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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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"सम्पूर्ण गुरुकुल" में हस्तिनापुर के राजकुमार ही विद्याध्ययन के लिए नहीं आये थे अपितु काशी, कोशल , विदेह, अंग, बंग , पाटलिपुत्र, ताम्रलिप्ति, प्रागज्योतिषपुर, मत्स्य, सिंधु, रोहटक, पंचनद, चेदि, वत्स, चोल, पाण्ड्य, आन्ध्र, अवंति, महिष्मति आदि राज्यों से सैकड़ों राजकुमार भी आये थे । इन समस्त राजकुमारों में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा सदैव चलती रहती थी । इस प्रतिस्पर्धा में याति या तो भाग लेता ही नहीं था या फिर वह जानबूझकर पराजित हो जाता था । उसमें विजय प्राप्त करने की कोई अभिलाषा नहीं थी । वह सदैव चिंतन मनन में लगा रहता था । 


एक दिन की बात है जब सम्पूर्णाचार्य समस्त राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखा रहे थे । एक उड़ते हुए पक्षी पर कैसे निशाना लगाते हैं, यह सिखा रहे थे । तब आचार्य ने याति के हाथ में एक धनुष और एक बाण पकड़ा दिया और उसके कंधे पर एक तरकस बांध दिया । तब आचार्य ने कहा 

"ऊपर आसमान में कुछ पक्षी उड़ रहे हैं । उनमें जो नीले रंग का पक्षी तीन पक्षियों में मध्य में उड़ रहा है, उस पर निशाना लगाइये" । 


याति ने आचार्य के आदेश पर धनुष हाथ में पकड़ा और एक नजर उसके ऊपर उड़ते हुए पक्षियों पर डाली । वह उन्हें कुछ देर देखता रहा और फिर उसने अपने हाथ में पकड़े हुए धनुष को उतार कर ययाति को पकड़ा दिया । सम्पूर्णाचार्य याति के इस कृत्य को देखकर अवाक् रह गये । वे थोड़े क्रोध में बोले 

"क्या हुआ राजकुमार याति ? निशाना क्यों नहीं लगाया" ? 


याति बहुत ही शांत और संयमित भाषा में बोला 

"आचार्य, निशाना लगाने पर वह निर्दोष पक्षी मर जाता ! शास्त्रों में लिखा है कि किसी निर्दोष प्राणी की हत्या करना पाप है आचार्य । मैं किसी निर्दोष पक्षी को मारकर अनावश्यक रूप से ऐसा पाप नहीं करना चाहता हूं । उस पक्षी में भी आपकी और मेरी तरह ही परमात्मा का वास है । मैं प्रत्येक प्राणी में "नारायण" भगवान को देखता हूं । अब आप ही बतायें आचार्य कि मैं भगवान नारायण पर कैसे बाण चला सकता हूं" ? याति के स्वर और चेहरे पर चिंता के भाव थे । 


याति का उत्तर सुनकर सम्पूर्णाचार्य बहुत प्रभावित हुए । याति एक राजकुमार होकर भी एक ऋषि की तरह बातें कर रहा था । एक साधारण से पक्षी में वह भगवान नारायण को देख रहा था । यह उसके "तत्वदर्शी" बनने के संकेत थे । उसकी बातों से ज्ञात हो गया कि वह शस्त्र विद्या नहीं सीख सकेगा । हां शास्त्रों में वह अवश्य पारंगत हो जायेगा । परन्तु याति को शस्त्र विद्या सीखनी ही होगी क्योंकि वह हस्तिनापुर का ज्येष्ठ राजकुमार है और स्वाभाविक रूप से हस्तिनापुर का भावी सम्राट है । सम्राट को चाहे शास्त्रों का ज्ञान हो या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि शास्त्रों के बारे में तो कोई भी विद्वान उन्हें उचित सलाह दे देगा किन्तु युद्ध भूमि में तो वीर और शस्त्र विद्या में पारंगत व्यक्ति ही विजयी होता है । और जो व्यक्ति विजयी होता है वही महाराज और सम्राट बनता है । इस दृष्टिकोण से तो याति "युवराज" बनने योग्य नहीं है । यह बात महाराज नहुष को अवश्य बतानी चाहिए ।


सम्पूर्णाचार्य ने महाराज नहुष को अपने गुरुकुल में बुलवाया । महाराज नहुष महारानी अशोक सुन्दरी के साथ पधारे । सम्पूर्णाचार्य ने महाराज और महारानी का समुचित स्वागत, सत्कार किया और उन्हें उचित सम्मान देते हुए बैठने के लिए एक आसन दे दिया । महाराज नहुष कहने लगे 


