प्रभात मिश्र

Classics

5.0  

प्रभात मिश्र

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कुलद्रोही

कुलद्रोही

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पुलस्त्यनंदन विश्रस्वा अपने वचन में बंध गये थे, जो उन्होंने तपस्या काल में अपनी सेवा करने से प्रसन्न होकर उस श्यामल तरुणी को दिया था, जिसने निशवासर धूप छाँव की परवाह किये बगैर उनके अनुष्ठान पूर्ति के लिये उनकी सेवा में लगी रही थी। अद्भुत थी उसकी सेवा भावना, ऋषि के बिना कुछ कहे ही वह उनके अनुष्ठान के लिये आवश्यक गंध पुष्प काष्ठ हविष्य इत्यादि की व्यवस्था स्वस्फूर्त चेतना से स्वयं ही कर देती, साथ ही साथ महर्षि के लिये रुचिकर कंदमूल इत्यादि को भी पूर्ण मनोयोग से तैयार करती। संभवतः यह उसकी ही सेवा भावना एवम् सहयोग था जोकि विश्रस्वा उस कठिन माहेश्वर व्रत को सकुशल संपन्न कर सके जिसे देव दुर्लभ समझा जाता था। अनुष्ठान की पूर्णता से आनंदित ऋषिवर यह नीतिगत बात भी भूल गये कि अत्यधिक प्रसन्नता एवम् अत्यधिक शोक की अवस्था में कभी भी किसी को कोई वचन नही देना चाहिए और यही हर्षोन्माद उनके लिए धर्मसंकट का कारण बन गया था। वह कन्या कोई और नही अपितु दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकसी थी जिसे एक विशेष प्रयोजन के लिये उसके पिता द्वारा महर्षि की सेवा में भेजा गया था, उस काल में पुत्रियों का प्रयोग राजनीतिक संधियों एवम् संबध स्थापना के लिये किया जाना आम बात थी। उस वचन के बदले में कैकेसी ने महर्षि से रतिदान की प्रार्थना की थी जिसका परिणाम सोच कर विश्रस्वा चिंता निमग्न हो गये थे, परंतु वह वचनभंग का पाप भी नही कर सकते थे, अब उनके सम्मुख एक ही मार्ग शेष था कि वो कैकेसी से ब्रह्म विवाह कर उसे अपने वामांग में स्थान देकर अपने वचन का निर्वहन करें।

विश्रस्वा और कैकेसी के संयोग से तीन प्रबल प्रतापी पुत्रों का जन्म हुआ जो पितृ गृह में उसी प्रकार बढ़ने लगे जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त होता हैं। ज्येष्ठ पुत्र की कुशाग्र बुद्धि, तर्क क्षमता एवम् तीव्र मेधा से प्रभावित होकर ऋषिवर ने उसका नाम दशग्रीव रख दिया, वह बालक इतनी प्रखर मेधा शक्ति से संपन्न था कि अपने पिता से सुनकर ही उसने चारों वेद एवम् वेदांगों को कण्ठस्थ कर लिया था। ज्योतिष मीमांसा निरुक्त व्याकरण में आश्रम के आस पास रहने वाले विद्वान भी उससे शास्त्रार्थ करने से डरने लगे थे, कभी कभी उसके प्रश्न स्वयं महर्षि विश्रस्वा को भी निरुत्तर कर देते थे। दूसरा पुत्र अत्यन्त सरल स्वभाव का था , वह केवल आदेश पालन और भोजन करना जानता था, उसे देश एवम् समाज से कोई विशेष प्रयोजन नही था, उसे कुछ भी कहा जाता तो वह उसे अपने तक ही सीमित रख लेता उसकी इसी विशेषता से प्रभावित हो महर्षि ने उसे नाम दिया था कुभंकरण अर्थात् जिसके कान घड़े के समान सर्वग्राही हो। कुंभकरण अपने ज्येष्ठ दशग्रीव की छाया की तरह था, वह केवल उसके आदेश पालन को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानता था। दीर्घकाय कुंभ यद्यपि दशग्रीव की तरह ही कुशाग्र था परंतु उसकी शिथिलता ने उसके व्यक्तित्व को वह आयाम नही प्राप्त करने दिया जो दशग्रीव को प्राप्त हुआ। तीसरा पुत्र जो रुप से तो दूसरों को भयभीत कर देने वाला था परंतु अपने संस्कारों के कारण महर्षि का विशेष स्नेहभाजक था उसका नाम रखा गया विभीषण। विभीषण महर्षि के हर अनुष्ठान हर प्रार्थना में उनका यथा संभव सहयोग करता , उनके उपदेशों और शिक्षाओं को इस प्रकार सहेज कर अपने मस्तिष्क में रखता जैसे कोई सीपी मोती को सहेजती हैं। विभीषण मनसा वाचा कर्मणा महर्षि की शिक्षा एवम् आदेशों का अक्षरशः पालन करता , कृत्य एवम् अपकृत्य, धर्म-अधर्म का ज्ञान उसे यही से प्राप्त हुआ।

