व्यंग्य कथाएँ
व्यंग्य कथाएँ
प्रतिबद्धता
वह भी कभी मेरी ही किस्म के वामपंथी थे। फिर जाने क्या हुआ कि वे बहुत ही ज्यादा क्रांतिकारी हो गए। इतने अधिक कि मैं तो क्या कोई भी जो उन्हें जानता था, उनमें आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन की कल्पना भी नहीं सकता था। फिर से उन्हें कुछ हुआ और वह संघी- भाजपाई से भी ज्यादा संघी- भाजपाई हो गए हालांकि अब उनका वादा है कि इसके बाद वह कुछ और नहीं होंगे। जो हैं। मरते दम तक वही रहेंगे।
वैसे उम्र के लिहाज से देखें तो कुछ और होने के लिए अब उनके पास वक्त भी नहीं बचा है हालांकि किसके पास कितना वक्त बचा है। यह किसे पता है। फिर भी उनके बारे में एक बात अच्छी है कि उनका रूप- रंग, कद- पद, व्यवहार- विचारधारा सब कुछ बदला मगर उन्होंने कंधे पर जो झोला वामपंथी होने के दौरान उन्होंने धारण किया था, वह आज तक उनके कंधे पर ही विराजमान है। वह पहले की तरह कुछ-कुछ फटा हुआ भी होता है और लाल भी। कम से कम फटे झोले और लाल रंग के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अटल-अविचल है। इस बात पर लोग खुश हो सकते हैं क्योंकि खुश होने के लिए भी अब यही बचा है।
कमीना
वह कभी पत्रकार हुआ करते थे। जितने बड़े पत्रकार वह नहीं थे, उससे कहीं ज्यादा बड़े कमीने थे। फिर उनका मन पत्रकारिता से ऊब गया और वे अफसर बन गए जिससे उनका मन कभी नहीं ऊबा मगर उन्होंने कमीनपन की जो डोर एक बार मजबूती से पकड़ी थी तो फिर उनकी हिम्मत को दाद दीजिए कि बहुत बूढ़े होने पर भी उन्होंने उसे थामे ही रखा। उसका साथ नहीं छोड़ा। इसका उन्हें अंतिम दिनों तक गर्व भी खूब रहा। इस गर्व को साथ लिये-लिये ही वह इस मृत्युलोक से विदा पा गए। वे विदा लेकर कहाँ गए हैं, वहाँ क्या कर रहे हैं, इसकी जानकारी देकर तो वह खैर नहीं गए हैं लेकिन जानकार सूत्रों के अनुसार वहाँ भी वह कमीनपन ही कर रहे हैं। हालांकि यह सूचना गलत भी हो सकती है क्योंकि कौन जानता है कि वे कहीं गए ही हैं। हो सकता है हमारे बीच ही कहीं हों। हमीं में समा गए हों।
मौलिकता की रक्षा
यद्यपि उन्होंने बीए और एम ए में हिंदी नहीं पढ़ी थी, अंगरेजी पढ़ी थी जिसका वे यत्र- तत्र-सर्वत्र गर्व पूर्वक बखान किया करते थे मगर उन्होंने एक बार माँ सरस्वती की सेवा का प्रण लिया तो सिर्फ और सिर्फ हिंदी में ही लिखा, जिसे कई लोग राष्ट्रभाषा कहकर भी पुकारा करते हैं। हिंदी की उन्होंने इतनी ज्यादा सेवा की कि माँ सरस्वती भी कराह उठीं और उन्होंने कहा कि वत्स अब तू यह पुनीत कार्य बंद कर दे और आराम से घर में बैठ। मैं थक चुकी हूँ तो तू तो अवश्य ही थक चुका होगा मगर उन्होंने उनकी भी एक न सुनी और अविचल भाव से सेवाधर्म निबाहना जारी रखा। उन्होंने इतनी सेवा की, इतना साहित्य रचा, इतना साहित्य रचा कि उनके अपने जीवनकाल में उनकी अपनी लिखी किताबों की संख्या उनकी उम्र से भी दुगनी हो चुकी थी। बाद में कुछ ने बताया कि उन्होंने छद्म नाम से भी काफी पुस्तकें लिखी हैं। अगर उन्हें भी शामिल कर लिया जाए तो उनका यह योगदान उनकी आयु से कम से कम तीन गुना अधिक तो जरूर ही होगा। उधर उऩके परिवारजनों का दावा है कि उनका समस्त योगदान दरअसल चार गुना या उससे भी ज्यादा हो सकता है और इस पर भी अविश्वास करने का कहीं कोई कारण मौजूद नहीं है।
