Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

हरि शंकर गोयल

Comedy

5  

हरि शंकर गोयल

Comedy

जूतों की महिमा

जूतों की महिमा

11 mins
518


बड़े काम की चीज हैं जूते । बिना जूतों के कोई दो कदम नहीं चल सकता है । सयानों का कहना है कि अगर किसी का खानदान ही देखना है , किसी की औकात ही देखनी है तो इसके लिए उसके जूते देखो । अगर जूते चमचमाते हुए हैं तो समझिए कि आदमी "खानदानी" है नहीं तो "टटपूंजिया" है । हमने अच्छे अच्छे सेठों को देखा है । डींगें तो लाखों करोड़ों की बघारते हैं मगर पैरों में ढंग के जूते तक नहीं पहनते । घिसी पिटी चप्पल पहनते हैं । इसीलिए तो इन जैसे सेठों की कोई इज्जत नहीं होती है । इज्जत तो केवल "जूते वालों" की ही होती है । जिसका जितना बड़ा जूता उसकी उतनी बड़ी इज्जत । जिसके जूते में दम होता है लोग उसी से डरते हैं । इसीलिए तो लोग कहते हैं कि सरकार में काम या तो "जूते वालों" के होते हैं या फिर "पैसे वालों" के । बाकी लोग तो धक्के खाने के लिए पैदा हुए हैं । जाति , समुदाय के नाम पर लोग अपने "जूते" की ताकत दिखाते रहते हैं । सरकारों को झुकाते रहते हैं । शाहबानो केस में हमने यह साक्षात देखा है कि किस तरह माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए संसद में कानून बनाया गया था । इसे कहते हैं "जूते की ताकत" महज 15% लोगों ने सरकार को घुटनों पर ला दिया था ।


ऐसा नहीं है कि लोग "धक्के" ही खाते हैं । कुछ लोग "जूते" भी खाते रहते हैं । कुछ लोगों को जूते खाने का इतना शौक होता है कि वे गाहे बगाहे इस शौक को पूरा करते रहते हैं । अपने "जूताराम" जी को ही देख लो । गली मौहल्ले की औरतों को छेड़े बिना उन्हें चैन आता नहीं और उन औरतों को भी जूताराम जी की "जूतों से आरती" किये बिना चैन नहीं आता है । लोगों ने जूता राम जी को इतने जूते खिलाए हैं कि उनका नाम ही जूता राम रख दिया है। इस नाम से जूता राम जी भी प्रसन्न हैं । इस नाम के कारण उन्हें हर कोई जानता है । लोगों को नाम कमाने में सदियां लग जाती है मगर जूता राम जी अपने नाम के कारण ही सब जगह प्रसिद्ध हो गए । हर साल उन्हें इतने जूते पड़ते हैं कि उनके परिवार को जूते खरीदने की जरूरत ही महसूस नहीं होती है । 


इस देश में दो श्रेणी के लोगों को जूते बहुत मिलते हैं । एक तो नेताओं को और दूसरे कवियों को । पहले जब कवि सम्मेलन एक बड़े से खुले मैदान में हुआ करते थे तो "कवि लाल" जी जब अपनी कविताएं पढ़ने के लिए खड़े होते थे तभी से उन पर जूतों की बौछार होने लग जाती थी । कवि लाल जी भी पक्के बेशर्म आदमी थे । उनका सारा ध्यान जूते इकट्ठे करने में रहता था न कि कविता पढ़ने में । इतने जूते मिलते थे उनको कि वो उन्हें बाजार में जूते वालों को बेच दिया करते थे । बाद में उन्होंने खुद ही जूतों की एक दुकान खोल ली थी और वे मालामाल हो गए । आयोजकों से वे कहते थे कि चाहे कविता पढ़ने का पारिश्रमिक बिल्कुल मत दो लेकिन उन्हें कविता पढ़ने का मौका जरूर दो । कविता पढ़ने के कारण जूते पड़ेंगे और ये जूते ही उनका पारिश्रमिक होते थे । एक बार किसी आयोजक को इस बारे में पता नहीं था और उन्होंने कवि लाल जी को कविता पढ़ने के लिए बुला लिया । कविता पढ़ते समय जब उन पर जूतों की बौछार होने लगी तो आयोजक जी बहुत घबराये और माइक पर अपील करने लगे कि श्रोता गण जूते नहीं फेंके । इस पर कवि लाल जी वहीं बिगड़ गए । कहने लगे कि मैं तो अपनी कविताएं लिखता ही ऐसी हूं कि अधिक से अधिक जूते पड़ें मुझ पर । और एक आप हैं कि लोगों को जूता मारने से रोक रहे हैं । अगर अपील ही करनी है तो ये अपील कीजिए कि अधिक से अधिक जूते मारें । आयोजक जी हतप्रभ रह गए यह सुनकर। वे मंच पर ही बेहोश हो गए । 