दशग्रीव का अपने अनुजों पर विशेष स्नेह था , वह क्षण एक को भी कभी अपने अनुजों से स्वयं को विलग नही करता था। विभीषण की नीति और धर्म पर तो उसका इतना विश्वास था कि वह विभीषण की सलाह के बिना कभी भी कोई कार्य नही करता था। कालांतर में जब अपनी तपस्या के प्रभाव एवम् पराक्रम से दशग्रीव ने यक्ष एवम् गंधर्वों के राजा कुबेर पर विजय प्राप्त की तो विभीषण की ही नीति पर उसने कुबेर को जीवनदान दे दिया था। फिर जब वह लंका का अधिपति बना तो उसने अपने राज्य का शासन विभीषण के ही हाथ में प्रधानमंत्री के रुप में सौंप दिया था। दशग्रीव के त्रैलोक्य विजय अभियान के समय भी लंका की सुरक्षा एवम् नगर व्यवस्था की जिम्मेदारी विभीषण के ही विशाल कंधों पर रही। दशग्रीव की इस विशेष कृपा का विभीषण ने भी कभी अनुचित लाभ लेने की चेष्टा नही की अपितु पूर्ण तन्मयता से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता रहा। परंतु राज्यसभा के कई सदस्यों को इस बात से ईर्ष्या होने लगी थी कि आखिर क्यों दशग्रीव ने राज्यकोष एवम् नगर प्रबंधन जैसी विशेष जिम्मेदारियाँ विभीषण मात्र को सौंप रखी थी। रावण के युवा पुत्र विभीषण को मिले विशेषाधिकारों एवम् उनके कठोर निरीक्षण कार्यों से क्षुब्ध हो रहे थे और इस आग को भड़काने के लिये चाटुकार दरबारी भी दबे छुपे उनसे विभीषण की निंदा करते रहते। विभीषण एवम् दशग्रीव पुत्रों के बीच का तनाव बढ़ता ही जा रहा था, इसकी सूचनायें दशग्रीव के कानों तक भी पहुँचने लगी थी परंतु राज्य विस्तार एवम् शत्रुदमन में व्यस्त होने के कारण एवम् विभीषण पर पूर्ण विश्वास के कारण वह इन्हें नजरंदाज करता रहा। शक्ति एवम् अधिकार की इस खींचतान के परिणाम स्वरुप बढ़ रही कटुता के कारण विभीषण स्वयं कई बार अपने अग्रज से पदमुक्त करने की प्रार्थना कर चुके थे परंतु दशग्रीव हर अवसर पर उन्हें सही अवसर तक रुकने के लिये कह कर मना लेता| वह अपनी त्रिकाल दृष्टि और राजनीतिक समझ से यह जानता था कि विभीषण के अतिरिक्त उसके दरबार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नही था जो उससे अप्रिय परंतु सत्य एवम् हितकर वचन कहने का साहस रखता हो। वह यह भी जानता था कि जन प्रदेश में उसके निरंकुश प्रतिनिधि जो अनाचार कर रहे थे, वह एक दिन लंका के लिये घातक सिद्ध होगा परंतु उत्तरापथ के लोगों में उसका भय बना रहे इस कारण वह उस तरफ से अपनी नजरे फेरे हुआ था। 

