हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी ,भाग 7

ययाति और देवयानी ,भाग 7

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महाशिवरात्रि के महोत्सव के संपन्न होने पर शुक्राचार्य अपनी कुटिया में आ गये । जयंती उनका इंतजार कर रही थीं । पति परायणा स्त्री अपने पति के सोने से पहले कैसे सो सकती हैं ? जयंती भी अपने पतिव्रत धर्म का पालन कर रही थीं । शुक्राचार्य के आने पर हाथ पैर धुलवाने और भोजन करवाने के पश्चात उनके पैर दबाने लगी । 


अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में ऋषि शुक्राचार्य जगे और नित्य कर्म से निवृत होकर पूजा में लीन हो गये । उनके शिष्य और देवयानी मिलकर उनकी पूजा की समस्त तैयारियां कर देते थे । शुक्राचार्य जी ने अपनी पूजा समाप्त की और अपने शिष्यों को लेकर अध्यापन करवाने लगे । महर्षि शुक्राचार्य ने कहा 

"मनुष्य में कामनाऐं अनंत होती हैं । जिस तरह गगन में अनंत तारामंडल होते हैं । एक तारामंडल में अनंत तारे होते हैं इसी प्रकार कामनाओं की गिनती करना असंभव है । एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी कामना स्वत: उत्पन्न हो जाती है । हमारी ज्ञानेन्द्रिय यथा नासिका , नयन , कर्ण, जिव्हा और त्वचा ये हमें विषय भोग की ओर लिप्त करती हैं । किसी सुंदर स्त्री को देखकर उसमें राग उत्पन्न हो सकता है । किसी सुंदर गंध को सूंघकर उसमें मन रम सकता है । रसीली वस्तु के सेवन से मन लालायित हो सकता है । मधुर वाणी भी हमें विषय भोगों की ओर आकर्षित कर सकती है । किसी का मधुर स्पर्श हमें पाप का भागी बना सकता है । इस प्रकार ये इन्द्रियां तेज दौड़ने वाले अश्व की तरह होती हैं जो पृथक पृथक दिशा में दौड़ लगाती हैं । इन अश्वों को लगाम कसने का काम मन करता है । ये मन ही है जो इन इन्द्रियों को बांधे रख सकता है । मन विवेक रूपी सारथी के निर्देशन में कार्य करता है और इस शरीर रूपी रथ का स्वामी आत्मा है जो अपने सारथी विवेक को आज्ञा प्रदान करता है । इस प्रकार यह शरीर एक रथ है जिसका स्वामी आत्मा है । आत्मा के बिना यह रथ किसी काम का नहीं है, यह मृत प्राय: है । इंद्रियों की गति बड़ी चंचल होती है । यदि इन पर नियंत्रण नहीं रखा जाये तो ये नर्क में धकेलने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं । बड़े बड़े ऋषि मुनि भी इन इन्द्रयों की चाल में फंसकर अपना सर्वस्व गंवा चुके हैं । अत: हमें ऐसी कोई वस्तु या क्रिया नहीं देखनी, सुननी, स्पर्श करनी चाहिए जिससे हमारे मन में विषय भोगों के लिए लालसा उत्पन्न हो और वह लालसा हमारे पतन का कारण बने" । 


उन्होंने अपनी बात का प्रभाव देखने के लिए एक बार सभी शिष्यों की ओर देखा । सभी शिष्य बहुत ही तल्लीनता के साथ उनकी बातें सुन रहे थे । शुक्राचार्य ने अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहना प्रारंभ किया । 


"इस बात को मैं महर्षि सौभरि की कथा के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूं । 


ब्रज क्षेत्र में वृन्दावन के निकट "रमणक" नामक वन प्रदेश है । उस प्रदेश में यम पुत्री यमुना नदी शांत वातावरण में धीरे धीरे बहती है । उसका श्यामल जल भगवान विष्णु के श्याम वर्ण की तरह शोभा प्राप्त करता है । यमुना का जल अमृत के समान है । ऐसे निर्मल वातावरण में महर्षि सौभरि अपनी कुटी बनाकर रहते थे । उनको तपस्या करते करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये । तपस्या के कारण उनका बदन कृष हो गया था और केशों में सफेदी आने लग गई थी । तन अस्थियों का पिंजर मात्र रह गया था । 


वे ऋषि यमुना के जल के अंदर डूबकर कई कई दिनों की जल समाधि लगाते रहते थे । उनकी तपस्या बहुत कठिन थी । वे सतोगुणी थे और सदा ज्ञान तथा भक्ति में लीन रहते थे ।


