कार्ड
कार्ड


आजकल "कार्ड" खेलने का जबरदस्त प्रचलन है । क्या नेता और क्या अभिनेता । सब एक से बढकर एक खिलाड़ी हैं । समाज भी पीछे नहीं है इसमें । अपने फायदे के लिए कार्ड खेलकर देश का कितना नुकसान कर रहे हैं ये लोग , इसकी परवाह किसे है ? देश जाये भाड़ में , इन्हें तो अपना फायदा नजर आना चाहिए और इसके लिए देश तोड़ने की जरूरत पड़े तो उसमें जरा सी भी शर्म नहीं आती है इन लोगों को । वैसे एक बात है , अगर इनमें शर्म ही होती तो क्या ऐसे लोग ऐसे "कार्ड" खेलते ?
कार्ड भी अलग अलग प्रकार के हैं और खेलने वाले भी अलग अलग प्रकार के । जैसे "नटवरलाल" को "मुफ्त" वाला कार्ड खेलना बहुत पसंद है । वैसे वह एक साथ बहुत से "कार्ड" खेल लेता है यह नटवरलाल । नाम भी तो उसका "नटवरलाल" है तो "चार सौ बीसी" तो उसके खून में भरी पड़ी है इसलिए वह कब कौन सा "कार्ड" खेल जाये, किसी को पता ही नहीं लगता है । वैसे वह "विक्टिम कार्ड" खेलने में भी माहिर है । खुद ही पैसे देकर "थप्पड" खाने वाला "विक्टिम कार्ड" खेलते देख चुके हैं हम लोग । इतनी कलाबाजियां खाता है यह आदमी कि बेचारा बंदर भी भौंचक्का रह जाता है । रही बात गिरगिट की तो उसने तो इसे अपना "गुरू" ही बना लिया है ।
कुछ "खानदानी" लोगों को "जाति कार्ड" खेलना बहुत अच्छा लगता है । वे सदियों से ये कार्ड खेलते आये हैं । इस "खेल" के वे "जनक" कहे जा सकते हैं क्योंकि इस "कार्ड" के वे "विशेषज्ञ" माने जाते हैं । कभी "दलित कार्ड" तो कभी "आदिवासी कार्ड" । यहां तक कि वे "ब्राह्मण कार्ड" भी बड़े फख्र से खेल लेते हैं । "ब्राह्मण कार्ड" खेलने के लिए वे कोट के ऊपर "जनेऊ" भी पहन लेते हैं जिससे लोगों को पता चल जाये कि वे "ब्राह्मण कार्ड" खेल रहे हैं ।
कुछ लोग "सेकुलरिज्म कार्ड" खेलने के पुरोधा बन गये हैं । सारी जिंदगी एक वर्ग विशेष का "तुष्टीकरण" करते रहे । आतंकियों को अपना "बाप", "दादा", "फूफा" , "मामा" बताते रहे । वही लोग खुद को "सेकुलरिज्म" का अलंबरदार बताते हैं । यहां तक कि कारसेवकों वाली ट्रेन की बोगी में षड्यंत्र पूर्वक आक्रमण करके 60 लोगों को जिंदा जलाकर हत्या करने वाले लोगों के पक्ष में खड़े होकर षड्यंत्र पूर्वक एक जांच आयोग बनाकर उस भयानक नरसंहार को "दुर्घटना" बतलाने का दुस्साहस तक कर लेते हैं और खुद को उस समुदाय विशेष का "मसीहा" बता कर आज भी "मुस्लिम कार्ड" खेल रहे हैं ।
वैसे इस कार्ड को लगभग हर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल खेलता आया है । यों भी कह सकते हैं कि यह खेल लगभग हर दल को बहुत पसंद है । कारसेवकों पर गोली चलवाने से लेकर इफ्तार पार्टी आयोजित करना , वक्फ बोर्ड को मदद करना , मौलानाओं को तनख्वाह देना , मदरसों को आर्थिक मदद देना , ऐसे अनगिनत काम हैं जो इस "कार्ड" को खेलने में बहुत मदद करते हैं । कुछ बुद्धिजीवी, लिब्रांडुओं को भी यह "कार्ड" बहुत पसंद आता है । कला और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर यह कार्ड गजब का खेला जाता है ।
आपको शायद पता हो या नहीं हो , एक क्रकेटर जिसे इस देश ने सिर आंखों पर बैठाया था । वह इस देश की क्रिकेट टीम का कप्तान भी रहा था । मैच फिक्सिंग में जब पकड़ा गया तो वह "मुस्लिम कार्ड" खेलने लगा । वाह भई वाह ! गजब का खेल है यह । इसी तरह एक आदमी जो भारत का राजदूत रहकर भारत विरोधी साजिशें करता रहा । उसके बाद भी इस देश ने उसे उपराष्ट्रपति के ऊंचे पद पर बैठाया और वहां वह दस साल तक बैठा रहा । तब तक उसे यह देश रहने लायक लगता रहा । लेकिन एक दिन उसे "ब्रम्हज्ञान" होता है और वह "मुस्लिम कार्ड" खेलने लग जाता है और उसे इस देश में "भय" लगना शुरू हो जाता है । इसी तरह से एक फिल्मी हीरो जिसे लोगों ने "किंग" बना दिया , उसका बेटा "ड्रग" केस में पकड़ा जाता है तो वह "मुस्लिम कार्ड" खेलने लग जाता है । बड़ा शानदार कार्ड है यह , जब जिसका मन चाहे , वह यह खेल खेलने लग जाता है ।
एक कार्ड और है "महिला कार्ड" । जब तक किसी नारी को काम के लिए कुछ मत कहो तब तक वह "गाय" जैसी बनी रहती है और जैसे ही उसे कोई काम बता दिया वह जहर उगलना शुरु कर देती है । चीख चीखकर कहती है कि वह "महिला" है । अरे भाई, सबको पता है कि तुम महिला हो, इतना चीखने की क्या जरूरत है ? पर नहीं , उसे तो चीख चीखकर लोगों के सामने "महिला कार्ड" खेलना है और खुद को "विक्टिम" बताना है । कानून भी उसी का पक्ष लेता है । बेचारा पुरुष , उसे तो जमानत भी नहीं मिलती है । पच्चीस पच्चीस साल बाद किसी महिला को याद आता है कि उसके साथ "मी ठू" हो गया था । बस, उसने "ट्विटर" पर लिख दिया कि वह "मी ठू" की शिकार है । अब तो सारे नारीवादी मांग करने लग जाते हैं कि उस आदमी को तुरंत "फांसी" पर चढा दो । ऐसा अद्भुत कार्ड है यह ।
और भी बहुत सारे कार्ड हैं । गिनाने बैठेंगे तो शाम हो जायेगी । एक विज्ञापन आता था कभी "मैलॉडी खाओ, खुद जान जाओ" । तो आप सब लोग समझदार हैं । मैं निपट अनाड़ी आपको क्या समझाऊंगा ।