लंका के प्रतिनिधियों और जनस्थान के निवासियों में संघर्ष बढ़ता ही जा रहा था। मौनम् स्वीकार लक्षणम् को सत्य मान कर उसके प्रतिनिधियों का दुस्साहस बढ़ गया, उन्होंने दशग्रीव की अनदेखी को उसकी सहमति समझ लिया, इस कारण अब वे लोग जनस्थान को पार कर विन्ध्य की उपत्यकाओं तक आगे बढ़ गये थे, यद्यपि साम्राज्य का विस्तार दशग्रीव के हित में ही था परंतु विभीषण का परामर्श इसके विपरीत था। विभीषण ने गुप्तचरों से प्राप्त समाचार के आधार पर दशग्रीव को चेताया भी कि विन्ध्य के उत्तर में कौशल और मिथिला दो शक्तिशाली गणराज्य थे जिनके देवताओं से बहुत मैत्रीपूर्ण संबंध थे उनकी सीमाओं का अतिक्रमण लंका के हित में नही था। प्रारंभ में दशग्रीव ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया था परंतु यह कथन सत्य ही है कि बारंबार कहा गया असत्य सत्य प्रतीत होने लगता हैं, यह ही स्थिति लंका दरबार की बन गयी थी, युद्धोन्मत्त युवराज मेघनाथ एवम् अन्य सेनापति लंकेश को बारंबार युद्ध के लिये प्रेरित कर रहे थे एवम् विभीषण की शांति के प्रस्ताव पर, विभीषण को कायर क्लीव इत्यादि अन्य विशेषणों से संबोधित कर रहे थे। सभासदों के द्वारा बारंबार ब्रह्म वर की याद दिलाने और अस्तुति करने पर लंकेश भी युद्ध के लिये तैयार हो गया, सत्य ही ऐसा कौन पुरुष है इस पृथ्वी पर जिसे स्तुति प्रिय न हो, वही स्थिति लंकेश की बन गयी थी| लंका की चतुर्गिणी सेना प्रस्थान के लिये तैयार थी परंतु यकायक आकाश में विद्युत कौंध गयी एवम् लंका के चारो विशाल द्वार ध्वस्त हो गये, इस आश्चर्यजनक घटना से दशग्रीव विस्मित हो गया। विभीषण ने गुप्तचरों से प्राप्त जानकारी के आधार पर बताया कि देवताओं की गुप्त सूचना पाकर कौशल नरेश ने लंका के आक्रमण की खबर मिलने पर अपने दिव्यास्त्रों के प्रयोग से उस घटना को अंजाम दिया था। इस बात से लंकेश ने अपने अभियान को रोक दिया और अपने प्रतिनिधियों को भी जनस्थान से आगे न जाने का आदेश दे दिया। विभीषण ने लंकेश को सलाह दी कि विन्ध्य की उपत्त्यका में एक अग्रिम चौकी का निर्माण किया जाये जहाँ से मिथिला और कौशल दोनों पर नज़र रखी जा सके क्योंकि जिस देश का शासक सैकड़ों योजन दूर से लंका के चारों द्वार नष्ट कर सकता था यदि वह आक्रमण के लिये निकला तो उस अवस्था में उचित एवम् समय पर प्राप्त सूचना सामरिक रुप से महत्वपूर्ण हो सकती थी। दशग्रीव को यह सुझाव उचित प्रतीत हुआ उसने ताड़का के नेतृत्व में असुरों की एक छोटी सी टुकड़ी को सुंदर वन में रहने का निर्देश दिया। इस प्रकार सीमाओं को सुदृढ़ करके लंकेश पुनः विभीषण के परामर्श से राज्य संचालन करने लगा। परंतु इससे विभीषण से ईर्ष्या करने वाले लोग और अधिक अमर्ष से भर गये।