वह स्वयं कहते थे और जोर देकर बार-बार कहते थे और सच ही कहते थे कि उन्होंने अपनी मौलिकता की रक्षा के लिए अपने छात्र जीवन के अलावा कभी किसी और का लिखा कुछ नहीं पढ़ा है, जिसकी सच कहें तो उन्हें फुर्सत भी नहीं थी। इस स्थिति को देखकर उनके दुश्मनों ने उनसे ईर्ष्यालु होकर यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि अपने इस लघुकाय जीवन को सुखी बनाने का धरती पर इस कलिकाल में एकमात्र रामबाण उपाय यही बचा है कि उनकी पुस्तकें नहीं पढ़ी जाएँ मगर फिर भी उन्होंने अपनी मौलिकता की खातिर कोई समझौता स्वीकार नहीं किया।
एक ही गड़बड़ उनके साथ रही कि उनकी मौत में कोई मौलिकता उत्पन्न नहीं हो पाई। वे यह देख पाते तो इसका उन्हें गहरा अफसोस होता मगर अच्छा है कि वे कम से कम यह न देख पाए।
उत्पादन
वह पहले दुबली–पतली गाय जैसे हुआ करते थे। ऐसी गाय अक्सर कम दूध दिया करती है, इसलिए उसका सम्मान गाय जैसे उच्च और पवित्र पद पर होते हुए भी कम होता है। यही स्थिति उनकी भी थी। उनका सम्मान भी काफी कम था। फिर उन्होंने संकल्प लिया कि वे सम्मान प्राप्त करके ही रहेंगे और ऐसा करके उन्होंने दिखा दिया। वह मोटी ताजी भैंस जितना उत्पादन करने लगे। उनका सम्मांन उसी अनुपात में और शायद उस अनुपात से भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया। लोग उन्हें मजाक में भैंस सार्वजनिक रूप से तो नहीं कहते थे मगर समझते कुछ-कुछ ऐसा ही थे। फिर लोगों ने उन्हें प्राइवेटली डेयरी कहना आरंभ कर दिया क्योंकि उनका उत्पादन इस बीच बहुत ज्यादा बढ़ चुका था। उनके लिए इससे कोई उपमा देना उनकी तौहीन करना होता, जो वे अफोर्ड नहीं कर सकते थे।
लेकिन उन्होंने भैंस कहे-समझे जाने की ही कभी परवाह नहीं की थी तो डेयरी कहे जाने की चिंता क्यों करते। उन्होंने हमेशा उत्पादन वृद्धि पर जोर दिया और लोग कहते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर उन्हें पद्मश्री से अवश्य सम्मानित नहीं किया जाएगा और नहीं किया गया तो वे आंदोलन छेंड़ देंगे कि उन्हें पद्मभूषण दो और प्रधानमंत्री चाहें मोदीजी हों, उन्हें देना ही पड़ेगा।
सुख
