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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी, भाग 69

ययाति और देवयानी, भाग 69

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देवयानी ययाति को कुंए में गिरने की घटना बता रही थी । घटना का वर्णन करते करते उसके चेहरे का रंग रक्ताभ हो गया था । उसके नथुने फूल गये थे । आंखों से क्रोध के कारण चिंगारियां निकलने लगी थी । सांस फूलने लगी थी और वह ताप से उष्ण हो गई थी । उसका वह रूप देखकर ययाति सहम गया । उसे शांत करने के लिए वह कहने लगा 


"शांत देवि, शांत ! इतना क्रोध करना उपयुक्त नहीं है । क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन होता है । क्रोध की अग्नि न केवल तन को दग्ध करती है अपितु मन को भी जला डालती है । आपका यह निष्पाप सौन्दर्य क्रोध के कारण दूषित हो जायेगा । क्रोध करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकला है आज तक । क्रोध से विध्वंस ही होता है निर्माण नहीं । क्रोध की ज्वाला में बुद्धि, विवेक सब कुछ जल जाता है । साम्राज्य, संबंध और सत्त्व गुण, सभी । जरा शीतल मन से सोचिए देवि ! क्या राजकुमारी शर्मिष्ठा ने आपके वस्त्र जानबूझकर पहने थे ? वो तो हड़बड़ी में पहन लिये होंगे उन्होंने । आपके वस्त्र पहनकर उन्हें क्या लाभ होता ? भला , आप ही सोचिए" ? 


"अरे, आप नहीं जानते सम्राट ! शर्मिष्ठा कहने को तो मेरी सखि है परन्तु वह मुझसे बहुत ईर्ष्या करती है । मैं शुक्राचार्य की पुत्री हूं ना , इसीलिए वह मुझसे द्वेष रखती है । मेरे पिता के सम्मुख महाराज वृषपर्वा की हस्ती ही क्या है ? वे उनके सम्मुख सदैव नतमस्तक खड़े रहते हैं । इस दृष्टिकोण से शर्मिष्ठा को भी मेरे समक्ष नतमस्तक ही खड़े रहना चाहिए । क्यों मैं सही कह रही हूं ना सम्राट" ? 


ययाति दुविधा में फंस गया । न हां कहते बन रहा था और न ना कहते । हां वह कह नहीं सकता था क्योंकि देवयानी के समक्ष शर्मिष्ठा नतमस्तक क्यों खड़ी रहे ? और ना कहने की उसकी हिम्मत नहीं थी । यदि वह ना कह देता तो देवयानी का शर्मिष्ठा के प्रति सारा क्रोध उस पर ही उतर जाता । ऐसे अवसर पर मौन रहना ही उचित समझा सम्राट ययाति ने । कहते हैं कि एक मौन हजारों जवाबों से बेहतर है क्योंकि इस मौन से अनेक सवालों की प्रतिष्ठा बनी रह जाती है । 


ययाति का मौन देवयानी को अखरा । "सम्राट को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है संभवत: । तभी वे मौन धारण किये बैठे हैं । क्यों है ना सम्राट" ? 

देवयानी बरबस अपने अधरों पर मुस्कान लाकर बोली । देवयानी को किस्मत से ययाति जैसा वीर , पराक्रमी, सुन्दर युवक मिला था जिसके साथ उसने विवाह करने का निश्चय कर लिया था । ऐसा व्यक्ति यदि उसका पति बन जाता है तो वह अपना समस्त जीवन ऐश्वर्य में व्यतीत कर सकेगी । यदि उसने अभी से ययाति को प्रताड़ित किया तो वह उससे विवाह नहीं करेगा । और वह ऐसा होने नहीं देगी । 


