एक साल ऐसा नियमपूर्वक चलाया भी, परन्तु जब वह आ ही जाता तो वह मना न कर पाते। उसने भी उनके बंगले में प्रवेश नहीं किया।

        आज करीब तीन सालों के बाद वह उसी बंगले के पास खड़ा है, जहां उसका उजड़ा संसार रह रहा है और वह संकोच, झिझक, नापसंदगी के डर से भीतर प्रवेश करने से डर रहा है।

        घर का नौकर कौशल निकला। कौशल बंगले और उसके घर के बीच सेतु का काम करता था और बेबी को संभालता था। उसने भीतर चलने के लिये कहा जिसे उसने नकार दिया और बेबी को लाने के लिये कहा।

        कौशल भीतर गया और बेबी के साथ बाहर आया बेबी उसे भी भीतर ले जाने के लिये मचल पड़ी। वह उसे अपने साथ ले चलने को कह रहा था।

        ‘मै तुम्हारे साथ नहीं जाऊॅंगी।‘ बेबी ने लगभग चीखते हुये कहा। ‘नाराज हो क्या ? वह अचकचाया।

‘हाँ, आपने घर आने का प्रामिज किया था। चलिये भीतर चलिये।‘ बेबी जिद पर थी। त्रिशा ड्राइन्गरूम से उन दोनों को देख रही थी, उन दोनों की आँखें मिली और फिर हट गयी। वह बाहर निकल आयी और कहा, ‘आप आ जाइयें ना?‘

‘क्या हो गया है, बेबी को आज।‘ वह कुछ झुंझलाहट से बोला।

‘इस वक्त यह आपके साथ बाहर नहीं जायेगी। आपने घर आने को कहा था, इसलिये।‘ माँ ने अपना स्वर तटस्थ रखा।

‘ठीक है, चलता हॅू, मगर ज्यादा देर नहीं रूकॅूगा, और फिर मेरे साथ चलना पडे़गा।‘ उसने कहा। 

बेबी उसे अपना सामान दिखाने के लिये भीतर भाग गई थी। बेबी प्रसन्न हो गई और माँ निश्चिंत।

ड्रान्इगरूम में वह बैठा और त्रिशा एक अलग कोने पर पड़े एकल सोफ़े पर। एक बहुत बड़े रूम में दो नितान्त अपरिचित की तरह काफी दूर थे, दोनों शब्दहीन थे। उनके शब्द उनके मस्तिष्क से उमड़-घुमड़ रहे थे, और मुंह में आ नहीं पा रहे थे।

‘मम्मी-पापा नहीं है ?‘ उसने पूछा

‘वे अब कहाँ ?‘ त्रिशा ने कहा।

‘क्या मतलब?‘ उसने फिर पूछा।

‘जजमेन्ट के एक साल बाद मम्मी चली गई और पिछले साल पापा नहीं रहे।‘

‘ओह! सो सारी। मुझे पता नहीं चला ......किसी ने खबर ही नहीं करी।‘

हाँ ! क्या खबर करते? .........चुप एक लम्बी चुप्पी ।

‘भाई एवं भाभी कहां है?‘

‘दोनों ने मिल कर एक नर्सिग होम खोल लिया है। 10 बजे के आस-पास निकल जाते हैँ उनके दोनों बच्चे पढने गये है। वे एक बजे तक आते है। कभी-कभी बच्चे नर्सिग होम चले जाते है।‘ त्रिशा ने एक सांस में सब बता दिया। वह चुप रहा। अब उसके पास पूछने को कुछ नहीं था। अपनी तरफ से त्रिशा ने कोई बात नहीं छेड़ी।

बेबी आ गई थी वह अपने टोकरी भर खिलौने लाई थी, डैडी को दिखाने। वह बाल-सुलभ चंचलता से हर एक खिलौने के विषय में बता रही थी और उसे ढंग से दिखा रही थी।

उसने बेबी को बाहर ले जाना चाहा, घूमने फिरने के लिये। परन्तु आज पता नहीं क्यों बेबी उसके साथ बाहर जाने को तैयार नहीं थी। वह घर पर रूकने का ही जोर दे रही थी।

चाय नाश्ता आ गया था। वैसे ही पड़ा था। एक दो बार त्रिशा ने अनुरोध किया परन्तु उसे यहाँ कुछ लेना पसन्द नहीं था। उसने बेबी को खिलाना चाहा। उसने भी इन्कार कर दिया। ‘पहले डैडी!,‘ बेबी जिद में थी।

‘ले लीजिये न? बेबी के लिये।‘

उसका संकल्प टूट गया।

वह चलने को हुआ। बेबी रूकने को कह रही थी। त्रिशा भीतर जा चुकी थी। शायद भतीजे-भतीजी के आने का समय हो चुका था। बेबी उसे रोक रही थी। उसने उसका एक हाथ पकड़ लिया था, और उसे न जाने देने के लिये मचल रहीं थी।

माँ आ गयी थी किसी तरह उसने उसे समझाया कि डैडी फिर आयेगें। उसकी आँखे झुक गयी थी। मिहिर अभी बैठा हुआ था। बेबी माँ की गोद में थी और बेबी की आँखे बोझिल थी। जब बेबी नींद में आ गई तो वह धीरे से बाहर निकल गया।

बहुत दिनों बाद फिर मिहिर को उस रात नींद नहीं आयी। ऐसी नींद थी, जिसमें सपने न हो सिर्फ यादों का दोहराव हो। नींद और उनींदी स्थिति में, त्रिशा के अलावा कुछ नहीं था।

    उस दिन सर्दी ज्यादा नहीं थी। सर्दी का मौसम बीत चुका था । वह अपने आफिस में बेमन और बेतरतीब बैठा था. वह आयी और उसने भीतर आने की अनुमति चाही।

‘श्योर!‘ उसने आवाज की तरफ देखा, एक सुन्दर लड़की ने उसे ताका। बैठिये उसने सीट आफर की।

‘मैं भारत टाइम्स की रिपोर्टर, त्रिशा शर्मा।‘ उसने अपना परिचय पत्र उसे दिखाया। उसने एक नजर से देखा और मन ही मन ताजगी में जड़ता कर अनुभव करने लगा..........इतनी कमनीय, खूबसूरत सुन्दर लड़की और पत्रकारिता के पेशे में, कहीं पत्रकारिता की भीड़ में सुन्दरता खो न जाये।

‘मुझे शिकायत है। वृद्धावस्था पेंशन की लिस्ट सही नहीं बनी है। कम से कम 5-6 लोग ऐसे है जिनका कोई नहीं है, और साठ से उपर है। उनकी जगह ऐसे लोगों की पेंशन स्वीकृत की गयी है, जो घर परिवार के साथ मजे में रह रहे है और जिन्हे पेंशन की कोई आवश्यकता नहीं है।‘    

‘कौन-कौन से लोग है? वह अनिश्चित स्वर में पूछता है।

वह वंचित लोगों की लिस्ट पेश करती है। वह एक नजर देखता है और टरका देता है।

‘सर, यह बहुत जरूरतमंद है। कुछ कीजिये।‘

‘आपको कैसे पता?‘ उसने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा।

‘मैंने व्यक्तिगत रूप से खुद पड़ताल की है और इनका प्रार्थना पत्र खुद ही लाकर जमा करवाया है। उसने कुछ झुझलाहट से जोर देकर कहा, आवाज भरसक नरम थी।

‘अब तो कुछ हो नहीं सकता‘ अगले वित्त-वर्ष में देखा जायेगा।‘

‘अभी कहानी बना देती हॅू।‘ वह तैश में थी, और सफेद गाल लाल हो उठे थे।

उसने परवाह नहीं की। लड़की ने अपने सहायक कैमरामैन को आदेश दिया, ‘विकास, चलो।‘

वह बाहर निकल कर अपने साथ लाये लाभार्थियों का इन्टरव्यू लेने लगी। कहानी बन रही थी और कल के अखबार में छप जायेगी।

