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प्रभात मिश्र

Classics

2  

प्रभात मिश्र

Classics

तम

तम

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द्वितीया का मनोरम चंद्रमा बादलों के साथ छुपाछुप्पी खेलता हुआ त्रिकूट गिरि के ऊपर खुले आकाश में विचरण कर रहा हैं, दिन भर के अभियानों से थके हुये विहग भी अपने नीड़ों में दुबके निद्रालीन हो रहे हैं, त्रिकूट की तलहटी से टकराती हुयी सागर की लहरों और जल मे छप छप करते मत्स्य समूहों के स्वर इस गहन निरवता में स्पष्ट सुने जा सकते हैं | स्वर्ण प्राचीरों पर खड़े प्रहरी भी निद्रा के प्रभाव में सुरक्षा दण्डों के सहारे खड़े खड़े ही सो रहे हैं, जो तनिक भी आहट होने पर पुनः सतर्क होकर अपने कार्य में लग जाते हैं, उक्षिष्ण में प्राप्त विविध व्यंजनों का भोग कर स्वान भी इधर ऊधर समूहों में निद्रालीन हैं | भव्यता में अलकापुरी को लज्जित करने वाली स्वर्ण नगरी में राग रंग में डूबी प्रजा इस समय अपने सुख शय्या पर सोई हुयी है , परंतु स्वर्णमय भव्य प्रासाद के परकोटे पर खड़ा अकारण ही चारों दिशाओं में देखता हुआ कभी अपनी हथेलियों मलता हुआ तो कभी दोनों हाथों को पीछे बाँधकर परकोटे पर चहल कदमी करता हुआ इस परम प्रसिद्ध नगरी का चक्रवर्ती सम्राट दशानन निद्राहीन और चिंतातुर दिखाई पड़ रहा, जिसके नाम के भय से देव, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर इन सभी के ललाट पर चिंता की रेखायें उभर आती हो, वह वीर रात्रि के तीसरे पहर में निद्रा हीन इधर ऊधर घूम रहा हैं, यह कोई साधारण घटना नही हैं | अपने भव्य कक्ष उससे संलग्न परकोटे पर भ्रमण करते हुए लंकेश की दृष्टि सम्मुख शय्या पर निद्रालीन अपनी अनिग्ध सुन्दरी पत्नी रक्षकुल महिषी के चेहरे पर बारंबार ठहर जा रही है| कितनी निर्दोष, निश्छल, निर्विकार, शिशु की भाँति प्रतीत हो रही हैं वह | उसकी धवल चंद्रिका सदृश शुभ्र लावण्यमयी काया स्वप्न में भी पुलकित होती जान पड़ रही | मौलीश्री व देवदार के सुगंध से अभिसिंचित पवन स्वर्ण प्रासाद के गवाक्षों से भ्रमण करती हुयी उसकी अलकों में ही उलझ कर उनसे क्रीड़ा करती प्रतीत हो रही हैं | आज अपनी भार्या को देखकर दसकंठ बरबस ही मुग्ध हुआ जा रहा हैं, विगत कई वर्षों की स्मृतियां उमड़ घुमड़ कर उसके मनमस्तिष्क पर क्रमवार आती ही जा रही हैं | ऐसा लगता हैं मानो अभी कल की ही बात हो जब वह पहली बार अपने पिता मय दानव के साथ लंका के राज प्रासाद में प्रथम बार आयी थी, सकुचायी, सहमी सहमी सी अपने पिता की छाया में ही छुप जाने का प्रयास करती हुयी तरुणी, अपने चंचल नयनों से इधर ऊधर देखती हुयी भयाक्रांत व विस्मित , मै तो प्रथम दृष्टि में ही उस पर हृदय हार गया था, वह आज भी उस समय की ही भाँति निश्छल हैं | लंका के भव्य प्रासाद और यहाँ के विभिन्न प्रलोभन व