हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

4.4  

हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

अभिशाप बना वरदान भाग 3

अभिशाप बना वरदान भाग 3

12 mins
624



उर्वशी मन में उमंग लिए हुए मिलन हेतु शनै शनै अर्जुन के कक्ष की ओर प्रस्थान कर रही थी । उसकी पायल की मधुर झंकार पुरुषों के हृदय में ज्वार उठाने के लिए पर्याप्त थी । कंगन , पाजेब, मेखला और अन्य आभूषणों की ध्वनि मधुर मधुर संगीत उत्पन्न कर रही थी । तीनों प्रकार की वायु अर्थात शीतल, मंद, सुगंध कामोत्तेजक वातावरण निर्मित कर रही थी । सखियों की ठिठोली से उसका अंग अंग रोमांचित हो रहा था । आज तक लोग काम पिपासा शांत करने हेतु उर्वशी के पास आते थे किन्तु आज विपरीत घटना घट रही थी । उर्वशी कामातुर होकर समागम की इच्छा लेकर किसी पुरुष के पास जा रही थी । ऐसा लग रहा था कि स्वयं सागर अपनी मर्यादा भूलकर नदी से मिलने जा रहा हो । उसके श्वासों के उच्छवास से वातावरण भी काम मय हो गया था । 


अर्जुन के शयन कक्ष के बाहर उसकी सारी सखियां रुक गईं और उसकी ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखकर भेद भरी मुस्कान लिए हाव भावों से मसखरी करते हुए उर्वशी को कक्ष के अंदर ठेलकर वे सब वहां से चली गईं । उर्वशी ने एक गहरी सांस छोड़ी और अपने मनोभावों पर काबू करने का प्रयास किया लेकिन जब बैल रस्सी से खोल दिये जाते हैं तब क्या वे किसी के वश में आते हैं ? उर्वशी की अभिलाषाऐं निरंकुश होकर इधर-उधर विचरने लगी । 


उर्वशी हास परिहास की मुद्रा में आत्म मुग्धा नायिका की तरह आगे बढ़ रही थी । वस्तुत: वह एक परकीया प्रौढा नायिका की तरह व्यवहार कर रही थी । अपनी मस्ती में मगन, उर में प्रणय की लगन और तन में अप्रतिम मिलन की तीव्रता से वह "अधीरा" की तरह आचरण कर रही थी । वह शीघ्रता से अपने प्रियतम से मिलकर अपनी कामाग्नि शांत करना चाहती थी । विरह अब असह्य होने लगा था । उसके कदमों की गति थोड़ी तेज हो गई । तेज तेज कदमों के कारण नूपुर की ध्वनि भी तेज़ हो गई थी । नूपुरों की तेज ध्वनि के कारण अर्जुन की नींद ‌‌‌‌‌खुल गई थी । 

"कौन है वहां" ? अर्जुन ने आवाज लगाई

अर्जुन की धीर गंभीर आवाज ने उर्वशी के अरमानों की लपटों में जैसे घी डाल दिया था । कामाग्नि और प्रज्ज्वलित हो गई थी । अपनी संपूर्ण चेष्टाओं के साथ उर्वशी एकदम से अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत हो गई

"आपकी दासी उर्वशी आपकी सेवा में उपस्थित है स्वामी" । उर्वशी ने अपने अधरों पर एक अति मोहक मुस्कान और नयनों में अथाह मद्य भरते हुए कहा ।

"आप ! इस समय ? और मेरे कक्ष में" ? अर्जुन ने आश्चर्य से कहा 

"इतना आश्चर्य क्यों है स्वामी ? क्या आपको मेरा आना पसंद नहीं आया" ? उर्वशी ने अपना मायाजाल फैलाना प्रारंभ कर दिया । 

अर्जुन अपने ही प्रश्न पर शर्मिन्दा होते हुए बोला "मेरी धृष्टता क्षमा करें देवी । मेरा आशय था कि आधी रात को क्या काम आ गया जो आपको कष्ट करना पड़ा" ? 

"मिलन तो आधी रात को ही होता है नाथ । जब सारा जगत निद्रा देवी की गोद में समाया हुआ हो तब प्रेमी युगल खुलकर "काम केलि" में लीन हो सकते हैं । न किसी के व्यवधान का भय और न ही कामयुद्ध में होने वाली सीत्कारों के किसी के सुनने की आशंका । इसलिए अर्द्ध रात्रि की बेला को ही इस प्रयोजन के लिए शुभ माना गया है पुरुष श्रेष्ठ" । उर्वशी अपनी संपूर्ण विधाओं से अर्जुन को सम्मोहित करने का प्रयास करने लगी । 

"आप कैसी बातें कर रही हैं भद्रे ? आपको ऐसी बातें शोभा नहीं देती हैं" ?


