Aaradhya Ark

Tragedy

3.7  

Aaradhya Ark

Tragedy

माफी दे दो अम्मा

माफी दे दो अम्मा

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"एक बार मुझे माफ कर दो अम्मा! अपने दर्शन की अनुमति दे दो, फिर कभी कुछ नहीं माँगुंगी। कसम से अम्मा, सिर्फ एक बार!"


ये था अम्मा की लाडो गुड्डो का आखिरी मेसेज जो अम्मा ने शायद देखा ही नहीं था। देखती भी कैसे भला....?अम्मा को उनके मेसेज और फोन से कोई मानसिक तनाव ना हो इसलिए मैंने ही तो उनका नंबर अम्मा के मोबाइल से उड़ा दिया था। फिर पता नहीं कब अम्मा ने निजाम भैया से गुड्डो दी का मोबाइल नंबर ले लिया था पर उनको सेव करने नहीं आता था इसीलिए मुझे कहा था उनका नंबर सेव कर देने के लिए। पर मैंने उनका चैट आर्चिव कर दिया इसीलिए अम्मा देख नहीं पाई होंगी और मुझे भी ध्यान नहीं रहा कहा कि मैसेज देखूं। अम्मा जब से अस्पताल में एडमिट हुई थी किसी को भी कोई होश कहा था। बाबुजी ने ही कहा था ,"अभी अम्मा को फोन वोन से दूर रखो!" तभी तो अम्मा का फोन हमने अस्पताल में ले नहीं जाने दिया। वैसे भी मुझे तो हमेशा बाबुजी के गुडबुक में रहना था इसलिए मैं कभी सामने से दी को फोन नहीं करती थी।


अम्मा की तेरहवीं पर कुछ रिश्तेदारों के फोन नंबर लेने के लिए जब अम्मा के फोन की जरूरत पड़ी तब मैंने उनके मोबाइल को खोला तो कुछ पुराने मैसेज को चेक करते हुए गुड्डो दी के इस आखिरी मैसेज पर नज़र पड़ी तो मेरा विचलित मन पिछले दिनों घटने वाली एक पर एक अनहोनी पर विचार करने को विवश हो गया।


दस दिन दिन पहले की तो बात है।अम्मा लगभग मृत्यु शैया पर थी। कैंसर अपने अंतिम पड़ाव पर जीवन मृत्यु की स्पर्धा में जैसे अम्मा को हराने की पूरी तैयारी करके आया था। और इधर अम्मा थीं कि पता नहीं कौन सी एक अधूरी आस और इंतजार को आँखों में बसाए बैठी थीं कि उनकी आँखें और भी प्रखर सी हो गईं थीं।


अम्मा की निष्तेज़ और ज़र्ज़र शरीर का सारा तेज़ लगता है उनकी आँखों में समा गया था।

  

वैसे तो प्रकट में कोई कुछ नहीं कह रहा था पर मैं,बाबुजी और अभिषेक भैया अच्छी तरह जानते थे कि अम्मा को किसका इंतजार था। उनकी लाडली गुड्डो का। और हो भी क्यों ना भला? आखिर अम्मा को गुड्डो दी को देखे हुए उन्हें कम से कम ग्यारह साल हो चुके हैं। इन सालों में उन्होंने कितनी दफा अपने मन को समझाया होगा, अपनी पहली संतान, जिगर के टुकड़े को फोन करने से खुद को रोका होगा, पता नहीं।


मैं अक्सर सोचा करती थी कि अम्मा में कितना धैर्य है।कितना मन को मारकर और भावनाओं को बाँधकर रहना आता है अम्मा को।कैसे उन्होंने अपनी आँख की पुतली अपनी राजकुमारी को देखे बिना दिन गुजारे होंगे।आखिर उन्होंने...  अपने कलेज़े के टुकड़े को खुद से दूर रखने को अपने कलेज़े पर पत्थर रखा होगा।कितना बिलखी होंगी अम्मा ज़ब वह अपनी बेटी का साथ ना दे पाई होंगी।


