डा• पंडित
डा• पंडित
राजनीतिक ऊथल पुथल ने विद्या और बौद्धों के राज्य बिहार को अशिक्षा और अशांति का केन्द्र बना दिया था। सरकारों की कमजोर इच्छा शक्ति, भौगोलिक स्थिति, और सामंतवादी सोच के कारण बिहार असंवैधानिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया था। तात्कालिक बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि लोग उसके लिये जंगलराज की उपमा देने लगे थे। प्राकृतिक संसाधनों से संयुक्त और दोआब की भूमि होने के बाद भी बिहार की जनता गरीबी के निम्नतम् स्तर पर जीवन यापन कर रही थी। गरीबी और अशिक्षा ने बिहार के युवाओं को अपराधिक गतिविधियों की तरफ मोड़ दिया था। सामंती सोच के कारण नक्सलवादियों को फलने फूलने का जहाँ भरपूर अवसर मिल रहा था वही लचर कानून व्यवस्था ने अन्य अपराधियों को पनपने के लिये उचित माहौल बना दिया था। चार राज्यों से लगने वाली सीमा और उत्तर में नेपाल से लगती सीमा के कारण बिहार अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की स्वभाविक शरणस्थली सी बन गयी थी। उद्योग धंधे अपराधिक गतिविधियों की भेंट चढ़ चुके थे या फिर उन्हीं के संरक्षण में चल रहे थे, अपराधियों के संरक्षक अमीर और अमीर होते जा रहे थे जबकि गरीब और गरीब हो रहे थे। सत्ता और अपराधिक शक्ति के सम्मिलन ने एक ऐसा मिश्रण बना दिया था जनता दमित जीवन यापन या पलायन करने को मजबूर हो गयी थी।
ऐसे ही परिस्थितियों के बीच 5जून 1985 को बिहार के बड़हिया गाँव में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म हुआ डाक्टर पंडित का। पूर्व में गंगा का विस्तृत मैदान और पश्चिम में गंगा की सहायक नदी हरोहर के मैदान के बीच स्थिति बड़हिया कभी ज्ञान और शक्ति के केन्द्र के रुप में विख्यात था। बड़हिया के लोग शक्ति के उपासक और बड़े हृदय वाले ( बड़ = बड़ा, हिया= हृदय) बहादुर प्रवृत्ति के होते हैं इसलिए ही उसका नाम बड़हिया रखा गया था। बड़हिया जो छोटी अयोध्या के नाम से प्रसिद्ध था, जिसे माँ जगदम्बा के भव्य मंदिर के कारण शक्ति पीठ के रुप में विख्यात था, 90 का दशक आते आते अपराधियों की शरणस्थली बन गया था। अपहरण उद्योग की शरण स्थली के लिये बड़हिया की भौगोलिक स्थिति सर्वथा अनुकूल थी। दोनों तरफ गंगा और हरोहर के विस्तृत मैदान एवम् विस्तृत वन क्षेत्र छिपने और भागने के लिए उपयुक्त थे। अपनी वीरता के लिये प्रसिद्ध बड़हिया के लोग जिन्होंने अपने पराक्रम और वीरता से, अस्पृश्यता का अंत करने वाले महात्मा गांधी के आंदोलन में, सबके विरोध के बाद भी उनका प्रवेश वैजनाथ धाम में करवा दिया था , जब अपराध जगत में उतरे तो उनके नाम की तूती पूरे बिहार में बज रही थी।