नेताजी की स्थिति तो और भी श्रेष्ठ है । जब वे अपना दौरा करते हैं तो लोग उन्हें जूतों की माला पहना देते हैं । नेताजी इतने महान हैं कि वे जूतों की माला पहनते हुए फ़ोटो भी खिंचवाते हैं और वे फोटो उनके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते हैं । लोग जब उन फोटुओं के बारे में पूछते हैं तो नेताजी बड़े गर्व से बताते हैं कि फलां गांव में उन्हें 51 जूतों की माला पहनाई गई और फलां शहर में 101 जूतों का बूके भेंट किया गया था। ये फोटो उसी महान अवसर के हैं। उन्होंने अपने ड्राइंग रूम में भांति भांति के जूते भी सजा रखे हैं । आप ग़लत समझ रहे हैं । ये वो जूते नहीं हैं जो उन्हें जनता ने मारे हैं । ये जूते वो हैं जो उन्होंने टिकट पाने के लिए पार्टी के बड़े नेताओं के चाटे हैं । उन्होंने इतने जूते चाटे इतने चाटे कि पार्टी ने उन्हें टिकट के साथ ही वे जूते भी उपहार में भेंट कर दिए । नेताजी ने जूतों की आवक देखकर अपने पुत्र को जूतों की एक दुकान ही खुलवा दी । मगर उनको जूते इतने मिल रहे हैं कि अकेली दुकान से उनकी पूरी खपत नहीं हो रही है इसलिए उन्होंने निर्यात करना शुरू कर दिया है । इस धंधे से वे मालामाल हो गए हैं । 


जूतों की महिमा इतनी ज्यादा है इस देश में कि आप जिधर देखोगे उधर ही "जूतम पैजार" होती हुई दिखाई देगी । हर घर , समाज , गांव, शहर , देश सब जगह लोग "जूतों में दाल बांट रहे" हैं । बीच चौराहों पर "जूता युद्ध" देखने में जो मजा आता है वह मजा तो "चिकनी चमेली" देखने में भी नहीं आता। 


जूतों में सबकी जान बसती है । जितना ध्यान हम लोग अपने जूतों का रखते हैं शायद उतना ध्यान किसी और का नहीं रखते हैं । अभी कुछ दिन पहले ही हम लोग एक प्रसिद्ध मंदिर में दर्शन करने पहुंचे । जब हम लोग दर्शन कर रहे थे तो हमारे माथे पर चिंता की लकीरें देखकर पंडित जी ने कहा "वत्स , मंदिर में ध्यान प्रभु जी में लगाओ और सब चिंता फिकर यहीं छोड़ दो " हमने कहा " पंडित जी , प्रभु जी में ध्यान कैसे लगाऊं ? वो बाहर पांच जोड़ी जूते खुले में पड़े हैं । उनका कोई धणी धोरी नहीं है । अगर कोई उठाकर ले गया तो पूरे 25000 रुपए की चपत लगेगी । ये माथे पर जो चिंता की लकीरें आप देख रहे हैं न , ये इसी कारण से है" । बाहर "जूता भक्त" इंतजार में रहते हैं कि कब निगाह चूके और वह कब जूता साफ करे । आजकल तो हर मंदिर में "जूता घर" बनता है जो जूतों की महिमा का बखान करता है । क्या कभी किसी ने पैंट घर, शर्ट घर या साड़ी घर देखा है ? मगर जूता घर हर सार्वजनिक जगह पर मिलता है। ये है जूतों का रौब । अलग घर चाहिए उन्हें । एक इसी घटना से जूतों की महिमा पता चल जाती है ।