वह भली भांति जानती थी कि मर्दों की निर्बलता सौन्दर्य है । ईश्वर ने देवयानी को अद्वितीय सौन्दर्य प्रदान किया है । इसी सौन्दर्य के बल पर वह ययाति को अपने वश में करेगी । देवयानी सोचने लगी और वह रह रहकर कभी नयनों में मदिरा भरकर और कभी अधरों में शहद घोलकर ययाति को सम्मोहित करने की चेष्टा करने लगी । ययाति उसके जाल में फंसता जा रहा था । देवयानी के पास ब्रहास्त्र के रूप में उसका सुगठित बदन था । यदि सम्राट आंखों और अधरों के जाल में नहीं भी फंसे तो पुष्ट बदन के जाल में तो उसे फंसना ही होगा । इसलिए देवयानी रह रहकर अपने बदन से चिपके उत्तरीय को संभालने के बहाने से ययाति को अपनी सुगठित देह का दर्शन भी करा रही थी । 


दोनों में वार्तालाप चलता रहा । देवयानी अपने लक्ष्य में सफल हो गई थी । उसने ययाति को बाध्य कर दिया था कि वह उसके साथ विवाह करेगा । यद्यपि यह प्रतिलोम विवाह था किन्तु जब कोई "बाला" ऐसे विवाह की अनुमति दे देती है तो ऐसा विवाह अनुमत हो जाता है । जब यह निर्धारित हो गया कि ययाति और देवयानी का विवाह होना अवश्यंभावी है तब ययाति ने वहां से प्रस्थान करने की देवयानी से अनुमति मांगी । 


इस पर देवयानी कहने लगी "मैंने आपको अपने पति के रूप में वरण कर लिया है इसलिए मुझे आपके साथ ही हस्तिनापुर प्रस्थान करना चाहिए । किन्तु अभी मैंने अपने पिता श्री से इस विवाह की अनुमति नहीं मांगी है । मैं अभी भी अपने पिता के अधीन हूं इसलिए मेरा दायित्व है कि अपने पिता का मान सम्मान बनाये रखूं । आपसे अनुरोध है सम्राट कि आप शीघ्र आकर मेरे साथ पाणिग्रहण संस्कार पूरा करें और मुझे यहां से लिवा ले जायें । मैं आपकी राह तकती रहूंगी, स्वामी" । कहते हुए देवयानी ययाति के चरणों में बैठ गई । 


विदा के लिए ययाति चाहता था कि एक बार वह देवयानी का आलिंगन कर ले फिर उससे विदा ले ले । किन्तु देवयानी ने तर्क प्रस्तुत किया कि विवाह के पहले आलिंगन करना शास्त्रोचित नहीं है । इसलिए ययाति मन में चाह दबाते हुए वहां से प्रस्थान कर गया । 


ययाति देवयानी को लेकर बहुत उत्साहित था । देवयानी का रूप सौन्दर्य उसकी कल्पना से परे था । राजशेखर ने शर्मिष्ठा का जैसा वर्णन किया था , देवयानी उससे कहीं बढ़कर थी । इसलिए ययाति ने कुछ शुक्राचार्य के भयवश और कुछ उसके सौन्दर्य से अभिभूत होते हुए उसके साथ विवाह करने की सहमति प्रदान कर दी थी । वह देवयानी जैसी सुन्दरी को पत्नी के रूप में पाकर गौरवान्वित हो रहा था । वह देवयानी के साथ कल्पना लोक में विचरण करने लगा । देवयानी के विचारों में ययाति इस कदर खोया हुआ था कि उसे यह भी भान नहीं रहा था कि रास्ते को उसके सैनिकों ने अवरुद्ध कर रखा है । जब उसका अश्व वहां रुका और उसके सैनिकों ने उसे घेर लिया तब उसे ज्ञात हुआ कि उसके सैनिक उसकी तलाश करते करते यहां तक आ चुके थे । राजशेखर भी उन सैनिकों के साथ था । जो रथ क्षतिग्रस्त हो गया था , उसकी मरम्मत करा ली गई थी और वह अब यात्रा के लिए तैयार हो चुका था । 

"सम्राट कुशल से तो हैं न ? कोई समस्या तो नहीं आई सम्राट को" ? उपसेनापति ने पूछा 

"मैं सकुशल हूं । पहले ये बताओ कि राजकवि राजशेखर कहां हैं" ? 

