Raja Singh

Tragedy

4  

Raja Singh

Tragedy

"मूलधन "

"मूलधन "

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    सड़कों की भीड़-भाड़ उसे अजीब सी तसल्ली देती है। किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं है। कभी कोई उसकी तरफ़ उत्सुक निगाहों से देखने लगता कि यह सभ्य सुसंस्कृत महिला इतनी सुबह कहाँ जा रही है? शायद सुबह की सैर में? किन्तु उसे अपना गंतव्य पता नहीं था। उसमें आक्रोश नहीं था, विद्रोह भी नहीं किन्तु अपनी परिस्थितियों के प्रति स्वीकृति भी नहीं थी।           

        उसे अकेलापन बुरी तरह डँसने लगा, जब उसके पति की मृत्यु हुई थी। पहले से ही उसे अहसास था कि वह अपने आप में अकेली है, किन्तु उसके पति का साथ दुनिया के लिए एक धोखे का सृजन करता था कि वह साथ हैं। बेटा पहले ही नौकरी के सिलसिले में शहर में था और अब पति की मौत ने उसे नितांत अकेली बना दिया था। हालांकि उसका पति सक्रिय रूप में कभी उसके साथ नहीं था, किन्तु जब से बेटा बाहर पढ़ने और रहने चला गया था, तब से उसका अक्रिय साथ भी बहुमूल्य था। क्योंकि उसकी केवल उपस्थित ही काफी थी बाहर के लोलुप लोगों से उसकी सुरक्षित जीवनयापन हेतु।

उसके पति ने उसी समय अपनी प्राइवेट नौकरी छोड़ दी थी, जैसे ही उसकी सरकारी नौकरी लगी थी। वह सिर्फ अपने बेटे के भविष्य हेतु सदैव चिंतित रहा करती। वह जी तोड़ मेहनत करती और बेटे के लिए माता-पिता दोनों दायित्वों का निर्वाह बखूबी करती आ रही थी। वह चाहती थी कि उसका बेटा डॉक्टर बने जिससे वह सगर्व अपने को सफल घोषित कर सके किन्तु ऐसा भी ना हो सका।

जब वह उससे मिली थी तो उसके होने वाले पति ने उसे अपने को डॉक्टर बताया था। क्योंकि वह डॉक्टर की वेषभूषा में था, वह उसके रूप-रंग और अभिजात्य बोली चरित्र से प्रभावित थी। जबकि वह कम्पाउन्डर भी नहीं था। वह मेडिकल स्टोर में सेल्समैन था। घर परिवार के भरण-पोषण के लिए और अपने मध्य वर्गीय मूल को ढकने के लिए अस्पताल की ड्यूटी के बाद भी वह गाँव-कस्बे की महिलाओं के स्वास्थ संबंधित समस्याओं का निराकरण करती और अतिरिक्त आमदनी का सृजन करती। घर में निठल्ला पति रहता था, बेटे के जन्म के बाद वह और भी आवश्यक था देखभाल के लिए। उसकी सारी आमदनी का एकमात्र मालिक वही था। वह दोनों के पालन के लिए, सुबह जल्दी उठती और सबके लिए नाश्ता, खाना बनाती और प्रयत्न करती की समय से अस्पताल पहुंचे, क्योंकि अस्पताल सुबह आठ बजे प्रारम्भ हो जाता था। कभी कभी देर हो जाती तो डॉक्टर और इंचार्ज की डांट-फटकार सुनती। परंतु वह सोचती कुछ दिनों की बात है, बेटा अभी छोटा है, फिर ठीक हो जाएगा। उसके जाने के बाद पति खा-पीकर नए पुराने कपड़े पहनकर घूमता और इधर उधर बैठता। उसे वहाँ के निठल्ले-बेकार लोगों का साथ मिल गया और वह उनसे डींग हाँकता। वह उनका सरताज था क्योंकि उनकी खाने-पीने की जरूरतें वही तो पूरी करता था। उसकी हकीकत सब जानते परंतु उसके मुंह पर पलट कर कुछ नहीं कहते क्योंकि सभी को अस्पताल और उनके कर्मचारियों की जरूरत रहती, विशेष रूप से उसकी पत्नी की। कस्बे के लोगों ने उसका नामकरण डॉक्टर साहिबा कर रखा था।