अभी कल ही एक विवाह में जाना हुआ । भोजन नीचे दरी बिछाकर कराया जा रहा था । जूते बाहर गेट पर ही खुलवाये जा रहे थे । हमसे भी कहा गया जूते उतारने के लिए । मगर हमने मना कर दिया । पूछने लगे कि ऐसा क्यों ? हमने भी कह दिया कि तुम्हारा भोजन तो केवल दो सौ तीन सौ रुपए का होगा लेकिन हमारे तो जूते ही पांच हजार रुपए के हैं । कोई ले गया तो ? कौन जिम्मेदार होगा इसका ? और भोजन करने से पहले पांच सौ का लिफाफा देना पड़ेगा सो अलग । इससे तो अच्छा है कि मैं भोजन करूं ही नहीं । वो भी बड़े चालाक निकले । पांच सौ के लिफाफे के चक्कर में एक पैकेट में भोजन लेकर आ गए और कहने लगे कि आये हो तो भोजन तो करना ही पड़ेगा ना इसलिए हमने भोजन इस पैकेट में पैक कर दिया है । पर हम भी पूरे शातिर दिमाग वाले थे । हमने भी पांच सौ का लिफाफा कहकर इक्यावन रुपए वाला लिफाफा पकड़ा दिया । हम कोई कम थोड़े ही हैं ।


जब हमारी शादी हुई थी तो हमने जूतों पर विशेष ध्यान रखा । शादी में जूते चुराने की एक परंपरा होती है । हमने इसे "नाक का बाल" बना दिया था कि जूते चुरने नहीं चाहिए । चार मुस्टंडों का एक सुरक्षा दल गठित कर दिया । केवल एक ही टास्क था इस सुरक्षा दल का और वह था "जूतों की रक्षा करना" । हमने फेरों पर बैठने से पहले ही "जूतों" को सुरक्षा दल को सौंप दिया । सुरक्षा दल ने भी जी जान से अपनी ड्यूटी दी । हमारी सालियां ढूंढ ढूंढ कर थक गई मगर उन्हें हमारे जूते नहीं मिले । जब सब लोग थक गए और उन्होंने अपनी हार मान ली तब हमने वह सुरक्षा दल बुलवाया और जूते लेकर पहन लिए । सबने हमारे इस कौशल की भूरि भूरि प्रशंसा की मगर हमारी सालियां नाराज हो गई । हमने उन्हें पैसे देने की बहुत कोशिश की मगर वो खुद्दार निकलीं । कहने लगी कि हमने चोरी तो की ही नहीं फिर मेहनताना कैसा ? हम तो उनकी खुद्दारी के कायल हो गए। धन्य है यह देश जहां "जूता" चुराने पर पुरुस्कार भी दिया जाता है । 


इससे भी बड़ी घटना बेटे की शादी पर हुई । हमारी श्रीमती जी ने हमारी " जूता वाली वीरता" का बखान सब जगह पर कर रखा था । हमारे बेटे ने भी कहा कि पापा जैसे आपने अपने जूतों की "प्राण रक्षा" की वैसे ही मेरे जूतों की भी करना । हमें अपनी इस प्रतिभा पर बहुत गर्व हुआ । हमने फिर से एक सुरक्षा दस्ता तैयार किया और जूतों को उसके सुपुर्द कर दिया । बेटे की सालियां अपने "शिकार" की खोज में इधर-उधर भटक रहीं थीं । हमें उनकी दयनीय हालत पर बड़ा तरस आ रहा था । सब लोग उन्हें व्याकुल होते देखकर बड़े खुश हो रहे थे । हमें अपनी विधा पर गर्व की अनुभूति हो रही थी । जब फेरे संपन्न हुए तो हमने सुरक्षा दल बुलवा कर जूते दूल्हे को पहनवा दिए । सब काम संपन्न हो गया । हम अपने जूतों की ओर बढ़े । ये क्या ? हमारे जूते गायब ? ऐसा भी कोई होता है क्या ? दूल्हे के जूते चुराए जाते हैं मगर यहां पर तो दूल्हे के बाप के जूते चुरा लिए गये । तभी महिलाओं की हंसी का फव्वारा छूट पड़ा । हमारी समझ में सारा माजरा आ गया । उन लोगों ने अपनी बुद्धिमत्ता का लोहा मनवा दिया हमें । हमने भी उनको ग्यारह हजार रूपए देने चाहे लेकिन उन्होंने केवल इक्यावन सौ रुपए ही लिए । इतनी ईमानदारी ? गजब है । ऐसे "जूता चोर" बिरले ही होते हैं जो सिद्धांतों के पक्के हैं । एक नया चलन ईजाद कर दिया उन लोगों ने। दूल्हा के ना सही दूल्हे के बाप के जूते चुरा लो । मजा आ गया । हमारी भी तमन्ना पूरी हो गई । हमारी शादी में ना सही , हमारे बेटे की शादी में हमारे जूते चुरा लिए गए। 


