Tripty Shukla

Comedy Drama

3.7  

Tripty Shukla

Comedy Drama

शर्मा जी बैरागी हैं

शर्मा जी बैरागी हैं

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"पड़ा था राह में जो ठौर बड़ा अच्छा था,

तुम्हारे साथ गुजरा दौर बड़ा अच्छा था,

इश्क मेरा तो ये गुमनाम ही रह जाना था,

मगर जो तुमने किया गौर बड़ा अच्छा था।"

बेटे की कॉपी के पिछले पन्ने पर लिखी कच्ची उम्र के इश्क की यह इबारत पढ़कर शर्मा जी की आँखों में अंगारे दहक उठे थे। थोड़ी देर और देखते रहते तो उन अंगारों के ताप से उनका चश्मा चटक जाना था। चश्मे की चिंता करके उन्होंने कॉपी से नजर हटाई और जोर की आवाज लगाई, 'अजी सुनती हो !' जवाब में बड़ी बेपरवाह सी आवाज आई, 'मुझे बुला रहे हो या दूसरे मोहल्ले में भी कोई बीवी रहती है तुम्हारी ?' शर्मा जी झल्लाते हुए बोले, 'तुमको ही बुला रहा हूँ। इतने ठाठ नहीं हैं मेरे जो चार-चार बीवियाँ रखूँ।' अब तक शर्मा जी की एकलौती बीवी लवलीना साड़ी के पल्लू से हाथ पोछते हुए कमरे के दरवाजे पर प्रकट हो चुकी थीं। शर्मा जी पर एक उड़ती सी नजर डालकर फिर हाथ पोछने में व्यस्त होते हुए वह बोलीं, 'तो आवाज थोड़ा धीरे लगाने से भी काम चल सकता था।'

शर्मा जी इस वक्त किसी दूसरी बहस के मूड में नहीं थे। उनके सामने तो अलग ही प्रचंड सवाल नाग की तरह फन उठा फुफकार रहा था। उसकी फुफकार को आत्मसात करते हुए शर्मा जी बोले, 'अपने लाडले के कारनामे देखो जरा। यह कहते हुए उन्होंने हाथ में पकड़ी कॉपी बीवी की तरफ बढ़ा दी।' कुछ अचकचाहट से लवलीना ने कॉपी पकड़ी और पढ़ना शुरू किया। पल भर में उनके चेहरे की अचकचाहट अलौकिक सुख में तब्दील हो चुकी थी। खुशी तो जैसे उनके चेहरे से फूटी पड़ रही थी, 'आज ही कान्हा जी को प्रसाद चढ़ाऊँगी।'

शर्मा जी की झल्लाहट में अब हैरत भी घुल चुकी थी, 'पगला तो नहीं गई हो ! पढ़ने की उम्र में बेटा इश्कबाजी में मशगूल है और तुम प्रसाद चढ़ाने जा रही हो।' लेकिन लवलीना की खुशी तो जैसे बढ़ती ही जा रही थी, 'बिलकुल चढ़ाऊँगी। जब से पैदा हुआ था मुझे यही चिंता खाए जा रही थी कि कहीं ये तुम्हारी तरह दूसरा बैरागी प्रसाद शर्मा न बन जाए। आज जाकर ये चिंता दूर हुई है।' बीवी की यह बात सुनकर शर्मा जी की हैरानी और गुस्सा, दोनों नेक्स्ट लेवल पर पहुंच चुके थे। फिर भी, दांत न किटकिटाएँ, इस बात का पूरा ख्याल रखते हुए वह बोले, 'कमी क्या है बैरागी प्रसाद शर्मा में ? मैं पूछता हूँ क्या कमी है ? हमेशा मेरे नाम का ताना क्यों मारती हो ?' वैसे तो लवलीना कई बार कई तरीके से इस सवाल का जवाब दे चुकी थीं लेकिन चलो, पति की स्पेशल फरमाइश पर एक बार और सही।