उर्वशी अब अर्जुन की शैय्या पर बैठ गई और उसने जानबूझ कर अपने वस्त्र हट जाने दिये जिससे उसका सुवर्णमयी बदन और सौन्दर्य अर्जुन के समक्ष प्रकट हो सके । लेकिन अर्जुन उसकी इस गतिविधि से अचकचा गया और शैय्या छोड़कर खड़ा होने लगा । उर्वशी ने झट से अर्जुन का हाथ पकड़ लिया और उसे शैय्या पर बैठा दिया । अर्जुन का मुख अपने दोनों कोमल हाथों में लेकर उर्वशी ने उसकी आंखों में झांका और सैकड़ों लीटर मदिरा उंडेलते हुए एक कातिल मुस्कान से भयंकर वार करते हुए बोली 

"क्या खड़े खड़े ही प्रेम रस का आदान प्रदान करेंगे प्रिय ? आप तो बलशाली सिंह राज हैं, आपको तो थकान छू भी नहीं सकेगी प्राणनाथ ! मगर मैं तो कोमलांगी स्त्री हूं, मैं तो थक जाऊंगी । पहले शैय्या पर "अठखेलियां" कर लेते हैं फिर आप जिस आसन में चाहें अपनी तृप्ति कर लेना । मुझे तो काम कला का प्रत्येक आसन पसंद है और आप तो समस्त युद्धों में प्रवीण हैं फिर वह युद्ध चाहे वीर रस का हो या काम रस का" । अर्थपूर्ण शब्दों, नजरों और अदाओं से उर्वशी अर्जुन का हृदय विजित करने का प्रयास करने लगी । 


उर्वशी के ये अर्थपूर्ण शब्द अर्जुन को कुछ समझ में आये और कुछ समझ में नहीं आये । पर वह इतना तो जान गया था कि उर्वशी के इरादे नेक नहीं हैं । वह शैय्या से सायास उतर कर शैय्या से दूर जाकर खड़ा हो गया और दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा 

"आपकी बहकी बहकी बातें मेरे समझ से बाहर हैं देवि । आप तो मुझे स्पष्ट आज्ञा दीजिए कि मैं आपका यथेष्ट कैसे पूरा करूं" अर्जुन अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए बोला । 


अर्जुन के इस रूखे और उदासीन व्यवहार से कामान्ध उर्वशी को एक जोर का धक्का सा लगा । माना कि वह अर्जुन के पौरुष पर रीझ गई थी और वह उसके साथ संभोग करना चाहती थी । मगर उसने अपनी इच्छा किसी के समक्ष प्रकट नहीं की थी । उसे तो स्वयं देवराज इन्द्र ने अर्जुन की "सेवा" के लिए भेजा था । मगर यह मूढमति कुछ समझ ही नहीं रहा है । त्रैलोक्य की सबसे सुंदर स्त्री उसके समक्ष "काम क्रीड़ा" के लिए प्रस्तुत है और यह मूर्खाधिराज बहकी बहकी बातें कर रहा है । अपने मनोभावों पर अंकुश रखते हुए उर्वशी बोली 

"प्राणों से भी अधिक प्रिय प्राणनाथ ! मैं आपके चरणों की दासी हूं । विश्व में मेरी एक मुस्कान के लिए अच्छे अच्छे देवता ,दानव, ऋषि, गंधर्व, नर , पिशाच सब लोग जिंदगी भर तपस्या करते हैं तब जाकर उन्हें मेरा दर्शन हो पाता है । आलिंगन तो बिरले लोगों को ही नसीब हुआ है आज तक । और चुंबन की तो बात करना ही बेमानी है । समागम के लिए तो पता नहीं कितने युगों तक तपस्या करनी पड़ती है तब जाकर मैं उन पर कृपा करके उन्हें "रति दान" देती हूं । देवराज इन्द्र की आज्ञा से आज की रात मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूं। आप जो चाहें मेरा उपयोग कर सकते हैं । मैं संपूर्ण रात्रि के लिए आपकी सेवा में रहूंगी । इस लिए अब कृपा करके समय व्यर्थ न करते हुए "प्रणय" कर्म आरंभ करें । इसमें आपका और मेरा दोनों का ही भला है । अब आप जैसा उपयुक्त समझें वैसा करें" । इतना कहकर उर्वशी ने अपनी दोनों बांहें अर्जुन के गले में डाल दीं और उसे अपने वक्षस्थल से लगाकर कस लिया । 


अचानक हुए इस प्रहार से अर्जुन हतप्रभ रह गया । जैसे ही उसे अपनी स्थिति का भान हुआ वह उर्वशी को परे धकेल कर उससे दूर जाकर खड़ा हो गया। 