भारत के लोग इस लिहाज से बहुत ही सुखी हैं कि उन्हें इस देश में दूसरों के साथ बदत्तमीजी करने का सुख प्रभूत मात्रा में प्राप्त होता है। इस सुख जैसा सुख उन्हें न तो संगीत में मिलता है, न साहित्य में। न भजन कीर्तन में और यहाँ तक कि दूसरों की निंदा करने में भी नहीं मिलता। इसमें उन्हें परमानंद या जिसे चरम सुख कहते हैं, उसकी प्राप्ति होती है। यहाँ जाति, धर्म, पैसा, पद उम्र आदि में अपने से छोटों के साथ बदत्तमीजी करने का लगभग जन्मसिद्ध सा अधिकार मिला हुआ है। भारतीयों के दुर्भाग्य से संविधान ने उन्हें यह अधिकार नहीं दिया है मगर हर अधिकार जरूरी है कि संविधान ही दे तो लें? क्या भारतीयों में पुरुषार्थ की कमी है? वैसे भी कहते हैं कि पुरुषार्थ हो तो सबकुछ मिल जाता है।
वैसे हर अधिकार का अपना ही एक सुख होता है मगर इस सुख को हमारे भारतीय भाई-बहन जितना लूटते हैं, उतना दूसरा कोई सुख उन्हें मुफ्त में घर बैठे भी मिल जाए तो लूटना पसंद नहीं करते। इस सुख के आगे उनके लिए हर सुख छूँछा है। रामनाम की लूट में तो पता नहीं आजकल कितने लुटेरे शामिल हो रहे हैं मगर इस लूट में तो हर तरह का समर्थ स्वेच्छा से खुशी-खुशी शामिल होता है बल्कि इस सुख से कुछ दिन वंचित रह जानेवाले कई लोग आत्महत्या करते पाए गए हैं। यह एक चिंतनीय स्थिति है जिस पर बदकिस्मती से आज तक किसी विचारक ने विचार नहीं किया है।
खैर इनके प्रति मैं अपनी और आपकी ओर से भी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और ईश्वर से कामना करता हूँ कि इन्हें न मिला हो तो स्वर्ग ही मिले ताकि अगर उन्होंने यह सुख धरती पर किसी संयोग से न लूटा हो तो वहाँ इस सुख को जन्म जन्मांतर तक भोग सकें। वैसे भी स्वर्ग है किसलिए-सुख लूटने के लिए ही न।
अद्भुतजी
एक थे अद्भुतजी। थे क्या बल्कि अभी हैं और ईश्वर करे हमेशा बने रहें क्योंकि ईश्वर ही उन पर या किसी पर ऐसी कृपा कर सकता है। अतः ईश्वर का यहाँ सकारण स्मरण किया गया है। वैसे अद्भुतजी में अद्भुत के बाद जी लगाना उन्हें छोटा बनाकर पेश करना है मगर मर्त्यलोक के इस प्राणी को जी के अलावा कोई और उपयुक्त शब्द फिलहाल सूझ नहीं रहा है। अतः इसे मेरी सीमा मानकर जी लगाकर ही काम चलाने की इजाजत दे दी जाए।
अद्भुतजी की चारित्रिक विशेषता यह थी कि वे जो भी देखते-पढ़ते, गुनते सुनते, बुनते-धुनते-चुनते थे, समानभाव से सबकुछ में अद्भुत ही देखा करते थे। न इससे ज्यादा, न इससे कम। मतलब वे हमेशा संतुलित रहते थे। वह इतने ज्यादा संतुलित रहते थे (बार-बार कलम से थे ही न जाने क्यों निकल रहा है। इसे कलम की या मेरी या दोनों की अक्षमता समझकर माफ किया जाए।) कि वे नरसंहार, बलात्कार, दंगा, बम विस्फोट सबमें समानभाव से अद्भुत देखा और कहा करते थे बल्कि सिर्फ कहते ही नहीं थे। जितना कहते नहीं थे, उससे ज्यादा मानते थे। इस प्रकार उनके कर्म और वचन में एक अद्भुत समानता थी, जो प्रायः लोगों में नहीं पाई जाती।
अद्भुत शब्द उन्हें इतना प्रिय था, इतना प्रिय था कि इसके बारे में उनसे बहस करना व्यर्थ मानकर लोग उनसे बहस नहीं किया करते थे बल्कि लोगों का उनके प्रति इसे सम्मान कहिये या जो कुछ कहिए, लोग उनसे किसी भी बारे में कोई भी बहस करना व्यर्थ समझते थे- इतने अद्भुत थे वे - अद्भुत और अनोखे।