आज मैं खुद एक प्यारे से बच्चे की माँ बनकर समझ पा रही हूँ कि अम्मा के लिए वह कितनी दुविधा और असमंजस का समय रहा होगा जब उन्हें बाबुजी की दहाड़ती आवाज़ में गुड्डो और परिवार के बीच में किसी एक को चुनने के लिए मज़बूर किया गया होगा। वैसे गुस्सा और क्षोभ तो अम्मा को भी हुआ होगा, आखिर उनका भी तो विश्वास टुटा था। पर वह उनका साथ देने के लिए घर कैसे छोड़ देतीं?

गुड्डो दी के अलावा उनके दो बच्चे और भी तो थे।मैं( अंतरा उर्फ़ अंतु )और अभिषेक भैया।

उफ्फ्फ.... कैसा दिन था वो। गुड्डो दी दालान पर अपने नौसे के साथ सिर झुकाए खड़ी थीं और बाबुजी जोर जोर से चिल्लाकर कह रहे,

"ज़ब इस लड़के के साथ तुम्हें हम सबका विश्वास तोड़कर घर की इज़्ज़त मिट्टी में मिलाकर घर से भागने में शर्म नहीं आई तो अब माफ़ी किस बात की माँग रही हो। आज से तुम हमारे लिए मर गई हो। दुबारा अपना मुँह मत दिखाना"अम्मा ने आगे बढ़कर बाबुजी को थोड़ा शांत करना चाहा कि,

"इस तरह ऊँची आवाज़ में चिल्लायेंगे तो अपने घर की बहुत बदनामी होगी। अपने घर की इज़्ज़त को यूँ सरेआम ना उछालिये!"

अम्मा ने अपनी बात खत्म भी नहीं की थी कि पलांश में वह हो गया जिसकी किसी ने भी कल्पना तक नहीं की होगी।


बाबुजी ने अम्मा को गुस्से से जोर से झटका दिया था ज़ब वह उनकी बाँह पकड़कर उन्हें अंदर ले जाना चाह रहीं थीं। बाबुजी के झटके से सुकोमल अम्मा छिटककर दूर जा गिरी थीं। चोट खरोंच से ज़्यादा दर्द अम्मा के मन में हुआ था। उनका मान आहत हुआ था। क्योंकि आजतक बाबुजी ने अम्मा से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की थी। अब तक दालान के बाहर पर लोग भी जमा होने लगे थे।घर की बात अब घर में छुपनेवाली नहीं थी। क्योंकि असलम के साथ घर से भागने के बाद दीदी पूरे आठ दिन बाद लौटकर आईं थीं तो निकहत बानो बनकर।


कानपूर के ब्राह्मण कुल की कन्या का गैर हिन्दू में विवाह करना वो भी स्वेच्छा से घर से भागकर एकदम से पचने पचानेवाली बात तो थी नहीं। ऊपर से दादाजी के बाद बाबुजी उनकी तरह अक्सर फुरसत में सबको रामायण की चौपाई पढ़कर उनके अर्थ बताते हुए अपनी ओजपूर्ण वाणी में जैसे सरस्वती पुत्र बन जाते थे। कई श्रद्धालु तो भावविभोर होकर बाबुजी की चरणधूलि तक सिर पर लगा लेते थे। उस घर की बेटी ने जो जघन्य अपराध किया था वह अक्षम्य तो था ही। तात्कालिक समाज में घोर निंदा का विषय भी था। बाबुजी को जितना प्रेम अपने परिवार से था उतना ही अपनी ऊँची नाक से भी तो था। सो अपनी बेटी को माफ करने का तो सवाल ही नहीं उठता था।हम तीन भाई बहनों में गुड्डो दी अर्थात अम्मा बाबुजी की सबसे बड़ी संतान थीं। उनके बाद अभिषेक भैया फिर सबसे छोटी मैं। दीदी अगर अम्मा की लाडली थीं तो मैं बाबुजी की आँखों का तारा थी।और हम दो बहनों के बीच अभिषेक भैया घर में सबके प्रिय पात्र तो थे ही, इसके अलावा दादी के कुछ ज़्यादा ही लाडले थे। वंशधर जो थे।