शर्मा जी की गुस्से से लबरेज सवालिया निगाहें लवलीना पर ही गड़ी थीं और उधर बीवी की नज़रें उनको कुछ इस भाव से देख रही थीं जैसे किसी अल्पज्ञानी ने कोई बचकाना सवाल कर दिया हो। वह शांत भाव से बोलीं, 'सारी कमी तो तुम्हारे नाम में ही है- बैरागी। नाम बैरागी रखा था तो शादी भी न करते। काहे किसी का जीवन बर्बाद करना।' इस बार चेतावनी देने के मोड में अंगुली उठाते हुए शर्मा जी बोले, 'देखो नाम पर तो तुम जाओ मत। मेरे माँ-बाप ने रखा है और मुझे बहुत पसंद है। रही बात शादी की तो तुम्हारे जीवन में क्या तबाही ला दी है मैंने जो जब देखो तब ये ताने मारती रहती हो। अच्छा खाती-पीती हो, ओढ़ती-पहनती हो, किस बात की कमी है तुमको ?' लवलीना के शांत भाव में भी ताना मारने वाला मोड चालू था, 'तुम रहने दो, तुमको न समझ आएगा क्या कमी है।' बीवी जाने को पलट पाती इससे पहले ही शर्मा जी बोल पड़े, 'नहीं आज तो समझा ही दो मुझे। माना तुम बहुत समझदार हो पर मैं भी घोंघा बसंत नहीं हूँ।'

लवलीना के शांति से दिए जा रहे तानों को अब गुस्से ने ओवरटेक करना शुरू कर दिया था, 'कितनी बार समझाऊँ ? क्या बस खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना ही सबकुछ होता है ? इंसान हूँ, प्यार के दो बोल भी चाहिए मुझे। 17 साल की शादी में कभी आई लव यू बोला है मुझे ?' शर्मा जी हड़बड़ाते हुए बोले, 'शिव शिव शिव शिव! अब इस घर में ये सब भी सुनने को मिलेगा ? तभी कहूँ बेटा मजनू क्यों हुआ जा रहा है। माँ ही बढ़ावा दे रही है तो किसी बाहरी की क्या जरूरत।' अब लवलीना का गुस्सा चरम पर था, 'शिव शिव तो ऐसे कर रहे हो जैसे ये बेटा शंकर जी ही डाल गए थे झोली में। तुमने तो कुछ किया ही नहीं, तुमको तो कुछ पता ही नहीं।' शर्मा जी हड़बड़ाहट के साथ कुछ झल्लाते हुए बोले, 'हद करती हो तुम भी। कहाँ की बात कहाँ ले जाती हो।' सेंस ऑफ ह्यूमर ने इस गुस्से में भी लवलीना का साथ नहीं छोड़ा था, 'तुम तो मुझे कभी कहीं ले नहीं जाते तो सोचा मैं ही बातों को कहीं ले जाऊँ।' शर्मा जी को जैसे कुछ याद आया, तपाक से बोले, 'हर साल वैष्णो देवी कौन ले जाता है तुम्हें ? बोलो ?' शर्मा जी को लगा कि अब तो इस जंग में उनकी जीत पक्की है लेकिन क्या वाकई ऐसा था?

वैष्णो देवी वाला अस्त्र छोड़कर वह विजयी मुस्कान बिखेर पाते उससे पहले ही लवलीना बोलीं, 'बैरागियों से वैष्णो देवी के अलावा और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। तुम तो हनीमून पर भी मुझे वैष्णो देवी ले गए थे वो भी विद फैमिली।' मगर शर्मा जी भी हार न मानने का प्रण कर चुके थे और इस बार तो सारकास्टिक होने की भी थोड़ी कोशिश करते हुए बोले, 'तो स्विट्जरलैंड ले जाने की मेरी औकात भी नहीं है।' लवलीना ने अब मुद्दे की बात पर आते हुए कहा, 'स्विट्जरलैंड ही जाना होता तो तुमसे शादी न करती। वहाँ न सही, रानीखेत, मसूरी ले जाने की औकात तो है न तुम्हारी।' शर्मा जी मुद्दा समझने की जगह फिर हमेशा की तरह कन्फ़्यूज होकर 'रानीखेत और वैष्णोदेवी में क्या अंतर है ? पहाड़ वहाँ भी हैं और यहाँ भी, बर्फ वहाँ भी गिरती है और यहाँ भी। फिर रानीखेत और मसूरी में कौन से गुलगुले बँट रहे हैं ?'