जब तक वे हैं इस धरती पर आदमी चाहे जितने और जैसे मर जाएँ और मार दिये जाएँ मगर कोई अद्भुत शब्द को मार नहीं पाएगा। आनेवाले वक्त में उनका स्मरण अद्भुत शब्द के प्रति उनके अद्भुतप्रेम के कारण किया जाएगा, जो कि इस संसार की संभवतः एक अद्भुत घटना होगी।
लोग कहते हैं कि वे दिन में कम से कम पचास बार अद्भुत शब्द का उच्चारण किया करते थे मगर इन पंक्तियों के लेखक को एक बार उनके साथ संपर्क करने का सौभाग्य मिला था तो अगर मुझे गिनती ठीक से आती है तो सुबह से शाम तक (रात होना बाकी था।) सौ या एक सौ एक बार उन्होंने इस शब्द का उच्चारण किया था और बिना किसी उच्चारण दोष के किया था। ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व के बारे में जितना कहा जाए वैसे कम है। अतः कम कह कर ही कलम को विराम देना उचित होगा। जिसे थोड़ा कहा ज्यादा समझना की पत्र शैली में आप स्वयं जितना उचित, समझें समझ जाएँ।
खरबूजा
आदमी तो खैर आदमी होता ही है। आदमी होकर भी वह आदमी न हो तो वह कम से कम वह दो हाथ-दो पाँव का प्राणी तो होता ही है, जिसे पहली नजर में देखकर यही कहना पड़ता है कि हाँ यह आदमी है। लेकिन आदमी सिर्फ आदमी ही नहीं होता या वह आदमी होने का भ्रम ही पैदा नहीं करता। वह खरबूजा भी होता है। जैसे एक खरबूजा दूसरे खरबूजे को देखकर रंग बदलता है। वैसे ही आदमी भी किया करता है। और खरबूजे की तो मजबूरी यह है कि वह खरबूजा है और केवल रंग ही बदल सकता है मगर आदमी तो आदमी है न। वह रंग भी बदलता है, ढँग भी बदलता है, और कुछ बदलने की नौबत आ जाए तो वह भी बदलने से नहीं हिचकिचाता। नंगई पर उतरने की नौबत आ जाए तो भाई बहनों वह इससे भी जरा नहीं डरता।
जिस तरह कोई खरबूजा मीठा तो कोई फीका होता है, उसी तरह आदमी भी सब तरह के होते हैं। कुछ तो इतने ज्यादा मीठे होते हैं कि गुड़-शक्कर भी उनके सामने पानी भरते हैं। वे गुलाब जामुन और बंगाली रसगुल्ले को भी मात दे देते हैं। उनकी संगत में ज्यादा बैठो तो हम पर चींटियाँ चलना शुरू हो जाती हैं। वे काटना शुरू कर देती हैं। उनके साथ ज्यादा बैठो तो डायबीटीज हो जाने तक का खतरा पैदा हो जाता है।
कुछ इतने फीके होते हैं कि फीके खरबूजे को तो फिर भी मन मारकर खाया जा सकता है। चीनी बुरक कर तो खाया ही जा सकता है मगर उनके पास आप दो मिनट भी बैठो तो बैठ नहीं सकते। बात करने लगे तो हूँ-हाँ से आगे कभी बात नहीं बढ़ती। आप बात न करो तो वे आपके सामने अनंत काल तक ऐसे ही मूर्तिवत बैठे रहेंगे। तब आपको ही हार थककर उनसे इजाजत लेनी पड़ेगी कि भाई साहब अब मैं चलता हूँ। आपका इतना कीमत वक्त बर्बाद किया। इसके लिए हृदय से माफी माँगता हूँ मगर उनकी मुद्रा बताती है कि उन्होंने न तो आपको माफ किया है और न अपने आप को।
