ययाति और देवयानी ,भाग 51
ययाति और देवयानी ,भाग 51
नया जीवन पाकर कच अपनी कुटिया में आ गया । वह आज बहुत प्रफुल्लित, उत्साहित और आशान्वित था । आज उसकी साधना पूर्ण हो गई थी । जिस उद्देश्य के लिए वह देवलोक से यहां आया था , उसे अपने माता पिता, भ्राता, भगिनी और अपने मित्रों से बिछुड़ना पड़ा , तीन तीन बार उसे मृत्यु के मुख में जाना पड़ा था, वह उद्देश्य आज पूर्ण हो गया था । आज उसे "मृत संजीवनी विद्या" प्राप्त हो गई थी । जो कार्य उसके पिता नहीं कर सके थे, वह कार्य उसने कर दिखाया था । अपनी इस संसिद्धि पर उसे गर्व था । यह कोई लघु अथवा न्यून कार्य नहीं था । इससे देवलोक की स्थिति बदलने वाली थी । अब तक जो देवता शुक्राचार्य के भय के साये में रह रहे थे , उन्हें अब खुलकर जीने का अवसर प्राप्त होने वाला था । एक प्रकार से अब देवता भी अमर हो गए थे । कितनी महान उपलब्धि थी उसकी "मृत संजीवनी विद्या" प्राप्त करने की । अब वह भी शुक्राचार्य के समकक्ष हो जाएगा । दानवों का भय अब सदैव के लिए समाप्त हो जाएगा । यह सोच सोचकर उसका हृदय गर्व से चौड़ा और मुख दर्प से प्रकाशमान हो रहा था ।
वह अपनी कुटिया पर आ गया । उसके साथी उससे पूछने लगे "फिर से जीवित होकर आ गया तू" ? सब शिष्य मिलकर उसका उपहास उड़ाने लगे ।
एक बोला "आचार्य की इस पर महती कृपा है इसीलिए तो वे इसे बार बार जीवित कर देते हैं" ।
इतने में दूसरा कहने लगा "अरे, इसमें आचार्य का अधिक योगदान नहीं है । सही बात तो यह है कि इसे प्रत्येक बार जीवनदान गुरू पुत्री देवयानी के कारण मिला है । क्या तुमने देखा नहीं कि कैसे देवयानी इसके लिए वन भ्रमण करने के लिए गई थी ? इससे पहले वह कभी वन भ्रमण के लिए गई थी क्या ? वह इसी के कारण वन भ्रमण हेतु गई थी । यदि आज कच जीवित है तो वह केवल देवयानी के कारण ही है अन्यथा यह पता नहीं किस योनि में क्या कर रहा होता" ? उसकी इस बात पर सभी साथी हंस दिये ।
देवयानी के संबंध में इस प्रकार की बातें कच को रुचिकर प्रतीत नहीं हुई । उसने रक्तिम नयनों से उन शिष्यों को देखा तो वे और जोर से हंसने लगे "देखा, बात सही हो तो सीधा मर्म पर जाकर लगती है और ऐसा घाव करती है कि कुछ पूछो ही मत ? कितना भाग्यवान है कच जो देवयानी जैसी सुन्दरी इसे अपनी जान से भी अधिक प्रेम करती है ! सागर से भी गहरा प्रेम है देवयानी का । काश ! दो चार छींटे हम पर भी पड़ जाते" ? कच को देखकर व्यंग्यात्मक हंसी के साथ कह रहा था कोई ।
उनकी बातें सुनकर सदा शांत रहने वाले कच को भी क्रोध आ गया । कुपित होकर वह बोला "तुम लोगों के विचार इतने निम्न कोटि के होंगे, मैंने कल्पना भी नहीं की थी । देवयानी कोई साधारण युवती नहीं है । वह देवराज इन्द्र की पुत्री जयंती और शुक्राचार्य की पुत्री है । गुरू पुत्री होने के कारण वह हमारी भगिनी है और एक भगिनी के संबंध में इस प्रकार के विचार रखना तुम लोगों के चरित्र का दर्शन करा रहा है । देवयानी पर ध्यान देने से बेहतर है कि तुम लोग अपने अध्ययन की ओर ध्यान दो जिससे तुम्हारी शिक्षा शीघ्र पूर्ण हो" । इतना कहकर कच सीधा अपनी कुटिया में चला गया ।
