Pradeep Kumar Tiwary

Tragedy

5.0  

Pradeep Kumar Tiwary

Tragedy

अधिया खेत

अधिया खेत

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बुधिया के पाँव ज़मीन पर नही पड़ रहे थे,वो तो बस जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था,लेकिन आज घर का रास्ता बहुत दूर लग रहा था,सच ही है खुशियाँ बॉटने की बेचैनी बहुत बुरी होती है,एक क्षण की दूरी भी एक बरस के समान लगती है, बुधिया खेतों की मेड़ों को पार करते हुए गाँव के करीब पहुँच गया ।

 सरोसती काकी बुधिया की अर्धांगिनी दरवाज़े पे ही मिल गयी गोबर के उपले घर की मिट्टी की दीवारों पे पाथ रही थी । बुधिया को देखते ही बिफर पड़ी-भोरे भोरे कहाँ उड़ गए ..तुम्हें तो घूमने से ही फुरसत नही मिलती,जहाँ देखो पंचायत करने बैठ जाते हो !

सरोसती का नाम वैसे तो सरस्वती था पर गाँव के चलन के मुताबिक सरस्वती धीरे-धीरे सरोसती फिर सुरसतिया हो गयी...सब अपने अपने तरीके से उसे बुलाते कोई सुरसती कोई सरोसती तो कोई सुरसतिया ,अब सरस्वती काकी गाँव के लिए सुरसतिया काकी हो चुकी थी ।

 अरे...काहे जी हलकान किये हो बुढापा क्या आया तुम तो बौरा गयी हो दिन भर बक-बक करती रहती हो...इतना गरमी है कहाँ पानी-वानी पूछोगी तो आते ही चिल्लाने लगी...आज तक सहूर नही सीखा तुमने ,पहले एक लोटा पानी तो पिला देती बुधिया नाराज़ होते हुए बोला ।

सुरसतिया कहाँ मानने वाली थी पलट कर जवाब दिया - हाँ..हाँ..तुम्हारे घर में तो सब डिप्टी कलक्टर थे ना तुमको सहूर सीखा के बियाहे थे...मत भूलो मैं कोई ऐसे वैसे घर की नही हूँ मैं भी बड़े घर की बिटिया हूं ।बोलते-बोलते सुरसतिया काकी पुराने दिनों को याद करने लगी ।

सुरसतिया का भरा-पूरा परिवार था । उसके पिता पंचम गांव के सरपंच थे । सुरसतिया अपने पाँच भाई बहनों में सबसे छोटी थी, घर मे घी दूध दही किसी चीज़ की कोई कमीं नही थी , सुरसतिया सबसे छोटी होने के कारण सबकी लाडली थी , बड़ी-बड़ी आँखे,गोल खूबसूरत चेहरा, मोतियों जैसे दाँत,लंबा कद,फुर्तीली और मेहनती थी सरोसतिया ,जब घर से दो चोटी बनाकर उसमें लाल-लाल फीते बाँधकर सुरसतिया बच्चों के साथ खेलने जाती तो गाँव के ही मिसिर जी कहते "पंचम तोर बिटिया तो साच्छात देवी है रे इसको मुझे दे दो अपनी जान से ज्यादा संभाल के रखूँगा"।

पंचम हंसते हुए बड़े गर्व से कहता "मिसिर जी आप तो हमसे हमार जान माँग रहे है"।

कहते है अच्छे दिन कटते देर ना लगती कुछ ऐसा ही पंचम के साथ भी हुआ....नियति कब कौन सा खेल दिखाए ये तो दैउ महाराज ही जाने..

गाँव में हैजा फैल गया चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल था , इस महामारी में किसी ने पति खोया किसी ने बाप किसी के घर के बूढ़ पुरनिया गए तो किसी के घर में कोई पानी देने वाला भी ना बचा...सरकार से कोई मदद नही मिलती,सरकारी बाबू सब कान में तेल डाले पड़े रहे..मरते है तो मरे मेरी बला से सरकार पैसा देती है तो काम भी तो करवाती है अब हम चले सबका दवाई दारू करें यही बाकी रह गया है ..और जब तक सरकार चेती जाने कितने लोग काल के गाल में समा चुके थे ।

पंचम का परिवार भी इस महामारी से अछूता ना रहा पंचम के तीनों पुत्र इस महामारी की चपेट में आये और चल बसे..पंचम को जैसे कुछ समझ ही ना आ रहा था कि उसके हँसते खेलते परिवार को यकायक कौन सा ग्रहण लग गया ..सुरसतिया तो कुछ समझ ही ना पाई की क्या हो रहा है एक-एक करके उसके बड़े दद्दा कहाँ चले गए...