अभी हमारे मित्र के बेटे की शादी थी । सारी व्यवस्थाओं के बारे में हमसे "विशेषज्ञ" सलाह ली जा रही थी । हमने कहा " चाहे और किसी का इंतजाम करो या ना करो मगर बूट पॉलिश वाले का इंतजाम अवश्य करना है । आखिर "जूतों" की इज्जत का सवाल है" । 


जूतों में गजब का अपनापन है । दोनों जूते आपस में इस कदर प्यार करते हैं कि वे एक दूसरे के बिना एक कदम भी नहीं चलते । यदि किसी कारणवश एक जूता गुम हो जाए या चोरी हो जाए तो दूसरा जूता कह देता है कि वह अपने भाई के बिना नहीं जा सकेगा । दोनों भाइयों में इतना प्यार जैसे श्रीराम और भरत जी में था । काश इंसानों में भी इतना प्यार होता । 


जूतों की महिमा का वर्णन फिल्मों में भी किया गया है । बॉलीवुड के शो-मैन राजकपूर साहब ने अपनी एक फिल्म में बताया था कि उनका जूता कहां का है, पतलून कहां की है और टोपी कहां की है । इसके लिए उन्होंने एक गाना महान गायक स्वर्गीय मुकेश जी से गवाया था । 


मेरा जूता है जापानी 

पतलून इंगलिश्तानी 

सर पे लाल टोपी रूसी 

फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी ।।


जूतों को सम्मान देने के लिए बॉलीवुड ने तो एक फिल्म का नाम ही "बूट पॉलिश" रख दिया था । माधुरी दीक्षित जी और "भाईजान" से भी एक गाना गवा दिया था 

जूते दे दो , पैसे ले लो 


पहली बार ऐसा लगा कि लोग जूते खाने के लिए इतने लालायित हैं कि सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि हमें तो जूते मारो चाहे पैसे कितने ही ले लो । वाह जी वाह । क्या महिमा है जूतों की । 


आखिर में एक बात और । बेटा बड़ा हो गया है यह कब पता चलता है ? बताइए, बताइए ? नहीं पता ? चलिए हम ही बता देते हैं । कहते हैं कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आ जाए तब समझ लेना चाहिए कि बेटा अब बड़ा हो गया है । और तब से ही बेटे को बेटा मानना बंद कर उसे मित्र मानना शुरू कर देना चाहिए । घर के निर्णयों में उसे सह भागीदार बनाया जाना चाहिए । जूतों ने बेटे का स्टेटस ही बदल दिया । 


कोई जमाने में बेटों की पिटाई जूतों से ही होती थीं । कुछ बाप ऐसे होते थे कि वे अपने बेटे को नियम से रोजाना जूतों से पीटते थे । जब तक वे अपने बेटे को जूतों से पीट नहीं लेते , उनका खाना हजम नहीं होता था । हमारे पड़ोस में एक "झगड़ा चंद" जी रहते थे । एक दिन स्कूल से मास्साब ने उन्हें बुलवाया और उनके बेटे "कपूत चंद" की कारस्तानियों का विस्तार से बखान किया । फिर क्या था । झगड़ा चंद जी वहीं कक्षा में ही शुरू हो गए । कपूत चंद की जूतों से जो कुटाई सबके सामने की , उसे कपूत चंद जिंदगी भर नहीं भूल सकता है । स्कूल से घर तक आते आते सरे बाजार कूटते आये वे । रास्ते में "हिमायत चंद" मिल गए और कपूत चंद की हिमायत करने लगे तो झगड़ा चंद जी कपूत चंद को छोड़कर हिमायत चंद की हिमायत उतारने में लगा गए ।


जूतों की महिमा अपरंपार है । मेरे पास तो लिखने को मसाला भी बहुत है और समय भी खूब है लेकिन आदरणीय पाठक गणों का तो समय बहुत कीमती है ना । कब तक पढ़ते रहेंगे ऐसी बकवास को ? 


अच्छा तो ये बकवास अब यहीं बंद करता हूं । 



Rate this content
Log in

More hindi story from हरि शंकर गोयल

Similar hindi story from Comedy