आश्रम के शिष्यों के निम्न स्तरीय विचार जानकर कच को गहरा धक्का लगा । उसे आश्चर्य हुआ कि वह इन लोगों को अभी तक पहचान क्यों नहीं पाया ? ऐसे निम्न स्तरीय लोगों के बीच में रहने से अपने विचार भी निम्न होने की संभावना बन जाती है क्योंकि संगत का असर होना स्वाभाविक है । उसने सोचा कि इन लोगों के साथ रहने से तो श्रेष्ठ है कि इस आश्रम को ही छोड़ दिया जाये । वैसे भी जिस उद्देश्य के लिए वह यहां आया ता, वह तो पूरा हो ही चुका है । अब और यहां रहकर माता और पिता की छत्रछाया से क्यों वंचित रहा जाये ? उसने वापिस देवलोक प्रस्थान करने का मन बना लिया ।
आगामी दिवस को कच ने अपना सारा सामान बांध लिया । इतने में एक शिष्य उसके पास दौड़ता हुआ आया और कहने लगा "आपको आचार्य बुला रहे हैं" ।
कच स्वयं भी आचार्य से भेंट कर विदा लेना चाहता था । कच आचार्य के कक्ष में चला गया और आचार्य को प्रणाम कर वहीं पर नतमस्तक होकर खड़ा हो गया । शुक्राचार्य ने उसे देखकर कहा
"आओ आओ कच, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था । तुम जैसा शिष्य पाकर प्रत्येक आचार्य धन्य हो जाता है" ।
"ये आप क्या कह रहे हैं आचार्य ? आप जैसा गुरू पाकर हर शिष्य स्वयं को सौभाग्यशाली मानता है । मैं भी उन परम सौभाग्यशालियों में से एक हूं जिसे आपने अपने कदमों में स्थान प्रदान किया है । आपने मुझे याद किया था आचार्य, बताइये मेरे लिए क्या आदेश है" ? कच ने विनीत होकर बैठते हुए कहा ।
शुक्राचार्य थोड़ी देर चिंतन मनन करते करे फिर कहने लगे "कल की घटनाऐं तो तुम्हें ज्ञात हैं ही कि किस प्रकार तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है । मेरे उदर से बाहर निकलने के कारण अब तुम मेरे शिष्य न होकर मेरे पुत्र हो गये हो और मैं तुम्हारा पिता । हम दोनों में अब तक "गुरू शिष्य" का संबंध था लेकिन अब "पिता पुत्र" का हो गया है । मैं तो इतना ही चाहता हूं कि तुम इस नये संबंध को सदैव याद रखो" ।
कच शुक्राचार्य का इशारा समझ गया और कहने लगा "आचार्य मैं सदैव इसे याद रखूंगा और आपको उलाहना देने का कभी मौका नहीं दूंगा । मैं आपसे आज्ञा लेने भी आया हूं आचार्य । मैं अब देवलोक वापिस जाना चाहता हूं । मेरा अध्ययन अब पूर्ण हो चुका है इसलिए मुझे वापिस अपने घर जाने की आज्ञा प्रदान करें गुरूदेव और मुझ पर सदैव स्नेह बनाये रखें" । कच ने शुक्राचार्य के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया ।
"अपना, परिवार का और देवलोक का नाम बहुत ऊंचे स्तर पर प्रतिष्ठित करो कच, मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा । जाते समय एक बार देवयानी से भी मिल लेना" ।
कच स्वयं भी देवयानी से मिलना चाहता था । उसका आभार जताना चाहता था पर अब तो गुरूदेव ने ही आज्ञा दे दी है कि देवयानी से मिलकर जाऊं, अत: अब तो देवयानी से मिलना अनिवार्य हो गया था । वह शुक्राचार्य से आज्ञा लेकर देवयानी के पास उसकी कुटिया में आ गया ।