एक दिन उसने कहा था कि, “तुम कुछ करते क्यों नहीं?” तब उसने कहा था, “करता तो हूँ, तुम्हारी गुलामी!” उसे बेहद बुरा लगा था किन्तु वह चुप रही और बोली, “अरे, भले मानुष कम से कम यहाँ कोई छोटी मोटी दुकान ही डाल हो। समय भी कटेगा और कुछ पैसा भी आ जाएगा।” उसने मेडिकल स्टोर खोलने की इच्छा जाहिर की। और कोई काम उसके बस में नहीं था यही कार्य का अनुभव है, यह वह कर पाएगा। उसने एक तरफा फैसला सुना दिया। स्त्री के पास कोई संचित पूंजी नहीं थी। उसके पास उसका स्त्री धन यानी कि गहने थे, जिन्हें उसने गिरवी रख कर उसे उस कस्बे में मेडिकल स्टोर खुलवाया और अपने सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों से अनुरोध किया उसको चलाने के लिए।

किन्तु ऐसा कुछ भी ना हो सका। अब पति के पास पैसों की कमी ना रही थी। डॉक्टर साहिबा की अनुपस्थिति में वह अपने यार-दोस्तों के साथ मीट-मुर्गा और शराब का सेवन करता और मस्त रहता। उसके वहाँ के यार दोस्त उसकी जय-जयकार करते और उसे डॉक्टर सम्बोधन से लपेट दिया करते। अब वह प्रसन्नता के उच्चतम शिखर था। उसके टोकने से वह नाराज हो जाता और उसे छोड़कर अपने शहर जाने की धमकी देता। वह अकेले रह जाने के डर से एकदम चुप रह जाती और अपनी बेबसी का तमाशा देखती। क्योंकि उसका बेटा अभी बहुत छोटा था वह अकेला नहीं रह सकता था। जब वह अस्पताल ड्यूटी पर जाएगी तो उसे कौन देखेगा? शीघ्र ही मेडिकल स्टोर बंद हो गया। क्योंकि उसकी जमा पूंजी खर्च हो गई और दुकान का किराया कई महीनों का चढ़ गया। जिसे उसने अपने गहने बेचकर छुटायें परंतु उसकी ठलुवाँगीरी समाप्त न हुई।

उसे अपने बेटे से अत्यधिक प्यार स्नेह और परवाह थी। वह उसे एक सफल डॉक्टर बनाना चाहती थी। जैसा कि उसने अपने अस्पताल के डॉक्टर को देखा था। जवान, गतिशील विद्वान और खूबसूरत। उसे बच्चे से भविष्य की उम्मीदें टिकी थी। उसे किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका से वह कांप उठती। वह अपने बेटे के लिए बेहतरीन शिक्षा और ट्यूशन का प्रबंध करती। वह अपने बेटे में ही अपना भविष्य देखती। वह रात में लेटकर बेटे को बाहों में भर लेती, ‘मेरा राजा बेटा मेरे सपनों को पूरा करेगा।’ और नींद के आगोश में खो जाती जब तक कि वह किसी दुःस्वप्न के तहत जाग ना जाती। उसे दुःस्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि कोई उसे उसके बेटे से अलग कर सकता है। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका बेटा मृत्यु पर्यंत उसके साथ रहेगा और उसका ख्याल रखेगा जैसा कि वह उसका रखती है, वह आधुनिक श्रवणकुमार होगा।

