देवदूत भाग-59
देवदूत भाग-59
सरिता का मन आज बहुत उद्विग्न था। रह रह कर उसे श्याम की याद आ रही थी। विवाह के पश्चात वह कभी श्याम से अलग नहीं रही थी। लेकिन निगोड़ी नौकरी के कारण उसे अलग रहना पड़ रहा था।
अभी 15 दिन पहले ही तो उसने यहां एक विद्यालय में कार्यभार संभाला था। संस्कृत की व्याख्याता बन गई थी वह। इतनी अच्छी नौकरी छोड़ने का मन नहीं करता है हर किसी का लेकिन सरिता श्याम से एक मिनट भी अलग नहीं रहना चाहती थी इसलिए उसने नौकरी करने से मना कर दिया था। श्याम की नौकरी अलवर में थी और श्यामा की बांसवाड़ा जिले के बबूटी गांव में। एक उत्तरी पूर्वी कोने में तो दूसरा दक्षिणी कोने में। कैसे रह पायेगी वह ?
श्याम ने उसे कितना समझाया था तब "सरकारी नौकरी के लिए लोग क्या क्या नहीं करते हैं ? पैसा , पॉवर , छल , बल सब इस्तेमाल करते हैं। पर तुम्हें तो यह नौकरी बहुत आसानी से मिल गई। तुमने सिद्ध कर दिया कि तुम बहुत टेलेन्टेड हो सरिता। इस टेलेंट का फायदा गांवों के बच्चों को भी मिलना चाहिए न। तुम कहा करती हो न कि तुम यहां दिन भर बोर होती हो। मैं जब ऑफिस चला जाता हूं तब तुम्हें टाइम पास करना बहुत मुश्किल हो जाता है। अब तुम्हारी यह समस्या भी खत्म हो जायेगी। ईश्वर हम पर बहुत मेहरबान है सरिता इसलिए उसने हमें यह अवसर प्रदान किया है। जरा सोचो , अभी तो हमारे घर में केवल मेरी तनख्वाह ही आ रही है , अब से तुम्हारी भी आने लगेगी तो हमारे दिन कैसे बदल जायेंगे ? और आज न सही कल तो तबादला हो ही जायेगा न। तुम्हारा नहीं होगा तो मैं अपना करवा लूंगा। यह अवसर बड़े भाग्य से आया है इसे निरर्थक मत करो"। श्याम की आंखों में याचना थी।
श्याम के जोर देने पर ही वह यहां ज्वाइन करने को तैयार हुई थी। विद्यालय में पदार्पण करते ही सब लोग कितने खुश हुए थे ! प्रधानाचार्य जी ने भी उसे समझाया था कि ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा। उन्होंने उसी दिन उसके लिए एक कमरे की भी व्यवस्था करवा दी थी। उसका मकान मालिक बहुत भला आदमी था। उन्हें किराये की कोई दरकार नहीं थी। वे तो एक व्याख्याता को अपने घर में जगह देने पर खुद गौरवान्वित हो रहे थे। भाभीजी कितनी अच्छी हैं। कभी सब्जी भेज देती हैं कभी खाना ही भेज देती हैं।
इन 15 दिनों में उसे वहां पर कोई समस्या नहीं आई लेकिन श्याम की याद एक पल को भी नहीं गई हो, ऐसा नहीं था। बस, वह इसी बात से दुखी थी। तब न तो मोबाइल फोन थे और न लैंडलाइन। उस गांव में चिठ्ठी भी 7 दिन में पहुंचती थी। ले देकर तार ही एकमात्र सहारा था। वह रोज पोस्ट ऑफिस जाती और श्याम को एक तार करके आ जाती थी। इसी से उसे कुछ चैन मिल जाता था। श्याम भी उसे रोज एक तार भेजता था और उसका हौंसला बढ़ाता था। पोस्ट ऑफिस वाले उसे अच्छी तरह जान गये थे।