लवलीना लंबी सांस छोड़ते हुए बोलीं, 'और तुम कहते हो कि तुम घोंघा बसंत नहीं हो।' इतना कहकर वह किचन की तरफ जाने लगीं लेकिन शर्मा जी अभी बात खत्म करने के मूड में नहीं थे। पीछे से ही चिल्लाकर बोले, 'कहाँ जा रही हो ? कोई जवाब नहीं सूझ रहा तो जाने लगीं ? बेटे की करतूतों पर पर्दा डालने के लिए बातें बनवा लों इनसे बस, क्या बात शुरू की थी और कहाँ ले जाकर छोड़ दिया। कोई कायदे की बात इस घर में करना ही गुनाह है।' अब लवलीना का सब्र जवाब दे चुका था, किचन के दरवाज़े पर ही पलटकर भड़कते हुए बोलीं, '19 साल की लड़की को हनीमून पर परिवार सहित वैष्णो देवी ले जाते हो और फिर पूछते हो दिक्कत क्या है। तुम तो पैदा ही बुढ़ापा लेकर हुए थे लेकिन मैं ऐसी नहीं हूँ। मैं बहुत सामान्य इंसान हूँ जिसे जिंदगी में प्यार चाहिए, रोमांस चाहिए। पति के साथ फुर्सत के कुछ पल चाहिए और इनमें धेला भी पैसा खर्च नहीं होता, फिर भी तुम मेरी ये इच्छाएँ कभी पूरी नहीं कर पाए और न कभी कर पाओगे।' शर्मा जी मुँह खोले सुन रहे थे और लवलीना बोले जा रही थीं, 'फिर भी मैंने अपनी शादी बचाने के लिए तुम्हारे साथ हर कदम पर समझौता किया लेकिन अब बात मेरे बेटे की है। यहाँ मैं समझौता नहीं करूँगी, वो प्यार करेगा, हजार बार करेगा। और खबरदार जो तुमने उसे कुछ कहा।' लवलीना की अंगुली शर्मा जी की तरफ थी और शर्मा जी कुछ बोलने के लिए शब्द ढूँढ रहे थे कि तभी लवलीना की आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे।

शर्मा जी यूँ तो काफी कड़क दिल थे। इजहार-ए-इश्क जैसे खतरनाक ख्याल उनको छूकर भी नहीं गुजरते थे लेकिन लवलीना की आँख का एक आँसू भी उनके कड़क दिल को फौरन पिलपिला कर देता था। खड़ूस पति के सारे तेवरों सहित बेटे की कॉपी भी किनारे रखकर वह डायरेक्ट मनाने वाली मुद्रा में परिवर्तित होते हुए बोले, 'देखो ये नहीं, ये नहीं लीना... ऐसे मत करो। इतनी सी बात पर कौन रोता है।' शर्मा जी आगे कुछ बोल पाते कि तभी लवलीना बोल पड़ीं, 'हाँ, तुम्हारे लिए तो ये इतनी सी बात ही है।' शर्मा जी अचानक संभलते हुए बोले, 'अरे मेरे कहने का वो मतलब नहीं था। तुम तो जानती हो तुम्हारा एक आँसू भी नहीं देखा जाता मुझसे। दिल बैठने लगता है मेरा। अच्छा वादा रहा, तुम जहाँ कहोगी इस साल वहीं चलेंगे।' आँसुओं को पोछने की जहमत न उठाते हुए लवलीना बोलीं, 'इधर मेरे आँसू निकलते हैं और उधर तुम यह झूठा दिलासा देने लगते हो। कितनी बार तुम यह कह चुके हो कि इस बार तुम्हारी पसंद की जगह पर चलेंगे लेकिन होता क्या है ? साल के आखिर में हम वही जय माता दी, जय माता दी कहते नजर आते हैं। घरवालों ने कितने प्यार से मेरा नाम लवलीना रखा था, दूल्हा भी प्रेम कुमार नाम का ढूँढ देते तो जाने उनका क्या चला जाता।'

