प्रभात मिश्र

Inspirational

4.2  

प्रभात मिश्र

Inspirational

विषयांतर

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दिग्विजय एक मध्यमवर्गीय परिवार का मस्तमौला परंतु कुशाग्र बुद्धि बालक था, तथापि एकल संतान को मिलने वाले लाड़ प्यार ने उसे दीर्घसूत्री बना दिया, माँ के स्नेह से अभिसंचित वह अपने सामान्य कार्यों के लिये भी माँ के ही ऊपर निर्भर था। उसकी कुशाग्र बुद्धि उसे विद्यालय में जहाँ शिक्षकों का स्नेहभाजक बनाती थी वही उसकी उदारमना स्थिति उसे मित्रों का प्रिय। उसका जीवन माता पिता की स्नेहिल छाया और मित्रों की संगति में आसानी से व्यतीत हो रहा था, जब तक की उसके जीवन में प्रतिभा नही आ गयी। प्रतिभा उसकी सहपाठी थी, परंतु उस सामान्य सी दिखने वाली लड़की में पता नही क्या जादू था कि दिग्विजय उसकी तरफ आकर्षित होता चला गया।


एकल संतान होने के यदि लाभ हैं तो उसके कुछ नुकसान भी है, जहाँ एकल संतान को माता पिता के ध्यानाकर्षण के लिये कोई विशेष प्रयास नही करना पड़ता और वह उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हैं, वही एकल किशोर के पास साझा करने और मार्गदर्शन हेतु किसी समव्यस्क का सर्वथा अभाव होता हैं जिससे वह लोक व्यवहार के लिये अपने मित्रों से मिलने वाली अधकचरा जानकारी पर ही निर्भर करता हैं। यह स्थिति भयावह हो सकती हैं जिसकी भयावहता पारिवारिक परिवेश के अनुसार कम या ज्यादा हो सकती हैं।


दिग्विजय के साथ भी यही स्थिति बनी हुयी थी , किशोरावस्था, शरीर में उछलकूद मचाते रसायनों ने उसे प्रतिभा की तरफ इस कदर आकृष्ट कर दिया कि वह अपने मित्रों से भी कटा कटा रहने लगा, कमोवेश यही स्थिति प्रतिभा की भी थी , दोनों एक ही वय के जो ठहरे। पढ़ाई लिखाई से प्रारंभ हुयी दोनो की दूरभाष वार्तायें, परिजनों की अनुपस्थिति में भविष्य की योजनाओं तक पँहुचने लगी थी। दिग्विजय के अधिकतर कार्यों का केन्द्र बिंदु प्रतिभा ही रहने लगी थी वह घर से बाहर भी निकलता तो केवल प्रतिभा को देखने के लिये ही। दोनों यद्यपि अलग अलग मोहल्लों में रहा करते थे फिर भी उनकी आपसी समझ इतनी अच्छी थी कि वो अक्सर एक दूसरे से बाजार या अन्य जगहों पर मिल ही जाते , कभी प्रतिभा दिग्विजय के पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली के यहाँ आ जाती, तो ज्यादातर दिग्विजय ही उसके मोहल्ले में अपने मित्रों से मिलने या क्रिकेट खेलने चला जाता। हाँलाकि दोनों दूरभाष पर घंटो बातचीत करते रहते पर सामाजिक संकोच के कारण कभी सामाजिक स्थलों पर उनके बीच कभी शब्दों का आदान प्रदान नही होता। यह क्रम दोनों के माध्यमिक उत्तीर्ण करने तक चलता रहा , प्रतिभा दिग्विजय के लिये उसके अन्य किसी भी मित्र से विशेष थी यह बात उसके व्यवहार में परिलक्षित तो होती थी पर वह इसे कोई विशेष नाम नही दे रहा था , शायद उसका संकोच उसे ऐसा करने से रोक रहा था। 

प्रतिभा यूँ तो एक बृहद् परिवार से संबंधित थी, दो बहनें एक छोटा भाई माता पिता , भरा पूरा परिवार होने के बाद भी, दिग्विजय द्वारा दी जाने वाली महत्ता और विशेष होने की अनुभूति , उसे दिग्विजय की तरफ आकृष्ट करती ही जा रही थी, तब भी जब कि उसे दिग्विजय की ताना मारने और सामाजिक रुप से स्नेह प्रदर्शित न करने की आदत बिल्कुल भी पंसद नही थी। 