आज गणगौर का त्यौहार है। गणगौर और ईसर महाराज जी का जोड़ा जगत प्रसिद्ध है। उसे रुलाई आने लगी। उसके ईसर महाराज तो उससे 800 किलोमीटर दूर बैठे हैं। वह गणगौर कैसे मनाए ? मकान मालकिन ने उसे आवाज देकर गणगौर पूजने बुला लिया और दोनों मिलकर गणगौर पूजने लगीं। गणगौर पूजते पूजते सरिता अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सकी और फूट फूटकर रो पड़ी। अनीता भाभी ने उसे अपनी बच्ची की तरह दुलराया और उसे ढेर सारी सांत्वना दी। मगर सरिता का दिल उड़कर श्याम के पास ही जा रहा था बार बार। उसने आव देखा न ताव, अपना सूटकेस लगाया और चल पड़ी। अनीता भाभी ने उसे बहुत रोका मगर उसने एक न सुनी और अलवर चल दी। अनीता भाभी ने अपने बेटे को उसे बस में बैठाने के लिए पीछे से भेज दिया।
पूरे रास्ते उसकी आंखों के आगे श्याम की छवि घूमती रही। पिछला समय फिल्म की भांति उसकी आंखों के आगे चलने लगा। कब जयपुर आ गया उसे पता ही नहीं लगा। यहां से उसे अलवर की बस लेनी थी। वह बस में बैठ गई। उसे किसी से कोई मतलब नहीं था। बस, श्याम की दीवानी मीरा की तरह उस पर एक ही धुन सवार थी। उसके रोम रोम से श्याम श्याम की आवाज आ रही थी।
रात के तीन बजे बस ने उसे अलवर में उतारा। वह अटैची लेकर बस स्टैंड से बाहर आ गई। तब तक वह श्याम में ही रमी हुई थी। बस स्टैंड के बाहर घटाटोप अंधेरा था। हाथ को हाथ दिखाई नहीं दे रहा था। सुनसान इलाका था। उसके अलावा और कोई नहीं था वहां। अब उसे होश आया। श्याम के ख्यालों से निकल कर वह धरातल पर आ गई। जैसे ही वह धरातल पर आई वैसे ही वह डर के मारे थर थर कांपने लगी। वहां पर न कोई रिक्शा था और न कोई ऑटो।
"सब कहां मर गए ? दिन में भीड़ लगी रहती है इनकी। अब एक भी नजर नहीं आ रहा है। अब क्या करूं ? तीन किलोमीटर दूर है घर, कैसे जाऊं ? दिन होता तो चली भी जाती मगर इस घुप्प अंधेरी रात में अकेली कैसे जाये वह" ? उसके मन में अनेक विचार उमड़ने लगे।
सड़क के दोनों ओर बड़े बड़े पेड़ खड़े थे। उसने उनकी तरफ देखा तो डर के मारे उसकी घिग्घी बंध गई। पेड़ के पीछे एक भूत दिखाई दिया था उसे। वह आंखें बंद करके वहीं पर बैठ गई और रोने लगी।
"ये क्या किया उसने ? श्याम के प्रेम में वह ऐसी बावली हो गई कि उसने यह भी नहीं देखा कि उसे यहां पहुंचते पहुंचते तीन बज जायेंगे। रात के तीन बजे घर जाने के लिए क्या साधन मिलेगा ? लेकिन उस पर तो श्याम का भूत सवार था। वह तो प्रेम दीवानी बन कर श्याम की माला रट रही थी न ! अब याद कर उन्हीं श्याम को ! वे सबका बेड़ा पार करते हैं, तेरा भी करेंगे"।
उसके मन में द्वंद्व चलने लगा। श्याम का नाम लेकर वह खड़ी हो गई। शायद इस नाम में ही कुछ चमत्कार था जिसके कारण उसमें हिम्मत आ गई थी। वह बिना इधर उधर देखे सीधी चलने लगी।
"जो होगा सो देखा जायेगा। जब श्याम प्रभु साथ हैं तो डर भी भाग जायेगा"। उसने अपना मन कड़ा कर लिया और उसके मुंह से स्वत: ही राधे राधे निकलने लगा।
ईश्वर भी बहुत दयालु हैं। जो व्यक्ति उनकी शरण में जाता है उसकी रक्षा वे अवश्य करते हैं। सरिता चुपचाप चली जा रही थी। सामने ही नगरपालिका की चुंगी की पोस्ट थी। उसमें बैठे एक कर्मचारी की दृष्टि सरिता पर पड़ी। उसने देखा कि घने रात के अंधेरे में एक जवान महिला अटैची उठाए चुपचाप चली जा रही है।
"इतनी रात में ये महिला कौन हो सकती है" ? उसके मन में आया। "कोई भी होगी , मुझे क्या" ? एक बार यह भी आया उसके मन में।
"अगर इसके साथ कोई अनहोनी हो गई तो" ?