"मैं यहां हूं महाराज" । कहते हुए राजशेखर एक रथ से उतर कर ययाति के सम्मुख आ खड़ा हुआ । 

"कैसे हो कविराज ? कोई श्लोक लिखने के लिए कूद गये थे क्या रथ से या फिर कोई अनिन्द्य सुन्दरी दिखाई दे गई थी आपको और उसे देखकर आप स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाये" ? ययाति राजशेखर से विनोद करते हुए बोला 

"महाराज, आप सही कहते हैं । उस सुन्दरी की एक झलक दिखी तो सही , इसीलिए मैं रथ से कूद गया था लेकिन पास जाने पर पता चला कि वह "पुष्प" तो महाराज के योग्य है । मैं उसका चित्र बनाकर ले आया हूं महाराज । एक दृष्टि आप भी डाल लीजिए इस चित्र पर" । 

"नहीं , अब इसकी आवश्यकता नहीं है" । ययाति ने मुस्कुराते हुए उस चित्र को अपनी आंखों से परे हटाते हुए कहा । 

राजशेखर सम्राट ययाति को आश्चर्य से देखने लगा । "ये क्या हो गया है सम्राट को ? कल तक तो ये शर्मिष्ठा के लिए विक्षिप्त हो रहे थे , आज उसके चित्र को भी नहीं देख रहे हैं । लगता है सम्राट को पता नहीं है कि यह चित्र राजकुमारी शर्मिष्ठा का है । उन्हें यह बात बतानी चाहिए तभी वे इस पर दृष्टिपात करेंगे" । राजशेखर उस चित्र को पुन: सम्राट के समक्ष लहराते हुए बोला "सम्राट, ये चित्र राजकुमारी शर्मिष्ठा का है । आप देखिये तो सही" । 


ययाति उस चित्र की उपेक्षा करते हुए बोला "अब इस मन मंदिर में कोई मूरत स्थापित हो गई है इसलिए अब वहां कोई स्थान रिक्त नहीं रहा है । ऐसा करो कविराज, तुम उस चित्र को निहारते रहो । क्या पता तुम्हारी किस्मत तुम्हें राजकुमारी शर्मिष्ठा से मिला दे" ! ययाति व्यंग्य कसते हुए बोला । 


इस तरह विनोद करते हुए दोनों चलते जा रहे थे । रास्ता कब पूरा हो गया पता ही नहीं चला । ययाति का रथ हस्तिनापुर में प्रवेश कर चुका था । ययाति की निगाह जब राह में आते जाते लोगों पर पड़ी तो उनके चेहरे देखकर ययाति ठिठक गया । लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छाई हुई थी । आंखें अंदर की ओर धंसी हुई थी और बदन निराशा से लटका हुआ था । उन्हें इस दशा में देखकर ययाति राजशेखर से बोला 

"लोग हताश निराश लग रहे हैं । क्या कुछ घट गया है मेरे पीछे से ? मुझे अनिष्ट होने की आशंका क्यों लग रही है ? तुम कुछ जानते हो तो बताओ, कविराज" ? 


ययाति के ऐसा कहने से राजशेखर भी चौंका । उसने भी इधर उधर नजर घुमाकर देखा तो जैसा ययाति ने कहा था, वैसा ही पाया । उसे कुछ समझ में नहीं आया तो वह कहने लगा "मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है सम्राट । राजप्रासाद में जाने के पश्चात ही कुछ ज्ञात हो सकेगा" । 


ययाति का हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा । कुछ तो हुआ है । यदि कुछ नहीं हुआ होता तो लोग अपने सम्राट को घेरकर खड़े हो जाते और अपना हर्ष प्रकट करते । किन्तु वे ऐसा नहीं कर रहे हैं इसका अर्थ है कि कोई न कोई दुखद घटना घटित हुई है । ययाति ने अपने सारथि को आदेश दिया 

