हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Fantasy Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Fantasy Inspirational

राष्ट्रीय दामाद

राष्ट्रीय दामाद

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हमारे देश में दामाद का बहुत महत्व है। लड़की के माता पिता जानते हैं कि एक यही वह बंदा है जिसने उनके घर के तूफान (बेटी) को संभाल कर रख रखा है। ऐसे वीर, धीर, गंभीर आदमी (दामाद ) की कद्र तो होनी ही चाहिए ना ! तो बेटी की शादी के बाद जब दामाद जी पहली बार घर यानि अपनी ससुराल आते हैं तो पूरा परिवार उनकी सेवा में बिछ जाता है। घर में उत्सव जैसा माहौल हो जाता है। सासू मां झूम झूमकर गाने लगती है।

दामाद जी अंगना में पधारे 

दामाद जी लागे सबको प्यारे 

दामाद जी सब टुक टुक निहारे 

दामाद जी की सेवा में हैं सारे 

जब इतना मान सम्मान, खाना, सेवा सब कुछ ससुराल में मिलता है तो दामाद जी का मन ससुराल में ही रमने लगता है। ससुराल से जाने की इच्छा ही नहीं होती है उनकी। और यदि ससुराल में एक साली / सलहज भी हो तो फिर बात ही क्या है ! दामाद जी जिंदगी भर नहीं जायें ससुराल से। फिर तो साली की शादी कराके ही बिदा होंगे, पहले नहीं। 

जब साधारण परिवार में दामाद को इतना महत्व दिया जाता है तब "शाही" परिवार के दामादों की क्या स्थिति होती होगी ? हम तो केवल कल्पना ही कर सकते हैं। ये अनुभव तो "नसीब वाले दामादों" को ही मिलता है, हर किसी को नहीं। नसीब वाले दामाद कुछ ही तो हैं देश में। एक ऐसे ही नसीब वाले दामाद आंध्र प्रदेश में नायडू साहब निकले। एन टी रामाराव साहब के दामाद जो ठहरे। क्या नहीं मिला ससुराल से उन्हें ? धन दौलत, मान सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, सब कुछ। लेकिन रामाराव जी की मृत्यु के पश्चात जब विरासत की बात आई तो उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती सामने आ गई और वह कुर्सी पर काबिज हो गई। बेचारे दामाद जी टापते ही रह गये। तब दामाद जी को महसूस हुआ कि सासू मां का प्यार तो महज एक दिखावा था, और कुछ नहीं। लेकिन नायडू साहब राजनीति के पक्के खिलाड़ी निकले और वे रामाराव साहब की पूरी पार्टी ही ले उड़े। बेचारी लक्ष्मी पार्वती हाथ मलती ही रह गई। 

जब एक अपेक्षाकृत छोटे खानदान के दामाद की इतनी धमक हो तो फिर देश के सबसे शक्तिशाली खानदान के दामाद की स्थिति कैसी होती होगी ? जब वह खानदान देश का सबसे शक्तिशाली खानदान हो और उस खानदान का पिछले 75 सालों से देश में दबदबा हो तो वह खानदान राष्ट्रीय खानदान बन जाता है। ऐसे खानदान के दामाद को क्या कहेंगे ? वह "राष्ट्रीय दामाद" नहीं बन जाता है क्या ? 

बड़े खानदानों के बच्चे भी बिगड़ैल हो जाते हैं। ऐसे बच्चों से शादी करना हर किसी के बस में नहीं होता है। बड़ा कलेजा चाहिए होता है। ऐसे बच्चे अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। लेकिन वो कहावत है ना कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। जब पाने को सत्ता में भागीदारी हो तो ऐसे हजारों नखरे उठाये जा सकते हैं। शायद यही सोचकर कोई ऐसे खानदानों की बिगड़ैल शहजादियों को झेलने की हिमाकत करता होगा। तो एक आदमी ने भी यही किया और वह राष्ट्रीय दामाद बन गया। यदि अपने जमीर को गिरवी रखकर राष्ट्रीय दामाद का दर्जा मिल जाये तो भी यह सौदा बुरा नहीं है। ज़मीर नाम की चीज के दो आने भी नहीं देता है कोई। ऐसी चीज को रखकर क्या करना ? 