"धिक् धिक् माते । ये कैसा अपकृत्य कर रही हैं आप ? आपका यह कृत्य न तो धर्मानुकूल है और न ही शास्त्रानुकूल है । यह कृत्य तो हमें नरकों में डालने वाला ही है माते । मुझे क्षमा करें माते और कृपा करके मुझे अकेला छोड़ दें" यह कहकर अर्जुन मुंह फेरकर खड़ा हो गया । 


उर्वशी के लिए यह एक अप्रत्याशित घटना थी । उसके रूप सौन्दर्य का तो जमाना दीवाना है । उसकी एक झलक पाने के लिए लोग तरसते हैं और यह मूर्ख उसे "माते" कहकर उसका उपहास उड़ा रहा है । इसे अपने पौरुष पर शायद कुछ अधिक ही अभिमान है वरना ऐसी बातें नहीं करता यह मूर्खनंदन । लेकिन वह "काम" के इतने आवेग में थी कि वह अपना अपमान भी भूल गई । शास्त्रों में सत्य ही लिखा है कि कामातुर व्यक्ति क्या नहीं कर सकता है ? उसे न मान की चिंता होती है और न अपमान की । काम क्षुधा तृप्ति के अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सूझता है । यहां पर उर्वशी की स्थिति भी कुछ कुछ ऐसी ही थी । वह अपनी काम पिपासा शांत करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी । इसीलिए उसने सब अपमान भूलकर बात आगे बढ़ाते हुए कहा 

"माते ? कैसी माते ? कौन माते ? किसकी माते ? तुम भूल रहे हो पार्थ कि यह स्वर्ग लोक है और यहां पर मनुष्यों में कोई संबंध स्थापित नहीं होता है । यहां केवल एक ही संबंध होता है और वह संबंध है नर और नारी का । तुम एक वीर योद्धा हो, अनुपम वीर हो, बलिष्ठ हो और नर श्रेष्ठ हो । मैं एक अभूतपूर्व सुंदर स्त्री हूं, कामिनी हूं । सुनयना, सौन्दर्या और सुभगे हूं । मेरा शरीर सौष्ठव अद्वितीय है । मैं कामातुर होकर संभोग की इच्छा लेकर तुम्हारे पास आई हूं । शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि जब कोई स्त्री कामातुर होकर समागम की इच्छा से यदि किसी पुरुष के पास जाकर उससे "संभोग" करने की याचना करें तो उस पुरुष का कर्तव्य है कि वह ऐसी स्त्री की इच्छा की पूर्ति आवश्यक रूप से करें । ऐसा दो ही स्थितियों में नहीं हो सकता है । या तो वह व्यक्ति नपुंसक है या उसे शास्त्रों का कोई ज्ञान नहीं है । हे पुरुषोत्तम ! आप तो पुरुष कुलभूषण हैं । आप पुंसत्व के साक्षात प्रमाण हैं । आपके पौरुष का लोहा संपूर्ण विश्व मानता है । ऐसा भी नहीं है कि आपको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है । फिर आप शास्त्रों के विपरीत आचरण क्यों कर रहे हैं ? काम ज्वर की तीव्रता से मैं बुरी तरह दग्ध हो रही हूं । नाथ ! अब और विलंब न कीजिए और अपना आत्मदान करके मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए । मुझे काम सुख देकर संतृप्त कीजिए और आप भी संतुष्ट होइये" । उर्वशी ने आखिरी प्रयास किया । 


"छि: छि: । ये कैसी बातें कर रही हैं माते ? एक पुत्र से प्रणय निवेदन करना क्या शास्त्रानुकूल है माते" ? 


अर्जुन के मुंह से "माते माते" संबोधन बार,बार सुनकर उर्वशी पक गई थी इसलिए वह झल्लाकर बोली 

"ये क्या माते माते का राग अलाप रहे हैं आप ? मैं किसी की माता नहीं हूं । स्वर्ग लोक में जितनी भी स्त्रियां हैं वे सब चिर युवा हैं । उनका यौवन सागर की तरह अक्षुण्ण है । वे इस यौवन रूपी समुद्र में सदैव डूबी रहती हैं नर श्रेष्ठ । मैं एक तरुणी हूं और तुम भी एक नौजवान हो । मौसम भी मदमस्त है और काम का भी पूर्ण आवेग है । ऐसे में मैथुन क्रिया में लीन होकर हम दोनों इस रात को अविस्मरणीय क्यों न बना दें । इसलिए हे महाबाहो ! ये माते माते का कर्कश राग अब बंद करो । प्रेम के तराने छेड़ो । कुचों की वीणा के तारों से झंकार पैदा करो । उरोजों की ताल पर थपकी दो और नितम्बों के नगाड़े बजाओ । कटि प्रदेश रूपी हारमोनियम से सुर सजाओ और संगीत की गहरी खाई में स्वयं को डुबो दो । तर्क वितर्क में बहुत समय व्यतीत हो गया है अब और समय जाया न करो । एक प्रहर रात शेष रही है नाथ ! आगे बढो और इस "काम युद्ध" का श्री गणेश करो" । इतना कहकर उर्वशी अनावृत होकर शैय्या पर लेट गई । 