पंडित के पिता जी गाँव के ही एक साहूकार के यहाँ मुनीम का कार्य करते थे, अपने संकोची, ईमानदार एवम् सरल स्वभाव के कारण वह कभी भी अपने मालिक से उचित पारिश्रमिक तक नही माँग पाते थे , जिसके फलस्वरूप घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नही थी। फिर भी खेती-बाड़ी और सीमित आवश्यकताओं के कारण जैसे तैसे गृह खर्च चल जाया करता था। पंडित का घर बड़हिया गाँव से बाहर जंगल से कुछ ही दूरी पर स्थित था, इस कारण अपराधी जब तब ऊधर दिखाई पड़ ही जाते थे। इस कारण बाल्यावस्था में पंडित के पिता जी ने उसकी बेहतर शिक्षा दीक्षा और सुरक्षा के उद्देश्य से उन्हें, अपने बड़े भाई जो विद्युत विभाग में अच्छे पद पर कार्यरत थे , वाराणसी भेज दिया। जिस संघर्ष से बचाने के लिये उनके पिता ने यह निर्णय लिया था वस्तुतः वह तो पंडित के वाराणसी आने के साथ ही प्रारंभ हो गया।
पंडित के प्रति उनके ताई जी का व्यवहार बिल्कुल भी सौहार्द पूर्ण नही था| खान-पान, रहन-सहन में होने वाले अंतर को पंडित का बाल मन सहज ही महसूस कर सकता था। पाँच वर्ष की वय के अबोध बच्चें को अपने साथ हो रहे विभेद के कारण का कुछ भी पता नही था। ताऊ जी स्वयं दिन भर घर से बाहर रहते थे जिससे उन्हें इस बारे में संभवतः कुछ भी ज्ञात नहीं था। परंतु परिवार के बाकी सदस्यों का भी व्यवहार पंडित के साथ कमोबेश ताई जी जैसा ही था, बात बात पर झिड़क देना, मार देना यह सब तो जैसे आम बात थी। जिस शिक्षा के प्रलोभन में पंडित के पिता जी ने उसे यहाँ भेजा था उसकी भी बस खानापूर्ति के लिये समीप की प्राथमिक पाठशाला में पंडित का नाम दर्ज करवा दिया गया था। सरकारी पाठशाला की पढ़ाई और घरवालों के दुर्व्यवहार भी पंडित की प्रतिभा को रोक नही सके। पंडित के समक्ष ही उनके चचेरे भाई बहनों को हर प्रकार की सुविधा और विभिन्न प्रकार के व्यंजन खिलाये जाते और उसे बासी परोस दिया जाता। इन सब बातों का उसके बाल मन पर बहुत गंहरा असर हुआ जिसने उसे अन्तर्मुखी बना दिया। घर के सारे काम करते हुये और बिना किसी बाह्य सहयोग के पंडित ने सेन्ट्रल हिन्दू विद्यालय की कक्षा छः की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की यह उसकी मेधा शक्ति का पहला परिचय था।
घर के अंदर और बाहर पंडित का संघर्ष इसके बाद भी चलता ही रहा। जहाँ पंडित के साथ के ही बच्चों को हर प्रकार की सुविधायें उपलब्ध थी पंडित अपने घर से दो किलोमीटर पैदल चल कर विद्यालय जाते थे। कालांतर में जब ताऊ जी किराये के मकान से निकल कर अपने मकान में आ गये तब पंडित को चचेरे भैया की निष्प्रयोज्य साईकिल विद्यालय आने जाने के लिये दे दी गयी , यह ही साईकिल अंतिम शैक्षणिक दिवस तक पंडित का वाहन बनी रही।
कक्षा छः के पाठ्यक्रम में टाम सायर की कहानी से पंडित इतने प्रभावित थे कि वह अपनी ताई जी को आँट पाली के कूट नाम से पुकारते थे मानो वह स्वयं टाँम हो और वह उन्हें के जीवन की कथा हो। पंडित ने कक्षा दस तक के शैक्षणिक जीवन में शायद ही कभी नयी पुस्तकें खरीदी हो। हमेशा अपने पूर्ववर्ती छात्रों से माँगकर या आधे मूल्य पर उनकी किताबें खरीदकर वह अपनी शिक्षा को जारी रखे हुये था, वह किसी को यह मौका नही देना चाहता था जिससे कि उसकी शिक्षा में अवरोध उत्पन्न हो। उपलब्ध संसाधनों से दसवीं तक की शिक्षा तो संभव थी परंतु केवल राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद की पुस्तकों के सहारे ग्यारहवी और बारहवी की परीक्षायें वह भी गणितीय