तीन बेटों की इस आसमयिक मृत्यु ने पंचम को अंदर से तोड़कर रख दिया..अब हमेशा खुश रहने वाला चौपाल पे बैठकर हँसी ठट्ठा करने वाला पंचम कमज़ोर बीमार और उदास दिखता था..पुत्र-विक्षोह के दुःख ने धीरे-धीरे पंचम को शराबी बना दिया वो हमेशा शराब के नशे में धुत रहता समय ऐसे चलता रहा खेत गाय गोरु सब पंचम की शराब की भेंट चढ़ गए अब तो खाने के लाले भी पड़ गए ...और इसी परिस्थिति में एक दिन पंचम को खून की उल्टी हुई और वो चल बसा । 

अब सुरसतिया अपनी बड़ी बहन और माँ के साथ इस घर मे अकेली रह गयी...जिस घर मे कभी दूध घी की नदियां बहती थी अब खाने को भी लाले पड़े थे

दिन जैसे तैसे गुज़रने लगे सुरसतिया की माँ ने जैसे तैसे करके सुरसतिया की बड़ी बहन का बियाह पास के ही गाँव के एक अधेड़ विधुर से कर दिया परिवार बहुत सम्पन्न तो ना था पर हाँ खाने के लाले भी ना थे चार पाँच बिगहा ज़मीन थे गोरु बछरू भी थे कुल मिला के एक मध्यमवर्गीय परिवार था पर नियति को यहाँ भी कुछ और मंज़ूर था सुरसतिया की बड़की बहन पेट से थी घर में सब खुश थे प्रसव के दौरान बच्चे की नाल गले में फंस गई जच्चा और बच्चा दोनों ही चल बसे.....

घर में सुरसतिया और उसकी माँ के सिवा अब कोई ना था सुरसतिया अब तक अपनी बदनसीबी को अपना नसीब मान चुकी थी...दिन जैसे तैसे कट रहे थे सुरसतिया अब सयानी हो चली थी ..माँ इसी चिंता में घुली जा रही थी कि किसी तरह सुरसतिया के हाथ पीले कर दे ।

ऐसे में गाँव की ही जीरा काकी ने बताया कि उनके मायके में लग्गु के यहाँ एक रिश्ता है ..लग्गु का एक बेटा है बुधिया..एक बिगहा खेत है गाय है...खेत में सब्जियां उगाते बाजार में बेच आते कुल मिलाकर आराम से चल जाता था...

इससे अच्छा रिश्ता कही मिल नही सकता था, बुधिया की माँ थी नही कुल पिता-पुत्र ही थे लड़का बहुत अच्छा था मेहनती था ।

गरीबी सपने देखने का हक़ भी छीन लेती है सो सुरसतिया भी किसी राजकुमार के सपने नही देख रही थी उसने अपनी बदनसीबी से समझौता कर लिया था अब तो दुःख तकलीफ मुसीबत रोज़मर्रा के काम जैसा हो गया था हर रोज़ जूझता पड़ता था ।

आनन-फानन में सुरसतिया का बियाह बुधिया से हो गया ..सुरसतिया एक संसार को छोड़कर दूसरे संसार में आ गयी ।

धीरे-धीरे सुरसतिया ने घर संसार सम्भाल लिया दिन गुज़रते गए ..सुरसतिया को ईश्वर की कृपा से एक पुत्र की प्राप्ति हुई बड़े प्यार से उसका नाम सुरसतिया ने भूरिया रखा...भूरिया के जन्म के साल भर बाद ही सुरसतिया का ससुर लग्गु भगवान को प्यारा हो गया ।समय अबाध गति से चलता रहा भूरिया अब जवानी के दहलीज़ पर कदम रख चुका था बाप बेटे दोनों खेतों में सब्जी उगाते बाज़ार में बेच आते जो कुछ भी आता चैन सुकूँ से कट जाता, बुधिया ने भूरिया का विवाह भी कर दिया..घर में बहु आयी सुरसतिया अब सास बन चुकी थी । सुरसतिया ने बहु को बेटी के समान प्यार दिया कभी कोई काम ना करने देती , बहु कुछ भी करने जाती सुरसतिया बिगड़ जाती कहती ...हटो ..तुमसे ना होगा आज कल की लड़की के देह में जान कहाँ होती है ..एक हम थे कटाई-बुआई चूल्हा-चौकी सब अकेले ही संभाल लेते थे मज़ाल है किसी को हाथ बटाने की जरूरत होती । मानव स्वभाव भी बड़ा विचित्र होता है,गुस्से से भी स्नेह और प्रेम प्रदर्शित कर देता है , उसके उलाहने में अंतहीन स्नेह छुपा होता है, सुरसतिया भी वैसी ही थी उसकी उलाहना उसके गुस्से में एक प्रेम था ।

