आग से खेलना
आग से खेलना
🔥 आग से खेलना 🔥
✍️ एक प्रेरणादायक कहानी
🗓️ 26.12.2025
अरावली की पहाड़ियों की गोद में बसा था सूर्यमुखी गांव।
यह गाँव अपनी शांति, सरलता और हरे-भरे खेतों के लिए प्रसिद्ध था।
पर इस शांति के पीछे छिपा था एक दुख —
नशे की आग।
कुछ नौजवान शराब, जुए और धुआँ उड़ाती हरकतों में पड़ चुके थे।
लोग समझाते, पर कहते—
“अरे बाबा, हम तो बस थोड़ा मज़ा ले रहे हैं। आग नहीं लगने वाले!”
गाँव में एक ही आशा की किरण थी —
अरुण।
पहला अध्याय — उजाला और धुआँ
अरुण, पंद्रह वर्ष का, पिता का इकलौता बेटा, स्वभाव से सरल पर हृदय में जिज्ञासा का समुद्र।
वह पढ़ाई में होशियार था और अक्सर शिक्षक कहते—
“तुम आगे चलकर ज़िंदगी में बड़ा काम करोगे।”
परंतु उसके कुछ मित्र —
रिंकू, पप्पू, हरिया —
बाजार में नशेड़ी युवकों की संगत में पड़े हुए थे।
अरुण उनसे बचता पर वे बोले—
“तू तो बस पढ़ाकू है, इतना डरता क्यों? ज़िंदगी को जीना सीख!”
अरुण चुप रहता।
पर उसपर असर होने लगा —
मन में एक हल्की-सी आवाज उठने लगी,
“शायद मैं ही ज्यादा डरपोक हूँ?”
दूसरा अध्याय — पहली चिंगारी
एक दिन स्कूल से लौटते समय मित्रों ने अरुण को रोक लिया।
आम के बाग़ में बैठे, पेड़ की छाँव, हवा में पत्तों की सरसराहट —
और उनके बीच सिगरेट का पैकेट।
रिंकू ने सिगरेट बढ़ाई—
“एक ही कश लो, फिर छोड़ देना। कोई पहाड़ नहीं टूटेगा!”
अरुण का दिल धड़क उठा।
उसके भीतर दो आवाजें टकराने लगीं —
“नहीं करना चाहिए…”
और
“एक बार में क्या बुराई है?”
अंतत:
उसने सिगरेट पकड़ ली।
पहला कश लिया—
गला जल गया।
खाँसी फूट पड़ी।
आँखों से पानी।
पर मित्रों की हँसी ने उसकी चोट से ज्यादा अहं को जलाया।
उसने मुस्कुराते हुए कहा—
“पहली बार है यार, धीरे-धीरे सीख जाऊँगा।”
बस, यही थी पहली चिंगारी।
आग लगने लगी थी।
तीसरा अध्याय — लपटें
दिन बीतते गए।
अरुण अब रोज़ बहाने से बाग में रुकने लगा।
सिगरेट अब “कभी-कभार” की नहीं,
“रोज़” की बन गई।
फिर एक दिन हरिया बोला—
“सिर्फ धुआँ पीकर क्या होगा? मज़ा तो इसमें है।”
उसने जेब से छोटी शराब की बोतल निकाली।
अरुण का मन काँपा।
पर रिंकू हँसा—
“डर मत, ज़िंदगी में एक बार तो ट्राय कर ले!”
अरुण ने पहली बार शराब चखी।
गले में जलन, सिर चकराया, पर अंदर एक क्षणिक नशा दौड़ गया —
एक झूठी, अस्थायी उड़ान।
अब वह भीड़ का हिस्सा था।
परिवार से झूठ,
पैसों की चोरी,
पढ़ाई में गिरावट,
सब आग का ईंधन बनते गए।
शिक्षक ने एक दिन पूछा—
“अरुण, क्या हुआ? पहले जैसी चमक क्यों नहीं?”