विज्ञान वर्ग की उत्तीर्ण कर पाना कठिन था , लिहाज़ा पुस्तकों के लिये धन माँगना ही पड़ गया, पहले कुछ दिन तो टालमटोल का सामना करना पड़ा फिर जब पंडित नही माने तो झिड़कते हुये किसी तरह तीन में से एक पुस्तक के लिये धन दिया गया। इस घटना ने पंडित के आत्मसम्मान को बुरी तरह से झकझोर दिया। बारहवीं के बाद जब सब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे पंडित को तैयारी तो दूर आवेदन तक करने के लिये धन उपलब्ध नही था। मन मार कर पंडित ने स्नातक में प्रवेश ले लिया , प्रतिदिन औसतन बीस किलोमीटर तक की साइकिल की यात्रा और समुचित पुस्तकों आदि का अभाव भी पंडित के मजबूत संकल्प को तोड़ नही सका। प्रथम श्रेणी में स्नातक करने के बाद पंडित ने प्रथम श्रेणी में ही भौतिक विज्ञान में परास्नातक किया। अपने जिज्ञासु स्वभाव और सतत सीखते रहने की इच्छा से वह अनुसंधान की ओर अग्रसर हुये। पंडित को भारत के प्रख्यात विश्व विद्यालय में नाभिकीय भौतिक विज्ञान में अनुसंधान के लिये चयनित किया गया यह निश्चित ही उसकी योग्यता के अनुरुप स्थान था। अब जब लग रहा था कि अब स्थितियां सुधरेगी तभी पंडित जी को संसार के सबसे घिनौने सच से परिचित होना पड़ा। पंडित स्वभाव से सरल, अपने काम से काम रखने वाले व्यक्ति थे, उन्हें लोक व्यवहार का बहुत अनुभव भी नही था। वह समझता कि यदि वह अपना काम पूरी तन्मयता लगन और पारदर्शिता से करेगा तो उसे इसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। लेकिन संसार इस तरह तो चलता नही
"सच है विजय के लिये केवल नही बल चाहिए
कुछ बुद्धि का भी घात कुछ छल छद्म कौशल चाहिए "
पंडित जी सरल जीव थे वो इस बात को नही समझ सके। उनकी प्रयोगशाला के लोग जो काम कम करते थे दिखावा ज्यादा करते थे, उनके मार्गदर्शक को पंडित के विरुद्ध भड़काने लगे। चूँकि पंडित भी बस अपने काम से काम करते थे और अन्य लोगों की तरह चापलूसी करने की कला इन्हें नही आती थी, मार्गदर्शक प्रोफेसर सिहं की नजर में खटकने लगे।
प्रोफेसर सिंह ने पंडित को हासिये पर धकेलना प्रारंभ कर दिया, वह अब अपने घरेलु कामों के लिये पंडित को दौड़ाने लगा था। परंतु सरलमना पंडित इसे भी गुरु आज्ञा मानकर शिरोधार्य कर कुशलता पूर्वक उनका भी निर्वहन कर देते। इससे भी जब प्रोफेसर सिंह का मन नही भरा तो उसने पंडित द्वारा किये गये कामों को दूसरों के नाम से प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया एवम् पंडित को दूसरे अनावश्यक कार्यों में लगाना प्रारंभ कर दिया जैसे उपकरणों का समायोजन, मरंमत आदि। निश्छल हृदय पंडित गुरु की आज्ञा से जो भी कार्य होता उसे पूरी लगन से सम्पन्न कराते। इन सबसे भी जब प्रोफेसर सिंह को संतोष नही हुआ तो उसने पंडित के शोधग्रंथ की समीक्षा को लंबित करना प्रारंभ कर दिया। इस घटना से पंडित जी थोड़े विचलित अवश्य हुये परंतु तब तक उन्हें प्रोफेसर सिंह के छल का कुछ भी ज्ञान नही था। दो बार छ मासिक प्रसार अवधि बीतने के बाद भी जब प्रोफेसर सिंह पंडित के शोधग्रंथ की समीक्षा में आनाकानी करने लगा तब पंडित जी