यह सोचकर वह कांप गया। वह तुरंत अपनी सीट से उठकर खड़ा हो गया और सरिता के पास आकर बोला
"नमस्ते मैडम , मैं रवि प्रकाश चुंगी में कर्मचारी हूं। आप इतनी रात में कहां जा रहीं हैं ? इस घुप्प अंधेरे में इस तरह अकेले जाना ठीक नहीं है। बताओ कहां जाना है आपको" ?
सुहानुभूति के दो शब्द सुनकर सरिता की रुलाई फूट पड़ी। वह वहीं पर बैठ गई और जोर जोर से रोने लगी। अपनी बेबसी पर या शायद अपनी मूर्खता पर। कारण जो कोई भी हो , रोने से उसका गुबार निकल गया। तब उसने बताया कि उसे जैतपुरा मौहल्ला जाना है। उस व्यक्ति ने पास में खड़े रिक्शे पर सो रहे एक व्यक्ति को जगाया और उससे कहा
"इन मैडम को इनके घर छोड़कर आ जा। और हां, पैसा हिसाब का ही लेना कहीं रात का फायदा मत उठा लेना" ?
रिक्शेवाले ने एक नजर सरिता को देखा और एक नजर चुंगी वाले को। फिर वह चलने को तैयार हो गया।
सरिता उस चुंगी वाले के कदमों में झुक गई।
"अरे अरे ! ये क्या कर रही हो मैडम ? मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रही हो" ? वह पीछे हटते हुए बोला
"भैया, तुम्हें कैसे बताऊं कि तुम मेरे लिए क्या बनकर आये हो ? मेरे श्याम ने तुम्हें मेरे उद्धार के लिए देवदूत बनाकर भेजा है यहां। आज तुम नहीं होते तो पता नहीं मैं घर पहुंच पाती या नहीं। थोड़ा सा उपकार चुकाने का तो मौका दे दो भैया ! आप मेरे बड़े भाई के समान हो , बड़े भाई के पैर छूने का तो अधिकार होता है ना भैया"। और सरिता ने उसके पैर छू लिये फिर वह रिक्शे में बैठ गई।
सारे रास्ते उसकी आंखें गंगाजल बहाती रही। जैसे ही उसका घर आया उसने रिक्शा वाले को पचास का नोट पकड़ा दिया।
"मैडम मेरे पास खुले नहीं हैं। दस का नोट हो तो दे दो नहीं तो कोई बात नहीं"। रिक्शेवाले ने धीरे धीरे कहा
"रख लो भैया इन्हें। तुमने आज मुझ पर कितना उपकार किया है ये तुम नहीं समझोगे। एक बहन की तुच्छ भेंट समझ कर रख लो भैया"। और सरिता ने अपने घर की घंटी बजा दी। तब तक रिक्शावाला वहीं खड़ा रहा।
दरवाजा श्याम ने खोला। श्याम को देखकर सरिता उससे बेल की तरह लिपट गई और फूट फूटकर रोने लगी। श्याम हतप्रभ सा खड़ा देखता रह गया।