बाहर से बड़े बाबू भागते-भागते आये। ‘क्या कर रहे है साहब? उसे रोकिये। गड़बड़ हो जायेगा। इस समय की सरकार बड़ी सख्त है। सबकी नौकरी पर आ जायेगी।‘ सबसे ज्यादा बड़े बाबू का इस चयन में रोल होता है। वह घबड़ाये और उससे गिड़गिड़ाने लगे।

वह हतप्रभ रह गया। उसे मामला इतना गम्भीर होगा, अंदेशा नहीं था। उसने चपरासी और बड़े बाबू को भेजा, उसे बुलाने के लिए।

वह नहीं आयी।

उसे खुद जाना पड़ा। कार्यालय परिसर में वह हरेक से वार्तालाप कर रही थी। और वीडियों कैमरा चलायमान था।

 आते ही वह रूकी और उसकी तरफ मुखातिब हुई। उसे ऐसे देखा कि,.... क्या कहते हो रोकूँ या जारी रखूँ।

उसने अपनी आवाज को विनम्र बनाते हुये उससे कहानी बनने से रूकवायी और उसे लेकर अपने चेम्बर में आ गया।

उसने उसे शान्त करके बैठाया और उसे चाय आफर की।

उसने फिर वंचित लोगों की लिस्ट उसके सामने रख दी। ‘इसकी जेंनूननेस कैसे प्रमाणित करूँ ।‘ उसने फिर शंका व्यक्त की।

‘आप मेरे साथ चलिये और खुद अपनी नजरों से देखकर, समझकर सत्यापित कर लीजिये।‘ 

वह झिझक गया। इतना बड़ा अधिकारी इतने छोटे कार्य के लिये जायेगा? वह सोचं में पड़ गया। वह शान्त नजरों से उसे देख रही थी।

उसका साथ ! ......उसका चेहरा हल्का सा सुर्ख हो आया। वातावरण एकदम खुशगवार हो उठा था। उसने सहर्ष सहमति दे दी।

उसकी बात एकदम सही निकली। वह उसके साथ एक-एक व्यक्ति से उनके आवास में मिला और उसकी शिकायत सही पायी।

उसने अतिरिक्त लिस्ट छः लाभार्थियों की और संस्तुति करवायी। लड़की को निहायत खुशी मिली और उसे संतोष।

भारत टाइम्स में कई कहानियां निकलती रही। दबे कुचले, शोषित और पिछड़ों की हमदर्दी की और उनकी सहायता में तत्पर लोगों की। वह उनकी आवाज बन कर उभर रही थी। उसमें एक कहानी उसकी भी निकली एक सच्चे ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ अफसर की। इन सब कहानी की कहानीकार बनी त्रिशा शर्मा।

समय बीतने लगा। उसे लगा जैसे वह दोनों किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों। वे चाहतों के दिन थे। प्रतीक्षा थी एक दूसरे की, एक दूसरे के साथ की। वह समय निकाल कर एक दूसरे से मिलने लगे। वह दोनों मिलते और उनकी आँखों में अजीब सी तसल्ली घिर आती। वह उसकी दयालू सुन्दरता से आलोकित था। वह एक दूसरे से मोहित हो चुके थे, और साथ पाने की लालसा से पीड़ित थे।

प्यार पनपने लगा था एक दूसरे का आकर्षण चरम पर आ गया था। वे एक अद्भुत भावात्मक स्थिति में थे, लालसा और मोह से भी आगे निकल गये थे।

उनके प्यार में जल्दबाजी नहीं थीं। कदम-कदम पर एक दूसरे को समझ रहे थे और रिश्ते को विश्वास के साथ सींच रहे थें।

एक-आध वर्ष बीतते-बीतते उनमें जबरदस्त लगाव पैदा हो गया। लगाव ऐसा महसूस होने लगा कि बंधन में बध्ंा जाने को उत्कन्ठित। एक ऐसा बन्धन जो दो लोगों को एक लम्बे सफर पर साथ ले जाने को मजबूर करने की ताकत रखता था। एक ऐसे सफर में जाने को उद्धत जहाँ जिन्दगी का हर पल साथ गुजारने की अभिलाषा जोर पकड़ने लगे।

अब उनके मन में अकल्पनीय प्यार उमड़ने लगा था। एक दूसरे से मिलने के प्रयासों में नींद न आना, भूख न लगना, किसी और काम में मन न लगना, और अपनी रिलेशनशिप से जुड़ी हर छोटी से छोटी चीज के बारे में सोचं कर खुश होना।...... उसके जैसा कोई नहीं ......।

उनका प्यार पनपकर नशे में तबदील हो चुका था।

उन दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली। त्रिशा के घर वाले राजी नहीं थे। वह उनकी जाति का नहीं था और उसका पद भी उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं था। वह आई0ए0एस0 दामाद की कल्पना किये हुये थे, क्योंकि उनकी बेटी लाखों में एक थी। मिहिर के पास माँ के अलावा कोई नहीं था। माँ ने कहा, ‘जैसी बेटा तुम्हारी मर्जी, जिसमें तुम खुश रहो।‘

 शनैः त्रिशा के घरवालों का विरोध भी मन्द पड़ गया। मिहिर की माँ को कोई शिकायत न थी, उनके अपने हिसाब से त्रिशा में कोई कमी नहीं थी। उन दोनों को जहाँ मिल गया था। दो सालों के भीतर ही बेबी आ गई। माँ बेहद प्रसन्न थी। त्रिशा पत्रकारिता के अलावा अपने सामाजिक कार्यो में भी बिजी थी। उसके पास बेबी के लिये भी समय कम पड़ रहा था और माँ और अधिक बीमार और वृद्ध होती जा रही थी। उन्हें सब कुछ सम्हालना भारी होता जा रहा था।

उसका सर फटा जा रहा था। हर बार नये सिरे से फिर वहीं सवाल आ खड़ा होता था कि आखिर में वह अलग क्यों हुवे ? वह किसी में भी गलती चिन्हित नहीं कर पाता था। वह सोचता है कि परिस्थितिवश वह दो भले लोग भी एक दूसरे के विरोधी हो जाते है. क्यों वह अपने को इस अतीत से पूरी तरह मुक्त नहीं कर पाता ? पता नहीं किस आशा व विश्वास से वह अपना एकाकीपन काट रहा है। जब तक माँ थी, हरदम कहती रहती थी, ‘बेटा नया घर बसा ले, उसकी चहल पहल से तू यह दुख भूल जायेगा। अपनी जिन्दगी को नये सिरे से संवार।‘ अब तो तेरा तलाक भी हो चुका है-फिर क्यों इस तरह अकेली जिन्दगी जी कर, यह सब यंत्रणा सह रहा हैं?‘ परन्तु नये सिरे से जिन्दगी शुरू करने की कल्पना से भी वह निराशा अवसाद दुख से घिर जाता था। त्रिशा और बेबी के बगैर वह किसी भी प्रकार के जीवन की कल्पना नहीं कर पाता था।

त्रिशा अतीव सुन्दर, समझदार और बहुत पढी लिखी, जहीन थी। उसमें इन सब विशेषताओं के बावजूद कोई अहंकार नहीं था परन्तु उसे अपनी स्वत्रन्ता बहुत प्यारी थी।

अतीत, उसे डस रहा था।

बेबी को कुछ बुखार था। माँ से सम्हल नहीं रही थी, परन्तु वह चली गई। उसे गंन्दी मलिन बस्ती और उनके निवासियों की समस्याओं की जाँच पड़ताल करने और उसकी रपट बना कर अपने अखबार में, पहले पहल प्रकाशित करना था। रात में आठ बजे के बाद दाखिल हुयी। उसे दुख और पछतावा था परन्तु उसे अखबार का काम ज्यादा जरूरी लगा।