मगर ऐसा ना हो सका। उसके लाख प्रयत्न के बाद भी उसका बेटा बड़े होने पर औसत ही रहा। परंतु उसमें पढ़ने के गुण थे, इस कारण वह शहर के एक सरकारी बैंक में क्लर्क बन गया। वह संतुष्ट हो गई कम से कम उसमें बेकारी का दंश तो नहीं लगा। माँ के हृदय में करुणा, वात्सल्य और उदारता का सागर सदैव उसके लिए हिलोरे लेता रहता। उसने अपने फंड से अग्रिम भुगतान लिया और उन पैसों से उसके लिए शहर में एक मकान खरीदा और उसे उसमें रहने को कहा।

एक दिन अचानक शहर अपने बेटे से मिलने उसके घर आ पहुंची। तब उसके पति जीवित नहीं थे। वह बेटे के मुंह से उसका चिर परिचित वाक्य सुनने को बेचैन थी....”मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है।“

पति की अनुपस्थिति में उसका सुंदर स्त्री रूप उसका दुश्मन बन गया। अकेलापन और अराजक तत्व उसे डराने लगे। कोई अनहोनी किसी भी क्षण घटित हो सकती थी। वह समय पूर्व अवकाश चाहती थी। जिससे कि वह अपने प्यारे बेटे के साथ रह सके। इसी सिलसिले में वह बेटे से पूछने आई थी।

जब वह बेटे के घर पहुंची तो घर में काम करने वाली नौकरानी ने दरवाजा खोला और उसे देख कर विस्मित रह गई।

“आप कौन है ?”

“मैं आपके मालिक कि माँ हूँ। वह कहाँ है ?”

“आप, कृपया यहाँ बैठे। वह ऊपर है। मैं अभी बुलाकर लाती हूँ।”

“ठहरो! मैं खुद जाकर मिलती हूँ।”

“नहीं आप कृपया ऊपर ना जाएं। ऊपर मालकिन भी है।” उससे घबराहट में बात निकली।।

“क्या ?।।।मालकिन....?....यह कब आ गई ?” उसे बेहद आश्चर्य हुआ।

“अरे, उनकी पत्नी !....आप वास्तव में उनकी माँ ही है?” उसने दोनों हाथ फैलाकर जीने के रास्ते को रोका, “मेरी नौकरी चली जाएगी।” उसकी आँखों में डर समा गया।

“ठीक है, फिर मैं यहाँ बैठती हूँ। तुम जाओ और दोनों को बुलाकर लाओ।” वह गमगीन थी। विस्मित थी। यह कैसे हुआ? वह सोफ़े में बैठी, टकटकी लगाकर जीने कि तरफ देखने लगी जहां से दोनों को उतरना था।

लगभग आधा घंटा बाद बेटा और लड़की उठकर नीचे आयें। बेटे के चेहरे पर अप्रसन्नता टपक रही थी। लड़की बेफिक्र थी।

“तुम बिना बताएं, क्यों आ गई माँ ?” बेटे ने झुंझलाहट में कहा।

बेटा कई हफ्ते से घर नहीं आया था। माँ को लगा था कि उसके इस तरह पहुँचने से बेटे को अत्यधिक खुशी होगी। लेकिन उसे उसका आना ही नागवार गुजरा था। फिर उसके दिल में किसी तरह के प्रेम प्रदर्शन का स्थान ही कहाँ बचा था ? जैसे कि वह अकसर किया करता था। उससे वह वाक्य कितना अच्छा लगता था। जब वह कहता- “मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है।“ वह गर्व से फूली रहती कि उसका बेटा उसे बहुत चाहता और मानता है।

“तुमने बिना बताएं, मेरे बगैर विवाह कर लिया? माँ ने पूछा। “कब किया यह सब?”

