प्रभात मिश्र

Inspirational

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मेजर शैतान सिंह भाटी

मेजर शैतान सिंह भाटी

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1924 में जोधपुर रियासत के एक छोटे से गाँव में जन्म हुआ एक बहुत ही चंचल और नटखट बच्चे का, जिसका नाम रखा गया शैतान। बचपन से ही शैतान को सेना की वर्दी से बड़ा लगाव था। उनके पिता हेम सिंह भाटी जोधपुर रियासत की सेना में उच्च पद पर थे। जब भी पिता हेम सिंह घर पर होते शैतान उनकी वर्दी पहन कर पूरे घर में घूमा करते थे। सेना के प्रति उनके बचपन के इस लगाव ने प्रारंभ से उनके जीवन की दिशा तय कर दी थी। युवक शैतान सिंह को कर्तव्यपरायणता, अनुशासन एवम् वीरता उनके पिता से विरासत में मिली थी। युवा होते ही उनका चयन जोधपुर रियासत की सेना में हो गया। कालांतर में जब भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता मिली और जोधपुर रियासत का भारत में विलय हुआ तब 1949 में शैतान सिंह को भारतीय सेना की कुमाँयू सैन्यदल में साधिकार शामिल किया गया। नागा पहाड़ी और गोवा विलय के समय शैतान सिंह की वीरता एवम् सूझ बुझ ने अधिकारियों को बहुत प्रभावित किया। परिणाम स्वरूप जल्दी ही प्रोन्नत करके भारतीय सेना में मेजर बना दिया गया।

1962 का वर्ष था, मेजर शैतान सिंह भाटी अपनी प्लाटून के साथ अग्रेषित नियुक्ति पर लेह से बीस किलोमीटर आगे चुशूल में तैनात थे। उनके जिम्मे पैगांग झील से रेजांग दर्रे तक का इलाका था जिसे वह तीन चौकियों में बाँट कर यत्न पूर्वक उसकी रक्षा में तैनात थे। भारतीय सीमा पर चीन की आक्रामकता बढ़ती ही जा रही थी, जिससे आये दिन विभिन्न क्षेत्रों से सैन्य झड़पों की खबरें आती रहती थी। अन्तर्राष्ट्रीय खुफिया विभागों की सूचना के आधार पर चीन कभी भी भारत पर आक्रमण कर सकता था। परंतु भारतीय राजनैतिक नेतृत्व इन सभी सूचनाओं को नजरंदाज करके हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगा रहा था। दूसरी तरफ चीन घात लगाये सही अवसर की प्रतीक्षा में युद्ध के लिये आवश्यक साजो समान जुटा रहा था।

नवंबर 1962 ठंड का महीना था हिमालय के पहाड़ो पर बर्फ जमी हुयी थी, भारतीय सेना के वीर जवान बिना उचित साजो-समान के भी अपने बहादुर सेना नायक के नेतृत्व में सीमा पर डटी हुयी थी।

मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को तीस तीस की संख्या में बाँट कर रेजांग दर्रे, चुशूल और पैगांग झील की तीन अग्रिम चौकियों पर तैनात कर दिया था। स्वयं मेजर शैतान सिंह सभी चौकियों का निरीक्षण करते और बाकी के तीस सैनिकों को तीनों चौकियों के बीच रसद और अन्य सैन्य साजो समान पहुँचाने के लिये नियुक्त किया था। खराब मौसम और बर्फबारी ने चौकियों के बीच संवाद एवम् सामंजस्य को कठिन कर दिया था। सैन्य मुख्यालय से सम्पर्क एवम् सहायता मिलना भी कठिन हो गया था फिर भी सीमित राशन और सैन्य साजो समान के बीच भारत के वीर सपूत सीमा पर डटे हुये थे।

18 नवंबर 1962 की भोर का समय था, मेजर शैतान सिंह अपने तंबू में आराम कर रहे थे, तभी गश्ती दल की सूचना आती हैं कि सीमा के उस पार कुछ हलचल हो रही थी। मेजर शैतान सिंह को शायद इस बात का अंदाज़ा पहले से ही था इसलिए उन्होंने  तत्काल अपने आयुध भंडार की तरफ टहल लगा दी। सैन्य साजो समान की स्थिति से आश्वस्त होकर मेजर शैतान सिंह ने सैन्य मुख्यालय से सम्पर्क किया एवम् उन्हें वर्तमान स्थिति से अवगत करा दिया गया। मुख्यालय से आदेश मिला चौकियाँ छोड़कर पीछे हट जाने का , परंतु मेजर शैतान सिंह की धमनियों में एक क्षत्रिय का रक्त दौड़ रहा था, जीवित रहते युद्ध में पीठ दिखा कर वह अपनी माता को लज्जित नही कर सकते थे। फिर भी यह समय भावावेश में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का नही था, सेना की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सेना नायक की ही होती हैं , मेजर शैतान सिंह के सामने केवल दो ही रास्ते थे या तो वह मुख्यालय का आदेश मानकर पीछे हट जाते जैसा कि मुख्यालय ने स्पष्ट कर दिया था कि वह इस प्राण घातक ठंड और खराब मौसम में उनकी किसी भी तरह की मदद नही कर सकता था, दूसरा यह कि वह बिना अपने प्राणों की परवाह किये शत्रु को उपलब्ध संसाधनों के साथ जवाब देते। मेजर शैतान सिंह ने अपने लिये तो दूसरा रास्ता चुन लिया था परंतु वह अपने जवानों पर अपना मत थोपना नही चाहते थे। आनन फानन में सभी चौकियों से सम्पर्क स्थापित किया गया , मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को मुख्यालय के निर्णय से अवगत करा दिया। अपने जवानों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुये मेजर भाटी ने कहा - " मुख्यालय से हमें पीछे हटने का आदेश मिला हैं परंतु मै मेजर शैतान सिंह भाटी अपने जीते जी दुश्मनों को अपनी जमीन पर पैर नही रखने दूँगा, आप लोगों का निर्णय मै आप पर छोड़ता हूँ जिसे जाना हो वह चौकी छोड़कर जा सकता हैं"। अपने सेना नायक का निर्णय सुनने के बाद उनके सभी जवानों ने अपने मेजर के साथ ही लड़ने का निर्णय लिया। चीन के अत्याधुनिक हथियारों और युद्ध की तैयारी के साजो समानों के सम्मुख खड़े थे भारत के वीर सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सेवानिवृत कर दी गई थ्री नाट थ्री बंदूकों और सीमित सामाग्री के साथ, जिनका नेतृत्व कर रहे थे जोधपुर के शेर मेजर शैतान सिंह भाटी।