फिर वही बात कि खरबूजे की मजबूरी तो यह है कि वह खरबूजा ही बना रह सकता है मगर आदमी की मजबूरी तो सिर्फ खरबूजा बना रहना तो नहीं है। वह मीठा और फीका ही क्या और भी न जाने किस-किस स्वाद का हो सकता है। मसलन कुछ इतने खट्टे होते हैं कि खट्टे दही से भी ज्यादा खट्टे होते हैं। तेज गर्मियों में बाहर पड़े फल की तरह खट्टे भी और सड़े भी होते हैं। उन्हें देखकर ही उबकाई आने लगती है। सूंघने की तो बारी ही नहीं आती। कुछ इतने खारे होते हैं कि ऐसा लगता है कि पेट भरने की ऐसी मजबूरी आन पड़ी है कि घर में कुछ है नहीं तो जैसे शीशी में पड़ा नमक खाना पड़ रहा हो ताकि कुछ तो पेट में जाए। बाद में जो होगा, देखा जाएगा।
फिर भी इसमे संदेह नहीं कि आदमी खरबूजा भी होता है हालांकि और भी बहुत कुछ होता है मगर छोड़िए अभी वे बातें। अभी खरबूजे तक बात को समेट देते हैं क्योंकि क्या पता आदमी बुरा मान जाए और मेरा वास्ता तो सिर्फ आदमियों से ही पड़ता है और आदमियों से दुश्मनी मोल लेना सबसे खतरनाक है। हालांकि वैसे मैं एक खरबूजा भी हूँ। कैसा हूँ यह मैं नहीं बताऊँगा। फल नहीं बताया करते अपना स्वाद।
अच्छे दिन
चलो अच्छा हुआ कि अच्छे दिन आखिर आ गए और बुरे दिन अंततः चले गए। तभी तो हम आजकल इतने खुश हैं। मजे पर मजे कर रहे हैं। आजकल तो अंधेरा रात में भी नहीं होता। दिन में हम सोते हैं और दिन में ही जागते हैं। सुबह, दोपहर, शाम का चक्कर अब खत्म है। जब देखो तब सूरज अपने ऊरूज पर रहता है। वैसे भी बेचारा सूरज करोड़ों सालों से उगते-डूबते तंग आ चुका था। उसके भी लगता है अब अच्छे दिन आ गए। उसे उगने-डूबने की परेशानी से मुक्ति मिल गई। कितना बड़ा फर्क महसूस होने लगा है। आजकल तो नालों से बदबू नहीं आती। खुशबू अगर कहीं से आती है तो सिर्फ वहीं से। पहले सात रंग हुआ करते थे। इससे लोग काफी कनफ्यूज रहते थे। आजकल रंगों का फर्क मिट जाने से काम बहुत आसान हो गया है। आजकल सब तरफ एक ही रंग है और एक ही ढँग है - केसरिया। खून भी बहता है तो जमकर केसरिया हो जाता है। आसमान भी आजकल नीला नहीं। केसरिया होने लगा है। पेड़ों के पत्ते तक अब हरे नहीं, केसरिया होते हैं। गधों ने अब रेंकना बंद कर दिया है और कोयलों ने कूकना। कव्वे हालांकि बहुत बुद्धिमान समझे जाते हैं मगर अभी वे समझ नहीं पा रहे हैं काँव-काँव किया करें या न करें। सूअर अब पहले की तरह सिर नीचा करके नहीं बल्कि ऊँचा करके चलने लगे हैं हालांकि इससे गंदगी ढूँढकर खाना उनके लिए मुश्किल हो गया है। वैसे वे पहले की तरह सिर नीचा रखते भी तो उन्हें मिलता क्या। क्योंकि स्वच्छता अभियान सफलता पा चुका है। फूलों ने खिलना बंद कर दिया है तो उनके मुरझाने का सवाल ही अब पैदा नहीं होता। चिड़ियों का चहचहाना और चुगना आजकल बंद है। सर्वत्र शांति का वातावरण है।
जमीन अब आसमान में बदल चुकी है, इसलिए बेचारे आसमान को मजबूरन जमीन हो जाना पड़ा है। अहा, कितना अच्छा, कितना सुंदर लग रहा है न यह बदलाव। देश। देश नहीं बल्कि अब केसरिया रंग का खेत लगने लगा है।
