हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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सत्यवान और उसके माता पिता की सेवा करते करते सावित्री का समय तेजी के साथ व्यतीत हो रहा था । सावित्री के द्वारा लगाये गये आम, जामुन, आंवला , आदि के वृक्ष बड़े हो रहे थे । पपीता, नीबू , केला आदि में फल आने लगे थे । संपूर्ण वन उनकी सुगंध से महकने लगा था । महापुरुषों ने सच ही कहा है कि स्त्री का जीवन इसी प्रकार का होता है । जिस प्रकार मोगरा का पुष्प स्वयं भी महकता है उसी प्रकार वह अन्य को भी महकाता है । इतना ही नहीं जो व्यक्ति उस पुष्प को तोड़ता है , उसके हाथों को भी महका देता है । इसके अतिरिक्त मोगरा अपने आसपास के समस्त क्षेत्र को भी महका देता है । उसी प्रकार एक लड़की अपने पिता के घर को तो चमकाती ही है पर वह अपनी ससुराल को भी चमका देती है । वह जहां भी जाती है सकारात्मकता की सुगंध बिखरा देती है । सावित्री के आने से वह कुटिया भी मधुवन की तरह महकने लगी थी । 

एक दिन सावित्री अपनी सास के बालों में तेल लगा रही थी और उनकी चोटी बना रही थी तब उसकी सास बोली "पुत्री, तुमने दिन रात परिश्रम करके और प्रेम की वर्षा करके इस उजाड़ क्षेत्र को सुंदर मनोरम वन में उसी प्रकार परिवर्तित कर दिया है जैसे सती अनुसूइया ने दण्डकारण्य को सघन वन में परिवर्तित कर दिया था और उसमें मन्दाकिनी की धारा प्रवाहित कर उस निर्जन वन को पावन कर दिया था । वह मन्दाकिनी की धारा आज "गोदावरी" नदी कहलाती है । चूंकि उसे गंगा नदी की ही धारा माना गया है इसलिए चार कुंभ के मेलों में एक मेला गोदावरी नदी पर भी लगता है" । सावित्री की सास सावित्री की प्रशंसा अनेक मुखों से करने लगी । 

"माते, सती अनुसूइया तो एक महान नारी हैं । वे नारी जाति की सूर्य हैं जो अपने प्रकाश से समस्त विश्व को प्रकाशित करती रहती हैं । मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि वह इतना सघन वन दण्डकारण्य कैसे कभी निर्जन बन गया था ? इतना पावन क्षेत्र कभी निर्जन भी हो सकता था क्या ? इसका संपूर्ण वृत्तान्त आपसे सुनना चाहती हूं माते" सावित्री ने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए पूछा । 

"बड़ी दुखभरी कहानी है पुत्री । पुरुष के अहं , बल के अबला नारी पर दुष्प्रयोग की कहानी है । नारी जाति पर बलात् अधिकार करने की कहानी है पुत्री । इसे सुनकर तुम्हारे रोंगटे खड़े हो जायेंगे । तुम क्रोध की अग्नि में जल जाओगी और पुरुष जाति से घृणा करने लगोगी " । 

"फिर भी वह कथा सुनना चाहूंगी, माते । आप विस्तार से वह वृत्तान्त सुनाइए" । सावित्री हठ कर बैठी । 

"तो सुनो । बहुत पुरानी बात है । ब्रह्मा जी के एक मानस पुत्र थे जिनका नाम था मनु । ये वही मनु हैं जिनसे यह सृष्टि बनी है । उनके एक पुत्र थे महाराज इच्छवाकु । इन्ही महाराज इच्छवाकु के नाम से "इच्छवाकु वंश" की उत्पत्ति हुई थी जिसमें भगवान श्रीराम पैदा हुए थे । 

उन इच्छवाकु महाराज के 100 पुत्र हुए । उनका सबसे छोटा पुत्र बहुत उद्दंड था , शैतान था । उसकी उद्दंडता के कारण उसे बार बार "दंड" मिलता था । बार बार दंड मिलने के कारण उसका नाम दण्ड रख दिया गया । 