“अरे, माँ यह विवाह नहीं है। हम सिर्फ साथ रहते है।“

“बिना विवाह के कैसे साथ रहना हुआ ? यह गलत है।“ माँ गुस्सायी।

“आजकल यही चलन में है। विवाह पूर्व एक दूसरे को जानना जरूरी है, जिससे कि हम निर्णय कर सके कि इसके साथ विवाह से जीवन निर्बाध पूर्वक बीतेगा कि नहीं? यह एक प्रयोग है।” बेटे ने स्पष्ट किया और लड़की मुस्कराई।

इसी बीच लड़की किचन में चली गई उसे माँ-बेटे की बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

‘किन्तु यह गलत है। शीघ्र ही इससे शादी करो और मुझे जिम्मेदारी से मुक्त करो।”

बेटे ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह सिर्फ उसके चेहरे में उतर आई प्रतिक्रिया को तौलता रहा।

“मेरे आने से तुम खुश नहीं लग रहे हो! व्यवधान आ गया है।“ माँ को अब तक विश्वास नहीं आ रहा था कि उसका बेटा ऐसा है। “तुम्हारे में बदलाव आ गया है।“

“बदलाव, कैसा बदलाव? बेटे ने पूछा।

माँ चुप रही। किन्तु वह बेहद दुखी और उदास थी। वह बिना एक पल रुके चलने को उद्धत थी कि लड़की आ गई। उसने पैर पकड़कर उसे जाने से रोका। लड़की ने उसे बताया कि वह दोनों आपस में प्रेम करते है और आपके आशीर्वाद और सहमति से शीघ्र ही विवाह करेंगे। किन्तु बेटा को यह नहीं पसंद आया। ना जाने क्यों यह अहसास घर कर गया कि बेटा उसके यहाँ आने से खुश नहीं है। उसे बेतरतीब, बेतरह उसके शुरू के दिनों के वाक्य सालने लगे। उसमें सबसे प्रमुख था। -मेरी माँ दुनिया के सबसे अच्छी माँ है। परंतु वह रुक ना सकी और तुरंत चल दी। बेटे ने रोका भी नहीं।

वह उदास निराश बैरंग वापस आ गई। माँ उलटे पाँव लौट आई थी बिना एक कप चाय पिए ही। उसे लगा कि उसकी उपस्थिति उन दोनों के लिए व्यवधान है और उसके लिए अरुचिकर। अपनी जगह लौट आने के बाद भी वह सोच कर सिसक उठती कि बेटा क्या से क्या हो गया है? अपने बेटे के पूर्व समय की एक एक घटना दृश्य और प्यार उसके जेहन में तैरते रहते जो उसे कभी बे इंतहा खुशी देते थे आज बेदम पड़े, उसे दुख दे रहे है।। ऐसी तो उसने कल्पना नहीं की थी। वह बेटे से अपने समय पूर्व लेने वाले अवकाश का जिक्र भी नहीं कर पाई। उसने यह विचार छोड़ने का निश्चय किया।

कुछ ही दिन बीते थे कि उसे लड़की का तुरंत आने का संदेश मिला। उन दोनों के बीच गंभीर गलतफहमियाँ उत्पन्न हो गयी थी और उनके बीच करीब करीब रिश्ता टूट ही चुका था, संबंध सिर्फ एक महीन धागे से अटके पड़े थे। जिन्हें उसे सुलझाना था।

बेटे के घर पहुँचने पर पता चला कि लड़की पेट से है। उसने दोनों की शादी कर लेने को सुझाव दिया। इसके लिए दोनों राजी नहीं थे। बेटा अनिच्छुक था और लड़की क्रोधित थी कि उसके बेटे ने उसे धोखा दिया है कि शादी कर लेने के पहले वह प्रेग्नेंट नहीं होगी। ऐसे धोखेबाज से शादी नहीं करनी।

वह बहुत समय तक रोती रही। समझाती रही। ऊंच नीच बताती रही। देश समाज की दुहाई देती रही किन्तु वे दोनों नहीं पसीजे। वे दोनों अपने रूख पर कायम थे। बल्कि लड़की ने पुलिस में जाने की धमकी दी। तब उसने लड़की को अपने अस्पताल ले जाकर उसका भ्रूण साफ करवा दिया। इस काम में उसके कई लाख रुपये खर्च हो गए। किन्तु बेटे की समस्या और संबंधों का निराकरण किया। जिस तरह उनका यह रिश्ता समाप्त हुआ था उसका बेटा ही जिम्मेदार था परंतु उसने उसे नहीं कोसा बल्कि लड़की को ही बदचलन कहा, जो विवाह पूर्व अपना कौमार्य सुरक्षित ना रख सकी। तब उसके बेटे ने बहुत वर्षों बाद कहा, -मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है। यह सुनकर उसे कोई प्रसन्नता नहीं हुई बल्कि विरक्ति और क्षोभ ही हुआ।