साल भर बाद घर मे पोते का जन्म हुआ सुरसतिया तो जैसे सम्पूर्ण हो गयी थी पति बेटा बहु और अब पोता ..

कारी माई और दैउ महाराज की कृपा ऐसे ही बनी रहे हमारे ऊपर ..कभी-कभी बुधिया के सामने हाथ जोड़ते हुए बोलती ।

पर वक़्त ने एक बार फिर करवट बदली...

एक रोज़ भूरिया सुबह-सुबह अपने खेत गया वहीं खेत में एक साँप ने उसे काट खाया और उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी ।

बुधिया और सुरसतिया तो जैसे जीते जी मर गए कहते है सुरसतिया अपने लाल को छाती से लगाये घंटो रोती रही. गाँव वालों ने जैसे तैसे करके भूरिया की अंत्येष्टि की ..विषम से विषम परिस्तिथियों में अडिग रहने वाली सुरसतिया अब टूट सी गयी थी अब वो बात बात पे गुस्सा हो जाती है बच्चे को खोने के दुःख ने उसको चिड़चिड़ा बना दिया था ।

भूरिया का बेटा महज़ एक साल का था अभी, सुरसतिया उसको लल्ला कह के बुलाती थी अक्सर कहती थी एक दम भूरिया जैसा दिखता है लल्ला..

वो लल्ला में भूरिया को ढूंढती थी इस बात से अनभिज्ञ की जो चले गए वो फिर कभी लौटकर नही आते पर हाँ लल्ला में भूरिया को देखना उसको असीम सुख देता था ।

एक साल तो जैसे-तैसे कट गए , एक दिन बहु ने कहा.."अम्मा सोच रही हूं कि मायके हो आऊँ कुछ दिनों के लिए ।"

 सुरसतिया ने कहा - "हां हो आओ पर मैं लल्ला के बिना कैसे रहूँगी इतने दिन ..मेरा तो दिल नही लगेगा कहीं ।"

बहु ने कहा..."अम्मा लल्ला को आपके पास छोड़े जाती हूँ."..सुरसतिया को मुँह मांगी मुराद मिल गयी उसने हामी भर दी ।

बहु को मायके गए एक डेढ़ महीने से ऊपर हो गए पंद्रह बीस दिन बोल के गयी थी पर कोई खबर नही ।

एक दिन सुरसतिया ने बुधिया से कहा .."सुनो जी आप बहु के घर हो आओ देखो क्या हुआ ?"

बुधिया अगले दिन बहु के घर पहुंच गया..समधी से बातें हुईं खैर खबर हुई, आखिर बुधिया ने अपनी बहू के बारे में पूछा तो उन्होंने भेजने से साफ इंकार कर दिया, बोलने लगे - "अभी उम्र ही कितनी है बिटिया की अब सारी उम्र हम उसको ऐसे नही देख सकते उसके लिए हम दूसरा घर तलाश कर रहे है" .

बुधिया को काटो तो खून नही उसने कहा - "समधी जी एक बच्चा है उसका क्या होगा उसको भी माँ की जरूरत है", समधी जी ने सीधा जवाब दिया - ")भाई साहब वो तो वैसे भी ज्यादातर अपनी अम्मा की गोद मे रहता है, आप लोग देख लीजिएगा ।"

बुढ़िया बड़ी मान मनोव्वल करता रहा आखिर थक हार कर घर आ गया ।

उस दिन के बाद सुरसतिया लल्ला को सीने से लगाये फिरती , खेतों में घास काटती तो लल्ला मेंडों पे बैठकर खेलता, रसोई में वो रोटी बनाती तो लल्ला को आटे से कभी चिड़िया कभी मछली के खिलौने बना के दे देती, लल्ला को अपने हाथों से खिलाती । कहती..मन करता है अपना करेजा काट के लल्ला को वही रख दूँ ताकि हमरे लल्ला को किसी की बुरी नजर ना लगे ।