एक दिन वे यमुना के जल के अंदर समाधिस्थ थे तब अचानक उनके बदन से छूकर कुछ मत्स्य निकल गये । ऋषि सौभरि की आंखें खुल गईं । उन्होंने जल के अंदर क्या देखा कि कुछ नर व कुछ मादा मछलियां "काम क्रीड़ा" कर रही हैं । उन मत्स्य को प्रणय करते देखकर उन महर्षि के मन में काम भावना का विकार उत्पन्न हो गया । वे कौतुहल पूर्वक उन मछलियों की काम क्रीड़ा को देखने लगे । तब उन्हें महसूस हुआ कि वे तो ब्रह्मचर्य से सीधे वानप्रस्थ आश्रम में आ गये हैं, गृहस्थ आश्रम से वे वंचित रह गये । काश ! वे भी गृहस्थ आश्रम में कुछ समय बिताते तो वे भी प्रणय और काम क्रीड़ा का आनंद लेते । संतति उत्पन्न करते और नाना भांति के विषयों का सेवन करते । जीवन में यह भी सुख भोगना चाहिए क्योंकि शास्त्रों में गृहस्थ आश्रम को सब आश्रमों का राजा कहा गया है । शास्त्र कभी मिथ्या नहीं कहते हैं । वह इस पर विचार करने लगे । 


विचार करते करते उन्हें ध्यान आया कि वे अब भी गृहस्थ आश्रम में रह सकते हैं । गृहस्थ आश्रम में रहने के लिए एक पत्नी ही तो चाहिए । किसी भी राजा से कह दूंगा तो उसे अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करना ही होगा । एक राजा का कर्तव्य है कि एक मुनि अथवा ऋषि की इच्छाओं की पूर्ति करे । और ऋषि का अधिकार है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए राजा का आश्रय ले । ऐसा सोचकर ऋषि सौभरि अयोध्या के तत्कालीन राजा मान्धाता के राजमहल में चले गये । 


राजा मान्धाता ने महर्षि सौभरि का उचित आदर सम्मान किया । उनके चरण पखारे और नाना भांति के पकवान बनवाकर उनकी सेवा की । महर्षि राजा मान्धाता की सेवाओं से प्रसन्न हो गये । मुनि को प्रसन्न जानकर राजा मान्धाता ने महर्षि का राजमहल में आने का प्रयोजन पूछा तो मुनि ने इस प्रकार कहा । 


"राजन आप बहुत परोपकारी और प्रजा वत्सल हैं । एक राजा का जो धर्म होता है, आप उसी धर्म पर चलकर प्रजा को पुत्रवत पाल रहे हैं । एक राजा को गौ, ऋषि, ब्राह्मण और देवताओं पर विशेष कृपा रखनी चाहिए । मेरी इच्छा विवाह कर गृहस्थ आश्रम में जीवन बिताने की हो गई है इसलिए मैं चाहता हूं कि मैं आपकी पुत्री से विवाह कर लूं । आपकी पचास कन्ताऐं हैं और वे सब विवाह योग्य हैं । आप इन पचास कन्ताओं में से कोई एक कन्या मुझे देकर मेरा पाणिग्रहण संस्कार करवा दीजिये जिससे मैं भी पितरों के ऋण से मुक्त हो सकूं । ये आप पर निर्भर करता है कि आप अपनी किसी भी कन्या से मेरा विवाह करवा दें" । 


महर्षि की बातें सुनकर राजा मान्धाता अवाक् रह गये । वे मन ही मन सोचने लगे "इन वृद्ध मुनि को ये क्या हो गया है ? जब उम्र सन्यास आश्रम की आ गई है तब इन्हें विवाह करने की इच्छा हो रही है । कितने वृद्ध, दुबले पतले और कुरूप हैं ये महर्षि, इन्हें कौन कन्या अपना पति बनाने को तैयार होगी ? इनकी उम्र का क्या भरोसा ? क्या पता ये कल ही काल के गाल में समा जायें ? अगर ऐसा हो गया तो मेरी पुत्री विधवा हो जायेगी और सारी उम्र कष्ट पायेगी । ऐसा सोचकर उन्होंने मन ही मन एक योजना बना ली और उस योजना के अनुसार राजा मान्धाता महर्षि सौभरि से बोले 

"महात्मन् ! आप उचित ही कहते हैं । एक राजा का तो कर्तव्य है आप जैसे मुनि की सेवा करना । आप जो भी चाहें ले सकते हैं । संपूर्ण राज्य आपकी ही धरोहर है । संशय तो केवल इतना ही है मैं पचास कन्याओं में से किसे कहूं और किसे ना कहूं ? अगर आप मेरे साथ मेरे रनिवास में चलें और मेरी पचास कन्याओं में से जो कोई भी कन्या आपको पति रूप में चुन ले तो मैं तुरंत उसका विवाह आपसे कर दूंगा । इस पर आपका क्या आदेश है महात्मन् " ? 