अहा। अच्छे दिन कितने इंतजार के बाद आए हैं लेकिन कहते हैं कि जो आता है, वह जाता भी है। यही प्रकृति का नियम है। हाय ये अच्छे दिन भी क्या चले जाएँगे एक न एक दिन? वैसे हो सकता है इनके जाने का भी हमें इंतजार करना पड़े मगर आप यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि इंतजार का फल हमेशा मीठा होता है।
हें-हें और हीं-हीं
एक थे हें-हें और एक थे हीं-हीं। दोनों ही थे मगर अब हैं नहीं।
हें-हें से आपका पूर्व परिचय है या किसी ने आपसे उनका परिचय पहली बार कराया है तो वे हें-हें से आरंभ करते थे और हें-हें से ही अंत। उनसे हाथ मिलाया कि उनकी हें-हें शुरू हुई। उन्हें नमस्कार किया तो भी हें-हें। कहाँ से आ रहे हैं, यह पूछेंगे तो भी हें-हें। कहाँ जा रहे हैं तो भी उत्तर है - हें-हें। चाय पिएँगे तो भी जवाब है - हें-हें। चाय पीने से इनकार करना होगा तो हाथ इनकार में हिलाएँगे मगर पूरे चेहरे से करेंगे हें-हें। मान लो कोई शरारती उनके हें-हें करने से पहले ही उनसे हें-हें कर दे तो वे नाराज हो जाते थे। फिर उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते थे। अपनी गलती सुधार कर उन्हें वह नमस्कार भी कर ले, क्षमा भी माँग ले तो भी उसका दुबारा नोटिस तब तक नहीं लेते थे। जब तक कि वह कुछ हो नहीं जाता था। इतने स्वाभिमानी थे। वे बोलते कुछ नहीं थे मगर बेरुखी ऐसी दिखाते थे। जैसे आपने उनसे उनका कॉपीराइट छीन लिया हो और उसकी रॉयल्टी भी हड़प ली हो। यहाँ तक कि यह अधिकार उन्होंने किसी प्रकाशक को भी नहीं दे रखा था तो आपको कैसे देते।
उनके प्रशंसक कहते थे कि इस रोनेवाली दुनिया में कम से कम एक शख्स तो है जो बिना बात भी हँसता रहता है। स्वयं प्रसन्न रहता है और हर मिलनेवाले को भी प्रसन्न रखता है जबकि मुझे उन पर इतना गुस्सा आया करता था कि मैं कहता था कि इनको मुँह में एक गेंद फिक्स कर देनी चाहिए ताकि ये जब देखो तब बेबात हँसते हुए न पाए जाएँ। खैर मेरी कथनी और करनी में फर्क है। इसलिए ऐसा करने का प्रयास भी मैंने कभी नहीं किया। इसका परिणाम यह रहा कि वे आराम से मृत्यु होने तक हें-हें करते रहे। मुझे नहीं मालूम उन्होंने हें-हें का कॉपीराइट अपनी संतानों को सौंपा था या नहीं या किसी ने उसका अपहरण कर लिया है।
एक और सज्जन थे। जो हें-हें नहीं हीं-हीं किया करते थे। उनका भी तौर तरीका यही था। बस अंतर इतना था कि वे हें-हें की बजाय हीं-हीं करते थे। अब इन दोनों में से कौन ओरिजिनल था और कौन किसकी नकल करता था, यह आज तक शोध का विषय बना हुआ है। सूर-तुलसी-मीरा से कभी फुर्सत मिले तो मेरी सिफारिश पर इस संबंध में विश्वविद्यालय गहन शोध करवा सकते हैं। समस्या सिर्फ यह है कि ऐसा शोध किसी को दस हजार रुपये देकर करवाया नहीं जा सकता और न दो-तीन तथाकथित शोधग्रंथों की नकल मारकर किया जा सकता है जो कि प्रायः खुद भी किसी और की नकल होते हैं।