इधर उत्तर में घटनाक्रम तीव्रता से परिवर्तित हो रहा था, विन्ध्य को लाँघकर अनेकों लोग दक्षिणाँचल में रहने आ रहे थे, परंतु विभीषण के परामर्श से लंकेश ने अपने प्रतिनिधियों को संयम रखने का आदेश दे दिया था। वानरों की शक्ति भी ऊधर बहुत तेजी से वृद्धि को प्राप्त हुयी थी परंतु उनके राजा बालि से लंकेश ने अयुद्धक संधि कर ली थी। इधर सूदूर उत्तर में कौशल के राजकुमारों ने ऋषियों की सहायता करने के लिये लंका की अग्रिम चौकी को न केवल नष्ट कर दिया था अपितु वहाँ उपस्थिति सभी असुरों की हत्या भी कर दी थी केवल मारीच ही किसी तरह प्राण बचाकर भाग सका था। इस स्थिति ने विभीषण की चिंतायें बढ़ा दी थी, वर्षों का अनुभव उसे आशंकित कर रहा था कि कौशल यही पर नही रुकेगा, लंका की सुरक्षा व्यवस्था की चिंता ने उसे उद्वेलित कर दिया रखा था। जबकि राज्यभार से निश्चिंत एवम् चाटुकारों से घिरे महाराज आमोद प्रमोद में निमग्न थे। असुरक्षा की इसी भावना से घिरे हुये विभीषण ने अपने और दशग्रीव के सबसे विश्वनीय एवम् मौसेरे भाई खर और दूषण को जनस्थान में त्रिशिरा से प्रबंध का भार लेने के लिए दस हजार सैनिकों के साथ उत्तर की ओर रवाना कर दिया। इधर उत्तर में राजनीतिक गतिविधियाँ परिवर्तित हो रही थी उधर लंका की राजकुमारी शूर्पनखा दानव विद्युत्जिह से विवाह हेतु राजमहल से भाग गयी थी। विभीषण के लाख समझाने पर भी दशग्रीव ने इस घटना को अपने सम्मान पर आघात बताकर मलय देश पर आक्रमण कर विद्युत्जिह का वध कर दिया था एवम् शूर्पनखा को वापस लंका ले आया था। विभीषण तेजी से बदल रहे घटना क्रम में भविष्य में होने वाली घटनाओं का अनुमान कर व्यग्र हो गये। किसी तरह नीति और शास्त्रों का हवाला देकर वह दशग्रीव को इस बात पर सहमत करवा सके कि शूर्पनखा को खर और दूषण के पास भेज दिया जाये। इसके पीछे का कारण भी उन्हें गुप्तचरों द्वारा ज्ञात शूर्पनखा की प्रतिज्ञा ही थी, वह लंका के महलों में कोई नव षड़यंत्रकारी नही चाहते थे। पहले ही युवराज पद को लेकर मेघनाथ, अक्षय कुमार एवम् अतिकाय के बीच खीचतान मची हुयी थी। मंदोदरी और धान्यमालिनी दोनों ही अपने अपने पुत्रों को युवराज बनवाना चाहती थी। ऐसे में लंका में एक और विवाद के लिये स्थान ही शेष नही था।

अंततः वह ही हुआ जिसकी विभीषण को आशंका थी, कौशल के दो राजकुमार परिस्थितिवश विन्ध्य के दक्षिण में अनेकों राक्षसों का संहार करते हुये जनस्थान तक पहुँच गये थे। शूर्पनखा के द्वारा प्रारंभ किये गये विवाद के परिणाम स्वरुप उन दो कुमारों ने खेल खेल में ही खर दूषण और त्रिशिरा सहित दस हजार राक्षसों का संहार कर दिया था। विभीषण को इसकी सूचना अचानक आहूत किये हुए राजदरबार की सूचना से मिली। शूर्पनखा ने दरबार में जो बात बतायी थी उस पर सहसा विश्वास कर लेना कठिन था परंतु लंकेश ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। इस बात पर राजदरबार में लंकेश को टोकना उचित न जानकर सभा विसर्जन के उपरांत विभीषण उनसे मिलने के लिये उनके महल पँहुचे। रावण उस समय चिंतित मुद्रा में अपने महल के परकोटे पर दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ते हुये इधर ऊधर घूम रहा था , उसके मस्तक पर व्यग्रता के लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते थे। विभीषण को देखकर अपने को संभालते हुये लंकेश ने बहुत गंभीर स्वर में कहा - मै तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था विभीषण ! यह सुनकर विभीषण तनिक आश्चर्य चकित हो गया परंतु संभलते हुए बोला- अभयदान हो महाराज तो कुछ कहूँ ?