राजा इच्छवाकु ने अपने पुत्रों में अपने राज्य का विभाजन कर दिया था । दण्ड को विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का हिस्सा जो विदर्भ क्षेत्र में आता है, मिला । दण्ड ने अपना राज सुचारू रूप से चलाने के लिए शुक्राचार्य जी को अपना कुल गुरू नियुक्त कर दिया । शुक्राचार्य की अरजा नाम की एक पुत्री थी । जयंती से पहले शुक्राचार्य के एक और पत्नी थी जिससे उन्हें अरजा नामक पुत्री प्राप्त हुई । "अरजा" एक औषधि का नाम होता है जिसके सेवन से एक मनुष्य अवसाद से उबर कर प्रसन्नता के सागर में गोते लगाने लगता है । अरजा अति सुन्दर तरुणी थी जिसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जायें । उसे देखकर जिन्दगी जीने की इच्छा उत्पन्न हो जाये । काल के गाल में समाने वाला व्यक्ति भी अरजा को देखने के पश्चात हजार वर्ष और जीने की कामना करने लगे । इस प्रकार अरजा अपने नाम के अनुरूप गुणों वाली युवती थी । 


अरजा से एक अर्थ यह निकलता है कि अरजा एक ऐसी युवती थी जिसमें "रज" अर्थात "रजोगुण" था ही नहीं । समस्त विकारों का जन्म रजोगुण और तमोगुण से होता है । अरजा रजोगुण विहीन युवती थी । 

अरजा का एक अर्थ यह भी होता है कि एक ऐसी लड़की जो अभी तक रजस्वला नहीं हुई हो, उसे भी अरजा ही कहते हैं । पर अरजा तो उस दौर को पार कर चुकी थी अर्थात वह रजस्वला हो चुकी थी । वह पंद्रह सोलह वर्ष की युवती थी । बहारों ने उसके बदन पर अपना डेरा डालना प्रारंभ कर दिया था । उसका अंग अंग उत्फुल्ल और ताजगी से भरा हुआ लगता था । 


एक दिन शुक्राचार्य कहीं बाहर गये हुए थे । उनकी अनुपस्थिति में राजा दण्ड उनके आश्रम में पधारे । शुक्राचार्य की अनुपस्थिति के कारण राजा के आतिथ्य सत्कार का सारा दायित्व अरजा पर आ गया था जिसे अरजा ने पूर्ण कुशलता से संपन्न किया । राजा दण्ड की निगाहें जब अरजा पर पड़ी तो वह उसकी सौन्दर्य पर मोहित हो गया । उसने उससे उसका परिचय पूछा तो अरजा ने बता दिया कि वह शुक्राचार्य की पुत्री है । लेकिन राजा तो उसके सौन्दर्य के सागर में डूब चुका था इसलिए उसका विवेक समाप्त हो गया था । जब मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है तो समझ लो कि उसका सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है । राजा दण्ड के साथ भी यही हुआ । वह कामान्ध होकर अरजा से "रतिदान" की प्रार्थना करने लगा । 


अरजा ने उसे नाना विधि समझाते हुए कहा "हे राजन ! मैं महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री हूं । वही शुक्राचार्य जो आपके कुल गुरू हैं । इसलिए मैं आपकी गुरू पुत्री हूं जो आपकी भगिनी सदृश हूं । अभी मैं पूर्ण यौवन को भी प्राप्त नहीं हुई हूं इसलिए अपने पिता के ही अधीन हूं । एक स्त्री सदैव पराधीन रहती है । विवाह से पूर्व अपने पिता के अधीन है, विवाह उपरांत अपने पति के अधीन है और वृद्धावस्था में वह अपने पुत्र के अधीन रहती है । यदि आप मेरे साथ "काम क्रीड़ा" करना चाहते हैं तो आपको मेरा हाथ मेरे पिता जिनके अधीन मैं अभी अभी हूं, से मांगना चाहिए । यदि मेरे पिता आपकी बात मानकर मेरा विवाह आपके साथ कर दें तो आप मुझसे समागम करने के अधिकारी हो जाते हैं । तब मैं भी धर्मानुकूल व्यवहार करके आपका साथ दूंगी । किन्तु यदि आप धर्म के विरुद्ध जाकर मेरे साथ बलात् संग करेंगे तो मेरे पिता आपको श्राप दे देंगे । इसलिए हे राजन ! धर्म मय आचरण करना ही आप जैसे प्रजा पालक का दायित्व है" । अरजा ने उन्हें समझाने का प्रयास किया । 