हाँ, तो आप उनसे पूछेंगे कि इधर आपने कैसे दर्शन दे दिये तो उनका जवाब है - हीं-हीं। यह पूछें कि आपके दर्शन बहुत दिन बाद हुए हैं तो भी इसका जवाब है - हीं-हीं है। आपकी माँ की तबीयत कैसी है, यह पूछें तो भी वही हीं-हीं। इसके बाद इतनी कृपा जरूर वे करेंगे कि कहेंगे अब ठीक हैं या स्वर्ग सिधार गई हैं या ऐसा ही कुछ और किसी और से हीं-हीं करने आगे बढ़ जाएँगे। उनका आने का उद्देश्य एकमात्र यही लगता था कि वे अपना ब्रांड आपके बीच स्थापित करना चाहते थे और जब वे संतुष्ट हो जाते थे कि यह पुण्यकर्म यहाँ संपन्न हो गया है तो वे इसी मिशन को सामने रखते हुए आगे बढ़ जाते थे।
दोनों ही इस धराधाम से पधार गए हैं लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि मरकर जब भी और जहां भी हम जाएँगे, हमारा स्वागत ये दोनों सज्जन करेंगे। जैसाकि कहा जाता है कि मरने के बाद या तो स्वर्ग मिलता है या नरक (और मुझे तो नरक ही मिलेगा क्योंकि मैं इनमें विश्वास नहीं करता।) तो जब तक मैं या आपमें से कोई वहाँ रहेगा। उनकी संगत का लाभ मुफ्त में मिलता रहेगा। उनका साथ ही समझ लीजिए अपने आप में नरक की सजा है। और मान लीजिए आपको स्वर्ग मिला तो सिर्फ उनके स्वागत का ही आपको लाभ मिलेगा। बाकी समय उनसे मुक्ति मिलेगी। उनसे दुबारा मुलाकात का न होना ही अपने आप स्वर्ग है और मुलाकात का हर पल हर क्षण होना नरक है।
नास्तिक, हनुमान और कूटनीति
मेरे एक मित्र बड़े नास्तिक हैं। मैंने उन्हें काफ़ी समझाया कि बंधु नास्तिक होने में वैसे तो कोई बुराई नहीं है मगर जब सारी दुनिया आस्तिक हुई पड़ी है, यहाँ के वैज्ञानिक तक जब आस्तिक होते हैं तो तुम काहे इस चक्कर में पड़े हो! हो जाओ आस्तिक। भारत में तुम्हारा मान बहुत बढ़ जाएगा। साथ में हिंदूवादी भी बन जाओगे तो हो सकता है तुम्हारी चाँदी हो सकती है। मोदी सरकार में कहीं-कहीं न कहीं फिटर के रूप में ही सही फ़िट हो जाओ मगर उन्हें मान सम्मान और पद की फ़िक्र ही कहाँ! पागल हैं।
एक दिन वे बोले 'पार्टनर, ये बताओ तुम्हारा हनुमान जी के बारे में क्या ख़्याल है!'
मैंने इन चक्करों में पड़ने की बजाय कहा - “तुम मतलब की बात करो। कहना क्या चाहते हो।‘
उसने कहा - तुमने कभी पढ़ा ही होगा कि मेघनाद के वार से जब लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे तो उनका इलाज करने के वास्ते हनुमान वैद्य सुशेन को लंका से उठा लाए थे। वैद्य ने जब कहा कि लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर करने के लिए तो फलां पर्वत से संजीवनी बूटी लानी पड़ेगी तो हनुमान बूटी लाने की बजाय पूरा पहाड़ ही उठा लाए थे।‘
'तो क्या हुआ? 'मैंने कहा -'इस कहानी को तो तुम-हम बचपन से जानते हैं। अब इस उम्र में मुझे यह क्यों सुना रहे हो?'