अलग अलग धाराओं में होने के बाद भी दोनों के संवाद दूरभाष पर चलते रहे, विशेष अवसरों पर दोनों में उपहारों का आदान प्रदान उनके संबंध को प्रगाढ़ कर रहा था जब तक कि दोनों को अपनी उच्च शिक्षा के लिये अपना शहर नही छोड़ना पड़ा। अलग अलग शहरों में रह कर भी दोनों एक दूसरे से दूरभाष संपर्क में थे हाँलाकि उनकी आवृत्ति अब पहले जैसी नही थी, फिर भी जब दोनों बाते करने लगते तो घंटो तक बाते करते रह जाते। दिग्विजय प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी कर रहा था जबकि प्रतिभा ने अभियंत्रिकी में प्रवेश ले लिया था। सब कुछ ठीक ही चल रहा था उनके मध्य जब तक प्रतिभा ने दिग्विजय को अपने रिश्ते को कोई नाम देने के लिये प्रेरित नही किया।


अंधा क्या माँगे , दो आँखे, दिग्विजय के लिये प्रतिभा सदैव से ही विशेष थी, यह तो उसे खो देने का भय ही था जिसके कारण वह प्रतिभा को यह कहने का कभी साहस नही कर पाया था , परंतु जब प्रतिभा ने स्वयं ही उससे यह पूछ लिया तो वह अपने को रोक भी नही पाया। स्वीकारोक्ति ने उनके रिश्ते को नये आयाम दे दिये थे अब दिग्विजय मौका मिलने पर प्रतिभा के शहर भी चला जाता दोनों दिनभर साथ में इधर ऊधर घूमते और संध्या से पहले ही वह प्रतिभा को छात्रावास पॕहुचाकर स्वयं वापस अपने शहर की तरफ निकल जाता। इस नये बंधन ने दिग्विजय को ज्यादा ही संजीदा कर दिया था, भविष्य की चिंता में वह अपने स्वप्न से अधिक किसी उपयुक्त नौकरी के प्रयास में लग गया। नयी आँकाक्षाओं और आनन्दित भविष्य की दिग्विजय की यह प्रसन्नता बहुत समय तक नही ठीक पायी, जिस प्रतिभा के लिये उसने अपने स्वप्न को तिलांजलि दे दी उसी ने बिना कुछ कहे बिना कुछ सोचे दिग्विजय को छोड़ दिया था।

एक ही झटके में दिग्विजय के सारे सपने, सारे अरमान धराशायी हो गये थे, एक फोन ही था जो दिग्विजय को प्रतिभा से जोड़ता था, पर उसका उठना या बात हो पाना दिग्विजय के हाथ में नही था। जब कभी भी उसे समय मिलता वह प्रतिभा का नंबर मिला कर उससे संपर्क करने का प्रयास करता, जब इस तरह से वह संपर्क करने में सफल नही हुआ तो वह उसके छात्रावास तक उससे मिलने गया, परंतु मिलना तो दूर प्रतिभा दरवाजे तक नही आयी| इस सीमा की उपेक्षा ने उसके आत्मविश्वास को रौंद कर रख दिया, फिर भी इस आशा में कि प्रतिभा इतनी क्रूर नही हो सकती वह वही दिन ढ़लने तक उसके छात्रावास के बाहर ही खड़ा रहा पंरतु प्रतिभा को नही आना था और वह नही ही आयी।

जिसने अपने जीवन में सदैव स्नेह और सत्कार देखा हो उससे ऐसा व्यवहार , ऐसी उपेक्षा इस घटना ने दिग्विजय को अंदर तक हिला दिया था। व्यवसायिक परिवर्तन जो उसका अपना निर्णय था उससे भी उसे अरुचि हो आयी थी, उसे लग रहा था शायद यह ही एक कारण था जिसके कारण उसकी यह दुर्गति हो रही थी , एकाकीपन और तनाव में वह विक्षिप्त सा हो गया था, यदि वह किसी से कह लेता तो शायद वह हल्का हो जाता परंतु संपत्ति की ही भाँति उसके दुःख को भी बाँटने के लिए कोई नही था।

पिता जी तो अनुशासन की साक्षात प्रतिमूर्ति ही थे उनसे कुछ कहने का अर्थ था अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना और माँ उन्होंने ने तो बहुत पहले ही मना कर दिया था जब प्रतिभा का पत्र उनके हाथ लग गया था , परंतु उनकी बात की अवहेलना करके वह प्रतिभा से बात करता रहा था। उसे लग रहा था कि यह सब उनकी बात न मानने का ही परिणाम था जो उसे इस विश्वासघात के रुप में झेलना पड़ रहा था, अतः माँ से भी वह इस बारे में बात नही कर सकता था। प्रतिभा के आने के बाद से ही उसका मित्रों में उठना बैठना लगभग नगण्य ही हो गया था इसलिए मित्र मंड़ली में भी इस बात पर विमर्श नही किया जा सकता था अन्यथा वे इसका हल कम बताते और प्रतिभा की सामाजिक प्रतिष्ठा को हानि ज्यादा पँहुचाते।