वह उबल पड़ा अनाप-सनाप बोलने लगा। वह चुपचाप सुनती रही और बेबी की तीमारदारी में व्यस्त रही। हालाँकि वह माँ के साथ जाकर बेबी को डाक्टर को दिखला आया था और अब बुखार भी नहीं था, और बेबी करीब करीब नार्मल हो चुकी थी। परन्तु मिहिर अशान्त था। उसने त्रिशा की हालत का कोई अंदाजा नहीं लगाया कि वह भूखी, प्यासी और दुखी है।

आज से तुम अखबार में संवाददाता का काम नहीं करोगी।‘ उसने चेतावनी दी।

‘नहीं ! ऐसा नहीं कर सकती।‘

मैंने अपना यहीं कैरियर चुना है। हालाँकि पापा चाहते थे कि मैं ग्रेजुएशन के बाद आई0ए0एस0 या पी0सी0एस0 बनूँ । यह मेरा शौक है, जुनून है।

‘तो तुम अखबार मे डेस्क वर्क पकड़ सकती हो। अगर तुम्हें सम्पादक से कहने में असुविधा हो तो मैं उनसे अनुरोध कर सकता हॅू।‘

‘कोई जरूरत नहीं है आपको ऐसा कुछ कहने की। ....मैंने जानबूझ कर जिद करके अपना यह काम चुना है। क्योंकि मुझे इससे दलितों और कुचलों की आवाज बनना है, इस कारण मैंने अखबार के डेक्स वर्क को ठुकराकर इसे अपनाया है।‘

‘अब ऐसा नहीं चलेगा। घर परिवार की कीमत पर तुम इसे जारी नहीं रख सकती।‘ उसने चेतावनी जारी कर वहीं बहस को विराम दिया। त्रिशा कुछ नहीं बोली परन्तु अनमनी होकर वह बिना कुछ खाये-पीये सोने चली गई। वह चटासा सा रह गया। वह उससे कोई आश्वासन चाहता था इस संदर्भ में। वह हैरान होकर देखता रह गया।

त्रिशा का रवैया नहीं बदला। कुछ दिन तो वह शान्त रही परन्तु फिर उसने सामाजिकता की वहीं राह पकड़ ली। अब उसने अपने अभियान के तहत एक बदनाम युवा मंत्री का सहयोग लेना शुरू कर दिया था। अक्सर मंत्री की लाल बत्ती की गाड़ी उसके घर के दरवाजे पर आकर उसे ले जाती और फिर वहीं गाड़ी उसे घर वापस छोड़ जाती।

मिहिर क्रोधित हो उठा। उसने उसे लताड़ा।

‘किसका साथ पकड़ रखा है। उस बदनाम मंत्री के साथ क्या गरीबों का भला कर पाओगी?‘

‘क्यों? गरीबों का भला करवाने के लिए किसी का भी साथ लिया जा सकता है।‘

‘नहीं, उसके साथ नहीं। यह मेरा आदेश है।‘

‘क्यों? विवाह पूर्व मैंने आपका भी साथ लिया था, वंचितों को उनका वाजिब हक दिलवाने के लिए।

‘परिणाम स्वरूप तुम मेरी पत्नी बन गई।‘ उसको गुस्से में भी हंसी निकल गई।  

‘इसमें गलत क्या हुआ?‘

‘मगर उसके साथ गलत हो सकता है।‘

‘कुछ गलत नहीं होगा।‘

‘नहीं उस मंत्री का साथ नहीं लेना है। यह मेरा आदेश है।‘

‘मैं ऐसे किसी आदेश को नहीं मानती। तुम्हारी सोंच पुरूष की अधिकारवादी मानसिकता की परिचायक है।‘

‘सोच लो। .....यह इस घर में जारी नहीं रह सकता।‘

‘ठीक है, मैं यहाँ से जा रही हॅू। किन्तु मैं अपना पीड़ित शोषित की आवाज बनने का रास्ता नहीं छोड़ूँगी।‘

माँ ने कहा, ‘बेटी, सहीं ही तो कह रहा है, मही! वो, काम क्यों करना जिसमें पति राजी न हो।‘

“आप तो अपने बेटे का ही पक्ष लोगी। मेरी बात क्यों सुनोगी।‘

यह कह कर उसने अपनी अटैची में कुछ कपड़े रखे और बेबी को लेकर अपने पापा के घर चली गई। माँ ने उसे बहुत रोकने की कोशिश की परन्तु वह नहीं रुकी। वह अन्यमनस्क खड़ा-खड़ा उसका जाना देखता रहा।

...........कोर्ट रूम उस समय भरा हुआ था। जज साहेब अभी नही आये थे। त्रिशा और बेबी एक साथ बैठे थे। माँ बेटी एक दूसरे की हूबहू नकल जैसे सफेद संगमरमर की एक बड़ी और एक छोटी प्रस्तर प्रतिमा एक ही रंग रूप और डिजाइन की। जैसे फोटोग्राफर ने फोटो खींच कर एक छोटी व एक बड़ी तस्वीरें फ्रेम कर दी हो। माँ गुमसुम और उदास, बेटी चुपचाप उत्सुक नजरों से इधर-उधर देख रही थी। अन्ततः उसे वह दिख गया। उसने उधर ही अंगुली उठाई।

‘मम्मी,.........डैडी उधर।‘

‘चुप........। ‘ ठीक से बैठो। कहकर उसकी बात अपने में समेट ली। मिहिर ने भी उन दोनों को देख लिया था। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये थे। जब माँ ने बेटी को झिड़का था। दोनों पक्ष के कई रिश्तेदार आये थे। उन्ही में से कोई स्वर उभरा! ......कैसा निष्ठुर बाप है, इतनी सुन्दर और मासूम माँ बेटी को छोड़ रहा हैं ...। अरे! इसका किसी और से चक्कर हो गया होगा .... ?‘........च्........च्........शर्म भी नहीं आती है ...।

वह चीख पड़ना चाहता था कि वह उन्हें नहीं छोड़ रहा है, बल्कि उसे अलग किया जा रहा है, उसकी पत्नी और पुत्री से। इसमें खलनायक है, उसका ससुर माननीय भारत शर्मा, भारत सरकार का उच्च अधिकारी। जिसने कभी भी उनके रिश्तों को अहमियत नहीं दी।

उसे पूरा यकीन था कि त्रिशा का गुस्सा जब काफूर हो जायेगा और वह उसे समझेगी, तो अवश्य लौट आयेगी।

काफी इन्तजार के बाद वह खुद गया था त्रिशा व बेबी को वापस घर लाने के लिये। परन्तु त्रिशा के पापा ने उसे बेइज्जत किया और कहा ‘उसने उसकी फूल जैसी जहीन बेटी की कदर नहीं की।‘ त्रिशा मिली तो मगर अपने न चलने के स्डैण्ड पर कायम रही। हाँ, जरूर ........बेबी उससे लिपट कर मिली और उसे आँसुओं में डुबो गई। उसके वहाँ से लौटने तक वह बिलख-बिलख कर रोई।   

जज ने अंतिम बार त्रिशा से पूछा, ‘आपसे, आपके पति ने कभी दुव्र्यवहार किया?‘

‘नहीं।‘

‘गली गलौज की?‘

‘नहीं‘

मारपीट की?