परम्पराओं को निबाहने वाले हमारे परिवार में ज़ब बेहद खूबसूरत दीदी ने जन्म लिया तो अम्मा फूली नहीं समाई। दीदी की सुंदरता ने अम्मा को पहली संतान लड़की होने के तानों से भी बचा लिया था।बचपन में गुड्डो दी प्यारी सी तो थीं ही जैसे जैसे बड़ी होती गईं उनकी खूबसूरती और भी निखरती गई।गुड्डो दी की सुंदरता देखकर रिश्तेदार और जान पहचान वाले तो कभी मज़ाक़ मज़ाक में तो कभी लाड़ में कह देते कि,


"पुष्करजी और समिधाजी की बड़ी बेटी कितनी खुबसूरत है, एकदम हीरोइन मॉडल जैसी। आकांक्षा को तो फिल्मों में जाना चाहिए!"सुनकर जहाँ दीदी पुलकित हो जातीं बाबुजी एकदम उखड़ से जाते और...अम्मा कई बार हदस जातीं,इतना रूप कहाँ समायेगा भला?"


जल्दी से गुड्डो की शादी कर दें? "


एक रात अम्मा ने बाबुजी को आशंकित होते हुए कहा क्योंकि इनदिनों दीदी आईने के सामने ज़्यादा समय गुजारने लगी थीं और पढ़ाई से उनका मन उचट सा गया था।अम्मा को लगता कहीं किसीके प्रेम में तो नहीं पड़ गई उनकी लाडली।इसलिए उन्होंने बाबुजी से उनके विवाह की बात छेड़ी तो अम्मा के मन में चल रहे द्वन्द से अनजान बाबुजी ने कहा,

"अभी आकांक्षा का बी. ए फाइनल हो चुका है। अगर वह आगे नहीं पढ़ना चाहती तो अमरेंद्र त्रिपाठीजी काफ़ी दिनों से अपने इंजिनियर लड़के सुभाष के लिए आकांक्षा का हाथ माँग रहे हैं। तुम कहती हो तो अगले रविवार को उन्हें घर पर बुला लेते हैँ। आकांक्षा हुए सुभाष अगर एक दूसरे को पसंद कर लेते हैं तो इसी साल उसकी शादी भी कर देंगे!"बाबुजी की बात सुनकर अम्मा आश्वास्त होकर उस रात तो चैन सो गईं... कदाचित भविष्य से अनजान।


उस रात गुड्डो दी ज़ब पानी लेने किचन में जा रही थीं तो उन्होंने अम्मा बाबुजी की बात सुन ली थी। वापस कमरे में आकर देर तक भुनभुनाती रहीं थीं कि... मुझे तो अभी शादी ही नहीं करनी। और शायद थोड़ा सा रोईं भी थीं फिर मुझे गले लगाकर सो गई थीं। मुझे ज़्यादा कुछ तो समझ नहीं आया पर इतना अंदाजा तो लग ही गया था कि गुड्डो दी अभी अम्मा बाबुजी की पसंद के लड़के से शादी करने को आसानी से तो मानेंगी नहीं।क्योंकि दीदी किसी असलम नाम के लड़के से ज़्यादा घुलने मिलने लगी हैं इसकी भनक मुझे और भैया को अपने दोस्तों के द्वारा मिलती रहती थी। बारहवीं में पढ़नेवाली मैं कोई बच्ची तो थी नहीं और भैया तो दीदी के कोलेज़ में ही फर्स्ट ईयर में था। पर गुड्डो दी ऐसे घर से भाग जाएंगी यह तो किसीने नहीं सोचा था।


अपनी सहेली पूनम की शादी में शामिल होने के लिए दीदी अम्मा से कहकर गईं कि,

"अम्मा!पूनम की शादी में सभी सहेलियां रातभर रुक रही हैं। मैं भी रुकना चाहती हूँ।कल सुबह सुबह ही पूनम की विदाई है. उसके तुरंत बाद आ जाऊँगी। आप बाबुजी को कैसे भी मना लेना!"