'सुना इसलिए रहा हूँ कि तुम में अक्ल नहीं है।‘
सारी दुनिया गवाह है कि मुझमें बहुत अक़्ल है मगर मेरा मित्र कह रहा है कि अक्ल नहीं है। ख़ैर मित्र ने कहा तो मैं चुपचाप सह गया। और क्या भी करता। क्या इतनी सी बात पर उससे दोस्ती तोड़ देता! उसने जारी रखा कहना-'तुम इस कहानी से क्या समझे! 'मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया और कहा -'तुम अपना प्रवचन जारी रखो न।' 'इसीलिए कहता हूँ कि तुममें अक़्ल नहीं है मगर तुम मानते ही नहीं। दोस्त की बात पर भरोसा नहीं करते और दूसरों की बात पर फौरन। तुमने इस कथा पर कभी सोचा ही नहीं।' मैं चुप ही रहा और उसे बोलने दिया। 'इसका अर्थ यह है कि हमारे यहाँ दादागिरी की परंपरा काफी पुरानी है। लाखों करोड़ों साल पुरानी न मानों तो हज़ारों साल पुरानी तो है ही। वैद्य दुश्मन के देश में है तो उसका अपहरण कर लाओ। दूसरी बात यह है कि रामदूत हनुमान अवश्य ही अतुलित बलशाली रहे होंगे मगर ज्ञान और गुण के सागर भी रहे होंगे, जैसा कि हनुमान चालीसा में लिखा है-इसमें डाउट होता है। ज्ञान के सागर से एक बूटी लाने को कहा जाएगा तो वह कभी पूरा पर्वत उठाकर नहीं ले जाएगा। पहले तो जितना हो सकता है, उस बूटी के रूप-रंग-सुगंध आदि के बारे में वैद्य से ही समझने-जानने की कोशिश करेगा। फिर भी संदेह रह जाएगा कि तो एक नहीं चार स्थानीय जानकारों से पूछेगा कि भैयाजी क्या यही है संजीवनी बूटी? जब उसे पक्का विश्वास हो जाएगा कि यही है तो ले आएगा। हम भी जब दवा की दुकान पर जाते हैं तो डाक्टर की लिखी पर्ची दुकानदार को दिखाते हैं और उसके द्वारा दी दवा घर ले आते हैं। डाउट होता है तो डाक्टर को वह दवा दिखा देते हैं। दवा की पूरी दुकान तो डाक्टर के यहाँ उठाकर नहीं ले जाते! लेकिन हनुमानजी को तो यह दिखाना था कि वे कितने बलशाली हैं और अपने मालिक के कितने वफ़ादार हैं। इसलिए लक्ष्मण की जान बचाना उनकी मूल चिंता नहीं थी। फिक्र थी अपनी वफादारी के प्रदर्शन की। इसका यह मतलब भी हुआ कि इस देश में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने की भी परंपरा काफी पुरानी है। दादागीरी चल रही है तो पूरा का पूरा पहाड़ काटकर ले जा रहे हैं। कोई चिंता नहीं कि स्थानीय लोगों का क्या होगा। उनकी आजीविका का क्या होगा और पूरा पर्वत उठाकर ले जाकर जहाँ स्थापित करोगे। वहाँ के जंगलों, जानवरों, लोगों का भी क्या होगा! यह तो अच्छा है कि अंग्रेज बाद में आए थे और उनके आने के बाद भारतीय दंड संहिता का निर्माण हुआ वरना हनुमान ही नहीं। राम। लक्ष्मण पर भी इतनी कानूनी धाराएँ लग जातीं कि सभी के सभी फँस जाते और सीता समेत सब हनुमान की तारीफ़ करने की बजाय उन्हें गालियाँ देते। तब भी क्या तुलसीदास क्या हनुमान की इसी तरह तारीफ़ करते और हम उनकी पूजा!'
मैंने फिर से चुप रहना ही ठीक समझा क्योंकि मैं मानता हूँ कि मुझमें अक़्ल है और जिसमें अक़्ल होती है वह मित्र की टेढ़ी बातों पर भी कूटनीतिक चुप्पी लगाने में उसका पूरा इस्तेमाल करता है!