आखिर में उसने बेटे की सहमति से उसका विवाह एक धनी और सुंदर लड़की से कर दिया। उसने सोचा देर आए दुरुस्त आए। दोनों इस रिश्ते से प्रसन्न थे और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया और बेटे के मुंह से अनायास निकला, -मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है। उसने अनगिनत बार अपने पड़ोसियों और स्टाफ से कहा कि उसे बहु के रूप में बेटी मिली है, जो उसे बेटे से ज्यादा चाहती और ध्यान रखती है। वह भी बहु को बेटे से ज्यादा प्यार, ख्याल और लाड़-दुलार देती और सोचती, मूलधन से ज्यादा प्यारा ब्याज होता है।

सब कुछ ठीक लग रहा था। वह जल्दी से जल्दी बेटे बहु के साथ रहना चाहती थी। उसने फिर बेटे से कहा कि वह समय पूर्व अवकाश लेना चाहती है। परंतु बेटे ने मना कर दिया कि कुछ वर्षों के बाद तो आई ही जाओगी, जल्दी क्या है? उसे पता नहीं था कि जिंदगी उसे किस ओर ले जाने वाली है।

सेवानिव्रति के बाद जब वह बेटे के पास आई तो कुछ समय के उपरांत सब कुछ बदल चुका था या पहले वाला माहौल बनावटी था। सबसे ज्यादा उसे बहु बदली मिली। उसने बेटे से पूछा भी, ”आखिर क्या बात है? उसने कुछ नहीं बताया सिर्फ कहा, “खुद उसी से पूछ लो!” उसने परवाह नहीं की। उसने सोचा वह इस घर की मालकिन है, उसे क्या? तब उसने दु:स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि बेटा भी बदल जाएगा और एक दिन ऐसा भी आएगा कि उसके और बेटे के बीच बाकी रह गया एकतरफा प्रेम भी शनै शनै समाप्त हो जाएगा। आखिर क्या बात है, उसका ख्याल रखने वाला, दिलों जान से चाहने वाला, हमदम उत्तयोक्ति दोहराने वाला, -“मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है।” आज उससे बात करने से भी कतराने लगा है। कितनी जल्दी वह प्यारा सा लड़का बिल्कुल अजनबी में बदल गया है। क्या कुछ दुष्ट लोग उससे जुड़ गए है या बहु ही दुष्ट है? वह ऐसा लगती तो नहीं है? शायद वह उसकी बेवजह निन्दा करती होगी तभी बेटा भी उससे विमुख हो गया है।

वह हर कार्य में सहयोग करने को तैयार रहती, किन्तु उसके सहयोग और अनुभव की किसी को आवश्यकता नहीं थी। उसकी इतनी लंबी स्वास्थकर्मी के रूप में दी गई सेवाओं की अनदेखी की गई और दोनों बच्चों के जन्म में उसका कोई सहयोग नहीं लिया गया। उसकी यह सलाह भी नहीं मानी गई कि बच्चों की नॉर्मल डेलीवरी के लिए सरकारी अस्पताल ही उचित है किन्तु दोनों ही बार महँगे नर्सिंग होम में दाखिल किया गया, जहां दोनों बार पेट फाड़कर बच्चों के जन्म कराएं गए।