कच को अचानक सामने पाकर देवयानी ऐसे खिल गई जैसे किसी रंक को समस्त ब्रहांड का सारा खजाना मिल जाने से वह प्रसन्न हो जाता है । वह कच को आलिंगन करने के लिए उसकी ओर भागी तो उसे कच ने हाथों के संकेत से रोक दिया और कहने लगा
"मैं वापिस देवलोक जा रहा हूं, यानी" कच ने धीर गंभीर आवाज में कहा
कच के इन शब्दों को सुनकर देवयानी अवाक् रह गई । ऐसा तो उसने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि कच पुन: देवलोक जायेगा । वह पत्थर की मूर्ति की तरह स्तब्ध रह गई ।
कच बिना उसकी ओर देखे कहता चला गया "मुझ पर तुमने इतने उपकार किये हैं यानी कि मैं यदि अपनी त्वचा उतारकर उसकी चरण पादुकाऐं बनाकर तुम्हें पहनाऊं तो भी यह न्यून ही होगा । मेरा तो इन दैत्यों ने तीन तीन बार वध कर दिया था किन्तु प्रत्येक बार तुमने और आचार्य ने मिलकर मुझे जीवनदान दिया है । मैं इस बात को कैसे भूल सकता हूं ? इसके अतिरिक्त तुमने मेरे लिए क्या क्या कष्ट नहीं सहे हैं ? मेरे प्रति तुम्हारा हृदय सदैव ममत्व से परिपूर्ण रहा है , यह बात इस आश्रम में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है । तुम्हारी उदारता के साक्षी तो स्वयं भोलेनाथ हैं जो शिवालय में प्रतिदिन अपनी आंखों से देखा करते हैं । मेरा अध्ययन अब पूर्ण हो गया है यानी इसलिए अब मुझे अपने घर यानि कि देवलोक जाना होगा । मैं तुमसे अंतिम विदा लेने आया हूं देवयानी" । कहते कहते कच ने देवयानी की ओर देखा ।
देवयानी एक शिला की भांति खड़ी थी किन्तु उसके नेत्र श्रावण भाद्रपद की तरह निरंतर बरस रहे थे । वह अश्रुओं में पूरी नहा गई थी । वह चुपचाप कच की बात सुन रही थी किन्तु जब उसने कच के मुंह से सुना कि मेरा अध्ययन अब पूर्ण हो गया है इसलिए अब वापिस अपने घर जाना चाहता हूं, इस बात से वह बहुत अधिक व्यथित हो गई थी । वह घायल सर्पिणी की भांति फुंफकार उठी
"कौन सा अध्ययन पूर्ण हो गया है कच तुम्हारा ? कल तक तो तुमने बताया नहीं था । आज तो कोई कक्षा भी नहीं हुई है अभी तक ! फिर यह अध्ययन कब पूर्ण हुआ कच" ?
देवयानी की बात मैं सत्यता थी । कल तक तो उसने किसी को नहीं कहा था कि उसका अध्ययन पूर्ण हो गया है । तो फिर आज अचानक कैसे पूर्ण हुआ ये ? प्रश्न तो उचित था देवयानी का परन्तु कच इसका क्या प्रत्युत्तर देता ? वह शांत ही रहा ।
"यह क्यों नहीं कहते कि तुम यहां "मृत संजीवनी विद्या" सीखने आये थे । कल वह विद्या तुम्हें मिल गई तो तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण हो गया । अब और अध्ययन की क्या आवश्यकता है ? इसलिए आज वापिस देवलोक जाने को तैयार हो गये । कच, तुम सदैव स्वयं के बारे में सोचते हो, कभी मेरे बारे में सोचा है तुमने ? मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी ? कैसे जिऊंगी ? कभी इस बारे में सोचा है ? तुमने आज तक कभी भी प्रेम भरी निगाहों से मुझे नहीं देखा । मैं तुम पर अपना निश्चल प्रेम निस्वार्थ लुटाती रही किन्तु तुम तो इतने कृपण निकले कि उसे सूद सहित लौटाने के बजाय अपने पास ही संग्रहीत करते रहे । तुमने मुझे न कभी चूमा और न कभी प्रगाढ़ आलिंगन में कसा । मैं सोचती थी