हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी,भाग 77

ययाति और देवयानी,भाग 77

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शुक्राचार्य समझ नहीं पा रहे थे कि देवयानी के मस्तिष्क में क्या चल रहा है । पुत्री मोह में वे देवयानी के हाथों की कठपुतली बन रहे थे । मोह विनाश का कारण है । यह बात सब लोग भली भांति जानते हैं इसके बावजूद सब लोग मोह रूपी दलदल में धंसते चले जाते हैं । बड़े बड़े विद्वान भी इस मोह रूपी सागर में डूबकर अपना सर्वनाश कर लेते हैं । मोह चीज है ही ऐसी । 


शुक्राचार्य विचार करने लगे कि ऐसा क्या किया जाये जिससे महाराज को देवयानी की इच्छापूर्ति के लिए विवश किया जा सके ? शुक्राचार्य को पता था कि उनके पास "मृत संजीवनी विद्या" रूपी अमोघ अस्त्र है । इस अमोघ अस्त्र से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । यह उनके लिए "पारिजात" सदृश है । शुक्राचार्य जानते थे कि "महाराज वृषपर्वा को उनकी हर शर्त माननी होगी क्योंकि वे उनसे पृथक होकर एक दिन भी नहीं रह सकते हैं । जिस दिन देवताओं को यह ज्ञात हो जायेगा कि शुक्राचार्य ने दैत्यों का परित्याग कर दिया है , उसके अगले दिन ही देवतागण दैत्यों पर आक्रमण कर देंगे और बिना मृत संजीवनी विद्या के दैत्यों की पराजय होना सुनिश्चित है । ऐसी दशा में दैत्य बेघर हो जायेंगे और दर दर की ठोकरें खायेंगे । महाराज वृषपर्वा बहुत विद्वान हैं इसलिए वे मुझे स्वयं से कभी भी पृथक नहीं होने देंगे" । शुक्राचार्य का मस्तिष्क बड़ी तेजी से चल रहा था । 


अंत में उन्होंने कुछ सोचकर देवयानी से कहा "पुत्री , यात्रा की तैयारी करो । जिस राज्य में गुरु पुत्री का अपमान हो, उस राज्य में हम एक पल भी नहीं रहेंगे । अपने वस्त्र और अन्य आवश्यक सामग्री की एक पोटली बांध लो । हम अभी इसी वक्त यहां से प्रस्थान करेंगे" । शुक्राचार्य ने अपना निर्णय सुना दिया । 

"लेकिन हम जा कहां रहे हैं तात्" ? देवयानी ने जिज्ञासा प्रकट की । 

"प्रकृति मां की गोद में । प्रकृति मां की गोदी बहुत विशाल है पुत्री । उसमें हमारे जैसे न जाने कितने लोग पल रहे हैं । हम भी प्राकृतिक वातावरण में रहेंगे तो हमारे तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे और पुष्ट भी होंगे" । 

"किन्तु तात् , इससे हमें क्या हासिल होगा" ? देवयानी इस निर्णय से प्रसन्न नहीं लग रही थी । 

"तनये, अधिक सोच विचार मत करो और जैसा मैं कहता हूं , वैसा करो । भगवान ने यही तो कहा है कि कर्म करने में ही मन लगाओ , फल में नहीं । हम कर्म कर रहे हैं, फल ईश्वर पर छोड़ रहे हैं । आशा है कि फल सकारात्मक ही होगा" । शुक्राचार्य ने मुस्कुराते हुए कहा । 


देवयानी शुक्राचार्य से वाद विवाद करना नहीं चाहती थी क्योंकि वह अपने पिता की शक्तियों से बहुत अच्छी तरह परिचित थी । किन्तु उसके मन में संशय अवश्य था । 

"क्या आपने महाराज को सूचित कर दिया है कि हम कहां जा रहे हैं" ? देवयानी ने अपनी शंका आखिर प्रकट ही कर दी थी । 