अम्मा अपनी लाडली को मना नहीं कर पाई। जाते जाते दीदी पलटी और कसकर अम्मा के गले लगी। उस वक़्त अम्मा को अपनी गुड्डो पर जाने कैसा लाड़ आया कि अपने गले से सोने का हार निकालकर दीदी को पहनाते हुए बोली,

"शादी में जा रही है गुड्डो!यह ले सोने का है, पहन ले पर संभालकर रखियो!"

दीदी ने अम्मा के पैर छुए और फिर घर के ठाकुरजी को भी प्रणाम किया तो उस वक़्त दीदी का अम्मा के पैर छूना मुझे थोड़ा अजीब तो लगा पर मैंने यूँ ही उनको छेड़ते हुए कहा था,

"गुड्डो दी!आप अपनी सहेली की शादी में जा रही हो या खुद अपनी शादी में? आप अम्मा के पैर क्यों छू रही हो?"


बदले में दीदी मुस्कुराई और मेरे गाल खींचते हुए ख़ुशी ख़ुशी शादी में जाने को निकल गईं।खुद अभिषेक भैया तो उन्हें पूनम दीदी के घर तक छोड़कर आए थे।

अगले दिन सुबह से दोपहर और अब शाम होने को आई और बाबुजी के दफ्तर से आने का समय भी हो गया तो अम्मा ने पूनम के घर फ़ोन लगाया तो उनकी बहन ने बताया, "रात गुड्डो दी जयमाल के तुरंत बाद घर के लिए निकल गईं थीं, यह कहकर कि, ज़्यादा रात तक ना रुक सकेंगी, उनके बाबुजी नाराज़ होंगे!"


पूनमदी के घर में भी सबको बाबुजी के गुस्सैल स्वभाव और पारम्परिक होने का पता था अतः किसीने दीदी को रुकने की ज़िद नहीं की थी। अब घबड़ाकर अम्मा ने आशंका जताते हुए और लगभग रोते हुए कहा कि,


"अगर गुड्डो कल रात ही ज़ब घर के लिए निकल गई थी तो अब तक घर क्यों नहीं पहुँची? आखिर कहाँ गई मेरी फूल सी कोमल बच्ची? कहीं उसके साथ कोई अनहोनी ना हो गई हो?

"अभी तेरे बाबुजी आते होंगे। उनको क्या जवाब देंगे?"

कहकर दादी ने अभिषेक भैया को गुड्डो दी के तमाम दोस्तों के घर पूछने को भेजा और मुझे सबको फोन पर पूछने कहा। तब स्मार्ट फ़ोन नहीं आया था, सो व्हाट्सप्प नहीं हुआ करता था। इधर दीदी को सुबह से ज़ब भी फोन लगाया तो स्विच ऑफ़ आ रहा था। बाद में उनका फ़ोन उनके कमरे में टेबल पर पड़ा मिला था जिसे दीदी ने जानबूझकर छोड़ा था या गलती से छुट गया था इसका पता नहीं।

उस रात दीदी ज़ब दोस्तों के घर और फोन पर दरियाफ्त करके भी नहीं मिली तो मज़बूरन बाबुजी को बताना पड़ा. सुनते ही वह तो पहले अम्मा पर बिगड़े फिर चाचा और दादी के साथ कुछ मशवरा करने लगे। पुलिस में तो जाने का सवाल ही नहीं उठता था... इससे परिवार की बदनामी जो होती थी।