कि इस उम्र में प्रत्येक युवक ऐसा करते हैं । मेरी अनेक सखियों ने अपने अपने प्रेमियों के बारे में बताया था कि वे उनके साथ क्या क्या करते हैं ! जब भी मैं उनकी ये बातें सुनती तो ईर्ष्या में जल भुन जाती और सोचती कि मेरा कच कब मुझसे ऐसा प्रेम करेगा ? पर तुम तो पत्थर हृदय निकले ! स्त्री की कोमल भावनाओं को तुमने कभी जाना ही नहीं । कभी कभी मैं तुम्हारे संयम और धैर्य की मन ही मन प्रशंसा करती । तुमने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया । मैं यह बात बड़े गर्व से अपनी सखियों को बताती तो वे भी तुम्हारे मर्यादित आचरण की प्रशंसा किये बिना नहीं रहती थीं । वो राजकुमारी शर्मिष्ठा तो कहती "तुम कितनी सौभाग्यशाली हो देवयानी जो इतने उच्च चरित्र का युवक तुमसे प्रेम करता है" । तब मेरा मस्तक अभिमान से हिमालय की तरह उन्नत हो जाता था कि मैं जिससे प्रेम करती हूं वह कितना चरित्रवान पुरुष है अन्यथा मैंने तो पुरुषों की आंखों में केवल वासना ही देखी है । पुरुष वासना में इतने अंधे हो जाते हैं कि उन्हें स्त्री केवल एक भोग्या ही नजर आती है । किन्तु तुमने इन सब धारणाओं को मिथ्या सिद्ध कर दिया कच । तब मैं तुम्हारा और पिता श्री का उद्धरण देकर दृढता से कहती थी कि समस्त पुरुष ऐसे नहीं होते । अब तुमने अचानक यह कहकर कि मैं वापिस जा रहा हूं, मुझे कितना कष्ट पहुंचाया है कच, क्या तुम्हें इसका थोड़ा सा भी अंदेशा है" ?
देवयानी जल से भरी बदली की तरह फट पड़ी जिसमें कच समूचा बह गया । वह क्या कहता , निरुत्तर होकर खड़ा रहा । देवयानी यहीं नहीं रुकी , उसने आगे कहा "कभी कभी तो मुझे लगता है कि तुम मुझसे प्रेम ही नहीं करते । लेकिन तब मेरा मन कहता है कि यदि तुम्हें मुझसे प्रेम नहीं होता तो तुम मेरे लिए मेरा पसंदीदा गुलाब का फूल प्रतिदिन क्यों लाते ? क्यों मेरी अभिलाषा पूर्ण करने हेतु अपनी जान जोखिम में डालकर "लाल कमल" लेकर आये ? क्यों मुझसे मिलने के लिए शिवालय दर्शन के बहाने से आते थे ? क्या वास्तव में तुम मुझसे प्रेम करते हो कच या ये केवल मेरा भ्रम है" ?
कच इतनी देर में संभल गया था । उसने देवयानी की ओर देखते हुए कहा "यानी पहले तुम मेरे गुरू शुक्राचार्य की पुत्री थी । इस संबंध से तुम मेरी भगिनी थी । मैंने तुमसे प्रेम किया है और भरपूर किया है । तुम्हारा यह सोचना कि मैंने तुमसे प्रेम नहीं किया , नितान्त असत्य है । जिस तरह एक भ्राता अपनी भगिनी से प्रेम करता है उसी तरह मैंने भी तुमसे प्रेम किया है । मेरे प्रेम पर संशय मत करो यानी । जिस तरह पुष्प में सुगंध है, जल में रस है , पर्वत में कठोरता है , आकाश में शब्द है उसी प्रकार मेरे हृदय में तुम्हारा प्रेम है । कल की घटना के पश्चात तो मेरा और तुम्हारा रिश्ता "सहोदर" का हो गया है । तुम शुक्राचार्य की पुत्री तो पहले से ही हो , कल मेरा पुनर्जन्म भी आचार्य के उदर से होने के कारण मैं उनका पुत्र बन गया हूं । कल तक आचार्य मेरे गुरू थे किन्तु कल से ही वे मेरे भी "पिता श्री" बन गए हैं । इस प्रकार तुम्हारा और मेरा भ्राता -भगिनी का रिश्ता अब और भी प्रगाढ़ हो गया है" ।