नतीजन दिग्विजय अपने शोक समुद्र में बिल्कुल अकेला था, उसे जैसे जीवन में ही रुचि नही रह गयी थी, यदि उसके ऊपर माता पिता की जिम्मेदारी नही रही होती या उसको इसका एहसास नही रहा होता तो कदाचित उसने अपना प्राणांत कर दिया होता। वह बस दिन काट रहा था निराशा के चक्रव्यूह में फँसा हुआ दिग्विजय कब सिगरेट और शराब पीने लगा 

यह तो शायद उसे खुद भी स्मरण नही रहा होगा , उसके जीवन में जैसे कोई उद्देश्य ही नही रह गया हो।


परंतु ईश्वर जिसे बचाना चाहता है वह उसके लिये कोई न कोई मार्ग अवश्य निकाल लेता है, ऐसे ही देवदूत बन कर दिग्विजय के जीवन में आगमन हुआ उसके प्रोफेसर द्विवेदी का, कक्षा में बैठकर भी कक्षा से अनुपस्थित दिग्विजय की मानसिक स्थिति समझने में द्विवेदी जी को ज्यादा समय नही लगा। अपने में खोया हुआ, उलझा उलझा सा परंतु शिष्ट दिग्विजय द्विवेदी जी की नजरों से छुप नही सका। उसकी गतिविधियों पर ध्यान से देखने बाद द्विवेदी जी ने दिग्विजय की रुचियों की पड़ताल करनी प्रारंभ की, वे उसे ज्यादा से ज्यादा समय कामों में व्यस्त रखने का प्रयास करने लगे, दिग्विजय भी एक आज्ञाकारी बालक की तरह उनके सभी आदेश तो मानता परंतु कार्य निष्पादित होते ही वह पुनः अपने दायरे में सिमट जाता। द्विवेदी जी की अनुभवी आँखे समझ गयी थी कि मामला बहुत गंभीर था और यदि तत्काल कुछ नही किया गया तो बात बिगड़ जायेगी, ऐसे में उन्होंने ने दिग्विजय को अपने कार्य के लिये श्रीमद्भागवत पढ़ने और नोट्स बनाने का आदेश दिया। द्विवेदी जी जानते थे कि दिग्विजय उनके आदेश को नही टालेगा परंतु वह यह भी जानते थे कि वह मर जायेगा पर अपनी समस्या उनसे कभी साझा नही करेगा। गुरु अपने शिष्य की सर्वोत्तम मदद करने पर उतर आया था, उसने अपने शिष्य को वह मित्र दे दिया था जिसके रहने पर उसके शिष्य को पुनः किसी व्यक्ति की आवश्यकता नही पड़ती।

प्रारंभिक कुछ कठिनाइयों के बाद दिग्विजय का मन स्वतः ही पुस्तक से जुड़ गया था, भागवत पढ़ते पढ़ते ही उर्वशी पुरुर्रवा संवाद से उसे ज्ञात हुआ कि वह संसार का पहला ऐसा व्यक्ति नही था जिसके साथ यह धोखा हुआ और न ही वह आखिरी व्यक्ति होने वाला था। जिन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिये वह प्रतिभा और उसके शहर के चक्कर काट रहा था वस्तुतः उन सभी प्रश्नों के उत्तर भागवत मे उसे मिल गये।

उसका चकनाचूर हुआ आत्मविश्वास वापस आ गया था द्विवेदी जी अपने शिष्य में हो रहे बदलाव स्पष्टतः अनुभव कर सकते थे। अपने में ही उलझे रहने वाले अपने शिष्य को सभी बंधनों से मुक्त एक ओजस्वी वक़्ता और विभिन्न गतिविधियों में भाग लेता देख कर वह फूले नही समा रहे थे , मानो मन ही मन वह कह रहे हो "पुस्तके संसार की सबसे अच्छी मित्र होती हैं" 

दिग्विजय वहाँ से अपनी शिक्षा पूरी करके एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी करने चला गया परंतु द्विवेदी जी और उनकी दी गयी सीख को कभी नही भूला।


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