‘नहीं‘

‘कोई मानसिक यंत्रणा ?‘

‘नहीं‘

‘फिर आप क्यों डिवोर्स चाहती है?‘

‘अपनी स्वतंत्रता हेतु। इनके साथ रह कर मेरे स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं है।‘

‘आपने गुजारा भत्ता के लिये अप्लाई नहीं किया है?‘

‘मुझे जरूरत नहीं है। मैं खुद कमाती हॅू।‘

‘और, बेटी के भविष्य हेतु ?‘

‘यह इनकी मर्जी या कोर्ट जो उचित समझे।‘ अब जज साहब मिहिर से मुखातिब हुये।

‘मिस्टर, आप क्या चाहते है?‘

‘कुछ नहीं ! सिर्फ, इनकी खुशी।‘ उसने त्रिशा की तरफ अंगुली उठाई।

‘वह तो डिवोर्स चाहती है।‘

‘तो फिर डिवोर्स ही सही।‘ उनकी खुशी में मेरी सहमति है।

        कोर्ट ने तलाक मंजूर कर दिया। बच्ची के भविष्य के लिये दस लाख रूपये, मिहिर को जमा करने का आदेश दिया। माह में एक दिन उसे बच्ची से मिलने की अनुमति दी और इसकी जिम्मेदारी माँ पर आयत की गई।

उसे लगा कि उसके अन्दर से दुख, निराशा, हताशा का एक सैलाब आँसुओं के रूप में बाहर निकलने को आतुर है। उसने उस सैलाब को जबरदस्ती बाहर निकलने से रोका। क्या यहीं वह जिन्दगी है, जिसे पाने के लिये उसने संघर्ष किया था? उसके मन में एक शून्य सा घिर आया और वह बेबी से बिना मिले ही वापस आ गया। बाद में वह बहुत पछताया। उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था, इसमें बेबी का क्या कसूर? वह तो अबोध, मूक और असहाय दर्शक रही थी, इस प्रकरण में।

उसे त्रिशा की आँखों में खुशी की कोई आभा नहीं दिखी।     

    वह कोर्ट से खाली लौट आया। तनहा ही गया था तनहा ही वापस आया। माँ नहीं गई, घर पर ही माँ रुकी, उसे भी पता था, निष्कर्ष।

‘कोई बात नहीं बेटा सब ठीक हो जायेगा ।मैं तेरे लिए अपनी जाति में ही उससे भी जो सुन्दर और अच्छी बहु लावेंगी, जो नौकरी न करती हो।‘ 

माँ ने ढाढस बँधाया।‘ 

‘मगर माँ , वह तो नहीं होगी न? उसके जैसा कोई भी नहीं होगा।‘ उसने पलट कर कहा। माँ ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। और वहाँ से हट गई।

माँ , मिहिर के लिये चाय बनाने के लिये किचन में बढ़ गई। वह, वहाँ से बड़-बड़ा रहीं थी, ‘ऐसी बीवी किस काम की जो पति का कहा न माने और जिसे अपनी सन्तान की ममता न हो।‘

आज पहली बार उसने माँ के मुंह से बहु के लिए कुछ बुराइयाँ सुनी थी वरना वह दोनों सदैव मां बेटी की तरह रहतीं थी। उससे बेटे की निराशा और उदासी देखी नहीं जा रही थी परन्तु वह भी असहाय थी। अलगाव के स्थाईकरण से कोई खुश नहीं था। ......

.......उस बेहद कठिन और असहनीय रात को मिहिर ने बिना कुछ खाये गुजार दी। नींद नहीं थी सिर्फ त्रिशा का अक्श और उसकी साफ सुथरी परछाई उससे रूबरू थी। कभी-कभी बेबी की अबोध सूरत बीच में आकर कुछ व्यतिक्रम अवश्य पैदा करती थी। परन्तु वह पूरी रात त्रिशामय थी जो अब कभी उसके पास नहीं होगी। अंतरंगता के विपरीत घ्रुव में संवार सदैव के लिये खो गई है। और उसके पास है बेबसी के आलम में तनहाई का खौफ, अनबुझी मिलने की चाह। अदृश्य कारीगर द्वारा तराशा गया संगमरमरी जिस्म में झील सी गहरी नशीली आँखें और लबों में मुस्कुराहट, उन सबसे अब महरूम रह जाना है। सूरत और सीरत का अद्भुद संगम थी। उसके जैसा कोई नहीं......, वो नही तो कोई नहीं.. उसकी आरजू में जीना है...... अफसोस, अब इन्तजार के भी नाकाबिल हो गये ....। एक क्षीण सी आशा की डोर आती है और बेबी तक आकर गुजर जाती है।

वह भूलने के लिये कुछ नशा करना चाहता है परन्तु माँ की निरीह आँखें उसे रोकती है बेबी का मासूम चेहरा झलकता है। परन्तु वह उस नशे से बच नहीं पाता जो त्रिशा के ख्वाबों, ख्यालों और नशीली अदाओं से उपजता है। 

उसमें एक अजीब तनाव फैलने लगा है जो उसके हर क्रियाकलाप में दृष्टिगोचर में होने लगा है। वह बेचैनी से प्रतीक्षा करता है, उस दिन की जब वह बेबी से मिलेगा। उसे अपनी गलती समझ में नहीं आती। जब तक माँ थी, वह त्रिशा की ही गलती बताती रही कोई उसका इतना अंतरंग मित्र नहीं था जिससे वह सम्पूर्ण प्रकरण का जिक्र करके अपने किये की गलती खोज पाता।

माँ उसकी दूसरी शादी का अरमान लिए चल बसी, उसको यही चिन्ता सदैव सताती थी कि उसके बाद उसकी देखभाल कौन करेगा।

माँ के जाते ही वर्जनायें भी चली गयी। उसने सिगरेट शराब को अंगीकार कर लिया त्रिशा के स्थानापन्न रूप में। परन्तु यादें धुंधली नहीं पड़ी थी। बेबी का हर माह में एक दिन के लिए मिलना, एक आस जगा जाता। त्रिशा के प्रतिरूप से मिलना कुछ कम आनन्ददायक नहीं था, असह्य दबाब और तनाव तले भी, वह उस दिन खुशी से भर जाता था।

उसने रजाई उठाई और उसका चेहरा बाहर आया वह अधजगा था। बीती रात वह काफी देर तक जगता रहा। अगली सुबह रविवार था, दिसम्बर का पहला रविवार, बेबी आती होगी। सुबह के आठ बज चुके थे, दस बजे तक बेबी आ जायेगी, उससे पहले सब तैयार होना है। खैर, कौशल आयेगा छोड़ने। आज बेबी को लेकर किसी अच्छे पार्क में जायेगें फिर उसके बाद मार्केट में उसके लिये ढेर सारे कपड़े दिलवाने है, कुछ खिलौने भी गुड़िया या साइकिल रिक्शा आदि। वह रात भर, मंसूबे बनाता रहा और पेग पर पेग चढाता रहा और जाने कितनी सिगरटे पी डाली।

सब कुछ बिखरा पड़ा है ठीक करना है उसने कमरें में बिखरे सामान को देखा उन्हें सहेज दिया और सभी चीजों को अपने यथास्थान पर रख दिया।

काम वाली आ गयी थी। उसने झांडू पोछे का काम सम्भाल लिया और वह जल्दी-जल्दी फ्रेस होने चल दिया वह चाह रहा था कि किसी तरह बेबी के आने से पहले वह फिट और फाइन हो जायें।

दस को पार हुये, आधा घन्टा हो गया था कि वह बेकरार होने लगा। उसने सोचा कि कहीं उन्हें याद न रहा हो और उसकी मम्मी उसे लेकर कहीं और न चली गयी हो। उसे अफसोस हो रहा था कि उसे कल रात ही फोन करके सुनिश्चित कर लेना चाहिये था, बेबी के आने के विषय में।

वह बार-बार बालकनी पर जाता है-एक धड़कती आशा लिये। बार-बार उसकी नजर सड़क पर दौडती और पहले से भी अस्थिर होकर वापस कमरें पर लौट आती और उसके कान फ्लैट की घंटी बजने की आवाज सुनने पर लग जाते।

ग्यारह बज गये थे और वह बहुत उत्कंठित और व्याकुल था। उसने कल रात से कुछ खाया नहीं था। इसलिये भूख उसे परेशान किये थी। उसने देखा काम वाली ने नाश्ता क्या बनाया है। परन्तु उसका मन नाश्ता करने को नहीं हुआ। वह सोंच रहा था कि इसी बीच कहीं बेबी आ गई तो?