को कुछ कुछ उसके इरादों के बारे में संदेह होने लगा। विभागाध्यक्ष के हस्तक्षेप से किसी तरह पंडित की मौखिक परीक्षा तो संपन्न हो गयी , उसके उपरान्त शोध कार्य को सुचारु रुप से चलाने के लिये उन्हें प्रोफेसर सिंह के अनुशंसा की आवश्यकता थी। प्रोफेसर सिंह ने नाभिकीय भौतिकी के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों में अपने चाटुकार शिष्यों की अनुशंसा कर दी थी पंरतु पंडित जी की संस्तुति नही की। इस बात से पंडित बहुत निराश हुआ उसने बिना प्रोफेसर सिंह की संस्तुति के ही अपने लिये शोध संस्थानों में प्रयास करना प्रारंभ कर दिया और इस कार्य में उसकी सहायता की उपकरणों की बिक्री करने वाले प्रतिष्ठान की स्वामिनी ने, वह पंडित के व्यवहार एवम् ज्ञान से बहुत प्रभावित थी विगत सात वर्षों में वह अनेक बार पंडित को अपने प्रतिष्ठान में कार्य करने के लिये आमंत्रित भी कर चुकी थी परंतु हर बार पंडित बड़ी विनम्रता से उनका आग्रह टाल जाते थे। उपकरणों की बिक्री की वजह से उनके संबंध भारत के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों में थे, उनकी संस्तुति लेकर पंडित जी भारत के सर्वश्रेष्ठ संस्थान में भारतीय विज्ञान संस्थान में अपने शोध कार्य को जारी रखे। भारतीय विज्ञान संस्थान में किये हुये उनके काम से प्रभावित होकर जापान की ओसाका विश्व विद्यालय ने न केवल उन्हें अपने यहाँ काम करने के लिये आमंत्रित किया अपितु उन्हें मानद शिक्षक का पद देकर सम्मानित भी
किया। प्रोफेसर सिंह के कुचक्र से निकलने के बाद पंडित की प्रतिभा निखरती ही चली गयी। वर्तमान में विश्व के सर्वाधिक मूल्यवान प्रयोग में स्विट्जरलैंड के सर्न और इटली के त्रिऐस्ते शहर में पंडित अपनी सेवा दे रहे हैं। विश्व के सभी गणमान्य नाभिकीय भौतिकी के विद्वान न केवल पंडित जी को जानते हैं अपितु उनके कार्य के प्रशंसक भी हैं। वर्तमान में नाभिकीय विज्ञान के जिस प्रयोग में पंडित अपना सहयोग दे रहे हैं उसका महत्व इस बात से ही समझा जा सकता हैं कि उस प्रयोग के एक दिन के खर्च में अफ्रीकी देशों की अर्थव्यस्था एक वर्ष तक चल सकती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कार्य क्षमता और तकनीकी दक्षता से उन्होंने भारतीय प्रतिभा का लोहा मनवाया हैं।
कौन सोच सकता था कि एक अतिसाधारण परिवार से आने वाला बालक, अपर्याप्त संसाधनों और अनुपयुक्त वातावरण के बाद भी केवल अपने परिश्रम लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वह स्थान प्राप्त कर लेगा जहाँ तक कुछ विरले मनुष्य ही पँहुच पाते है। पंडित का जीवन इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं कि यदि मनुष्य चाह ले तो कुछ भी असंभव नही हैं।
"खम ठोक ठेलता हैं जब नर
पर्वत के जाते पैर उखड़।|"
पंडित का जीवन एक मिशाल हैं कि यदि व्यक्ति का संकल्प अडिग है तो उसे सिद्धि मिलती ही मिलती हैं। परिस्थितियाँ कैसी भी हो वह संकल्पवान पुरुष के मार्ग में बाधायें उत्पन्न कर सकती हैं उसका मार्ग रोक नही सकती। मै उनके यशस्वी भविष्य की मंगलकामना करता हूँ।