शर्मा जी की शादी अब उस स्टेज तक पहुंच चुकी थी जहाँ प्रेम कुमार जैसे नामों ने इर्ष्याभाव पैदा करना बंद कर दिया था इसलिए उनका सारा फोकस अब भी लवलीना के आँसुओं पर था सो पास जाकर उनका हाथ पकड़कर उन्हें कमरे में वापस लाए और कुर्सी पर बिठाते हुए बोले, 'इस बार पक्का रानीखेत चलेंगे। बस तुम रोना बंद करो।' मगर लवलीना जैसे ठान चुकी थीं कि आज उन्हें किसी तरह के दिलासे में नहीं आना है। फौरन अपना हाथ छुड़ाते हुए बोलीं, 'तुम रहने दो, मुझे पता है कि होना इस बार भी वही है। लेकिन चलो मेरे साथ जो किया, किया, मेरे बेटे को तो छोड़ दो। यही तो उम्र है उसकी, अब नहीं करेगा तो कब करेगा। पढ़ाई में कोई कमी लगे तो टोकना, मगर बस इसलिए मत पीछे पड़ जाओ कि उसने अपने दिल की बात कॉपी पर लिख दी है।' शर्मा जी बीवी को चुप कराने के लिए दिल पर पत्थर रखकर बोले, 'अच्छा बाबा, मैं तुम्हारे बेटे को कुछ नहीं कहूँगा और इस बार हम पक्का कहीं और चलेंगे। बस तुम ये रोना बंद...' शर्मा जी अपना दिलासा पूरा कर पाते कि तभी उनका बेटा अनुराग आँखें मिचमिचाते हुए कमरे के दरवाजे पर प्रकट हो चुका था।

शर्मा जी बीवी को लगभग मना ही चुके थे कि तभी अनुराग उनींदी आवाज में बोला, 'देखो पापा, मेरी पीठ पीछे मेरी बातें न किया करो। और हाँ, आप दोनों ये लड़ना-लड़ाना भी मेरे स्कूल जाने के बाद कर लिया करो। सुबह-सुबह भगवान का नाम लो, मेरा क्यों ले रहे हो।' बेटे की बात सुनकर शर्मा जी भूल गए कि फिलहाल उनका टारगेट बीवी को मनाने पर शिफ्ट हो चुका था। अब उनका गुस्सा शार्प यू टर्न लेकर वापस पुराने लेवल पर पहुँच चुका था, दांत किटकिटाते हुए बोले, 'देखो जनाब की हरकतें।' फिर लवलीना से मुखातिब होकर बोले- 'दसवीं में हैं अभी मगर चालाकी नस-नस में भरी है। माँ-बाप को भगवान का नाम जपने को बोल रहे हैं और खुद इश्क की पींगें बढ़ा रहे हैं।' लवलीना अपने बेटे के बचाव में कुछ बोलती उससे पहले ही अनुराग नींद से काफी हद तक जागते हुए कन्फ्यूज होकर बोला- 'इश्क की क्या ? क्या बढ़ा रहे हैं ?'

अब शर्मा जी एक हाथ हवा में हिलाते हुए बोले, 'लो जी, अब इनसे भोला कोई नहीं। बेटा, बाप हूँ तुम्हारा, मेरे सामने जरा कम चतुर बनो। तुम्हारी कॉपी में मैंने सब पढ़...' शर्मा जी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि लवलीना कुर्सी से उठते हुए बीच में ही बोल पड़ी, 'बेटा तुम नहा लो, मैं नाश्ता बना रही हूँ। स्कूल के लिए देर हो जाएगी।' फिर एक नजर शर्मा जी पर डालते हुए बोलीं, 'इनको तो और कोई काम है नहीं।' इतना कहकर लवलीना कमरे से बाहर निकलने को हुईं कि तभी शर्मा जी बोल पड़े, 'हाँ-हाँ, ले जाओ अपने बेटे को। पति को लाख ताने मार लो लेकिन बेटे से एक सवाल भी न पूछना। क्या करता है, कहाँ जाता है, क्या गुल खिलाता है। कुछ न पूछना। सामने कॉपी में सब लिखा हुआ है मगर तुम अपनी आँखें बंद ही रखना।' लवलीना ने माथे पर हाथ मारा और पति के पास जाकर फुसफुसाते हुए कहा, 'कुछ तो सोचकर बोला करो, बेटा जवान हो रहा है।' लेकिन शर्मा जी फुसफुसाने के मूड में नहीं थे, उसी तेज आवाज में बोले, 'हाँ भई, हम तो जैसे कभी जवान हुए ही नहीं, दुनियाभर की जवानी तुम्हारे बेटे को आकर ही लगी है।'