गतिविधियाँ मिलकर भी उसकी निर्दोषता का हरण नही कर सके | आनन फानन में जब हमारा विवाह नियत हुआ तो पाणिग्रहण के समय उसके हाथों के वो कंपंन मुझे कैसे विस्मृत हो सकते हैं, मृग शाविका सी भयभीत हो रही थी वह, कितने वचन दिये थे उसे सामान्य करने के लिये मैने तब कही जाकर आश्वस्त हुयी थी | परंतु उनमें से एक का भी निर्वहन नही कर सका मै, आज मेरी प्रियतमा मेरे ही सम्मुख विलाप करती करती थक कर सो गयी परंतु मै उसे ढ़ाढ़स तक नही बंधा सका | रुदन से उसके अंजन बह कर कपोलों पर फैल गये हैं, अश्रु मार्गों को चिन्हित कराते हुये | उस तरुणी से इस प्रौढ़ा तक, दसकंठ भार्या से राजकुल महिषी तक सभी कर्तव्यों को कितने व्यवस्थित ढ़ग से निभाती आ रही हैं ये | मेरे सभी दोषों और अवगुणों के साथ स्वीकार किया मुझे इसने परंतु कभी किसी वस्तु की इच्छा नही की स्वयं के लिये और आज यदि कुछ माँगा भी तो बस मेरे ही कल्याण के लिये परंतु मै उसे वह भी नही दे सका, हे हतभागिणी ! मैने कामोन्माद में भले ही ब्रह्मांड की श्रेष्ठतम् स्त्रियों के साथ रमण किया हो परंतु जो शांति , शीतलता , निष्काम प्रेम मुझ लंकेश को तुमसे प्राप्त हुआ वह अन्य किसी से नही मिला | होने को लंका पुरी के मेरे अंतःपुर में निश्चय ही अनेको रानियाँ हैं परंतु मुझ लंकेश की हृदयस्वामिनी तो केवल तुम, मेरी मंदोदरी ही हो | हे प्राणेस्वरी ! मै संभवतः तुम्हारे संज्ञान में तुमसे यह कभी नही कह पाता परंतु यदि तुम इस संपूर्ण ब्रह्मांड में किसी भी अन्य वस्तु की आकाँक्षा कर लेती तो मै स्वयं उसे तुम्हारे चरणों में डाल देता | परंतु भद्रे ! तुमने याचना भी की तो किसकी उस संधि की जो संभव ही नही है | मै समझता हूँ कि तुम चिंतित हो मेरी सुरक्षा के लिये, इस नगर की सुरक्षा के लिये लेकिन हे कल्याणी ! तुम यह क्यों नही समझ रही कि यह संधि लंकेश रावण की श्री हरण कर लेगी और विश्व श्रीहत् पुरुष को मृतक तुल्य ही मानता है | मै तुम्हे समझाना चाहता हूँ परंतु समझा नही सकता कि हे प्रिये ! जिस रावण के अंतस पर छाये कलुष को महादेव की भक्ति नही धो सकी उसकी मुक्ति का यही एकमात्र उपाय हैं | यह संपूर्ण खेल रचा ही केवल इसलिए गया है कि मै इस तम् से मुक्त हो सकूँ | तुम्हे कैसे समझाऊँ कि वह धर्मभीरु विभीषण सत्य कह रहा था यह मै जानता हूँ एवम् इस कारण ही प्रहस्त व इंद्रजीत के विरोध के उपरांत भी मैने उसे जीवित छोड़ दिया | हे सुभगे ! तुम्हारी चिंतायें निर्मूल नही है , मै जानता हूँ कि यदि यह युद्ध हुआ जो कि अवश्यंभावी हैं तो लंका के राजकुल का नाश हो जायेगा परंतु अपने इस तम  से मुक्ति का कोई अन्य उपाय मेरे पास नही है | अपनी निद्रालीन पत्नी से वार्तालाप करता हुआ लंकेश उसके पार्श्व में ही कब निद्रा मग्न हो गया इसका उसे भान तक नही हुआ |



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