अरुण नज़रें झुकाकर चुप रहा।
चौथा अध्याय — गिरावट
परीक्षा में बुरा परिणाम।
पिता की आँखों में निराशा।
घर का विश्वास डगमगाने लगा।
एक शाम, पिता ने कहा—
“बेटा, हम चाहते हैं तू ऊँची उड़ान भरे।
पर खबर है कि तू अपने पंख ही जला रहा है।”
अरुण के गले में शब्द अटक गए।
मगर नशे ने मन पर ऐसा पर्दा डाल दिया था कि वह भीतर की आवाज सुन ही न पाता था।
अब हाल यह था —
बिना नशे के सिर भारी, शरीर बेचैन।
और सबसे बड़ी पीड़ा — अपराधबोध।
पाँचवां अध्याय — परिणाम
एक दिन गाँव में बड़ा मेला लगा।
लोग झूले, मिठाइयाँ, गीत, नृत्य में मगन।
पर रिंकू, पप्पू और अरुण —
आग से खेल रहे थे।
मेले के पास, रिंकू ने शराब की बोतल निकाली।
और पास लगी पेट्रोल की टंकी के बगल में बैठकर पीने लगा।
अरुण का मन घबराया—
“ये जगह ठीक नहीं… दूर चलते हैं।”
पर रिंकू बोला—
“तू डरपोक ही था, और रहेगा!”
अरुण अपमान सह गया।
पर तभी पप्पू बोतल संभालते चूक गया,
और शराब पेट्रोल पर गिर पड़ी।
एक चिंगारी।
किसी की सिगरेट से गिरी राख।
और देखते ही देखते —
आग की लपटें!
चारों तरफ अफ़रा-तफ़री।
दहशत।
लोग चिल्लाते—
“पेट्रोल टंकी फट जाएगी, भागो!”
अरुण का दिल काँप उठा।
दोस्त भाग खड़े हुए।
पर वहीं एक छोटा बच्चा भी था,
जो रोते हुए आग के पास फँस गया था।
अरुण दुविधा में था —
खुद को बचाए या बच्चे को?
उसी क्षण पिता के शब्द याद आए—
“पंख मत जलाना, उड़ान भरनी है।”
अरुण ने अपनी शर्ट भिगोई,
चेहरे पर बाँधी,
और आग की ओर भागा।
बच्चे को बाहों में उठाया,
और बाहर की ओर दौड़ा।
पीछे लपटें बढ़ गईं।
चेहरे, हाथ, कंधे झुलस गए।
पर बच्चा सुरक्षित।
छठा अध्याय — राख से पुनर्जन्म
मेले में लोगों ने देखा —
जो लड़का नशे में डूब रहा था,
आज किसी की जान बचाकर खड़ा है।
सबकी आँखें नम।
पिता ने दौड़कर अरुण को गले लगाया।
आँखों से आँसू बह निकले।
अरुण ने पिता के सीने से सिर लगाकर कहा—
“बाबा… मैं आग से खेलता रहा…
पर अब समझ आ गया —
आग रौब नहीं, रौद्र है।
वह खिलौना नहीं, प्रलय है।
मैं लौट आया हूँ… अब दोबारा नहीं जलूँगा…
और न किसी को जलने दूँगा।”
लोकल अस्पताल में उपचार।
वहाँ से लौटकर उसने सबसे पहले अपने कमरे से
नशे का हर सामान बाहर फेंक दिया।
सातवां अध्याय — जागृति
अरुण ने फिर पढ़ाई शुरू की।
सुबह शरीर की ताकत के लिए व्यायाम,
दोपहर पढ़ाई,
शाम को गाँव के युवा के लिए नशा-विरोधी सभा।
वह गली-गली जाकर कहता—
“आग से खेलने वाला, खुद भी जलता है और अपनों को भी।
जीवन दिया है… जलाने को नहीं,
रोशनी बनने को!”
धीरे-धीरे गाँव बदलने लगा।
जहाँ कभी नशे की बोतलें मिलती थीं,
अब वहाँ पुस्तकालय और व्यायामशाला बनने लगीं।
उपसंहार — सीख
अरुण के अनुभव ने सिखाया —
“आग से खेलना मूर्खता है।
चाहे वह नशे की आदत हो,
झूठा अभिमान हो,
गलत संगति, छल-कपट,
या कोई भी वह कर्म जो भीतर का मनुष्य जला दे।”
और वह मुहावरा सार्थक हुआ—
🔥 “आग से खेलना अंततः स्वयं को ही जलाना है।” 🔥
💡 नैतिक संदेश
गलत आदतें खेल नहीं, आग हैं।
साथ गलत हो तो इनकार महान है।
समझदारी वही, जो समय रहते लौट आने में है।
कोई गिर जाए — तो भी उठने में देर नहीं।