अरजा के नीति युक्त वचन सुनकर राजा दण्ड खिलखिलाकर हंस पड़ा और कहने लगा "हे मूढ स्त्री , तू जानती नहीं मैं कौन हूं ? मैं इस राज्य का राजा हूं और इसी कारण राज्य की प्रत्येक वस्तु पर मेरा अधिकार है । इस समय तू भी मेरे ही राज्य में रह रही है इसलिए तू भी मेरी भोग्या है । अब तू जल्दी से मेरी बात मान और मैथुन करने की इजाजत दे नहीं तो मुझे बलप्रयोग करना पड़ेगा । रही बात गुरुजी से सहमति लेकर विवाह करने की तो अभी पता नहीं गुरूजी कहां है ? मैं इतनी देर इंतजार नहीं कर सकता हूं । एक एक क्षण बहुत मुश्किल से व्यतीत हो रहा है मेरा । अब सहन शक्ति भी जवाब दे गई है इसलिए हे सुमुखि, अब मैं बलात् संग करने के लिए विवश हूं । ऐसी अवस्था में हे सुन्दर नेत्रों वाली नवयौवना, आओ और मेरे साथ रमण का आनंद लो और मुझे भी यह आनंद प्रदान करो" 

"हे राजन ! आप धर्म के विपरीत आचरण करने पर क्यों तुले हुए हैं । आप शायद भूल रहे हैं कि मैं उन शुक्राचार्य की प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्री हूं जिन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न कर के मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की है । आप नहीं जानते हैं कि जब उन्हें ज्ञात होगा कि उनकी अक्षत यौवना पुत्री के साथ आपने बलात् संग किया है , तब वे कितने कुपित होंगे । क्रोध की अवस्था में कहीं वे समूची पृथ्वी को श्राप न दे दें ? अत: कामातुर राजन , काम के प्रभाव से बाहर निकलिए । यह काम ही समस्त व्याधियों की जड़ है । अत: इस "काम" का समूल उच्छेदन कर अपना इहलोक और परलोक दोनों सुरक्षित कीजिये" । देवी अरजा उन्हें बातों से फुसलाते हुए बोली । 


लेकिन जिसके मन मस्तिष्क पर "काम ज्वर" चढ़ा हुआ हो , उसे सौन्दर्य पान के अतिरिक्त और कुछ अभीष्ट नजर नहीं आता है । मदनोन्मत्त राजा दण्ड आगे बढ़ा और उसने सुन्दरी अरजा को पकड़ने की कोशिश की । अरजा उसकी पकड़ से बचने के लिए तेजी से भागी और जोर जोर से चिल्लाई "बचाओ , बचाओ" । मगर हा दैव ! उसकी करुण पुकार पर्वतों से टकरा कर खाली हाथ लौट आई । उसे बचाने कोई नहीं आया । दुष्ट राजा दण्ड ने बलात् वह कार्य कर डाला जो उसे नहीं करना चाहिए था । 


बलात्कार के पश्चात उन्मत्त राजा दण्ड वहां से चला गया और अपनी राजधानी मधुमन्त लौट आया । असहाय अरजा वहीं पर धूल धूसरित अवस्था में पड़ी रही और सुबकती रही 