बेल की आवाज आ रही थी। उसने जल्दी से दरवाजा खोला, बाहर कोई नहीं था। वह वापस लौटा, आवाज अब भी आ रहीं थी। ओह! आवाज उसके मोबाइल से आ रही थी। वह आश्चर्य में पड़ गया मोबाइल पर त्रिशा शर्मा थी। करीबन चार साल बाद उसकी काल वह देख रहा था। वह डर गया कहीं त्रिशा ने बेबी के न आने के विषय में तो काल नहीं की है। फिर भी कैसी भी काल हो, आखिर वह त्रिशा की है, वह लपक कर उठा लेता है।

त्रिशा ने बताया वह और बेबी नीचे खड़ी है, बेबी उपर नहीं आ रही है। उसका फ्लैट तीसरी मंजिल पर था। उसने बालकनी से झांक कर देखा त्रिशा बच्ची के साथ फ्लैट की सड़क पर खड़ी है। उसे आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई ।

वह तेज-तेज चल कर लिफ्ट तक पहुँचा और उनके पास पहुँच गया। मगर बच्ची ने उसकी तरफ नहीं देखा वह अपनी माँ का हाथ खींच कर वापस चलने की जिद कर रही थी। मिहिर ने उसे अपने पास लेने की कोशिश की तो वह मचल उठी और उसकी गोद से फिसलने को हुई ।

‘मैं आपके घर नहीं जाउॅंगी‘, उसने चीखते हुये कहा। वह अचकचा गया और उसे सावधानी से रोड पर उतार दिया।

‘मुझ से नाराज हैं क्या?‘ उसने बिना त्रिशा की तरफ देखे पूछा।

‘हाँ, उस दिन आप इसे सोता छोडकर आ गये थे नींद से जागने पर बहुत रोयी, धोयी और कभी आप के पास न आने बात कहीं थी।‘ त्रिशा ने कुछ तटस्थ स्वर में कहा ।

मिहिर ने अपने कान पकड. कर बेबी से माफ कर देने को कहा, और उनसे चलने का आग्रह किया। बेबी ने प्रसन्नता की सांस ली।

‘मम्मी मेरे साथ चलेगी तो मैं चलूगी नही तो नहीं।‘ बेबी ने एक नया हठ किया। बच्ची ने जोरदार आवाज में अपनी मांग रखी।

मिहिर और त्रिशा की निष्प्रभ आंखें मिली और उनमें कौतूहल जाग उठा। त्रिशा ने आंखें फेर ली ।

         ‘आज बेमतलब की जिद कर रही हैं।‘ उसने कुछ उत्तप्त स्वर में कहा।

‘तो क्या हुआ? आप भी आ जाइये ना।‘ मिहिर के उत्कंठित स्वर में कहा। वह मार्क नहीं कर पाई।

        ‘चलिए, मैं आपके कमरे तक छोड़ देती हूँ, फिर मैं चली जाऊंगी।‘ त्रिशा झुंझलाहट में बोली। उसे अच्छा न लगा परन्तु यही क्या कम था कि त्रिशा खुद आई, बेबी को छोड़ने उस घर, जहां से वह चार साल पहले चली गई थी।

        लिफ्ट में वे दोनों साथ थें बेबी का रूंआसा भाव हॅंसी में बदल गया। मां सामने लिफ्ट को चलता देख रही थी और वह उन दोनों को जी भर के देख रहा था।

        उसका कमरा आने पर त्रिशा ने बेबी को अन्दर किया और बोली, ‘अब मैं जा रही हॅू।‘

        ‘नहीं।‘ बच्ची ने उसका हाथ पकड़ लिया। ‘आप भी साथ यहीं रहो।‘

        ‘थोड़ी देर के लिए रूक जाइये न।‘ मिहिर ने सोफे पर इशारा करते कहा।

वह बैठ गई और इधर उधर निरीक्षण करने लगी। बेबी टू रूम फलैट, बालकनी, लाबी और रूम के चक्कर लगाने में व्यस्त हो गई। उसका सब कुछ जाना पहचाना था। जाना पहचाना तो त्रिशा का भी था, परन्तु कई वर्षों पहले। तब से अब तक वह इस घर के लिए पूरी तरह अपरिचित हो गई थी। अपरिचित तो अब वह उससे भी हो गई थी। उसकी नजरें इधर-उधर एक-एक चीज को देख परख और तौल रही थी।

        मिहिर वैसे ही खड़ा रहा। उसे याद आया नाश्ता तो उसने किया ही नहीं।

        ‘बेबी नास्ता करोगी?‘ उसने ऐसे ही पूछा। वह जानता था कि मां बेटी नाश्ता करके ही चली होगी।

        ‘हां, डैडी........मुझे भूख लगी है।‘ त्रिशा भौचक उसे देखने लगी। उसे यह कुछ अजीब लग रहा था कि दोनों ब्रेड बटर, कार्नफ्लेक्स दूध लेकर चले थे। उसे भी बेबी का हाँ कहना अप्रत्याशित लगा।

        ‘आप लेगीं कुछ?‘ उसने त्रिशा से पूछा, जो सोफे में सिमटकर दीवार की तरफ देख रही थी।

        ‘नहीं, हम दोनों भरपूर नास्ता कर के आए है।‘ उसने प्रत्युत्त्र में कहा। ‘आप लीजिए, आपने सबेरे से कुछ नहीं लिया होगा?‘

उसने कोई जबाब न दिया, किचन में घुस गया। वह कसमसायी शायद यह सोच कर, यह उसका काम हो सकता था। उसने डायनिंग टेबुल पर नाश्ता सजा दिया था और बेबी को आवाज दी जो बालकनी में उचक-उचक कर सड़क की ओर देख रही थी। बेबी आयी और मम्मी को न देखकर वह भाग कर मम्मी का हाथ पकड़ कर खीचने लगी, ‘मम्मी आप भी चलो‘।

        ‘नहीं, नहीं मुझे भूख नहीं है। आप दोनों खाओ।‘ मगर बेबी अपना हठ नहीं छोड़ रही थी। त्रिशा मना करते करते उसकी तरफ देखती जा रही थी।

        ‘आ जाइये ना आप भी? न लीजियेगा कुछ, साथ बैठ तो जाइये।‘ मिहिर के मुंह से अनायास यह निकल गया। त्रिशा ने उसे देखा। उस दृष्टि में चुभन थी, उसके लिये और बेबी के लिए भी। बेबी का मचलाना जारी थां।

        ‘ठीक है मैं साथ बैठती हूं। डायनिंग टेबुल के एक कोने पर वह बैठी। उसके पास बेबी और बेबी के पास वह बैठा। उसने दो प्लेटों पर नाश्ता परोस दिया। फिर तो बेबी डायनिंग टेबुल की बादशाह हो गई। उसने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मम्मी और डैडी को खिलाया, जिसे नकारना उन दोनों के बस की बात नहीं थीं।

        मिहिर को मां के जाने के बाद, पहली बार नाश्ता/खाना में स्वाद और संतुष्टि मिली। बेबी बेहद प्रसन्न थी और वह दोनों भी अपना संतोष दबाने में असफल रहे।