"हमारे राजकुमार कैसे हैं आचार्य ? उनका मन विद्याध्ययन में लग तो रहा है ना ? शस्त्र और शास्त्र दोनों में अब तक की कैसी प्रगति है उनकी ? चतुरंगिणी सेना अर्थात पदाति, गजाति, अश्व और रथ से युद्ध करने में पारंगत हो गये हैं क्या वे ? इसके अतिरिक्त धनुर्विद्या, गदा युद्ध, तलवार युद्ध, शलाका युद्ध, परशु युद्ध और मल्ल युद्ध में श्रेष्ठता प्राप्त कर ली है क्या उन्होंने" ? महाराज नहुष ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी । 


सम्पूर्णाचार्य महाराज की उत्सुकता देखकर मुसकुराये और फिर कहने लगे 

"महाराज ! ज्येष्ठ राजकुमार याति का मन युद्ध विद्या में बिल्कुल नहीं लगता है । उनका मन तो वेदों, उपनिषदों, पुराणों के अध्ययन में लगता है । वे कहते हैं कि हर जीव में परमात्मा का वास होता है इसलिए उसका वध करने का तात्पर्य है भगवन नारायण का वध करना । इसलिए वे शस्त्र विद्या सीखना ही नहीं चाहते हैं" । 


सम्पूर्णाचार्य ने वास्तविक स्थिति से महाराज को अवगत करवा दिया । महाराज ने अपने पुत्रों को बुलवाने का आग्रह किया तो आचार्य ने चारों भ्राताओं को बुलाने के लिए एक शिष्य भेज दिया । थोड़ी देर में चारों भ्राता उनके सम्मुख उपस्थित हो गये । उन्होंने महाराज और महारानी तथा आचार्य को प्रणाम करते हुए उनके चरण स्पर्श किये । तत्पश्चात महाराज और महारानी ने उन्हें अपने अंक से लगा लिया और उनके मस्तक पर चुंबन अंकित कर उन्हें बहुत सा आशीर्वाद दिया । 


महाराज नहुष ने अपने पुत्रों से पूछा "कैसा चल रहा है आप लोगों का विद्याध्ययन ? समस्त शस्त्रों का संचालन सीख लिया है क्या ? शस्त्रों के संचालन के साथ साथ रथ, अश्व और गज संचालन भी आना चाहिए आपको । क्या वह भी सीख लिया है अथवा नहीं ? शास्त्रों का कितना ज्ञान हो चुका है आपको" ? 


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55, 255);">महाराज के प्रश्न पूछने पर चारों राजकुमार चुप ही रहे । तब महाराज ने कहा "याति , तुम ज्येष्ठ हो, तुम ही उत्तर दो" । 


याति ने उत्तर देने के लिए स्वयं को भली भांति तैयार किया और शांत स्वर में कहने लगा 

"तात् इन अस्त्र शस्त्रों के संचालन से हिंसा की ध्वनि आती है जिससे मेरा मस्तिष्क चकराने लगता है । इन अस्त्र शस्त्रों से मुझे रक्त की गंध महसूस होती है । उस गंध के कारण मैं कई दिनों तक भोजन नहीं कर पाता हूं । हमारे शास्त्रों में जिस "धर्म" की बात कही गई है वह पांच स्तंभों पर खड़ा बताया गया है । ये पांच स्तम्भ हैं सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रम्हचर्य । जब धर्म में अहिंसा की बात हो तो फिर हिंसा के लिए अस्त्र शस्त्रों का संचालन सीखने की क्या आवश्यकता है" ? 


महाराज और महारानी याति के उत्तर से बहुत विस्मित हुए । इतनी अल्पायु में याति ज्ञान की इतनी बड़ी बड़ी बातें कर रहा था इससे उन्हें प्रसन्नता होनी चाहिए । किन्तु याति की ऐसी बातें सुनकर महाराज और महारानी दोनों ही चिन्ता मग्न हो गये । "याति सन्यासियों की तरह बातें कर रहा है । यह किस तरह राज्य का संचालन कर पायेगा" ? बहुत बड़ा प्रश्न उत्पन्न हो गया था । महाराज ने याति को समझाने की दृष्टि से कहा 


"पुत्र, अहिंसा के बारे में आप अपूर्ण बात कह रहे हैं । यह सही है कि कभी भी अपनी ओर से हिंसा नहीं करनी चाहिए किन्तु यदि कोई व्यक्ति आप पर आक्रमण कर दे तो आपको आत्म रक्षा के लिए उससे युद्ध तो करना ही पड़ेगा ना ? आत्म रक्षा करना आपका धर्म है और धर्म की रक्षा करने के लिए हिंसा उचित है । इसी प्रकार यदि आपके राज्य पर किसी अन्य राजा ने आक्रमण कर दिया तो राज्य और प्रजा की रक्षा के लिए आपको उससे युद्ध करना ही होगा। इसलिए आपको युद्ध विद्या सीखनी चाहिए पुत्र । मुझे ही देखो , देवासुर संग्राम के समय देवताओं की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो उनकी सहायता के लिए मैं गया था ना युद्ध के लिए । अत: युद्ध कला एक राजा का अनिवार्य अंग है । उसके बिना कोई राजा राज्य नहीं कर सकता है" । 