सूर्योदय के साथ ही तीनों चौकियों पर एक साथ ही चीनियों ने हमला कर दिया। टिड्डी दल की तरह चीनी  तीनों चौकियों पर टूट पड़े, मेजर शैतान सिंह तीनों चौकियों के बीच घूम घूम कर अपने जवानों का उत्साह बढ़ा रहे थे। चीनी कुत्तों का सामना भारतीय शेरों से था, अपने अदम्य साहस और पराक्रम से भारत के वीर जवानों ने मेजर शैतान सिंह भाटी के नेतृत्व में चीनियों के हमले को नाकाम कर दिया। मेजर शैतान सिंह भाटी की अद्भुत नेतृत्व क्षमता और सामरिक रणनीति के सामने सभी चीनी हथकंडे धरे के धरे रह गये। मेजर भाटी के जवान चीन के हर हमले को नाकाम कर रहे थे, सामने से आक्रमण करके चीनियों को तीन बार नाकामयाबी हाथ लगी। भारतीय सेना ने विश्व द्वारा त्याग दी गयी राइफल से चीन की आधुनिक बंदूकों को चुप करा दिया था। 

यह मेजर भाटी की नेतृत्व क्षमता ही थी कि भारत के एक सौ बीस जवानों ने चीन की तीन हजार की सेना को भारतीय सीमा में घुसने से रोक दिया था। जब सामने से आक्रमण करने पर चीनियों की दाल नही गली तो उन्होंने ने पीछे से हमला करके तीनों चौकियों को घेर लिया। मेजर भाटी की सेना के पास बस चार सौ राउन्ड की गोलियाँ और कुछ हथगोले बचे हुये थे। भारतीय सैनिक पूरी बहादुरी से चीनियों का मुकाबला कर रहे थे, मेजर भाटी खुद तीनों चौकियों पर घूम घूम के अपने जवानों का हौसला बढ़ा रहे थे। असलहा खत्म होने पर भारतीय सैनिक चाकू लेकर चीनियों से भिड़ गये। इधर एक चौकी से दूसरी चौकी पर जाते हुये मेजर भाटी को भी गोलियाँ लग गयी थी जिससे वो बुरी तरह घायल हो गये। उनके साथ के दो सिपाही उन्हें किसी तरह खीँच कर एक चट्टान के पीछे लेकर गये, वो उन्हें नीचे ले जाना चाहते थे परंतु जीवित रहते मेजर भाटी को युद्ध भूमि छोड़ना मंजूर नही था। उन्होंने अपने दोनों सिपाहियों को आदेश दिया कि उन्हें एक मशीन गन लाकर दी जाये। गोली लगने से हाथ घायल हो जाने के कारण मेजर भाटी पैरों में पट्टे के सहारे बंदूक को चलाने की तैयारी कर दुश्मन का मुकाबला करने के लिये वही रुक गये और दोनो सिपाहियों को मुख्यालय तक संदेश पहुँचाने के लिये नीचे भेज दिया।

भारत के एक सौ बीस वीर सपूत अपने वीर सेना नायक के साथ रण भूमि में शहीद हो गये परंतु चीन के अठ्ठारह सौ सैनिकों को भी मौत की नींद सुला गये। 20 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा हो गयी। बर्फ पिघलने के बाद जब भारतीय सेना और रेड क्रास सोसाइटी ने तलाश प्रारंभ की तो मेजर शैतान सिंह का शरीर उसी चट्टान के पीछे दुश्मनों पर घात लगायी मुद्रा में बैठा मिला, बंदूक का मुँह दुश्मनों की ओर किये हुये। 

मेजर शैतान सिंह ने विपरीत परिस्थितियों में भी जिस तरह से अपनी सेना का नेतृत्व किया, अपने जवानों का उत्साहवर्धन किया और दुश्मन के इरादों को नाकाम करते हुये सर्वोच्च बलिदान दिया, इसके लिये मेजर शैतान सिंह भाटी को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर शैतान सिंह भाटी वीरता की ऐसी मिसाल हैं जिसे भारत सदैव स्मरण रखेगा। 


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