तो राष्ट्रीय दामाद जी ससुराल की खिदमत करते करते वृद्धावस्था की ओर बढ़ते चले गये। हालांकि उन्होंने सत्ता की मलाई का आनंद भी भरपूर लिया था और हमेशा जमीन हथियाने में लगे रहे। राजस्थान, हरियाणा में जमकर जमीन हथिया ली और देखते देखते वे देश के सबसे बड़े किसान बन गये। 

पैसा और प्रतिष्ठा कमाने के बाद आदमी "माननीय" बनना चाहता है। सत्ता का केन्द्र बनना चाहता है। इसके लिए उसे लोकसभा या राज्य सभा में जाना होगा। लोकसभा का रास्ता जनता के बीच से होकर जाता है और राज्य सभा पार्टी भेजती है। राष्ट्रीय दामाद को लगा होगा कि इस खानदान से जुड़कर वे भी सत्ता के एक केन्द्र बन जायेंगे। बस। 

पर चाहने से कुछ होता है क्या ? दामाद को उतना ही मिलता है जितना सांस ससुर उसे देते हैं। वह भूल गया था कि इस देश में लोग  बेटे और बेटी में बहुत फर्क करते हैं । गद्दी तो बेटे को ही देना चाहते हैं, बेटी को नहीं। लालू, मुलायम, ठाकरे, स्टालिन, अब्दुल्ला, चौटाला, बादल या किसी अन्य को देख लो। यदि बेटा नहीं हो तब बेटी का नंबर आता है, पहले नहीं। पंवार और मुफ्ती खानदान यही बात कहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह धारणा यहीं के लोगों की हो, विदेश से आकर देश में बसने वाले लोग भी इसी लीक पर चल रहे हैं। हर कोई अपने "चश्मो चिराग" पर ही दांव खेल रहा है। राष्ट्रीय खानदान भी कोई अलग तो नहीं है ना ! परंपरा तो निभानी पड़ेगी ना ! दस साल तो हो गये उसे अपने राजकुंवर की ताजपोशी करने में लेकिन अभी तक "चश्मो चिराग" को गद्दी मिल नहीं पाई है। लेकिन मां ने हिम्मत नहीं हारी है अभी। मां की इच्छा होती ही है कि उसका बेटा "काम धंधे" से लग जाये तो फिर उसकी शादी का भी कुछ जुगाड़ करे। लेकिन पता नहीं जनता ऐसी बेमुरौव्वत क्यों हो गई है कि बेचारे "राजकुंवर" पर मेहरबान नहीं हो रही है और उसको गद्दी पर नहीं बैठा रही है। बेचारी मां इस चक्कर में अपनी बहू का मुंह भी नहीं देख पा रही है। उसका दर्द समझा जा सकता है। लाइन में बेटी भी लगी हुई है। उसके बाद नंबर आता है दामाद जी का। 

दस साल से इंतजार कर रहे हैं राष्ट्रीय दामाद जी। अब उनके सब्र का घड़ा फूटने लगा है। "और कब तक इंतजार करें वे" ? आखिर राष्ट्रीय दामाद जी हैं वे, कोई छोटे मोटे आदमी नहीं। उस पर भी एक किसान। किसानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। उन्हें टिकट नहीं दिया जा रहा है। 

किसान से इंतजार नहीं होता है। इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी कि वे लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं और वह भी खानदान की खानदानी सीट से ! उनकी घोषणा से राजनीति के गलियारों में तहलका मचना स्वाभाविक ही था। सारे पत्तलकार त्राहि त्राहि करने लगे। कुछ पत्तलकार पिछले 10 सालों से "राजकुंवर" की ताजपोशी कराने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। दिन को रात और रात को दिन कहते कहते उनका गला सूख गया है मगर उनके हौंसले पस्त नहीं हुए हैं अभी। वे अभी भी राजकुंवर में भारत का भविष्य देख रहे हैं। 

लाख कोशिशों के बावजूद जब "राजकुंवर" वाला रॉकेट फुस्स हो गया तब इन खैरातियों ने पिंकी पर दांव लगाने की बहुत कोशिश की। लेकिन पिंकी तो पप्पू से भी चार कदम आगे निकल गई । पिंकी रूपी मिसाइल उड़ान से पहले ही धरती पर ही फट पड़ी। अब वह किसी काम की नहीं रही। 

इस अवसर का फायदा दामाद जी उठाना चाहते थे। वैसे भी वे राष्ट्रीय दामाद हैं इसलिए इतना विशेषाधिकार तो बनता है नाज्ञउनका। अपनी दोनों खानदानी सीट पर जब तक असमंजस के बादल छाए रहेंगे तब तक खानदानी चिरागों को लौ कहां से मिलेगी ? राजनीति में लौ यानि शक्ति "सीट" से ही मिलती है। राष्ट्रीय दामाद जी चाहते हैं कि अब उन्हें संसद में पहुंच कर किसानों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए। देखते हैं कि जनता क्या करती है उनके साथ ! 


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