रावण ने उसके मुख की ओर देखा - तुम यहाँ लंकापति के नही अपने ज्येष्ठ भ्राता के सम्मुख खड़े हो, राजसभा की मर्यादाओं की यहाँ कोई आवश्यकता नही है निःसंकोच बोलो।

"भ्राता ने आज राजसभा में जो निर्णय लिया वो नीति और धर्म के विरुद्ध हैं।" विभीषण बोला 

" तुम नही जानते विभीषण " दशग्रीव का शब्द और गंभीर हो चला था " खर और दूषण का वध कोई साधारण व्यक्ति नही कर सकता। वे दोनों मेरे ही समान पराक्रमी थे। संभवतः लंका का कोई भी व्यक्ति यह नही जानता जो मै तुमसे आज कहने जा रहा हूँ।" रावण क्षण एक को पुनः मौन हो गया , विभीषण की व्यग्रता बढ़ती ही जा रही थी।

लंकेश ने पुनः धीमे स्वर में कहना प्रारंभ किया " अनुज ऐसा नही था कि मुझे लंका और इसके बाहर हो रहे क्रिया कलापों की जानकारी नही थी, तुम तो जानते हो कि मै तीनों काल में होने वाली घटनायें महादेव की कृपा से देख सकता हूँ, जब मैने ब्रह्म देव से वर पाया तो मै केवल रक्ष जाति का उत्थान करना चाहता था परंतु मैने देखा कि मेरे बल का संबल पाकर ये उन्मत्त हो गये थे, तब मुझे लगा कि वर्षों के उपेक्षा और तिरस्कार के कारण शायद वे लोग ऐसा कर रहे हो, परंतु मै गलत था। इनके बढ़ते हुये अनाचार को मै रोकना भी चाहता था परंतु राजनीति और मेरे व्यक्तिगत लोभ ने मुझे ऐसा नही करने दिया। बढ़ते हुये अनाचार से मेरा हृदय भी उतना ही व्यथित था जितना की तुम्हारा परंतु शक्ति के मद ने मुझे ग्रसित कर लिया था। मेरे आश्रय में शक्तिशाली होती मेरी जाति के कार्य मुझे प्रायः भयाक्रांत कर दिया करते थे, इसी चिंता में पगा हुआ जब मै कैलाशपति से मिलने गया तो उन्होंने मुझे ढ़ाढ़स देते हुये कहा था कि शीघ्र ही मानव रुप में श्री हरि रक्ष जाति को नष्ट करने के लिए पृथ्वी पर आयेंगे।" लंकेश पुनः मौन होकर शून्य की तरफ देखने लगा।

विभीषण जो संयमित होकर अपने भ्राता की बात सुध रहा था उस मौन पर अधिर हो उठा " तो क्या हमारी सम्पूर्ण जाति नष्ट हो जायेगी भ्राता ?" 

रावण अभी भी शून्य में ही ताक रहा था, उसने एक संक्षिप्त उत्तर दिया "हूँ" 

इससे पहले कि विभीषण कोई और प्रश्न करता रावण बोल उठा " सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्धम् त्यजन्ति पंडि़ता:" " तुम तो नीति के मर्मज्ञ हो अनुज ! तुम यह तो जानते ही होगे" 

विभीषण की स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गयी थी वह समझ नही पा रहा था कि आखिर उसका बड़ा भाई उससे क्या कहना चाहता था, वह प्रश्नवाचक दृष्टि से रावण के मुख की ओर देखता रहा।

विभीषण की दशा देख कर रावण और गंभीर स्वर में बोलने लगा " यदि तुम चाहो अनुज तो हमारी जाति समूल नाश से बच सकती हैं, परंतु उसके लिए तुम्हे असह्य अपमान और सदियों का अपयश सहने का कष्ट उठाना पड़ेगा" 

रावण प्रश्नवाचक दृष्टि से विभीषण को देख रहा था मानो उसकी मनोदशा जानने का प्रयत्न कर रहा हो, विभीषण के चेहरे पर असमंजस और असहजता सहज दृष्टि गोचर थी। विभीषण की मनोदशा समझ कर लंकेश ने पुनः कहना प्रारंभ किया " अनुज तुम सदैव से ही धर्मनिष्ठ रहे हो, यह तो तुम्हारा भ्रातृप्रेम ही था कि तुम सब कुछ सहते हुये भी यहाँ रहे, लंका के स्वर्ण प्रासादों में भी तुम्हारा संयम कभी नही डिगा, इसलिए हे अनुज ! केवल तुम ही इस जाति के सम्पूर्ण नाश को रोक सकते हो। तुम शत्रु के यहाँ आने पर उनसे संधि करके उनके दल में सम्मिलित हो जाना।"