पुरे सात दिन सब परेशान होकर उन्हें ढूंढ़ते रहे थे। क्या मज़ाल जो दीदी के किसी दोस्त या सहेली ने उनके असलम के साथ भाग जाने के बाबत कुछ भी बताया हो।अम्मा ने रोरोकर ज़ब दादी की अदालत में गुहार लगाई तो छोटे चाचा और बाबुजी जाकर थाने में रपट लिखवा आए और वहाँ भी बात को ज़्यादा ना फैलाने की विनती कर आए। खैर... बात तो फ़ैलनी थी और फैली भी खूब। इतनी कि घर से निकलते ही जो जान पहचान का मिलता बस एक ही सवाल पूछता,


"गुड्डो का कुछ पता चला? "

अगर दीदी भागने के दो तीन दिन बाद भी लौट आतीं तो बात संभल जाती पर वह लौटी भी तो पूरे आठ दिन बाद असलम से निकाह करके। सब चौंक गए थे।हम दोनों भाई बहन को तो थोड़ी भनक थी भी कि गुड्डो दी किसी असलम नाम के लड़के से मिलती हैं पर अम्मा बाबुजी को तो दीदी और असलम के मेलजोल के बारे में भी कुछ पता नहीं था। उनकी तो धरती ही डोल गई थी। गुड्डो दी ने पूरे परिवार को दुनियां समाज के सामने लाकर खड़ा कर दिया था। किसी गैर हिन्दू लड़के के साथ घर से भाग जाना और फिर पूरे सात दिन बाद वापस आना। इस बीच पूरे परिवार को लोगों के तानों से बेधा जाना एकदम असहनीय होता जा रहा था। इससे बाबुजी का क्रोध और आक्रोश दी पर बढ़ता ही जा रहा था।अगर पहले आ जाती तो शायद परिवार बदनामी से बच जाता पर आई तो पूरे सात दिनों के बाद आठवें दिन।जब तक बात पूरे शहर में फैल गई थी।ऐसी बातें फैलते हुए देर कहाँ लगती है।और साथ में यह भी बात फैल गई थी कि अम्मा बाबूजी का शासन कमजोर है,बेटियां अनुशासित नहीं।बहुत बड़ी बात थी एक माता-पिता की परवरिश पर समाज सवाल उठा रहा था।

बाबूजी तो गुड्डो दीदी को कभी माफ नहीं कर पाए। उस दिन वापस आकर दीदी कितना रोई, गिड़गिड़ाई... एक तरह से बाबुजी के पैरों में लोट गईं पर बाबुजी पत्थर के हो गए थे। जिस समाज में आजतक सर उठाकर चलते आए थे वहाँ बाप दादा की पगड़ी उछालने वाली अपनी कुलक्षनी बेटी को कैसे माफ कर देते?बाबुजी और चाचाजी एकदम अटल खड़े थे। अम्मा और चाची की ज़ुबान कैसे खुलती ज़ब गलती उनकी बेटी की ही थी।और दादी ने तो हद ही कर दी। उनके चेहरे पर इतना क्रोध मैंने तो कभी नहीं देखा था।


जब गुड्डो दी और जीजाजी दादी के चरण स्पर्श करने को झुके तो उन्होंने पैर पीछे कर लिए और बड़े ही अपमानजनक शब्द कहे। दादी ने लगभग दीदी को खुद से परे करते हुए कहा था,

"मुझे छूने की कोशिश भी मत करना। अब तुम ब्राह्मण कुल की नहीं हो!"