कच की बात पूरी होने से पूर्व ही देवयानी चीख पड़ी "नहीं , नहीं ! बंद करो ये वृथा प्रलाप ! ना तुम मेरे भ्राता हो और ना मैं तुम्हारी भगिनी ! मैंने तुम्हें पति के रूप में ही देखा है कच , इसके अतिरिक्त अन्य कोई नाता रिश्ता मैं नहीं जानती । मैंने तुम्हें हृदय की गहराइयों से प्रेम किया है कच , तुमने चाहे मुझे प्रेम किया हो या नहीं । मैं तुम्हें पति के रूप में पूर्व में ही वरण कर चुकी हूं , अब तुम कह रहे हो कि मैं तुम्हें भ्राता समझूं ? यह मुझसे नहीं हो पाएगा कच , कभी नहीं हो पाएगा । तुमने कभी कहा ही नहीं कि तुम मुझे भगिनी की तरह प्रेम करते हो । यदि यह बात तुम मुझे पहले ही बता देते तो आज यह स्थिति नहीं होती । मेरी तो सांसों में तुम ही तुम बसे हो और तुम मुझसे कह रहे हो कि मैं तुम्हें भ्राता मान लूं ? और एक बात बताओ कच कि पुरुष कब से बच्चे जन्मने लग गये ? माना कि तुम बुद्धिमान हो, ज्ञानवान हो, नीतिज्ञ हो किन्तु मैं भी कुछ कम नहीं हूं । मुझे भी सब शास्त्रों का ज्ञान उतना ही है जितना तुम्हें है । और यह मत भूलो कच कि मैं शुक्राचार्य की पुत्री हूं । उन शुक्राचार्य की पुत्री जिन्होंने मेरी याचना पर तुम्हें मृत संजीवनी विद्या सिखाई है । इसके पश्चात भी तुम मेरे साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार कर रहे हो ? मेरे प्रेम को ठुकरा रहे हो और "भगिनी" कहकर मेरा उपहास उड़ा रहे हो ? कुछ तो लज्जा करो कच ! मेरा प्रेम चाहे तो अस्वीकार कर दो पर मुझे अपनी भगिनी कहकर अपशब्द तो मत कहो । मुझे यह संबोधन नितांत अस्वीकार्य है" । देवयानी सिंहनी की भांति दहाड़ रही थी ।
कच जानता था कि एक दिन यही होना था । उसने कभी देवयानी को प्रेयसी नहीं समझा और देवयानी उसे प्रेमी , पति परमेश्वर मानकर उसकी पूजा करती रही । जब प्रेम का स्पष्ट प्रकटन नहीं होता है तो यह भ्रम बना रहता है । काश ! देवयानी कच से पहले ही पूछ लेती कि वह उससे प्रेम करता है अथवा नहीं , तो आज वह इस स्थिति में नहीं पहुंचती । कच ने भी उसका संशय बनाए रखा, कभी स्पष्ट नहीं कहा कि वह उससे एक भ्राता की तरह प्रेम करता है न कि प्रेमी की तरह । कच को देवयानी की सहायता की आवश्यकता थी । यदि देवयानी उस पर इतनी आसक्त नहीं होती तो वह कब का यमलोक पहुंच गया होता ? इसी कारण उसने भ्रम बनाए रखा था । यह भ्रम एक न एक दिन तो टूटना ही था, आज टूट गया और सत्य सूर्य की भांति बादलों को चीरकर प्रकट हो गया । किन्तु अब इन सब बातों से क्या लाभ ? अब तो उसे देवलोक गमन करना है इसलिए अब वाद विवाद करने की आवश्यकता ही क्या है , सीधे मूल विषय पर आना चाहिए । यह सोचकर कच बोला ।
"नियति की जैसी मंशा होती है वैसा ही सब कुछ होता है यानी । तुम्हारे और मेरे नियंत्रण में कुछ भी नहीं है यानी ! तुम्हारा और मेरा मिलन संभवत: नियति को स्वीकार्य नहीं है इसलिए हम दोनों में प्रेम को लेकर सदैव संशय बना रहा अन्यथा ऐसा होता क्या ? होनी प्रबल है , वही हमारा भाग्य तय करती है । मैं तुमसे विदा लेने आया हूं यानी, मुझे प्रसन्नतापूर्वक विदा करो और हां, मुझे एक वचन भी दो कि तुम अपने विवाह में मुझे अवश्य आमंत्रित करोगी और प्रत्येक रक्षाबंधन के पर्व पर मुझे रक्षासूत्र बांधने देवलोक में आओगी" ।
