प्रारब्ध
प्रारब्ध
"हे संन्यासी आप यहाँ क्या कर रहे हो इस घने विशाल जंगल में अकेले .."घनघोर जंगल से गुजरते ऋषि ने जंगल में वृक्ष के नीचे बैठे एक युवा सन्यासी से पूछा ।
संन्यासी ने सामने खड़े ऋषि को अभिवादन करते हुए पूछा ..."प्रणाम ऋषिवर ..आप कौन है और कहाँ जा रहे है? "
"संन्यासी ..मेरा नाम ऋषि प्राग्य है और मैं हिमालय की कन्दराओं की ओर जा रहा हूँ अपनी तपस्या के लिए मेरा निवास वहीं है ..."
अब ऋषि प्राग्य ने युवा संन्यासी से प्रश्न किया - "परंतु ...हे ..सन्यासी तुम यहाँ क्या कर रहे हो इस घने बीहड़ और भयानक वन में ??"
संन्यासी कुछ देर तो चुप रहा फिर उसने उत्तर दिया - "ऋषिवर मुझे मेरे अपनों ने ही त्याग दिया है उन अपनों ने जिनके लिए मैंने अपना सर्वस्व त्याग दिया उनके लिए एक आदर्श समाज की रचना की उन्हें जीवन के मूल्यों और सिद्धांतों से परिचित करवाया उन्हें जीवन जीने का मार्ग दिखाया , परन्तु अब उन्होंने मुझे ही त्याग दिया है, मुझे समझ नही आ रहा है कि कहाँ जाऊँ क्या करूँ ??"
"परंतु सन्यासी आप तो बड़े ही उदास प्रतीत हो रहे है और बहुत दुःखी भी दिख रहे है , क्या अपनों के चले जाने से इतनी वेदना होती है ??"
"नही ऋषिवर ...अपनों के चले जाने के दुःख से बड़ा दुःख अपनो के गलत मार्ग पे चले जाने का होता है मेरे अपनों ने उसी मार्ग पे चल के आज में एक "निरीह बालिका" का शीलहरण किया है "
"ओह्ह ये तो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है संन्यासी.. ऐसा तो रावण भी नही था.."युवा संन्यासी विचलित हो उठा -
"नही ऋषिवर... रावण के संपूर्ण अस्तित्व में मात्र यही एक कमी थी कि वो चरित्रहीन था..।"
"ये क्या कह रहे हो संन्यासी ..उसने माता सीता का हरण अवश्य किया था उन्हें बन्दी भी बनाया परन्तु कभी भी उनके सतीत्व को नष्ट करने की कुचेष्टा नही की..।"
अब युवा संन्यासी बोल उठा - "ऋषिवर आपको ज्ञात नही है..तो सुनिए रावण एक बार स्वर्ग जा रहा था रास्ते मे उसकी दृष्टि एक बहुत ही सुंदर नवयुवती पे पड़ी उसने अपना रथ रोका पहले तो उसने युवती को संभोग का प्रस्ताव दिया किन्तु उस युवती के मना करने पर रावण ने नवयुवती के साथ बलपूर्वक दुराचार किया उस नवयुवती का नाम "रंभा" था जो उसके ही सौतेले भाई "कुबेर " के पुत्र "नलकुबेर" की पत्नी और स्वर्ग की अप्सरा थी अर्थात रावण ने अपनी बहू के साथ दुराचार किया था उससे क्रोधित होकर नलकुबेर ने उसे श्राप दिया कि आज के बाद यदि उसने किसी भी स्त्री के साथ बलपूर्वक शीलहरण की कोशिश की तो वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, इसीलिए ही वह सीता के साथ जबरदस्ती ना करके उसे विवाह के लिए बाध्य करता रहा ।"
"ओह्ह ....संन्यासी ये तो सच में घोर निंदनीय और अत्यंत दुःखद है.."
"हाँ ऋषिवर ..आज मेरे सारे अपने लोग भ्रमित हो रावण को श्रेष्ठ मानकर उसकी शरण मे चले गए है रावण के चरित्र का गुणगान किया जा रहा है और रावण को एक आदर्श व्यक्ति के रूप में आज के समाज में प्रस्तुत किया जा रहा है । मुझे ये पीड़ा बेचैन किए जा रही है कि आज का समाज अंधकार को ही प्रकाश समझ बैठा है ।"
ऋषि प्राग्य उदास होकर बोले - "खैर ....संन्यासी अब मुझे चलना होगा क्योंकि संध्या होने वाली है और मुझे रात्रि होने से पहले कन्दराओं तक पहुंचना है ..।"
"जी ऋषिवर ..प्रणाम आपको "- युवा संन्यासी ने कहा ।
"परन्तु संन्यासी आपने अपना नाम नही बताया आखिर आप हैं कौन ??"
युवा संन्यासी ने बड़े ही उदास मन से उत्तर दिया - "मैं.....मैं "राम" हूँ ऋषिवर ...अयोध्या का राजा दशरथ पुत्र"श्री राम" ।।"