        तुरन्त ही त्रिशा चलने को हुईं किन्तु उसने बेबी को चलने को नहीं कहा। उस समय बेबी बेडरूम में बिस्तर में कूद रही थी। जाने कहाँ से ढूँढ़ कर वही गुड़िया और अन्य खिलौने ले आई थी, जो उसी के साथ बिस्तर पर उछल रहे थे। मम्मी के जाने की बात सुनकर वह भागती हुई आई और त्रिशा की साड़ी पकड़ कर खड़ी हो गई।‘ अभी नहीं, अभी डैडी को प्यार कहां किया, हम भी साथ चलेंगे।‘

        ‘‘इसके तो दिमाग खराब हो जाते हैं।‘‘ त्रिशा ने मुंह बिचकाकर कहा।

        ‘‘हां, आपको फील्ड ड्यूटी पर जाना होगा?‘‘

        ‘नहीं, अब फील्ड वर्क नहीं करतीं, शाम को प्रेस ही जाती हूँ । और वैसे भी सण्डे, वीकली आफ हैं।‘ अनायास ही वह बात सामने आ गई, जो वह बताना नहीं चाहती थी। उसे रोकने के प्रयास में उसने अपने होंठ दबा लिये।

        ‘तब क्या, रूक जाइये न? बेबी का मन रख लीजिए।‘ मिहिर ने अटकते स्वर में कहा।

कहीं न कहीं उसका भी यही मन था। उसने भी यह बात भांप ली थी। वह कुछ झिझकी, मन रूक गया था। लगता था कि उसकी एक-एक गांठ खुलती जा रही थी। एकाएक कुछ समझ में नहीं आया, जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है। मिहिर यह सोचकर विस्मित हो रहा था जिस बात के लिए उसके बीच अलगाव हुआ था, वह क्योंकर, कैसे हट गई?

        त्रिशा की निगाह इधर उधर भटक रही थी, जैसे कुछ तलाश रही हो। उसकी आंखें मिहिर पर चिपक गईं। आज तक उसने कभी उसे इतनी आतुर विह्वल आंखों से नहीं देखा था। वह सांस रोके त्रिशा की ओर संदेह-भरी दृष्टि से देख रहा था। क्या वह अपने आप कुछ कहेगी? इसमें कोई मुश्किल नहीं, कोई डर नहीं था। यह इतना सरल और आसान था, फिर भी उसका दिल तेजी से घबराने लगा।

        मिहिर की आंखें उसे देख रही थीं उसकी आंखों में प्रश्न थे परन्तु त्रिशा की आंखें जमीन में अड़ी थी। उसकी आंखें कभी उस पर उठतीं कभी बच्ची पर। समय बीतने लगा था। उसे लगा जैसे कि वह प्रतीक्षा कर रही हो। विचार आ रहे थे, विचार जा रहे थे।

        ‘यदि आप अन्यथा न लें तो मैं क्या पूछ सकता हूं कि आपने अपने प्रिय शगल रिपोर्टिंग को तिलांजलि क्यों दी?‘ आखिर में मिहिर से न रहा गया। वह कुछ देर चुप रही फिर कुछ अजीब भोलेपन से उसकी ओर देखा,

‘‘जब तक मम्मी रहीं, रिर्पोटर की ड्यूटी निभाती रही, मम्मी देख लेती थीं बेबी को। हालांकि पापा और भइया नाखुश थे मेरी फील्ड ड्यूटी से और सामाजिक सरोकारों में लिप्त होने के कारण। भाभी अपने बच्चों को ही ढंग से नहीं देख पाती थीं, वे बेबी को क्या देखती? मैंने खुद डेस्क ड्यूटी अपना ली। शाम को छः बजे से बारह बजे की ड्यूटी है। आने जाने के लिए प्रेस की वैन आती हैं। डेस्क ड्यूटी की वजह से बेबी को भरपूर समय दे पाती हूँ । शाम को बेबी भइया के बच्चों के साथ रमी रहती है।

        इतना आसान नहीं था, उसका यह सब बयान करना। उसे लगा कि वह अपराध बोध से पीड़ित है, अवसाद की काली छाया ने उसे घेर लिया था. वह अब समझती है कि वह पहले जैसी नहीं है। उसे हैरानी हुई कि बच्ची की उम्र चाहें कितनी छोटी हो, उसकी अपनी शर्तें हैं और वह उसकी शर्तों में कितनी आत्मनिर्भर है? सबके साथ है फिर भी अकेली है। मिहिर के चेहरे पर एक विकृत मुस्कुराहट पसर गई।

उस समय काफी सन्नाटा छा गया था। बेबी खेलते-खेलते वहीं बेडरूम में सो गई थी। वह बच्ची को ध्यान से देखने लगा, जैसे कि उसे पहली बार देख रहा हो। उसे देखकर उसने मां को देखा। त्रिशा विवाहित और एक बच्ची की माॅं होने के बावजूद वह कुंवारी जान पड़ती, एकदम सफेद और निरीहं। उसे उस पर प्रेम और करूणा उमड़ आयीं। उसके दिल में शोर होने लगा आंैर दिल धकधक करने लगा। त्रिशा ने तस्लीम किया और वह सुन रही थी। लेकिन इस क्षण उसने अपने आप को विमुक्त किया। अब उसका मन शान्त था।

        ‘मुझे चलना चाहिए............।‘ दोनों ने एक दूसरे को देखा और उसका ध्यान गया बेबी की तरफ। पूरे दिन के बाद बच्ची निश्चित होकर, बेफिक्र सो रही थीं। अपने डैडी और मम्मी के सानिध्य से अलग। वह उठकर आया और उसने बच्ची को छूआ। यह छूना था कि बच्ची धीरे से हिली। एक क्षण को आंख खुली और फिर बंद हो गई। वह एकदम उसे देखती रही।

        ‘रहने दीजिए, कुछ देर और सही।‘ त्रिशा की आवाज में थोड़ी सी बेसब्री थीं। वह अपने आप उल्टे पांव लौट आया और फिर उसके सामने बैठ गया।

        ‘चाय पीयेंगी।‘ मिहिर ने पूछा।

        ‘नहीं।‘ उसके स्वर में उकताहट थी।

        वह अलग समय था, जब उसने सोचा था कि अब उससे कभी नहीं मिलूँगी। आज अलग हुए तीन साल हो चुके हैं और साथ बैठे हैं। 

‘‘आप जाना चाहो, तो चली जाओं। मैं बेबी के उठने पर, घर छोड़ आऊॅंगा।‘‘ वह कहता है।

वह बाहर आयी और चलती हुई ...फिर रूक गयी, ‘‘थोड़ा और देख लेते है।‘‘ कमरे में आयी तो देर तक उसके सामने बैठी रही, निस्संग और निशब्द।

भीतर अंधेरा दिखने लगा था और बाहर रोशनी कम होने लगी थी। बेबी उठ गई थी और उठते ही रोने लगी । त्रिशा ने झट से उसे चूमती हुई पुचकारा और चुप करवा दिया।

        मिहिर ने भी बेबी को उसकी गोदी में ही प्यार किया। बिना किसी प्रत्याशा से उसके मुहॅ से निकल गया, ‘अब तो अगले महीने ही मिल पायेगें।‘ यह बात उसने बेबी के लिये कहा या त्रिशा के लिये, था...अपींलिग।

        ‘कोर्ट ने माह में एक बार न्यूनतम एक दिन की मिलने की शर्त रखी थी अधिकतम मिलने की कोई पाबन्दी नहीं लगाई है।‘ वह अप्रत्याशित रूप से मुखर होकर बोल उठी। फिर अपने कहे पर संकोच में घिर गई जैसे स्वयं उसके मिलने की बात हो।

        उसके दिन बदल रहे थे। वे वैसे बदरंग और धूसर नहीं रहे थे। उस दिन के बाद से हर हफ्ते तो नहीं पर अक्सर वह त्रिशा और बेबी से मिलने लगा था। उसकी पहल पर और कभी कभी त्रिशा की पहल पर भी।