उससे मिलने आने वाले नगण्य हो गए थे। बहु भाई बंधुओं और पड़ोसियों से निराधार दुष्टता भरी उसकी शिकायत करती। जो कोई भी उसका पक्ष लेने की कोशिश करता वह उससे लड़ती। धीरे धीरे अपने आने से कतराने लगे थे। उसे डर लगा रहता कि माँ को कोई बेटे से अलग ना कर दें, घर का सारा खर्च उसकी पेंशन से ही चलता था। जैसा कि माँ ने सेवानिवृत्त से आने के बाद कहा था। बेटे ने उसकी पेंशन अपने बैंक में करवा ली थी, उसे पता ही नहीं था कि उसे कितनी पेंशन मिलती है। बेटे ने उसके धन पर अधिकार कर लिया था और बहु ने किचेन, सामाजिकता और संबंधों पर।

उसे अजीब सा भ्रम रहता कि वह सबके साथ है। सभी उसे अपनी दुनिया में साथ लेकर चलते है। कभी उसके भीतर एक तीब्र –सी आकांक्षा होती कि एक बार अपने अकेले पन के बावजूद उनके भीतर झांक कर देख सकूँ-वह पहले जैसा ही चाहता और मानता है? असफल रहती।

बीतते समय के साथ वह नितांत अकेली हो गई। उसके बाल सफेद हो गए। चिंता, फिक्र और अनिन्द्रा के कारण, वह बेहद कमजोर और बीमार सी हो गई। सब जान पहचान वाले और अड़ोसी-पड़ोसी उसे दया और हेय की दृष्टि से देखने लगे।

एक दिन उसने अपने बाल डाई करने की सोची जिससे कि वह कुछ ठीक लग सके और बेटे और बहु पर कोई दोष ना आ सके कि वे उसकी देखभाल नहीं करते है। किन्तु बहु ने बेटे से शिकायत कर दी। वे दोनों उस पर बिगड़ उठे, “क्या जरूरत है? विधवा और बुजुर्ग दोनों हो, अब किसे दिखाना है? अचानक बेटे के मुंह से निकला, यह शब्द उनके बीच जहर परोस गया। हालांकि यह कह कर वह पछताया, किन्तु बहु ने पकड़ लिया। माँ बेटे के शब्दों को सुनकर स्तंभित-सी खड़ी रह गई।

“अपने समय में कई चक्कर चलाएं होंगे? लोगों को लुभाती फिरती होंगी? पापा जी कुछ करते कहाँ थे?” बहु ने बहुत ही धीमे किन्तु स्पष्ट शब्दों में कहा।

“क्या कह रही हो?” बेटे ने प्रतिवाद किया। किन्तु बहु के आक्षेप पर उसकी प्रतिक्रिया बेहद मामूली थी।

“तुम अब भी छोटे हो।” उसने हँसकर कहा।

बेटा जानता था कि माँ निर्दोष है, रहीसजादी का दबा दबा सा आरोप अर्थहीन और हास्यास्पद है। उस पर बहस करना कोई मायने नहीं रखता था, यह गलत है उसने अत्यंत अनिश्चित और कमजोर लमहे में प्रतिवाद किया।

माँ आवाक रह गई। उसे लगा कि वह भी क्या उस लड़की की ही तरह है? उसने वह प्रश्न नहीं उठाया। क्योंकि इससे फिर वह अपने बेटे को ही उघाड़ती जो वह कतई नहीं चाहती थी। वह जानती थी कि बेटा सही नहीं रहा था, किन्तु अब तक उसकी हर हरकत के पीछे कारण ढूंढती और उसे सही मानती रही है, और सदैव उसका बचाव किया है। उसे वह लोग बुरे लगते थे जो किसी रूप में बेटे की आलोचना करते।

माँ को जबरदस्त सदमा लगा। दुख, क्रोध, गुस्से और प्रतिकार में वह पूरी ताकत से तर्जनी उठाकर उस पर इंगित किया और चीखी, “तुम...!” किन्तु बेहोश हो गई। होश में आने पर वह चुपचाप अपने निराशा, हताशा और उदासी के खोल में चली गई। परंतु बहु के आरोप ने उसके अस्तित्व और अस्मिता पर हमला किया और बेटे ने उसे पीटने की जगह कोई ताड़ना, प्रताड़ना भी नहीं की, जैसे कि उसे इससे कोई मतलब नहीं है। वह हतप्रभ रह गई। उसका वह प्रलाप कही खो गया था, “दुनिया की सबसे अच्छी माँ?”