"आप बिल्कुल सही कहते हैं राजन । मैं आपके साथ रनिवास में चलने को उद्यत हूं । जो कोई भी कन्या मुझे पसंद कर ले, उसके साथ मेरा पाणिग्रहण संस्कार करवा दीजिये" । ऐसा कहकर दोनों जने रनिवास में आ गये ।


महर्षि सौभरि ने अपने तप के बल पर राजा की मनोस्थिति का पता लगा लिया । उन्होंने अपने तप के बल पर अपना रूप और सौन्दर्य भगवान विष्णु के सदृश बना लिया । उन्हें देखकर रनिवास में हाहाकार मच गया । सभी राजकुमारियों ने एक नवयुवक जो कामदेव को भी लज्जित करने वाला है को देखा तो देखते ही वे उन पर मोहित हो गईं और आपस में लड़ने लगीं । कोई कहती "मैं करूंगी इनसे विवाह" तो दूसरी कहती "मैं बड़ी हूं इसलिए पहले मेरा विवाह इनके साथ होगा" । इस प्रकार वहां पर समस्त राजकुमारियां महर्षि से विवाह करने के लिए मचल उठीं । महर्षि ने ही सुझाव दिया कि वे सभी पचासों कन्याओं के साथ विवाह करने को तत्पर हैं । राजा मान्धाता महर्षि के शाप के डर से कुछ कह नहीं सके और उन्होंने अपनी पचासों राजकुमारियों का विवाह महर्षि सौभरि के साथ कर दिया । 


महर्षि सौभरि अपनी पचासों पत्नियों को लेकर यमुना के किनारे आ गये । राजा मान्धाता ने यमुना के किनारे सुन्दर सुन्दर पचास महल बनवा दिये जिनमें पचासों राजकुमारियां रहने लगीं । 


एक दिन सबसे बड़ी राजकुमारी के पास दूसरे नंबर की राजकुमारी मिलने आई तो सबसे बड़ी राजकुमारी ने अपनी बहन से क्षमायाचना की । 

"किस बात की क्षमा याचना कर रही हो दीदी" ? दूसरी ने पूछा 

"मैं सभी 49 बहनों की अपराधिनी हूं । मेरे स्वामी महर्षि मेरे रूप और सौन्दर्य में इतने लिप्त हो गये हैं कि वे मुझे सदैव अपनी आंखों के सम्मुख ही रखते हैं । इसलिए वे आपमें से किसी के पास नहीं जाते हैं । बस, यही अपराध है जिसके लिए मैं क्षमा याचना कर रही हूं" बड़ी बहन ने अपनी दुविधा व्यक्त कर दी । 

"दीदी, यही हाल मेरा भी है । स्वामी मेरे महल में मेरे साथ चौबीसों घंटे रहते हैं । मैं भी इसी अपराध बोध से ग्रस्त हूं और आपसे क्षमा याचना करती हूं" । इस बात से दोनों बहनें चौंकीं और बाकी सभी बहनों से इस विषय पर बात की तो सभी बहनों ने कहा "स्वामी तो हमारे महल में सदैव रहते हैं" । तब महर्षि सौभरि के तप की शक्ति का पता चला । जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण अपनी 16108 रानियों के साथ एक ही समय में सबके साथ रहते थे , उसी प्रकार महर्षि सौभरि भी अपनी पचास पत्नियों के साथ रहते थे । प्रत्येक पत्नी से उनके दस दस पुत्र हुए । इस तरह बहुत सारे वर्षों तक विषय सुख भोगते रहने के पश्चात एक दिन महर्षि को अपनी त्रुटि का अनुमान हुआ । लेकिन अब देर बहुत हो चुकी थी । पर, अभी भी उद्धार हो सकता है । ऐसा सोचने से फिर से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई और वे फिर से तपस्या के लिए वन में चले गये" । 


"इस प्रकार सभी शिष्य गण ध्यान से सुनें । जब महर्षि सौभरि ने "काम" के अधीन होकर अपनी समस्त तपस्या को नष्ट कर दिया उसी प्रकार तुम लोग भी ऐसा कोई कार्य मत करना जिससे तुम्हारे सारे पुण्य नष्ट हो जायें । सभी शिष्यों ने वचन दिया कि वे ऐसा नहीं करेंगे । और शुक्राचार्य जी ने आज का अध्यापन कार्य यहीं पर समाप्त कर दिया । 


क्रमश: 



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