बस अपमान का शायद आखिरी घूँट था वो गुड्डो दीदी के लिए। तब जो असलम का हाथ पकड़कर पलटी तो फिर वापस मुड़कर नहीं देखा। बाबुजी और अम्मा के पैर के पास की मिट्टी उठाया और उसे ही ने अपने पीहर की भेंट समझकर अपने आंचल में बांधा था... अपना पाथेय समझकर और और असलम के साथ निकल गई थीं।उड़ती उड़ती खबर आती रही कि उनके दो बच्चे हैं और अभी वह अलीगढ़ में रहती हैं वगैरह वगैरह।

आगे जाकर भैया की नौकरी पहले लखनऊ में लगी तो शादी के बाद उन्होंने अम्मा की हालत देखते हुए किसी तरह कोशिश करके अपना तबादला कानपूर करा लिया। पर तब तक अम्मा को इस जानलेवा रोग ने पकड़ लिया था।अब कम से कम पुष्पा भाभी और चिंटू से घर में थोड़ी चहल पहल रहने लगी थी।संजोग से मेरी शादी कानपूर में ही हुई थी सो मायका छुटकर भी नहीं छूटा था। पर अम्मा के लिए हम सब मिलकर भी गुड्डो दी की जगह ना भर सके थे।

वैसे भी एक माँ के लिए उसकी संतान का विकल्प कोई और कैसे हो सकता है?


बाबुजी और अम्मा के सामने तो जैसे गुड्डोदी का नाम तक लेना वर्जित था। दादी ज़ब तक ज़िन्दा रहीं गुड्डो दी को शापती और गड़ियाती ही रहीं। और कालांतर में उनके शाप का असर हुआ भी।


ईद के वक़्त भैया का एक दोस्त निजाम अलीगढ़ से कानपूर अपने घर आया तो भैया से मिलने हमारे घर भी आया था। तभी उसने यह खबर सुनाई थी कि गुड्डो दी बहुत दुखी हैं। असलम के स्टूडियो का काम कुछ घाटे में चल रहा है और अब वह चौथे बच्चे को जन्म देनेवाली हैँ।उनके तीन बच्चे हो गए हैं और आगे भी अपनी मर्जी से बच्चों का जन्म देना है या नहीं देना है इस पर गुड्डो दी की कोई मर्जी नहीं चल रही।सुनकर अम्मा बहुत विचलित हुई थी।निजाम के हाथों पैसे और काफी सारा सामान भिजवाया भी था। पता नहीं कैसे बाबू जी को मालूम पड़ गया और वह अम्मा पर काफ़ी नाराज़ हुए थे। कदाचित दीदी के घर से भाग जाने और विश्वासघात करने को माफ नहीं कर पाए थे। उन्हें इस बात की बहुत तकलीफ थी कि अगर दीदी और असलम का प्यार सच्चा था और वह दोनों शादी करना चाहते थे तो कम से कम अपने परिवार वालों की मर्ज़ी तक इंतजार करना था।


यूँ विषम परिस्थिति से लड़े बिना आसान और चोर जैसा रास्ता अपनाना कदाचित हमारे परिवार में नहीं सिखाया जाता था।हर परिस्थिति में डट कर करना सामना करना फिर जीतना यही देखते आए थे हम अपने पूरा परिवार में। और गुड्डो दी भी तो इसी परिवार का अंश थी।बहुत खूबसूरत दीदी शायद अपनी खूबसूरती की ज़्यादा से ज़्यादा तारीफों के पुल बांधने वाले असलम को दिल दे बैठी थी और बहुत ज़ल्दबाज़ी में भविष्य का फैसला कर लिया था।बात यह नहीं है कि असलम उनका सही जीवन साथी है या कोई और अच्छा जीवनसाथी साबित होता।बात है उन्होंने निर्णय लेने में बहुत जल्दी कर दी थी।


कुछ निर्णय हमारी जिंदगी में ऐसे होते हैं जो सिर्फ अकेले नहीं लिए जा सकते।शादी विवाह का निर्णय भी उन्हीं में से एक है।क्योंकि हमने अपने आपको खुद जन्म नहींदिया तो ऐसे में हमें जन्म देने वालों का भी हम पर अधिकार होता है और उनसे उनकी राय जानना भी बहुत आवश्यक होता है।अनुभव की थाती तो बुजुर्गों के हाथों में होती है। उतावलापन उत्साह युवाओं का स्वाभाव है परन्तु धैर्य और दूरदर्शिता तो उमर के साथ ही आती है।