उसे भोजन ऐसे दिया जाता जैसे कोई अहसान किया जाता। सादा, फीका, बैरंग और बे स्वाद, कहा जाता कि यही आपके लिए लाभदायक है। यद्यपि उसे कोई बीमारी नहीं थी। उसे यह खाना अपमानजनक लगता इसलिए वह अत्यंत अल्प मात्र में ग्रहण करती। वह खाती इसलिए कि वह जिंदा रह सके, हालांकि उसे जिंदा रहने में कोई दिलचस्पी नहीं थी किन्तु मांगने से मौत भी कहाँ मिलती ? 

एक दिन वह बाथरूम की साफ-सफाई करते हुए फिसल कर गिर पड़ी और बेहोश हो गई, परंतु उसे देखने कोई नहीं आया। बेटा बैंक गया हुआ था और बहु और उसके बच्चों ने उसका बहिष्कार कर रखा था। उसे ऊपर का कमरा दिया गया था। वह वहाँ अपने भगवान से प्रार्थना करती कि वह उसे अपने पास बुला ले। किन्तु वह भी नहीं सुनता। शाम को जब बेटा आया तो उसे अस्पताल ले गया।

उसे अपने मायके की बहुत याद आती जहां शादी से पहले उसकी मनमर्जी चलती थी। वह अपने छोटे भाई बहनों के लिए तानाशाह थी तो बड़ों के लिए प्यारी दुलारी समझदार कामकाजी लड़की। अब उनसे मिलना कभी कभार ही होता था। जब वे उससे मिलने के लिए आते। वह जा नहीं सकती थी। इतनी दूर जाने के लिए वह अपने को अशक्त पाती और उनमें इतना साहस नहीं था कि बेटे से बिगाड़ करके जा सके। एक बार उसकी उत्कंठा ने बहुत जोर मारा तो वह निकल पड़ी मिलने, किन्तु वह मायके का रास्ता ना याद रख सकी, लौट पड़ी। लौटने पर वह बेटे का घर भूल गई। बैंक से लौटने पर बेटा उसे ढूँढने निकला तो घर के आस-पास मिली। बेटे ने पकड़ कर उसे ऊपर कमरे में ठूस दिया।

उसे यह बात बहुत टीसती और सालती थी कि बेटा अब उससे कभी भी प्रेम से नहीं बोलता था। सिर्फ डांट-फटकार गुस्सा, चीखना, चिल्लाना शायद उसकी आदत बन गई थी। उससे बेहतर तो वह घर की नौकरानी से पेश आता था। बहु ने पोते और पोती को उससे बातचीत करने से मना कर दिया था। अब उसकी हालत एक अलग थलक पड़े टापू जैसी हो गई थी जो निर्जन था। उससे मिलने सिर्फ बेटा आता कभी कभी या उसे खाना देने के लिए। उसे लगता कि वह जेल के एक बैरक में बंद है। वे जब उसके कमरे में आते तो वह अँधेरें में आंखे मूंदकर लेट जाती-थकी और निढाल। जब कभी वह नीचे जाती तो ऐसा लगता कि अनजान लोगों से मुखातिब है, जिनकी भाषा वह नहीं जानती। उसे लगता कि बेटे के बदले रवैये से वह शीघ्र मर जाएगी।