सुबह उठते ही वह बेबी की राह देखने लगता। यह भी भूल जाता कि उसे आफिस और बेबी को स्कूल भी जाना होता है। नाश्ता और खाना उनके साथ खाने कि लिये मन करता। वह चाहता कि त्रिशा बेबी को लेकर घर आयें। परन्तु त्रिशा घर आने से बचती थी। उसे घर बहुत हान्ट करता। उसे भावुक बना देता, आँखों की कोर गीली कर देता था। उसे फ्लैट की एक-एक जगह मौनता की चादर, ओढे गुजरे एक-एक पल, लालायित करते उन्हें फिर जीने के लिये -या बस यही मर जाऊॅं, इसी से लिपट कर। 

हर शनिवार प्रतीक्षा होती कि रविवार खाली न जाये परन्तु प्रच्छन्न इच्छा नीरव गुजर जाती। मिहिर शिकायत उलाहना किससे करें? पता नहीं क्यों अब पृथक होने का भाव नहीं उभरता था। वैसे कई बार वहाँ जाने का मन करता, परन्तु हल्की सी हिचक उभर आती और उसके तले वह दब जाता।

यह रविवार कुछ अलग सा रहा। वह दिन भर अकेले कमरे में सोता रहा था। शनिवार की रात कुछ अजीब सी गुजरी थी। रात भर शराब, सिगरेट और यादें दर यादें। कभी कुछ लम्हें उसे उड़ा ले जाते तो वही लम्हें वापस उसे वहीं पटक जाते। सब कुछ धुँधला सा था और उसने कब अपने को ढीला छोड़ दिया, पता न चला। मिहिर को लगा कि वह रहस्यमय ढंग से उस पर आश्रित होता जा रहा है। उसने जानबूझ कर काल नहीं की। उसे अपने भीतर एक अजीब सी बेचैनी महसूस होने लगी। त्रिशा को अपने अस्तित्व का बिलकुल भी आभास नहीं रहा। निस्संदेह वह खुद काल का इन्तजार कर रहा था अनवरत उन्मत्त यादों से।

        यह महज संयोग रहा होगा, उससे ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि कुछ देर बाद ही उसने रिंग की आवाज सुनी और मोबाइल को चमकते देखा। वह स्थिर अविचल पड़ा, झटके से उठा और प्रत्याशा के अनुरूप काल त्रिशा की ही थी।

        ‘हेलो!‘ उसने कहा ‘यह मैं हॅू।‘ वह समझ गया था। उसकी आवाज लाखों में पहचान सकता था। चुप रहा।

        ‘‘हेलो, हेलो,‘ उसने अनजान बनते कहा, ‘कौन है?‘ आप कौन है?‘‘

        ‘‘त्रिशा‘, त्रिशा शर्मा, बेबी की माँ ।‘‘ उसकी आवाज में खिसिया हट और नर्वसनेस था।

        ‘‘ओह! त्रिशी। अनजाने में उसके मुहॅ से प्यार का नाम त्रिशी निकल गया। उसका स्वर धबराया सा था।‘‘ उसे डर था कि कहीं वह सेल आफ न कर दे।

        हा, त्रिशी ही..। वह धीरे से हंसी एक छोटी सी हताश हंसीं। .....सुनो आज हम लोग आप के घर नहीं आ सकेगें .......हम लोग शाम को नेशनल म्यूजियम जा रहे है, वहीं आप भी आ जाइयेगा।‘‘ उसकी तरफ सन्नाटा रहा। उसने कहा, ‘‘क्या आप वहाँ आ सकोगे?‘ उसके मन में आया कह दे, त्रिशा आज नहीं, आज शाम को काम है। नहीं, वह ऐसा नहीं कहा और कर तो कदापि नहीं। वह खुद बेचैन रहता था, हर दिन मिलने के लिए।

‘अवश्य, मैं समय से पहले ही आ जाऊंगा।‘ उधर से असीम निर्भेद मौन सिमट गया। वह कुछ देर कान में सटाये इन्तजार करता रहा और शायद उधर भी, क्योंकि सेल बंद होने की आवाज काफी देर बाद आयी।

        इतवार का दिन नेशनल म्यूजियम में कुछ भीड़ थी। हाल में उसे भ्रम होता कि वह दोनों यहीं कहीं है। शायद अभी नहीं आयी ......। वह, अकेले गुमसुम किसी मूर्ति को देखने लगता है। देख मूर्ति रहा है, बिना कुछ पढे, और खोया है, प्रतीक्षारत है, त्रिशा और बेबी की आहट सुनने में। 

वह अचानक दिखाई दे जाती है ...वह ईशारा करती है कुछ सम्हालने का, देखने का. अरे ! बेबी, ...भागती आ रही थी, डैडी...डैडी..कहते उसकी तरफ नन्हे-नन्हे कदमों से। वह लपक कर उसे गोद में उठा लेता है और चूम लेता है। उनके इस क्रियाकलाप से म्यूजियम के शान्त वातावरण में अवरोध छा गया। वह तीनों म्यूजियम देखने लगे। बेबी वहाँ खेलने लगी थी। शोर होने लगा। वह कलाकृतियों को छोड़कर बाहर निकल आये।

        बाहर एक बहुत बड़ा गार्डेन था जिसमें मखमली घास बिछी हुई थी और किनारे-किनारे घास, झाड़ियों, फूल, पत्तियों से विभिन्न आकार के जीव जन्तु और आदमी, औरते और बच्चे बने थे। कई जगह लोहे की मजबूत कुर्सियां भी पड़ी थी। काफी लोग, जोड़े और बच्चे टहल और खेल रहे थे।     

उन्होनें एकान्त की एक बेंच तलाश ली थी। पहले वह तीनों एक साथ बैठे बीच में बेबी सदैव की तरह मध्यस्थ की भूमिका में।

बेबी निकल कर भागने लगी, वह उसके पीछे-पीछे दौडा, कही वह गिर न पड़े। उसके साथ घूमता रहा और घास में लोटता भी रहा। माँ चुपचाप बेंच में बैठी रही उन दोनों को निहारती रही। उसमें उदासी और अविश्वास भरा था। उसने बच्ची की कई कोणों से तस्वीरें ली। वह उसकी भी तस्वीर लेना चाहता था परन्तु वह साहस नहीं जुटा पा रहा था। बच्ची जब थक गयी वह लौट कर अपनी मम्मी के पास जाकर बैठ गई। और वह दूर अर्थहीन और हास्यास्पद ढंग से मैदान में खड़ा रह गया।

धीरे-धीरे वह उनकी ओर बढा त्रिशा ने एक तरफ हट कर उसके लिये जगह बना दी। बेबी ने फोटो की मांग रखी। उसने अपने मोबाइल से दोनों की तस्वीर ले ली। अब बेबी ने डैडी के साथ फोटो लेने की जिद की। त्रिशा ने अपने मोबाइल से उनकी तस्वीर ली। बेबी निढाल होकर माँ की गोद में सो गई।

        देर होने लगी थी, अंधेरा उतर आया था। वहाँ गार्डेन की लाइटे जल उठी थी।               

        ‘हमें बाहर चलना चाहिये।‘ त्रिशा ने बहुत कोमल स्वर में कहा, वो बाहर आ गई ।

वे बाहर आ गये। थोड़ा सो लेने के बाद बेबी को बहुत हल्का सा लग रहा था और वह चहकने लगी थी।

वे दोनों साथ चल रहे थे-बिलकुल पास। इतने पास कि एक दूसरे की देह गंध सूंघ सकते थे। उसके शरीर में लपटें उठने लगी, कुछ लम्हों के लिए। ऐसा कुछ अस्वाभाविक नहीं, व फिर भी वह शर्मिंदा महसूस करने लगा। त्रिशा ने मार्क नहीं किया उसने राहत की सांस ली। उस शाम एक आकांक्षा आयी और दब गयी।