पति तो समझने से रहे, यह सोचते हुए लवलीना ने बेटे की बांह पकड़ी और बोलीं, 'तू भी यहाँ से हटने का नाम न लेना, इतनी देर से बोल रही हूँ कि तैयार हो जा, स्कूल को देर हो जाएगी।' लेकिन अब अनुराग वाकई वहाँ से हटने के मूड में नहीं लग रहा था क्योंकि अब उसके दिमाग में खुजली मचनी शुरू हो चुकी थी। वह अपने पापा के तानों का मतलब नहीं समझ पा रहा था सो माँ से हाथ छुड़ाते हुए बोल पड़ा, 'कौन सी कॉपी ? क्या लिखा है कॉपी में ?' शर्मा जी ने वही कॉपी उठाई और आखिरी पन्ना खोल लिया और उस पर नजरें गड़ाते हुए अजीब सी लय में पढ़ना शुरू किया-

"पड़ा था राह में जो ठौर बड़ा अच्छा था,

तुम्हारे साथ गुजरा दौर बड़ा अच्छा था,

इश्क मेरा तो ये गुमनाम ही रह जाना था,

मगर जो तुमने किया गौर बड़ा अच्छा था।"

इसके बाद 'अब तो तुम्हें जवाब देना ही होगा' टाइप मुद्रा में शर्मा जी ने पहले बेटे और फिर लवलीना की तरफ देखा। अनुराग की आँखों में अब भी कन्फ्यूज का भाव था लेकिन लवलीना की आँखें जैसे फिर खुशी से नाच उठी थीं। वो अपने बेटे की बलाएँ लेने को हाथ उठा पातीं कि अनुराग बोल पड़ा, 'क्या है ये ?' बेटे की ढिठाई पर शर्मा जी हैरान थे। उसी हैरानी के साथ गुस्से और खीझ के भाव मिलाकर बोले, 'तुम्हें नहीं पता ये क्या है ? हाँ, बहुत शेरो-शायरी करते रहते होगे तभी अपना लिखा एकाध शेर भूल भी जाते होगे।' अनुराग और भी ज्यादा उलझते हुए बोला, 'मेरा लिखा ? आपको किसने कहा कि यह बकवास मैंने लिखी है ?' प्यार की बातों के लिए बेटे के मुँह से 'बकवास' शब्द सुनकर लवलीना के सारे सपने, सारे अरमान मानो वैष्णो देवी की किसी पहाड़ी से छलांग लगा चुके थे। उधर शर्मा जी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। बेटा मुँह पर झूठ कैसे बोल सकता है, शर्मा जी को यह बर्दाश्त के बाहर लगा, 'तुमने नहीं लिखा तो तुम्हारी कॉपी में क्या चचा गालिब या साक्षात कामदेव लिखकर चले गए।'

अब तक अनुराग की नजर कॉपी पर गड़ चुकी थी। बिना कुछ बोले वह शर्मा जी के पास गया, कॉपी हाथ में ली और बंद करते हुए बोला, 'पापा कॉपी पर नाम भी देख लिया करो। राहुल की कॉपी है, नोट्स पूरे करने के लिए लाया था।' फिर सिर झटकते हुए बोला, 'आप भी न पापा।' इतना कहकर वह कमरे से जाने लगा लेकिन दरवाजे पर पहुँचकर अचानक रुक गया और पलटकर बोला, 'कल आप लोगों को कुछ बताना भूल गया था। बोर्ड का फॉर्म भरा था कल, अनुराग नाम अच्छा नहीं लगता मुझे तो उसमें नाम बदल लिया है मैंने।' अब शर्मा जी और लवलीना दोनों हैरान थे। उनकी हैरत देखकर वह झल्लाते हुए बोला, 'यार मम्मी, इससे कॉमन नाम नहीं मिला था क्या, खुद मेरी क्लास में मेरे अलावा तीन अनुराग और हैं। इसीलिए मैंने दूसरा नाम रख लिया है।' इतना कहकर वह दो पल को रुका और माँ-बाप कोई सवाल करते, इससे पहले ही जवाब देते हुए बोला, 'नया नाम विराग रखा है और ये मुझे बहुत पसंद है।'


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