जब इस घटना का विवरण शुक्राचार्य को मिला तो वे तुरंत वहां आये जहां घायल अरजा पड़ी हुई थी । उन्होंने अरजा से संपूर्ण वृत्तान्त पूछा जो अरजा ने विस्तार के साथ बता दिया । तब शुक्राचार्य उसी प्रकार क्रोधित हुए जिस प्रकार भगवान शंकर कामदेव द्वारा तपस्या भंग करने पर हुए थे । उन्होंने राजा दण्ड को यह भयंकर शाप दे डाला 

"हे दसों दिशाऐं, हे सूर्य और चंद्र, हे पृथ्वी और आकाश , हे अग्नि, जल और वायु आप सभी भली भांति सुनें । राजा दण्ड ने एक सुकन्या जो अक्षत यौवना थी का काम की ज्वाला में दग्ध होकर उसकी सहमति के विरुद्ध जाकर उसके साथ बलात् संग किया है । वह न केवल अरजा का अपराधी है अपितु समस्त नारी जाति का अपराधी है । उसने मातृ शक्ति का अपमान किया है । उसका कार्य निम्न से भी निम्न कोटि का है । अत: मैं दैत्य गुरू शुक्राचार्य यह श्राप देता हूं कि आज से ठीक सात दिन पश्चात भयंकर आंधी चलेगी । वह आंधी इतनी तीव्र होगी जो राजा दण्ड, उसकी प्रजा , उसके राज्य का समूल नाश कर देगी और उसके राज्य को इतना अन उर्वर बना देगी कि उसके राज्य में एक तिनका तक नहीं उगेगा । समस्त वृक्ष सूख जायेंगे । नदी, तालाब , सरोवर सब सूख जायेंगे और वह प्रदेश बीहड़ बन जाएगा" । इतना कहकर शुक्राचार्य अपनी पुत्री से बोले "पुत्री , अब तुम अपने को पवित्र करने के लिए तपस्या करो" । इसके पश्चात शुक्राचार्य आश्रम छोड़कर चले गये । 


"पुत्री सावित्री , तब सात दिवस पश्चात ऐसा ही हुआ । ऐसी भयंकर आंधी चली कि दण्ड अपनी प्रजा सहित मारा गया । उसका प्रदेश बिल्कुल निर्जन हो गया । उस प्रदेश में से वनस्पति और जीव जन्तु नष्ट हो गये । वह स्थान तब से "दण्डकारण्य" के नाम से जाना जाता है । वर्षों तक वह क्षेत्र ऐसा ही रहा । एक दिन महामुनि अत्रि अपनी महा पतिव्रता पत्नी अनुसूइया के साथ उस निर्जन दण्डकारण्य में पधारे । तब उस स्थल की दुर्दशा देखकर देवी अनुसूइया बहुत विचलित हुईं । उन्होंने वर्षों तक वहां तपस्या की । गंगा की एक गुप्त धारा "मन्दाकिनी" लेकर आईं । उसके पश्चात बहुत बड़ी मात्रा में उन्होंने वहां पर वृक्षारोपण किया । अपने परिश्रम और तप के बल पर एक निर्जन स्थान को उन्होंने एक सघन वन में परिवर्तित कर दिया । एक स्त्री भी एक सघन वन की तरह होती है । जिस तरह एक वृक्ष फल फूल और पत्तियों से लदा फदा होता है उसी प्रकार एक स्त्री उत्तम गुणों से लदी होती है , सकारात्मकता से परिपूर्ण होती है । इसलिए वह जहां भी जाती है उस स्थल को "सघन" वन बना देती है । पुत्री , एक स्त्री यदि चाहे तो क्या नहीं कर सकती है ? तूने भी अपने परिश्रम और प्रेम से इस कानन को काम्यक वन में परिवर्तित कर दिया है । मैं तुझे आशीर्वाद देती हूं कि तेरी प्रसिद्धि देवी अनुसूइया की तरह दिग्दिगंत में फैले । तूने अपना नाम सार्थक कर दिया है पुत्री" । और सावित्री की सास ने सावित्री को अंक में भरकर अनेकानेक आशीर्वाद दे डाले । 


क्रमश : 



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