उर्वशी को अनावृत देखकर अर्जुन ने मुंह फेर लिया और कहा "माते । आप हमारे पूर्वज महान सम्राट पुरूरवा की प्रेयसी रही हैं इसलिए आप मेरी माता हुई और माता के साथ मैथुन करना सर्वथा वर्जित है । इसलिए माते, अधर्म युक्त व्यवहार न करो" । 

"मुझे याद नहीं है कि मैंने तुम्हारे पूर्वज पुरूरवा के साथ कोई संसर्ग किया था या नहीं । यहां स्वर्ग लोक में कोई प्रतिबंध नहीं है । आपके और भी सम्राट जो यहां स्वर्ग लोक में आये हैं उन्होंने भी मेरे साथ कई बार समागम किया है और मैंने उनकी कामेच्छा की पूर्ति की है । वे भी तो सम्राट पुरूरवा के ही वंशज हैं । उन्होंने तो कोई आपत्ति प्रकट नहीं की ? फिर तुम्हें ही क्यों आपत्ति है" ? उर्वशी को अब क्रोध आ गया था । एक तो वह अनुपम सुंदरी थी । उस पर काम ज्वर से पीड़ित थी । तिस पर वह एक पुरुष से तिरस्कृत हो रही थी । अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ था । इससे उर्वशी के अहं को बहुत चोट लगी थी । वह नागिन की तरह फुफकार उठी थी ।  

"माते । क्षमा चाहता हूं, माते । मैं ऐसी बात सोच भी नहीं सकता हूं । मैं एक पत्नी व्रती हूं और अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ सहवास नहीं कर सकता हूं । अन्य सभी स्त्रियां मेरे लिए मातृत्व हैं । यदि आप इस कक्ष से बाहर नहीं जाती हैं तो मैं ही चला जाता हूं" । कहकर अर्जुन कक्ष से बाहर जाने लगा । 


यह बात उर्वशी को चुभ गई । वह फुंफकार उठी "ठहरो वत्स । एक कामातुर स्त्री के समक्ष आप एक नपुंसक व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहे हैं । आपने मेरा मैथुन निमंत्रण अस्वीकार कर न केवल एक स्त्री का अपमान किया है अपितु कामदेव का भी अपमान किया है, पुरुषत्व का अपमान किया है । आपका यह आचरण नपुंसक व्यक्ति की तरह है इसलिए मैं आपको शाप देती हूं कि आप अपना पुंसत्व खो देंगे और नपुंसक बन जायेंगे" । अमर्ष में भरकर उर्वशी अपने बेतरतीब वस्त्रों में ही वहां से भाग गई । 


शाप से अर्जुन को बड़ा धक्का लगा । उसने क्या गलत किया था ? उसकी समझ में नहीं आया । शैय्या उर्वशी के स्पर्श से दूषित हो गई थी इसलिए वह जमीन पर ही लेट गया । उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला । 


अगले दिन वह जब इंद्र से मिला तो इंद्र उसे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ । चहकते हुए बोला "रात कैसी गुजरी ? उर्वशी से बढ़कर सुंदर और कामशास्त्र की ज्ञाता स्त्री और कोई नहीं है यहां । कहो पार्थ ! कैसा अनुभव रहा रात का" ? 


अर्जुन ने डरते डरते सारी घटना ज्यों की त्यों सुना दी । सुनकर इंद्र ने कहा "ईश्वर की माया अपरंपार है अर्जुन । वह किससे क्या करवाता है, पता नहीं चलता है । यह शाप तुम्हारे बहुत काम आयेगा । जब तुम्हारा बारह वर्ष का वनवास समाप्त हो जायेगा तब तुम्हें एक वर्ष अज्ञातवास में रहना होगा । तब यह अभिशाप तुम्हारे लिए वरदान बन जायेगा । मैं उर्वशी से कहकर इसे केवल एक वर्ष के लिए सीमित करा देता हूं । जाओ , अब तुम संगीत, नृत्य की पूर्ण शिक्षा ग्रहण करो और इसमें पारंगत हो जाओ । अज्ञातवास में यही अभिशाप और संगीत कला तुम्हारे काम आयेगी" । 


इस प्रकार उर्वशी द्वारा दिया गया एक अभिशाप अर्जुन के लिए वरदान बन गया था । 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics