हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics

5.0  

हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics

ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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भाग 68 

कच के वापिस लौट जाने के बाद देवयानी विक्षिप्त जैसी हो गई थी । उसके प्राण कच में ही बसे थे । जिस तरह प्राण निकल जाने पर शरीर की स्थिति होती है, देवयानी की स्थिति भी वैसी ही हो गई थी । जल बिन मछली की तरह तड़पने लगी थी देवयानी । 


शुक्राचार्य ने उसे संभालने का पूरा प्रयास किया था किन्तु इतना गहरा व्रण (घाव) इतना शीघ्र कैसे भरता ? टूटा दिल जुड़ तो जाता है पर जुड़ने में वक्त बहुत लगता है यद्यपि उसमें जोड़ बहुत लग जाते हैं । जुड़ने के बावजूद उन घावों से रक्त स्राव होता रहता है । कितनी ही परिचर्या करो, घाव एकदम से ठीक नहीं होता है । किन्तु वक्त सबसे बड़ा चिकित्सक है । वह हर व्रण को धीरे धीरे भर देता है । देवयानी के घाव भी धीरे धीरे भरने लगे थे । वह कुटिया में अकेली पड़ी रहती थी और कच को याद कर करके रोती रहती थी । 


देवयानी का मन बहलाने के लिए शुक्राचार्य उसे एक रमणीक स्थल पर लेकर चले गये । वहां पर वे दोनों कुछ समय रुके । हवा , पानी, स्थान बदलने से भी बहुत सी व्याधि ठीक हो जाती हैं । विशेषकर विचलित मन को एकांत सुरम्य स्थल पर बहुत शांति मिलती है । उस स्थल पर रहने से देवयानी धीरे धीरे सामान्य होने लगी । पर उसे यदा कदा जब भी कच की याद आती उसका मन आक्रोश से भर जाता था । कच के प्रेम और उसके कपट को जब जब वह याद करती उसके सीने से एक गर्म आह सी निकलती थी । उसने तो कच से पूर्ण प्रेम किया था । किन्तु कच ने क्या किया ? यदि उसे प्रेम नहीं था , तो वह स्पष्ट मना कर देता ! पर उसने कभी ऐसा नहीं किया । इसे क्या समझा जाये ? यही ना कि वह भी उससे प्रेम करता है । देवयानी ने भी यही समझ लिया तो क्या गलत किया ? पर होनी को कौन टाल सकता है ? एक दिन कच उसका प्रेम ठुकरा कर चला ही गया । देवयानी का प्रेम अपूर्ण, अतृप्त ही रह गया था । अतृप्त प्रेम हृदय में सदैव चिता की तरह दग्ध होता रहता है । उसकी जलन कभी भी शांत नहीं होती है । राख के अंदर एक चिंगारी की तरह वह जलता रहता है । अधूरा प्यार , अधूरा स्वप्न और अधूरा साथ सदैव घातक ही होता है । 


देवयानी की मनस्थिति जब ठीक हुई तो शुक्राचार्य उसे अपने आश्रम में ले आये । उन्होंने देवयानी को राजदरबार में अपने साथ ले जाना प्रारंभ कर दिया । देवयानी शर्मिष्ठा और उसकी सखियों के साथ खेलने लगी थी । सहेलियों के बीच रहकर वह कच को धीरे धीरे भूलने लगी थी । 


श्रावण मास में प्रकृति हरियाली की चादर ओढ लेती है । मोर जगह जगह नृत्य करते हैं । बादल पानी के रूप में प्रेम वर्षा करते हैं । भाद्रपद मास में नदियां अपना विकराल रूप धारण कर लेती हैं और वे उन्मत्त होकर बहने लगती हैं । जैसे एक चोट खाई हुई नागिन क्रोधवश हर किसी को डसने के लिए आतुर होती है वैसे ही उन्मत्त सरिताऐं सब कुछ लील जाने को व्यग्र रहती हैं । कार्तिक मास आते आते वर्षा का जोर कम हो जाता है । निर्झरणियां शांत होकर धीरे धीरे बहने लगती है । तापमान भी कम हो जाने से वायु में शीतलता आ जाती है जो तन को बहुत अनुकूल लगती है । भांति भांति के पुष्प अपनी सतरंगी छटा बिखेरने लगते हैं और उनकी मनभावन सुगंध मन को प्रफुल्लित करने लगती है । ऐसे प्राकृतिक वातावरण में जल क्रीड़ा करने का भी एक अलग ही आनंद है । 


सब सखियों ने कार्तिक मास की पूर्णिमा को निर्जन वन में बने जलाशय में जल क्रीड़ा करने की योजना बनाई । जल क्रीड़ा से तन और मन दोनों को शीतलता मिलती है । देवयानी का मन अभी भी हलके हलके तप रहा था इसलिए उसे जल क्रीड़ा का विचार बहुत पसंद आया । इस जल क्रीडा के पश्चात पहनने के लिए वह कच का दिया हुआ दिव्य वस्त्र "अंगम" लेकर आई थी । चूंकि "अंगम" देवलोक का दिव्य वस्त्र था इसलिए वह अवर्णनीय था । देवयानी उसे ले भी इसीलिए गई थी जिससे वह शर्मिष्ठा पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सके । जब समस्त सखियां "अंगम" के बारे में उससे पूछेंगी तब वह गर्व से कहेगी कि वह दिव्य वस्त्र उसका कच उसके लिए देवलोक से लेकर आया था । नहीं नहीं , वह ऐसा नहीं कह सकती है । ऐसा कहने से तो सखियां कच के बारे में विभिन्न प्रश्न पूछेंगी तो वह उन्हें कच के बारे में क्या कहेगी ? क्या ये कहेगी कि कच उसका प्रेमी था ? नहीं, वह यह नहीं कह सकती है । वह इतना ही कहेगी कि वह अंगम देवलोक से आया था । बस, इतना पर्याप्त है । यह सोचकर वह प्रसन्न मन से "अंगम" को अपने साथ जल क्रीड़ा के लिए ले गई । 


शर्मिष्ठा, विजया, सुनयना, सुमंगला, सुशीला , हेमप्रभा, सुवर्णा आदि अनेक सखियों के साथ देवयानी "मयताल" नामक जलाशय पर आ गई । "मयताल" मयदानव ने बनाया था । इसकी छटा अद्भुत थी । इसके जल से गुलाब की सुगंध आती रहती थी और इसका जल बदन से बिल्कुल नहीं चिपकता था । मयताल का जल हलकी हलकी नीली आभा लिये हुए स्वच्छ, निर्मल और शीतल था । उन सब सखियों में देवयानी और शर्मिष्ठा ऐसे सुशोभित हो रही थीं जैसे विभिन्न तारामंडल के मध्य में सूर्य और चंद्र सुशोभित होते हैं । देवयानी सूर्य की भांति प्रकाश पुंज सी कांति बिखेर रही थी तो शर्मिष्ठा चंद्रमा की भांति शीतल धवल चांदनी बिखेर रही थी । बाकी सब सखियां तारागण की तरह धीरे धीरे टिमटिमा रही थीं । 


सब सखियों ने अपने साथ लाये हुए वस्त्र मयताल के तट पर रख दिये । देवयानी और शर्मिष्ठा ने भी अपने साथ लाए हुए अपने अपने वस्त्र वहीं पर रख दिये थे । दोनों ने अपने अपने वस्त्र एक साथ ही रख दिये थे । देवयानी का "अंगम" शर्मिष्ठा के वस्त्र के एकदम पास में रखा हुआ था । इसके पश्चात उन्होंने अपने समस्त वस्त्र उतारे और पूर्णत: अनावृत होकर वे सब की सब तरुणियां जलाशय में कूद पड़ीं । शीतल जल का स्पर्श पाकर सब आनंद के सागर में गोते लगाने लगीं । उन सबके तन मन शीतल हो गये और वे भांति भांति की जल क्रीडाऐं करने लगीं । उनमें एक दूसरे पर जल उलीचना प्रमुख क्रीड़ा थी । एक दूसरे पर जल फेंकने में सबको बहुत आनंद आ रहा था । इस जल क्रीड़ा में कुछ युवतियों द्वारा थोड़ी बहुत शरारत भी की जाने लगी । सुवर्णा बहुत शरारती लड़की थी । वह जल में डुबकी लगाकर जल के अंदर ही अंदर कभी शर्मिष्ठा के तो कभी देवयानी के शरीर से एक रेशमी धागा छुआ देती । इस छुअन से किसी सर्प का सा अहसास होता था इसलिये वे दोनों डर के मारे चीख उठती थीं और सुवर्णा सहित सारी सखियां जोर से खिलखिलाकर हंस पडती थीं । 


जल क्रीड़ा के साथ साथ वह कभी उनके रेशमी बालों को पकड़कर खींच लेती थी तो कभी उनके "नाजुक" अंगों को भी हलके से स्पर्श कर लेती थी । इससे उनके बदन में तरंग सी छूट जाती थी । यह अहसास बहुत सुखद लग रहा था । सुवर्णा सबके साथ ऐसे ही छेड़छाड़ कर रही थी इसलिए सब सखियां उससे चिढ़ गई थीं । सब सखियों ने एकराय होकर सुवर्णा को उसकी इस धृष्टता का मजा चखाने का मन बना लिया था । सब सखियों ने योजना बनाकर उसे चारों ओर से घेरकर पकड़ लिया और जलाशय में ही उसे दबोच लिया । फिर उसके बदन को छू छूकर उसके साथ मस्ती करने लगी थीं सब सखियां । सब मिलकर उसे नोचने भी लगी थीं । सबने उससे गिन गिन कर बदला ले लिया था । बेचारी सुवर्णा ! उसके अंगों को सबने इतना नोंचा कि वे लाल पड़ गये थे । अपने अंगों को लाल देखकर उसका चेहरा लाज से लाल हो गया था । 


वे अपने साथ एक कंदुक भी लाई थीं । तत्पश्चात वे जल में कंदुक क्रीड़ा करने लगीं । कंदुक क्रीड़ा करते करते वे उसमें इतनी निमग्न हो गई थीं कि उन्हें अपने आसपास के वातावरण का कुछ भी ध्यान नहीं रहा । वैसे भी वह मयताल निर्जन वन में था और उसके चारों ओर विशाल वृक्ष खड़े हुए थे जो यवनिका का कार्य कर रहे थे । वृक्षों और लताओं के कारण वे दिखाई नहीं दे रही थीं इसीलिए वे अनावृत होकर जलाशय में उतर गई थीं । वहां किसी पुरुष के होने और उन्हें अनावृत अवस्था में जल क्रीड़ा करते हुए देख लेने की कोई संभावना नहीं थी । इसीलिए वे सब युवतियां निश्चिंत होकर नग्न जल क्रीड़ा कर रही थीं । 


नियति बहुत बड़ी चीज होती है । नियति के कारण ऐसी ऐसी घटनाऐं घट जाती हैं जिनका पूर्वानुमान लगाया जाना संभव नहीं है । यह नियति का ही प्रताप था कि उसी समय भगवान शिव पार्वती सहित आकाश मार्ग से नंदी पर सवारी करते हुए उधर से गुजर रहे थे । अचानक सुवर्णा का ध्यान आकाश की ओर चला गया । वह आकाश की ओर देखकर जोर से चीख पड़ी 

"अरे देखो देखो ! भगवान नीलकंठ महादेव और माता पार्वती आकाश मार्ग से कहीं जा रहे हैं" । वह प्रसन्नता से उछलते हुए बोली । 

उसके ये शब्द सुनकर सब सखियों ने आकाश की ओर देखा । शिवजी और पार्वती जी अपने "नंदी" पर बैठकर कहीं जा रहे थे । उन्हें जाते हुए देखकर सब सखियां बहुत प्रसन्न हुईं और करतल ध्वनि करके प्रसन्नता व्यक्त करने लगीं । अचानक सुवर्णा ने याद दिलाया कि सब सखियां अनावृत होकर जल क्रीड़ा कर रही हैं । अगर उन्हें इस नग्न अवस्था में पार्वती जी देखेंगीं तो क्या सोचेंगी वे ? और यदि भोलेनाथ ने देख लिया तो अनर्थ ही हो जायेगा । 


बस, उसका इतना कहना था कि सब सखियां मयताल से निकलकर दौड़ लगाती हुई मयताल के तट पर आ गईं और अपने अपने वस्त्र पहनने लगी । चूंकि देवयानी और शर्मिष्ठा के वस्त्र आस पास ही रखे थे और वे लाल रंग के ही थे इसलिए शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने देवयानी का दिव्य वस्त्र "अंगम" पहन लिया । जैसे ही देवयानी ने देखा कि शर्मिष्ठा ने कच द्वारा दिया हुआ दिव्य वस्त्र "अंगम" पहन लिया है तो वह आग बबूला हो गई और क्रोध में फुंफकारते हुए बोली 