"सारथि, रथ तुरंत अंत:पुर में ले चलो । तेज चलाओ और शीघ्र अंतपुर में ले चलो" । 


सारथि ने रथ की गति बढ़ा दी । थोड़ी देर में रथ अंत:पुर के अंदर आ गया । ययाति रथ से कूद पड़ा और दौड़कर राजमाता अशोक सुन्दरी के पास आ गया । अशोक सुन्दरी आंसुओं के सैलाब में डूबी हुई थी । ययाति उसके सामने जाकर बोला 

"क्या हुआ माते ? इस तरह रोने का क्या कारण है ? एक पुत्र के सामने यदि उसकी माता रुदन करे तो यह उस पुत्र के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है । आप मुझे आदेश करें माता , मैं आपके लिए त्रैलोक्य के सभी संसाधन यहीं उपलब्ध करवा देता हूं" । 


ययाति को सामने देखकर अशोक सुन्दरी और जोर से रोने लगी । वह ययाति से लिपट गई और हिलकी ले लेकर रोने लगी । ययाति ने भी मां को अपने हृदय से लगा लिया और स्वयं भी रोने लगा । मां सब कुछ सहन कर सकती है पर अपनी संतान का रुदन सहन नहीं कर सकती है । 


अशोक सुन्दरी रोना भूलकर ययाति को शांत करने में लग गई । "तुम क्यों रो रहे हो पुत्र" ? 

"आप रो रही थीं तो मुझे भी रोना आ गया । आप क्यों रो रही थीं माते ? भारत की राजमाता को रुलाने वाला कौन है ? आप अभी उसका नाम बताइये माते , और फिर देखिये मैं सम्राट ययाति उसकी क्या गति करता हूं" ? ययाति क्रोध में आकर बोला 


अशोक सुन्दरी कुछ नहीं बोली , शांत ही रही । ययाति ने पुन: कहा "आप मुझे उसका नाम बताओ माता । विलंब न करो" । ययाति का मन अधीर हो रहा था 

"तुम सहन नहीं कर पाओगे पुत्र" । 


ययाति ने अपनी मां को बड़े गौर से देखा । ऐसी क्या बात है जिसके लिए माता कह रही हैं कि मैं उसे सहन नहीं कर पाऊंगा । वह बोला "स्पष्ट कहो माते कि बात क्या है" ? चिंतित स्वर में ययाति ने पूछा 

"पुत्र, तुम्हारे पिता को स्वर्ग लोक से पदच्युत कर दिया है" । अशोक सुन्दरी ने धीरे से कहा 

"पदच्युत कर दिया है ! मगर क्यों" ? ययाति अवाक् होकर मां को देखने लगा 

"उनकी कामवासना ने उन्हें पतित बना दिया था पुत्र ! एक पतिव्रता स्त्री के साथ "समागम" की उनकी जिद उनके पतन का कारण बन गई । मुझे तो यह समाचार सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ था । किन्तु जब साक्ष्य सम्मुख हों तो विश्वास करना ही पड़ता है" । रुंआसी होकर राजमाता ने कहा 


ययाति कुछ सोचते हुए बोला "यदि पिता श्री को स्वर्ग लोक से पदच्युत कर दिया है तो कोई बात नहीं । हस्तिनापुर का साम्राज्य तो उनका ही है । वे पुन: यहां का राज्य संभालें" । ययाति ने समाधान निकालने का प्रयास किया । 

"अब वे राज्य करने की स्थिति में ही नहीं हैं पुत्र । अगस्त्य ऋषि के श्राप से वे "अजगर" बन गये हैं पुत्र" 


अब चौंकने की बारी ययाति की थी । अशोक सुन्दरी ने सारी कथा उसे सुना दी । कथा सुनने के पश्चात ययाति भी अपने पिता के पतन को देखकर बहुत दुखी हो गये । इस दुखद समाचार में उसका देवयानी से विवाह का प्रस्ताव गौण हो गया । 


क्रमश : 



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