मिहिर को चलते हुये डिलाइट रेस्टोरेन्ट दिखा-उसने पूछा, ‘एक कप चाय हो सकती है? बेबी को भी आइसक्रीम आदि खिला सकते है।‘

‘जरूर-जरूर।‘ बेबी ने हुंकारी भरी‘। त्रिशा ने एक नजर उसे देखा और बेबी को आश्वस्त किया।

यह, वह जगह थी, जहाँ वह दोनों शादी से पहले अकसर आया करते थें, और देर तक बैठे गपशप किया करते थे।

अभी रेस्टोरेन्ट करीब-करीब खाली था फिर भी जहाँ वह बैठे, वह एक कोना था। उसी कोने पर वह बैठा करते थे। वेटर आया और मुस्कुराते हुये बोला, ‘बहुत दिनों बाद साहब आये हो।‘ ‘ओह‘। बेबी भी है।

उसने उसे पहले ही टिप दे दी। वह बहुत खुश हो गया। वह पानी लेकर आया, उसने आर्डर लिया। बेबी खुश थी परन्तु त्रिशा की आँखें उदास थी। वे दोनों एक तरफ बैठी थी और वह उनके सामने।

वेटर ने उनकी काफी ला दी और बेबी के सामने आइसक्रीम। बेबी चुप उसे देख रही थी। जब तक त्रिशा ने कहा नहीं, उसने खाना आरम्भ नहीं किया।

त्रिशा बहुत गर्म काफी नहीं पीती। वह निरपेक्ष भाव से काफी को सिप कर रही थी। मिहिर गहन विचार में लीन था। उसे लगता, आज वह सब कुछ कह दॅू जो पिछले कई हफ्तों से उसके दिमाग में उथल पुथल मचाये था। वह हर पल छिन उस बात को कहने के लिये सोचता रहा था वह भूला नहीं था. परन्तु वह मौके की तलाश में और उचित माहौल का इन्तजार किया करता। उसे उनके बारे में हर क्षण सोचना अच्छा लगता था।

त्रिशा ने बेबी को खाने को कह दिया और काफी खुद पीने से पहले उसे शुरू करने का इशारा किया।

वह त्रिशा के बे ध्यान होने पर सम्पूर्ण निरीक्षण करता हुआ, इस नतीजे पर पहुंचा कि और कुछ बदलाव तो नहीं आया है। परन्तु उसकी चिर परिचित मुसकुराती छवि अब उदास और निराश आलोक में बदल गई है।

लगता है वह क्षण आ गया है जिसकी प्रतीक्षा वह जाने कब से कर रहा था- वह क्षण उसे उकसा रहा था।

‘त्रिशी, क्या हम फिर साथ नहीं हो सकते?‘ उसने बहुत धीरे से कहा।

‘आप, क्या इतनी देर से यहीं सोच रहे थे?‘ उसने कहा।

‘नहीं, मैं बहुत दिनों से यह कहने का साहस जुटा रहा था।‘ 

हम कानूनी रूप से अलग है। अब क्या हो सकता है?‘ वह फीकी हँसीं और उसकी आँखें पहले जैसी उदास हो गई। ‘मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा था।‘

‘किस तरह ?‘ मिहिर ने पूछा।

‘जैसा आप सोचते हो और कह रहे हो।‘ वह उसकी ओर देख रही थी। सूखी और बेजान आवाज में वह कुछ बुदबुदायी-‘मैंने कभी ऐसे नहीं सोचा।‘

मिहिर ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में आँसू छलक आये थे, परन्तु छलकने से महरूम थे ।

‘अब वह कारण भी नहीं रहा जिस कारण हम अलग हो गये थे।‘ उसने बिना कुछ समझे कहा और प्रश्न भरी निगाहों से देखता रहा।

त्रिशा में अविश्वास भरा था। उसने उसमें सिसकती सी कराह महसूस की जो कशमकश से भरी था। सहसा वह मायावी क्षण टूट गया और अपूर्ण रह गया उसका कथन।

निराशा के बावजूद हमारे मन में कोई कटुता नहीं थी।

 होने लगी थी। वे उठ खडे़ होते है उसी बीच वेटर बिल ले आया। उसने बिल भुगतान के साथ फिर टिप दी। वेटर ने डबल सलाम ठोंक दी। एक दो स्टाफ और जानते थे वे मुसकुराये और वो भी। वे बाहर आ गये थे। शहर की रोशनियां जगमगा उठीं थी। दुकानों के आगे भीड़ लगने लगी थी।

‘मुझे आटो लेना है।‘ त्रिशा ने कहा।

‘अभी?‘ मिहिर ने कहा ।

‘‘हाँ,, देर हो रही है । रात के आठ बज गये होगे?‘

‘यस, मम्मी घर चलो।‘

 फुटपाथ पर चल रहे थे और आँखें आटो को तलाश रही थी। मिहिर ने उसे देखा वह बिलकुल शान्त थी। दोनों माँ बेटी एक साथ थी। त्रिशा ने बेबी की अंगुली पकड़ रखी थी। वह कुछ साथ में अलग चल रहा था। वह कुछ खोई-खोई सी लगी। कुछ देर बाद वह अपने घर जायेगी और वह अपने फ्लैट में।

त्रिशा कुछ क्षण रूकी और कुछ देर बाद उसकी पलकें उस पर उठी। वह भी ठहर गया।     

‘महीं!‘ आप किसी से शादी क्यों नहीं कर लेते? कब तक अकेले रहोगे?‘ उसके स्वर में भीगा आग्रह था।

‘किसी और से क्यों?‘ तुमसे क्यों नहीं वह मुस्कराता है।

त्रिशा के चेहरे पर शर्म और सहानुभूति का अजीब घुला मिला भाव था। वह कुछ नहीं कहती। एक लम्बी खामोशी और वह उसी के बारे में सोचती रही। वह भी कुछ नहीं कहता। उसे मालूम है उसे जो कुछ कहना है वह कह चुका। अब कुछ कहना शब्दों, वाक्यों का दोहराना ही है।

वह कल रात जागता रहा था और तनाव चरम पर पहुंच चुका था। उसने उसकी बांह पकड़ी और बोला-

‘मैं कुछ पूछ रहा हॅू?‘ उसकी आवाज तल्ख हो आयी। हालांकि तुरन्त वह पछताया, ऐसा व्यवहार अशोभनीय है। वह ढीला पड़ गया।

त्रिशा ने तीखी नजरों से उसे देखा। कुछ लम्हों के लिये सब कुछ थम सा गया।

‘आखिर! मैं ही क्यों ?‘ उसका स्वर मुलायम था। उसने कमजोर और निश्चित लहजे में प्रतिवाद किया।

‘हमें तुम बिन कोई जंचता नहीं, हम क्या करें?‘ उसने फिल्मी अंदाज में एक गीत का अंतरा गुनगुना दिया और हंस पड़ा। त्रिशा ने भी मुस्कराकर बड़ी अदा से सर को हिलाया।

गुजरने वाले एक आटो को उसने हाथ देकर रोका। त्रिशा और बेबी बैठ गये। उसने बेबी को प्यार किया और त्रिशा के हथेलियों को अपने हाथों में लेकर बोला ‘मैं, तुम्हारी हाँ का इन्तजार करूँगा।‘

‘मम्मी हाँ कर दो ना !‘ बेबी ने कहा।

त्रिशा, अपनी सीप जैसी आँखों में जल भरे उसे देखती रही। आटो चल पड़ा। वह पीछे खड़ा रह गया।

कुछ कदमों के बाद ही आटो से मुस्कराता एक चेहरा निकला और उसे देखते हुये एक स्वर गुंजा, ...हाँ, हाँ..यस. वह स्वर सीधा उसके दिल में लगा और खुशी के अतिरेक में वह झूम उठा।

    

                                                   

                                                          


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