"महाराज को सूचित करने की क्या आवश्यकता है देव ? वे दैत्य राज राजेश्वर हैं । उनके पास गुप्तचरों की एक पूरी सेना है जो हमारे एक एक कदम की सूचना उन्हें देती रहेगी । इसलिए हमें उन्हें सूचित करने की आवश्यकता नहीं है । तुम तो मेरे कथनों के अनुरूप कार्य करती रहो, ईश्वर हमारा कल्याण अवश्य करेंगे" । शुक्राचार्य ने वार्तालाप को विराम दे दिया और अपनी यात्रा की तैयारी करने लगे । 


अल्प समय में ही शुक्राचार्य और देवयानी अपने अपने वस्त्रों और अन्य वस्तुओं की एक एक पोटली कांख में दबाकर आश्रम से निकल कर एक दुर्गम रास्ते की ओर चल दिये । सभी आश्रमवासी उन्हें जाते हुए आश्चर्य से देखते रह गये । 


महाराज वृषपर्वा और रानी प्रियंवदा अपने महल में बैठे बैठे हास परिहास कर रहे थे । 

"आज तो आप बहुत सुन्दर लग रही हैं प्रिये । ऐसा लग रहा है जैसे आपका यह चमचमाता हुआ रूप मेरे मन को मथ कर रहेगा । मैं अपने मन पर कब तक नियंत्रण करूं सुभगे ? आज आपका सौन्दर्य धवल चांदनी की तरह कांति बिखेर रहा है । मेरे सब्र का प्याला छलक रहा है सुमंगले । क्या आपने आज चंद्र देव से प्रार्थना करके उनसे कोई वरदान प्राप्त कर लिया है जो उन्होंने अपनी कांति आपको दे दी है " ? महाराज वृषपर्वा महारानी प्रियंवदा के हाथों में हाथ डालकर उन्हें अपने वक्ष से सटाते हुए बोले । 

"कैसा वरदान महाराज" ? 

"यही , चिर युवा और चिर सौन्दर्य का" ! महाराज वृषपर्वा ने प्रियंवदा को आलिंगन बद्ध कर लिया ।

"आप भी ठिठोली खूब कर लेते हैं , स्वामी । अब तो हमारी लाडली शर्मिष्ठा यौवन के आंगन में प्रवेश कर चुकी है महाराज । अब आपको उसके विवाह के बारे में सोचना चाहिए । अब आपको "काम" के वेग को थामना होगा और संयम से रहना सीखना होगा, नाथ ! अब आप मुझसे ध्यान हटाकर शर्मिष्ठा के लिए कोई उपयुक्त वर खोजने में अपना ध्यान लगाइये और अभी मुझे छोड़िये नहीं तो यदि अभी शर्मिष्ठा आ गई और उसने हमें इस अवस्था में देख लिया तो उसके हृदय में भी "काम" का प्रवेश हो जायेगा । एक युवा पुत्री अपने माता पिता को प्रणय रस में निमग्न देखेगी तो उसके हृदय में भी प्रणय के बीज अंकुरित होने लगेंगे जो कि उसके लिए अभी ठीक नहीं हैं" । प्रियंवदा महाराज की पकड़ से छूटने का प्रयास करने लगी । 

"ऐसी भी क्या शीघ्रता है प्रिये ? आज तो शर्मिष्ठा अपनी सखियों को लेकर "देवताल" पर जल क्रीड़ा करने गई हुई है । वह इतनी जल्दी नहीं आ पायेगी । उसे आने में तो बहुत समय लगेगा । तब तक हम भी श्रंगार रस से भरी पूरी इस प्रणय सरिता में गोते लगा लेते हैं" । 


महाराज की आंखों से प्रणय निवेदन की बरसात हो रही थी जिसमें प्रियंवदा बुरी तरह भीग गई थी । किन्तु स्त्रियों और पुरुषों में बहुत अंतर होता है । पुरुष बहुत उतावले होते हैं और बिना आगा पीछा सोचे झट से प्रेम कुण्ड में छलांग लगा देते हैं । परन्तु स्त्रियां बहुत आगा पीछा सोचती हैं । समय कुसमय का विचार करती हैं । एकान्त होने तक इंतजार करती हैं । लोक लाज का ध्यान रखती हैं । और तो और अपने बच्चों के विषय में भी सोचती हैं कि कहीं उनके आने का समय तो नहीं हो गया है । स्त्रियों में इतना धैर्य होता है कि उनकी उपमा धरती मां से दी जाती है । 