"अरी दुष्ट शर्मिष्ठा ! तुझे मेरा यह दिव्य वस्त्र पहनते हुए जरा सी भी लाज नहीं आई ? यह दिव्य वस्त्र "अंगम" कोई साधारण वस्त्र नहीं है अपितु यह स्वर्ग लोक में बना है जो हम जैसे श्रेष्ठ लोगों के लिए ही बनाया गया है । यह दिव्य वस्त्र सात्विक गुणों की खान है जिसे सद्गुणी व्यक्ति ही धारण कर सकता है , तेरे जैसी निर्बुद्धि स्त्री नहीं । क्या सोचकर धारण किया है तूने इसको ? तू यदि सात जन्म भी ले ले तो भी तू इस दिव्य वस्त्र को पहनने के योग्य नहीं हो पायेगी । तुझे ऐसा नीच , अधम , अनर्थपूर्ण कृत्य करते हुए जरा भी लाज नहीं आई ? एक बार अपनी हैसियत तो देख लेती , फिर तुझे पता चल जाता कि यह दिव्य वस्त्र तेरे लिए नहीं बना है । तूने मेरा दिव्य वस्त्र पहनकर इसे अपवित्र कर दिया है , अब मैं क्या पहनूंगी" ? देवयानी के नेत्रों से ज्वाला निकल रही थी और मुंह से अंगारे । 


देवयानी के अपशब्द सुनकर शर्मिष्ठा को भी ताव आ गया । आखिर वह एक राजकुमारी थी और राजकुमारियों को अपशब्द सुनने की आदत नहीं होती है । प्रतिक्रिया स्वरूप वह भी तेज स्वर में कहने लगी 

"मैंने जानबूझकर तेरा यह दिव्य वस्त्र नहीं पहना है । शीघ्रता के कारण यह त्रुटि हुई है । भूल से हुई एक त्रुटि पर तू इतना क्रोध क्यों कर रही है ? त्रुटि तो किसी से भी हो सकती है । यदि ऐसी त्रुटि तुझसे हो जाती तो क्या मैं भी तुझे ऐसे अपशब्द कहती ? और तुझे क्या ऐसे अपशब्द अच्छे लगते ? इसलिए हर बात सोच समझकर ही कहनी चाहिए सखि" । शर्मिष्ठा बहुत संयत स्वर में बोली । 

"तू असत्य भाषण कर रही है । तूने जानबूझकर ही इस वस्त्र को पहना है । ये वस्त्र मुझे मेरे कच ने उपहार में दिया था । यह "अंगम" मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है और तूने इसे पहनकर अपवित्र कर दिया ? अरी कुलटा, अधम , नीच ! यदि तुझमें जरा सी भी शर्म बची है तो तू अभी इसी जलाशय में कूदकर अपनी जान दे दे नहीं तो मैं तुझे इसी जलाशय में डुबोकर मार दूंगी" । ऐसा कहकर देवयानी उसे मारने को दौड़ी । 


शर्मिष्ठा इस अनावश्यक "युद्ध" से बचने के लिए दौड़ने लगी । देवयानी उसका पीछे पीछे दौड़ने लगी । शर्मिष्ठा ने तो दिव्य वस्त्र "अंगम" पहना हुआ था किन्तु देवयानी निर्वस्त्र ही शर्मिष्ठा के पीछे दौड़ रही थी । ईर्ष्या द्वेष में डूबे मनुष्य को ईर्ष्या द्वेष के अतिरिक्त और कुछ याद नहीं रहता है । देवयानी भूल गई थी कि वह अभी भी अनावृत है । वह शर्मिष्ठा को पकड़ने के लिए तेज गति से दौड़ने लगी । दौड़ते दौड़ते दोनों सखियां मयताल की सीमा से बाहर निकल आई थीं । जब शर्मिष्ठा दौड़ते हुए थक गई तो वह एक स्थान पर खड़ी हो गई । देवयानी ने उसे पकड़कर उसके साथ हाथापाई करनी शुरू कर दी । क्रोध में देवयानी यह भी भूल गई थी कि शर्मिष्ठा उससे कहीं अधिक बलिष्ठ है । शर्मिष्ठा को भी क्रोध आ गया और वह उस पर चढ़ बैठी । वहां पास में ही एक कुंआ था । आवेश में आकर शर्मिष्ठा ने देवयानी को उस कुंए में धक्का दे दिया और वापिस जलाशय पर आ गई । इसके पश्चात सब सखियां अपने अपने घर चली गईं । 



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