गुड्डो दी ने जो भी किया हो उससे परिवार तो टूट ही गया था।बाबुजी एकदम खामोश हो गए थे। दादी अपने पूजा पाठ का आडंबर कुछ ज़्यादा करने लगी थीं। हम भाई बहन घर बाहर दो अलग माहौल में खुद को किसी तरह सामान्य रखने की कोशिश कर रहे थे।सबसे ज्यादा टूटी थी अम्मा।क्योंकि एक माँ अपने बच्चे से दूर कभी खुश नहीं रह पाती। और यहाँ तो उनकी लाडली ना उनसे सिर्फ दूर हुई बल्कि उनका विश्वास भी तो तोड़कर गई थी।शायद गुड्डो दीदी ने अम्मा बाबूजी दादी भैया छुटकी बहन सब का विकल्प असलम और उसके परिवार में ढूंढ लिया हो पर हमारा परिवार गुड्डू दीदी का विकल्प नहीं ढूंढ पाया था।


गुड्डो दी के जाने के बाद अम्मा को कभी ढंग से तो रोटी खाते हमने नहीं देखा। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे।अम्मा अब उम्र से काफी बड़ी दिखने लगी थी। ज़ब दादी भी नहीं रहीं तो अम्मा अपने मन की बात मन में रखते रखते और भी उदास रहने लगी थीं।पता नहीं कब यह जानलेवा रोग उन्हें ग्रस गया।उनका कैंसर जब तक पता चला लास्ट स्टेज था। वैसे भी ब्लड कैंसर का मरीज बिरले ही बच पाता है।बाबुजी ने इलाज के लिए एक घर तक बिकवा दिया तो भैया ने अपने सारे पैसे भविष्य निधि के निकलवा लिए अम्मा को बचाने के लिए जैसे सबकुछ दांव पर लगा बैठा था मेरा परिवार।


"अंतु!लगता है अम्मा अब नहीं बचेंगी!"

भर्राए गले से ज़ब भैया ने कहा तो मैं जैसे अतीत के गलियारे से वर्तमान में वापस आई। मैंने कुछ सोचकर कहा,

"भैया अम्मा की जान गुड्डो दी में अटकी पड़ी है। एक बार उनको बुला लेते हैं। शायद उनसे मिल लें तो....!" बाकि मैं समझ गई थी कि भैया क्या कहना चाहता है।

पर बाबुजी को कैसे राज़ी करें?"


बाबूजी को मनाना इतना आसान नहीं था?लेकिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब बाबूजी गुड्डो दी को बुलाने के लिए और उन्हें अम्मा से मिलवाने के लिए आसानी से मान गए।अभिषेक भैया और मैं अगले दिन ही दीदी से मिलने और उनको लाने का निश्चय करके निकल गए। मैं नहीं जाती पर मुझे पता था कि दीदी अपने गर्भ के अंतिम महीने में चल रहीं थीं तो मेरा जाना ज़रूरी लगा। अस्पताल में अम्मा के लिए रात में किसी को रुकना होता था। सो चिंटू को दादा जी के पास छोड़कर भाभी एक रात के लिए मां के पास रुकने वाली थी।मैं अभिषेक भैया के साथ दीदी को लाने रवाना हो गए।दीदी के ससुराल पहुंचे तो घर के बाहर काफी लोग जमा थे।वहां पर और शायद कुछ अनहोनी हुई थी क्योंकि मातम जैसा माहौल था।घर से रोने की आवाज आ रही थी। हमें बाहर ही रोक दिया गया।अपना परिचय दिया तो रोने की आवाज और तेज हो गई। किसी ने कहा,

"अभागी पूरी जिंदगी अपने मायके वालों को तरसती रही,इंतजार करती रही,वह आए भी तो मैयत के समय!"