महारानी प्रियंवदा ने महाराज की चेष्टाओं को निष्फल करते हुए एक बार पुन: सिद्ध कर दिया कि स्त्री वास्तव में धैर्य की प्रतिमूर्ति होती है । वह "कामातुर" महाराज से झट से पृथक होकर एक गवाक्ष के सम्मुख आकर खड़ी हो गई जिससे महाराज उसे छेड़ नहीं सकें । गवाक्ष के सम्मुख अनेक सेवक सेविकाऐं अपना अपना काम कर रहे थे । 


इतने में बाहर से किसी के आने की पदचाप सुनाई देने लगी । कोई उधर ही आ रहा था । महारानी प्रियंवदा ने आंखों के इशारे से बता दिया था कि वह इसी बात का अंदेशा महाराज को समझा रही थी । इशारों में ही महाराज वृषपर्वा ने अपनी भूल स्वीकार कर ली । इतने में शर्मिष्ठा पैर पटकती हुई वहां पर आ गयी । उसके चेहरे से लग रहा था कि वह बहुत क्रोधित है । शर्मिष्ठा को कभी क्रोध करते हुए किसी ने नहीं देखा था पर वह आज बहुत उत्तेजित नजर आ रही थी । आज यदि वह बहुत क्रोधित अवस्था में दिख रही है तो इसके पीछे कोई न कोई बड़ी बात अवश्य हुई है । यह सोचकर ही महारानी प्रियंवदा का हृदय बैठने लगा । 


"क्या बात है पुत्री , आज इतनी उत्तेजित क्यों हो रही हो ? तुम तो जल विहार और जल क्रीड़ा करने अपनी सखियों के संग गईं थीं । जल क्रीड़ा से तो तन और मन दोनों ही शीतल होते हैं । किन्तु मैं देख रही हूं कि तुम्हारा तन और मन दोनों ही क्रोध रूपी अग्नि से दग्ध हो रहे हैं । ऐसा क्या हुआ है पुत्री जो तुम जैसी शील , धैर्यवान और शालीन नयुवती को भी आवेश आ गया । क्या मुझे अपने मन की बात नहीं बताओगी शर्मिष्ठे" ? प्रियंवदा ने शर्मिष्ठा के सिर पर प्रेम से हाथ फिराते हुए कहा । 

"आप सही कह रही हैं माते ! जल क्रीड़ा से तन और मन दोनों ही शीतल होते हैं किन्तु जहां देवयानी जैसी "अग्नि" होगी वहां जल भी वाष्प बनकर संताप ही देगा । आगे से मैं कभी भी देवयानी के साथ कहीं भी नहीं जाऊंगी और आप भी मुझे उसके साथ खेलने के लिए बाध्य मत करना, हां" । फुंफकारते हुए शर्मिष्ठा बोली । 

"पर हुआ क्या है सुते, कुछ कहो तो" ? प्रियंवदा उसे शांत करने की हर संभव कोशिश कर रही थी । 

"होना क्या था माते , हम लोग देवताल में जल क्रीड़ा कर रही थीं । हमने अपने समस्त वस्त्र उतार कर जलाशय के घाट पर रख दिये थे । इतने में आकाश मार्ग से शिवजी और पार्वती जी जाते हुए दिखाई दिये । हम लोग चूंकि अनावृत होकर जल क्रीड़ा कर रहे थे इसलिए हम लोग लाज के कारण अपने अपने वस्त्रों की ओर दौड़े । शीघ्रता में मैंने देवयानी का वस्त्र पहन लिया । बस, इसी बात पर वह मुझ पर बिगड़ गई और मुझे अधम, नीच, पतिता और न जाने क्या क्या कहा । उसने आज की जल क्रीड़ा का सारा आनंद समाप्त कर दिया । अब आप ही बताइए माते, मुझे क्रोध नहीं आएगा क्या" ? शर्मिष्ठा हांफने लगी थी । 