कच की इस बात पर देवयानी और बिफर गई । वह क्रोध में अपशब्द निकालने लगी "धूर्त कच ! तुझे ऐसा कहते हुए जरा भी लाज नहीं आई ? तू क्या समझता है कि मैं अपने विवाह में तुझे आमंत्रित करूंगी ? तेरे जैसे बहुत लोग हैं इस संसार में किन्तु देवयानी जैसी कोई सुन्दरी नहीं है । कभी मेरा ऐश्वर्य देखने आना कच, जब तुझे ज्ञात होगा कि तुमने क्या खोया है ? और एक बात सुनता जा ! जिस मृत संजीवनी विद्या के लिए तू यहां आया था ना और जो मेरी कृपा से तुझे प्राप्त भी हो गई थी, मेरा श्राप है कि तू उसे सदा के लिए भूल जाएगा । वह मृत संजीवनी विद्या तेरे कोई काम नहीं आयेगी । तेरा यहां आना निरर्थक हो जाएगा । इस श्राप को तू मिथ्या मत समझना । यह एक ॠषि कन्या का श्राप है जो कभी मिथ्या नहीं होगा" । कहकर देवयानी भूमि पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी और जोर जोर से क्रंदन करने लगी ।
उसकी विक्षिप्तों वाली दशा देखकर कच उसे संभालने आगे बढा किन्तु देवयानी ने उसे वहीं रोक दिया "खबरदार ! एक कदम भी आगे मत बढाना कच, अन्यथा मैं तुझे अपने नेत्रों की ज्वाला से भस्म कर दूंगी । मुझे तुम्हारी मिथ्या सुहानुभूति की आवश्यकता नहीं है । चले जाओ यहां से ! मेरी नजरों से दूर हो जाओ और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो" ।
कच को उसकी यात्रा के ऐसे अवसान की नितान्त उम्मीद नहीं थी । देवयानी ने एक श्राप से उसके समस्त परिश्रम पर पानी फेर दिया था । अब वह खाली हाथ रह गया था । देवलोक में जाकर वह क्या कहेगा कि वह खाली हाथ लौट आया है ? इससे अधिक अपमानजनक और क्या होगा उसके लिए ? उसे अब तक यही समझ में नहीं आया था कि देवयानी ने उसे श्राप किसलिए दिया था ? उसका दोष क्या था ? उसने तो कभी देवयानी को नहीं कहा था कि वह उससे प्रेम करता है ? उसने न उसे कभी बाहों में कसा और न ही कभी उसका चुंबन, आलिंगन किया था । फिर भी वह उसे प्रेमी समझती रही तो इसमें उसका क्या दोष ? निर्दोष होते हुए भी देवयानी ने उसे श्राप देकर उसकी जीवन भर की तपस्या को एक पल में धूल धूसरित कर दिया था, यह देवयानी का अनुचित कार्य है । यदि उसका दोष होता और देवयानी यदि श्राप देती तो भी वह उसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेता ! किन्तु देवयानी ने अकारण क्रोध करके उसे भी क्रोधित कर दिया है इसलिए देवयानी को भी श्राप स्वीकार करना होगा । कच हाथ में गंगाजल लेकर बोला
"देवयानी, तुमने आसक्ति के वशीभूत होकर मुझ निर्दोष को अकारण ही श्राप देकर मेरी तपस्या को निष्फल कर दिया है इसलिए मैं देवगुरू ब्रहस्पति पुत्र और शुक्राचार्य का शिष्य कच तुझे श्राप देता हूं कि तेरा यह आचरण और कृत्य ॠषि कन्या जैसा नहीं था इसलिए तुझसे कोई भी ॠषि कुमार विवाह नहीं करेगा" । कच ने वह गंगाजल देवयानी पर छिड़क दिया और वह तेजी से चला गया ।