मैं कुछ समझी नहीं ऐसे समझ कर भी अनजान बनने की कोशिश कर रही थी कि,"जो अंदेशा मुझे हो रहा है हे,भगवान!वह सच ना हो "भैया तो कुछ समझ नहीं पा रहा था।लेकिन जब दीदी के सास ने आगे बढ़कर कहा," आप निकहत के भाई हो ना? अच्छा हुआ,आप आ गए।इस वक्त हम चाहते थे कि उसका दाह संस्कार हिंदू रीति से हो।अब ज़ब आप आ गए हो तो अपनी बहन की अर्थी को कांधा आप ही देना!"


मेरे और भैया के लिए यह खबर एकदम अविश्वसनीय लग रहा था कि अम्मा की लाडो हमारी गुड्डो दीदी अब इस दुनियां में नहीं रहीं।जानकर आश्चर्य हुआ कि अपने चौथे बच्चे को जन्म देते हुए कमजोरी और ज्यादा रक्तश्राव होने की वजह से गुड्डोदी इस दुनिया से चली गई थी।हमारे पहुंचने के चार घंटे पहले। मैंने बदहवास होकर बाबुजी को फोन किया तो फोन चाचा जी ने उठाया।हम कुछ कहते उसके पहले ही चाचा जी की रोने की आवाज आई। बोले,

"अंतू!तुम और अभि यहाँ जल्दी आ जाओ।भाभी चली गई!"

ऐसा कैसे हो सकता है?


सुनकर मुझ पर तो जैसे ब्रजपात हुआ। अगर आसमान फट जाता धरती खिसक जाती तब मुझे इतना आश्चर्य नहीं होता जितना यह जानकर हुआ कि उधर अम्मा नहीं रही और इधर गुड्डो दी भी रुखसत हो गई।कैसी बिडंबना थी ये और कैसा अद्भुत संजोग?

एक ही समय में मां बेटी इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे।


गर्भनाल से जुड़ी माँ बेटी की तरह अम्मा और गुड्डोदी की आत्मा शायद फिर से जुड़ गई हों। जिन्हें इस दुनिया ने तो जाति समाज और कौम के बंधनों में जकड़ कर मिलने नहीं दिया।शायद उस दुनियां में उस लोक में जहां कोई बंधन नहीं होता है वहाँ उनकी आत्मा मिल सके। जब हम वहां से वापस आए तब अम्मा का फोन निकाला और देखा था दीदी का वो आखिरी मैसेज था। "अम्मा मुझे माफ कर दो मुझे एक बार आपसे मिलना है। एक बार अपनी छाती से लगाकर माफ कर दो अम्मा। एक बार अपने दर्शन की अनुमति दे दो अम्मा!"


काश!ये मैसेज मैंने पहले देख लिया होता।काश,अम्मा को ये मैसेज पढ़ने दिया होता।

मेरा पछतावा तो अब उम्र भर का है। अम्मा बाबुजी ने तो गुड्डोदी को माफ कर दिया। पर क्या मैं खुद को अनजाने में की हुई इस गलती के लिए माफ कर पाऊँगी?

कभी कभी ज़ब भावावेश में आँखें बंद करती हूँ तो अपनी पनियाई धुंधली आँखों सेअम्मा के सीने से लगी हुई गुड्डो दी की कल्पना करती हूँ और सोचती हूँ... कहीं किसी दुनियां में माँ बेटी की आत्मा साथ होंगी... शायद दोनों मुझे माफ कर सकें वह आखिरी मैसेज ना पढ़ने देने के लिए।दोनों लगभग एक साथ ही तो इस दुनिया को विदा करके गई हैं...


शायद वहाँ गुड्डोदी अम्मा की गोद में चैन से सो रही हो, इस निर्मम दुनिया से परे एक मां अपनी बेटी को कलेजे से लगा कर सुकून पा रही हो... शायद दोनों ने मुझे माफ कर दिया हो वह आखिरी मैसेज ना पढ़ने देने के लिए।


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