"वो तो ठीक है पुत्री । देवयानी बिना मां की बेटी है । उस पर वह ब्राह्मण वर्ण और भृगु वंश की आचार्य शुक्र की लाडली बिटिया भी है । उसका क्रोध करना तो फिर भी उचित है पुत्री, पर हम लोग क्षत्रिय हैं और एक क्षत्रिय को क्रोध नहीं करना चाहिए । क्षत्रिय को स्वभाव से ही क्षमाशील होना चाहिए । तुमने तो उसे कुछ नहीं कहा था ना" ? प्रियंवदा को अब भय सताने लगा था । 

"कहा क्यों नहीं , खूब कहा ? उसके कहे गये अपशब्दों से मुझे भी ताव आ गया । मैं भला कैसे चुप रहती ? इतना अभिमान किसलिए है देवयानी को ? क्या है वह ? कंगली कहीं की ! जब अकिंचन है तो इतनी अभिमानी है और यदि वह राजकुमारी होती तो न जाने क्या क्या करती" ? 


शर्मिष्ठा के ऐसे कड़वे वचन सुनकर महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा दोनों ही अनिष्ट होने की आशंका से भयभीत हो गये । महाराज वृषपर्वा ने तुरंत शर्मिष्ठा से पूछ लिया "तुमने पुत्री देवयानी के साथ हाथापाई तो नहीं कर दी थी तनये" ? 

"उसी ने शुरू की थी लड़ाई । मैं तो शांत ही खड़ी थी । लेकिन उसने मेरे गालों पर थप्पड़ मारे , मेरे वस्त्र फाड़ डाले और मुझे मारने को उद्यत हो गई तो मैंने भी मोर्चा संभाल लिया । आखिर मैं भी वीर शिरोमणि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री हूं , कोई सामान्य युवती नहीं हूं" । अब पहली बार शर्मिष्ठा के मुख पर वीरोचित मुस्कान देखने को मिली थी । 

"फिर तुमने क्या किया पुत्री" ? चिंतित होकर महाराज बोले 

"मैंने उसे ऐसा मजा चखाया कि वह इस घटना को जिन्दगी भर नहीं भूलेगी । मैंने उसे एक कुंए में धकेल दिया और घर आ गई । वह कुंए में पड़ी पड़ी डूब गई होगी अब तक । क्यों , सही किया ना मैंने" ? शर्मिष्ठा ने महाराज और महारानी की ओर ऐसे देखा जैसे उसने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया हो । 

यह सुनकर महाराज और महारनी दोनों ने अपना माथा पीट लिया "ये क्या अनर्थ कर दिया पुत्री तूने ? अब पता नहीं क्या करेगी वह ? तू नहीं जानती पुत्री कि शुक्राचार्य के प्राण उसी में बसते हैं । अब पता नहीं क्या होगा तेरा ? मैं तो सोच सोचकर ही कांपने लगी हूं । महाराज, अब आप ही बचाइए इसे देवयानी के कोप से, नहीं तो इसका जीवन नर्क हो जाएगा, नाथ" । महारानी प्रियंवदा महाराज के चरणों में लेट गई । 


महाराज वृषपर्वा ने महारानी प्रियंवदा को उठाकर एक आसन पर बैठाते हुए कहा "घटना तो घट चुकी है प्रिये, अब तो सजा सुनना बाकी रह गया है । सजा देने का अधिकार भी देवयानी को ही है । अब चलकर देखते हैं कि देवयानी क्या सजा देती है शर्मिष्ठा को ? चलो, शीघ्र चलो नहीं तो अनर्थ हो जाएगा" । महाराज वृषपर्वा खड़े होते हुए बोले । 

"यही उचित होगा नाथ ! शर्मि, तुम यहीं रुकना पुत्री । इधर उधर कहीं मत जाना और हां, किसी को भी इस घटना के बारे में मत बताना" । प्रियंवदा शर्मिष्ठा को समझाते हुए कहने लगी । 

शर्मिष्ठा को समझ में नहीं आ रहा था कि उसने गलत क्या किया है ? "देवयानी ने जो किया वह उचित था और मैंने किया वह अनर्थ ? यह भेदभाव क्यों" ? शर्मिष्ठा बैठी बैठी सोचने लगी । 



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