जब लल्ला अम्मा बोलता सुरसतिया निहाल हो जाती,कभी-कभी आँखों से आँसू निकल आते to लल्ला को जी भर के चूमती ।

"अरे...क्या सोच रही हो खड़े खड़े कब से बोल रहा हूं एक लोटा पानी दो सुनती ही नहीं हो "- बुधिया झल्लाते हुए बोला ।

सुरसतिया जैसे सोते से जागी हो वो अपने अतीत से निकलकर वर्तमान में आ गयी...कुछ नही अभी लाती हूँ ।

बुधिया पानी पीकर लोटा एक तरफ रखते हुए बोला- "आज ठाकुर विशेषर सिंह का बुलावा आया था, अपने गाँव के पास उनकी सात बिगहा जमीन है कह रहे है कि बुधिया अगर चाहो तो ई सात बिगहा जमीन तुम्हें अधिया पे दे देता हूँ तुम जोतो बोओ एक तिहाई तुम रखना बाकी सब हमारा रहेगा...बीज खाद बुआई जुताई के पैसे अबकी बार तो हम दे देते है अगली बार से तुम समझना..अभी तुम कहाँ से लाओगे सो तुम्हारी सुविधा के लिए एक बार हम पैसे दे देंगे."

सुरसतिया की तो आँखे आश्चर्य से फैल गयी .."का कहते हो ..सात बिगहा ? अरे इतना में तो घर भर जाएग ..अनाज रखने की जगह ना बचेगी I"

ठाकुर बड़े दिलवाले है सुना था पर आज देख भी लिया , कहते है उनकी महारिन की बिटिया का बियाह में दिल खोल के खर्च किये थे...महारिन हाथ फैलाये बैठ गयी ठाकुर साहब के सामने ..ठाकुर साहब हमारी इज़्ज़त अब आपके हाथ में है बिटिया का बियाह तय कर दिया पर पैसे ना है , ये सुनकर ठाकुर साहब ने बड़े आवेश में कहा था - "वो सिर्फ तुम्हारी बिटिया नही है पूरे गाँव की इज़्ज़त है जाओ कह दो गाँव मे ऐसी शादी किसी ने पहले कभी ना देखी होगी ।"

कहते है एक-एक बाराती को बिदाई में दूई आना और फलों की टोकरी दिए थे ।

सच कह रही है सुरसतिया..."तबै तो लक्ष्मी जी ठाकुर साहब के तिजोरी में वास कर रही है ।

खेतों की जुताई हो चुकी थी आसाढ़ का महीना लग गया था,बुधिया को बारिश का बेसब्री से इंतज़ार था ।

"दैउ महाराज एक बार अपना प्रकोप दिखा देते खेत पानी से भर जाता तो बेरन लगाना शुरू करता" - बुधिया बोला ।

सुरसतिया तो हिसाब लगाने बैठ गयी जो फसल अच्छी हुई तो इतना मन अनाज मिलेगा उसमें इतने मन बेच लेंगे बाकी का अनाज में सालभर आराम से चल जाएगा ।

एक दिन लल्ला ज़िद कर बैठा ..अम्मा पूरी-सब्जी खाने का मन कर रहा है आज बनाओ ना कब से बोल रहा हूँ पर आप नही खिलाती....

लल्ला अब दस साल का हो चुका था ।

सुरसतिया बुधिया से बोली ...सुनो एक काम करो लल्ला कब से पूरी-सब्जी खाने की ज़िद कर रहा है अब तो ठाकुर साहब की दया और दैउ महाराज़ की कृपा से अनाज की कमी ना होगी..जो अनाज पड़ा है उसमें से कुछ बेच आओ और बनिये से सामान लेते आना कल लल्ला को पूरी-सब्ज़ी खिला दूंगी..और थोड़ा सा दूध ले आना खीर भी बना दूंगी अपने लल्ला के लिए ।

बुधिया शाम होते ही बाज़ार गया और अनाज बेचकर सारा सामान ले आया ।

अगले दिन सुबह पूरी,सब्जी,खीर बनाने की तैयारी शुरू हो गयी..लल्ला को तो जैसे पंख लग गए हो..अम्मा के पीछे-पीछे ही लगा रहा..अम्मा खीर कैसे बनाते है,पूरी गोल-गोल कितनी सुंदर होती है ना ?बचपन सिर्फ मुँह और और पैर पे टिका होता है अच्छा अच्छा खाना और दिनभर खेलना बचपन के दिनों में बस यही बाकी रह जाता है इंसान के पास ।

इधर दैउ महाराज़ भी सुबह से घेरे हुए थे..बादलों का गरजना और बिजली की चमकना देख बुधिया ने कहा - दैउ महाराज़ भी तुम्हारे पूड़ी सब्जी खीर के इंतज़ार में बैठे थे...बरसात शुरू होने वाली है मैं खेत होकर आता हूँ...