"राज्य करने की आवश्यकता ही क्या है पिता श्री ? ईश्वर ने सबको समान बनाया है तो फिर उस सृष्टि में हम राजा और प्रजा बनकर भेद क्यों करें ? और फिर राजा को प्रजा तो चुनती नहीं है वह तो उत्तराधिकार से राजा बन जाता है । यदि कोई राजा भोग विलास में लिप्त होता है तो उसके अत्याचार बहुत बढ़ जाते हैं और प्रजा उनसे तंग आ जाती है । किन्तु प्रजा उस अत्याचारी राजा को हटा नहीं सकती है । अत: मैं तो इस राज्य व्यवस्था के विरुद्ध ही हूं" । याति अपने विचार निर्भीक रूप से व्यक्त कर रहा था । 

"हमारे पूर्वजों ने ही यह व्यवस्था बनाई है पुत्र । वे सब बहुत बुद्धिमान लोग थे । उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था बनाई होगी । एक पल को यह मान लो कि यदि कोई राजा हो ही नहीं, तब क्या होगा ? चारों तरफ अराजकता फैल जाएगी और समर्थ तथा बलवान व्यक्ति कमजोर व्यक्ति का शोषण करेगा । इस अव्यवस्था को रोकने के लिए ही राजतंत्र व्यवस्था खोज निकाली थी हमारे पुरखों ने और राज परिवार में भी फूट न पड़े इसलिए ज्येष्ठ पुत्र को गद्दी का उत्तराधिकारी बनाने का नियम बनाया गया होगा । इसी व्यवस्था के चलते मेरे पश्चात आपको ही हस्तिनापुर का राज्य संभालना होगा पुत्र" । नहुष ने उसे अपनी गोद में बैठाकर प्रेम से उसके सिर पर हाथ फिराया । तब याति कहने लगा 

"तात्, मैं राज्य के पचड़े में नहीं पडूंगा । इसके लिए आप मुझसे कोई आशा मत करना । आपके तो 6 पुत्र हैं । एक याति राज्य नहीं करेगा तो कोई अन्य पुत्र यथा ययाति कर लेगा । क्यों है ना ययाति" ? याति ने ययाति को कोहनी मारते हुए पूछा । ययाति को ये गूढ़ बातें समझ में नहीं आ रही थी इसलिए वह चुपचाप खड़ा रहा था । 


याति ने अपने विचारों से महाराज और महारानी दोनों को भयभीत कर दिया । याति से बात करने के पश्चात बाकी पुत्रों से बात करने की महाराज की इच्छा ही नहीं हुई । उन्होंने अपने पुत्रों को अपनी कक्षाओं में जाने को कह दिया । उनके चले जाने के पश्चात सम्पूर्णाचार्य महाराज से बोले 

"याति के विचार जानकर मैंने इसीलिए आपको कष्ट दिया था महाराज ! याति में एक राजा बनने के लक्षण तो कदापि नजर नहीं आ रहे हैं । हां, वह एक पहुंचा हुआ विद्वान ऋषि, महात्मा अवश्य बन सकता है" । याति के बारे में भविष्य वाणी कर दी थी सम्पूर्णाचार्य ने । 


सम्पूर्णाचार्य की बात सुनकर अशोक सुन्दरी को जबरदस्त आघात लगा । वह बोली "आचार्य, अपनी प्रथम और अंतिम संतान से एक मां को विशेष लगाव होता है । प्रथम संतान से तो पिता को भी विशेष लगाव होता है क्योंकि वह उसका उत्तराधिकारी भी होता है । मेरा भी लगाव याति से बहुत अधिक है । परन्तु याति यदि सन्यासी बन गया तो मैं कैसे धीरज धरूंगी ? अब आप ही किसी तरह याति के विचार परिवर्तित कीजिए न" ! भयभीत अशोक सुन्दरी की स्थति बहुत विचित्र लग रही थी । 


बहुत देर तक सोचने के पश्चात सम्पूर्णाचार्य बोले "एक उपाय कारगर हो सकता है याति के लिए । यदि इसके चारों ओर सुन्दर सुन्दर तरुणियां इसकी सेवा में लगा दी जाये तो याति का हृदय चिंतन मनन करने की अपेक्षा श्रंगार रस की ओर मुड़ जायेगा और फिर हो सकता है कि उसके मन से धीरे धीरे वैराग्य के विचार निकल जायें और वह राजपाट में रुचि लेने लगे ! मेरी समझ में तो यही एकमात्र उपाय नजर आता है राजन"! 


सम्पूर्णाचार्य की बात सुनकर महाराज और महारानी दोनों ही आश्चर्य चकित होकर उन्हें देखते रह गए । 



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