वह अकेले में सिसक सिसक कर रोती परंतु उसके रोने से आवाज नहीं निकलती थी।। उसे पति के इतनी जल्दी मृत्य पर क्रोध आता, चाहे कोई कितना निराश, हताश, बेजान हो जाए पेट नहीं मरता। पेट मरने वालों के साथ नहीं जाता। पेट आदमी के जीवित होने का प्रमाण है। परंतु क्योंकि अब उसका अभाव उसे खलने लगा था। उसे लगता कि अगर वह होता तो वह बेटे के बगैर रह सकती थी। उसे यह बात बेहद दुखदायी लगती कि जब उसकी नितांत आवश्यकता है तब वह नहीं है। उसे लगा कि पति का साथ बेहद जरूरी है, विशेष तौर पर अंतिम दिनों में। हालांकि उसने उसे कोई आवश्यक सुख नहीं दिया था सिवाय बेटे के! किन्तु बेटे का सुख भी स्थायी कहाँ होता है? उसे दुःस्वप्न में भी आशंका नहीं थी कि वह बेटे के प्यार से भी वंचित रह जाएगी, क्योंकि आखिर में वह दुनिया की सबसे अच्छी माँ जो थी।

मगर वह कहीं नहीं जाने की सोचती। घर के एक कोने खुली या बंद रोशनी के अंदर – उन सब की आवाजें सुनते हुए, घुट घुट कर जीते हुए, एक बंद गठरी सी। वह थी सिर्फ एक असीम उत्पीड़ित आकांक्षा जो लौ के तरह वह निष्कंप जलती रहती। लेकिन वे सब जाते उसे छोड़कर। वे कोई बहाना भी नहीं बनाते, सीधे उसे छोड़कर जैसे उसका कोई अस्तित्व ही ना हो ? उसे लगता कि वह बहुत पेचीदा रहस्यमय तरीके से उस पर आश्रित है। वह इतनी हताश कातर, उदास थी कि उसे एक पागल विचार आता कि वह मर जाए।

वह घर कही नहीं था .... एक दुख था जो लगातार उसे हॉन्ट करता रहता था। कभी कभी ऐसा होता है कि सब कुछ होते हुए अपना कुछ नहीं होता। दुख मरने की सीमा तक पहुँच जाता है किन्तु मरता नहीं है। लेकिन रहता है, मरते हुए आदमी की तरह। उसका सारा दिन उदासीनता में बीतता। उसे यह बेहद ताज्जुब लगता कि उसका पोता और पोती भी उसकी कोई पैरवी नहीं करते और उससे अनजान रहते और अनबोला रखते। वे सचमुच मजे में थे।

उसे चक्रवृद्धि ब्याज की उम्मीद थी किन्तु उसके मूलधन और ब्याज सभी जब्त हो गए थे। जब मूलधन नहीं बचा तो ब्याज का क्या प्रश्न? यह समय उसके लिए बहुत त्रासद और कष्टमय था। वह अपने ही घर में पराश्रित होकर रह रही थी। उस जैसी आत्माभिमानी स्त्री के लिए सहज नहीं था। उन्हें तिरस्कृत माँ की परवाह नहीं थी। फिर भी उसे उनके प्रति कोई गिला या रोष नहीं था।

 एक बार जब वे नहीं थे तब उनकी पड़ोसिन आई थी। उसने उसे बताया कि उसकी इस स्थिति का जिम्मेदार और कोई नहीं बल्कि उसका अपना बेटा है, क्योंकि वह चाहता है कि उसकी पत्नी को उसके पूर्व संबंधों के विषय में भनक न लगे इसलिए वह माँ और बहु में किसी तरह के मेल मिलाप के विरुद्ध है। संदेह और अनिश्चय से उसके स्वर में एक तनाव खिच आया। वह कुछ देर तक उसे घूरती रही फिर धीमे से हंसी। उस हंसी में एक विवश निरीहता छिपी थी। उसने भरपूर सांस ली- एक हल्का सा पछतावा होता है कि वह क्यों यहाँ आई थी।  

तब उसने सोचा अब यहाँ नहीं रहूँगी। फिर एक दिन ऐसा आया कि वह निकली। जब जाने से पहले वह एक बार, आखिरी बार उस कमरे को देखती है जहां वे सोये हुए थे। वे बेफिक्र बेसुध दीवार की तरफ मुंह फेर कर लेटे थे। वह सीढ़ियाँ उतरती है और धीरे से बाहर चली जाती है।



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