हाँ... हाँ पर खाने के वखत आ जाना , आज बरसों बाद इस घर में हँसी खुशी का माहौल आया है - सुरसतिया हँसते हुए बोली ।

हां.. हां आ जाऊंगा तुम चिंता ना करो - बोलते-बोलते बुधिया खेतों की ओर निकल गया ।

बुधिया अभी खेतों के पास पहुँचा ही था मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी..बुधिया ने पास के एक पेड़ के नीचे शरण ली और मंद मंद मुस्कराते हुए अपने खेतों को पानी से लबालब भरते हुए देख रहा था...बरसात का आना आज उसे अपने अच्छे दिनों के आने के जैसा लग रहा था देखते देखते एक घंटा गुज़र गया,मूसलाधार बारिश जारी थी ऐसा लगता था कि इंद्रदेव आज सबकुछ बहा ले जाने वाले थे । बुधिया विचारों में मग्न था कि अचानक उसे शोर सुनाई दिया

बुधिया ने देखा कि गाँव के कुछ लड़के काका..काका की आवाज लगाते हुए भागे आ रहे है...बुधिया किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठा । 

लड़के पास आकर बोले ..काका जल्दी चलो घर काकी...और उसके आगे कुछ ना बोला पाए ।

बुधिया बेतहाशा आने घर की तरफ भागा बूढ़ा हो चला था पैरों में जान ना थी फिर भी आज वो पागलों की तरह अपने घर को भागा जा रहा उसका दिल जोरों से धड़क रहा था, कही पैरों में कांटा चुभा तो कभी मेड़ों पे फिसल के गिर गया परंतु उसे होश ना था उसे बस किसी भी तरह अपने घर तक पहुंचना था । बुधिया किसी तरह घर पहुंचा ,देखा घर के बाहर चीख पुकार मची है ,गांव के युवा बुजुर्ग हाथों फावड़े लिए मिट्टी निकाल रहे थे ,बारिश अभी अपना कहर बरसा रही थी, बुधिया को समझते देर ना लगी कि घर की दीवार गिर चुकी है , बुधिया अपने होश खो चुका था वो अपने हाथों से मिट्टी हटाने लगा ,आखिरकार गांववालों ने किसी तरह जब मिट्टी हटाई तो एक हृदयविदारक दृश्य दिखा ऐसा दृश्य जिसे देखने मे देवता भी शरमा जाए जिसे देखकर राक्षस का दिल भी मोम के जैसे पिघल जाय ,पत्थर भी आंसू बहाने लगे ..

सुरसतिया मुँह के बल गिरी हुई थी उसका चेहरा लल्ला की तरफ था जैसे अपने कलेजे के टुकड़े को निहारते निहारते ही उसने दम तोड़ा हो,लल्ला एक तरफ़ पड़ा था जस्ते की थाली में कुछ पूरियां रखी थी एक टुकड़ा निवाला सुरसतिया के हाथों में था...बदनसीब अपने लल्ला को एक निवाला भी ना खिला पाई अपने हाथों से । 

  बिजलियां अब भी चमक रही थी बादलों का गरजना जारी था मूसलाधार बारिश से बुधिया के खेत तो लबालब भर गए थे पर बुधिया की आँखें किसी तपते रेगिस्तान सी सूखी और बंजर थी इंद्रदेव के कोप में वो जोर ना था कि वो बुधिया की आँखों से पानी की एक बूँद भी बरसा पाते , बुधिया जैसे पत्थर हो गया था ना आंखों में आंसू ना गुस्सा ना दुःख , बस वो अपनी बदनसीबी को अपनी आंखों से देख रहा था । अपनों के चले जाने के दुःख से बड़ा दुःख अपने रह जाने का होता है ।

अगली सुबह बुधिया की लाश गाँव के कुँए में तैरती हुई पाई गई (समाप्त)  


 



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