" परंतु संधि तो राजा करता हैं ज्येष्ठ" विभीषण बड़बडाया 

" यदि मैने संधि की तो ये जो अनाचारी मेरे राज्य में है वे सब बच जायेंगे और तब इस राज्य से अधर्म कभी नष्ट नही होगा" रावण गंभीर स्वर में बोला

" आप कहना क्या चाहते हैं भ्राता स्पष्ट कहिये " विभीषण के स्वर में अमर्ष था 

" यही विभीषण कि राज्य के सम्पूर्ण नाश को रोकने के लिए तुम्हे राजद्रोह करना होगा" रावण का स्वर हिमखण्ड की तरह शीतल था 

" यह असंभव हैं भ्राता श्री, आप चाहे तो मुझे मृत्यु दंड दे परंतु इस अपयश का भागीदार न बनायें" विभीषण क्रोध और ग्लानि से काँपने लगा 

" अरे पगले क्या तू यही चाहता है कि विश्रस्वा वंश सदैव के लिए समाप्त हो जाये ? अनुज इस जाति और राज्य को बचाने का साथ ही इस धरती से अधर्म को मिटाने का अन्य कोई मार्ग नही है" "क्या तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता के लिए इतना भी नही कर सकते ?" दशग्रीव भावपूर्ण दृष्टि से विभीषण को देखने लगा

विभीषण ने कातर स्वर में कहा " जीवन माँग लीजिए महाराज परंतु इस पातक का भागी मत बनाइये संसार क्या कहेगा? क्या कोई अन्य मार्ग नही है ज्येष्ठ "

दशग्रीव यह सुनकर असहज हो गया, अश्रुपूर्ण नेत्रों से अनुज को निहारते हुये स्वयं को संभालते हुए बोला " धर्म की स्थापना का कोई अन्य मार्ग नही है अनुज, तुम्हे लंका के शासन की सम्पूर्ण जानकारी है, तुम प्रजारंजन भी कुशलता से कर सकोगे, तुमने वर्षों यहाँ का शासन संभाला हैं और एक धर्मनिष्ठ शासक ही लंका के सम्पूर्ण क्षय को रोक सकता हैं, धर्म बलिदान माँगता हैं अनुज, त्याग और तपस्या ही उसके साधन हैं। क्या तुम अपनी निर्दोष प्रजा के लिये, अपने कुल के लिये, लंका नगरी के लिये यह त्याग नही कर सकते ?" 

"परंतु मै ही क्यों महाराज ?" विभीषण का रोषपूर्ण शब्द गूँजा 

" वो इसलिए अनुज कि सम्पूर्ण लंका में तुम जैसा धर्मनिष्ठ कोई और नही" रावण विभीषण को एकटक देखे जा रहा था।

क्षोभ और क्रोध से विभीषण का सम्पूर्ण शरीर काँप रहा था, उस पर जब लंकेश ने उसका स्पर्श किया तो वह फूट पड़ा जैसे जल से युक्त सरिता की धार से कच्चे किनारे टूट जाते हैं| 

"यहहह अन्याय हैं भ्राता" विभीषण के नेत्रों से अश्रुधार बह रही थी 

लंकेश ने अपने अनुज को अपनी विशाल भुजाओं में भर लिया। दोनों के स्कंध एक दूसरे के अश्रु से पहरों भीगते रहे। रात्रि के चतुर्थ चरण बीत जाने तक वार्ता और विवादों का दौर चलता रहा अंततः गोपनीयता और स्नेह के पाश में बद्ध होकर अपने ज्येष्ठ भ्राता के आदेश को मान कर भारी मन से विभीषण राजप्रासाद से बाहर की ओर चल पड़े, लंकेश के मुख मंडल पर सम्पूर्ण जगत की शांति जैसा भाव था मानो त्रैलोक्य मिल गया हो परंतु......

विभीषण के मस्तिष्क में केवल एक शब्द गूँज रहा था " कुलद्रोही।" 



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