हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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भाग 59 

ययाति , सयाति और अयाति को "संपूर्ण गुरूकुल" में लगभग 10 वर्ष होने को आ गये थे । ययाति अब 20 वर्ष का युवक हो गया था । दाढी मूंछों और लंबे काले बालों में से उसका आकर्षक व्यक्तित्व ऐसे निखर कर बाहर आ रहा था जैसे बादलों के बीच से सूर्य किरणें बाहर निकल कर संपूर्ण जगत को प्रकाशमान करती हैं । उन्नत भाल , चीते सी आंखें , लम्बी तीखी नासिका उसके तेज का वर्णन करने के लिए पर्याप्त थीं । चौड़े विशाल स्कन्ध उसके शौर्य का यशोगान करने का प्रयास कर रहे थे । उसका चौड़ा शक्तिशाली सीना किसी अटल चट्टान की तरह लगता था । दोनों बलिष्ठ बांहें काल के समान प्रतीत होती थीं । यदि इन बांहों के मध्य हिमालय पर्वत भी आ जाये तो उसे चकनाचूर करने की शक्ति इन बांहों में थी । मजबूत जंघाऐं विशाल बरगद के वृक्ष की तरह सीना ताने खड़ी हुई थीं । इन जंघाओं से टकरा टकरा कर अब तक न जाने कितनी गदाऐं धराशाई हो गई थीं लेकिन वे इन जंघाओं का एक बाल भी बांका नहीं कर पाईं थीं । उसके पैर बड़े सुकोमल थे पर थे बहुत चपल । युद्ध के मैदान में वे कभी एक जगह टिकते ही नहीं थे । ययाति का पूरा बदन अपने चकवर्ती पिता की तरह मजबूत था किन्तु उसके पैर महारानी अशोक सुन्दरी की तरह कोमल , मुलायम और रक्ताभ आभा लिए हुए थे । पूरे गुरुकुल में ययाति की एक पृथक ही पहचान थी । जिस तरह वन में सिंह रहता है उसी तरह ययाति भी गुरुकुल में समस्त राजकुमारों में सिंह की भांति नजर आ जाता था । सिंह स्वयं अपना परिचय होता है उसे अपना परिचय देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है । इसी तरह ययाति को भी अपना परिचय देने की आवश्यकता नहीं थी । उसका परिचय उसकी कीर्ति गथा स्वयं दे रही थी । वह वायु की तरह चंचल और अस्थिर था । एक जगह टिककर बैठना उसके लिए लगभग असंभव सा था । संभवत: वह अपना नाम ययाति (पथिक) को सार्थक कर रहा था । 


ययाति की प्रतिभा देखकर सम्पूर्णाचार्य ने स्वयं उसे शिक्षा दी थी । उन्होंने देवताओं के सेनापति कार्तिकेय से अस्त्र शस्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी इसलिए युद्ध विद्या का उनसे श्रेष्ठ आचार्य और कोई इस त्रैलोक्य में नहीं था । उन्होंने ययाति को धनुर्विद्या, गदा, चंद्रहास, बरछी, भाला , परशु सहित समस्त अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा दी थी । ययाति अकेला ही गज और सिंह दोनों को परास्त कर देता था । रथ संचालन में उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं था । सम्पूर्णाचार्य ने ययाति को युद्ध कला में अजेय बना दिया था । उसे शास्त्रों का अध्ययन भी भली भांति करवाया गया था । याति के वन जाकर सन्यासी बन जाने के पश्चात उसे ही राज्य संभालना था इसीलिए उस पर सम्पूर्णाचार्य ने विशेष ध्यान दिया था । 


सयाति और अयाति भी ययाति के साथ गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन कर रहे थे । सयाति एक कुशल तलवारबाज बन गया था । वह अकेला ही बीस बीस पर भारी पड़ता था । अयाति गदा और मल्ल युद्ध में पारंगत हो चुका था । उसकी मुष्टिका में इतनी शक्ति होती थी कि उसके एक प्रहार से पर्वत चूर चूर हो जाया करते थे । केवल तीनों भ्राता किसी भी चतुरंगिणी सेना को धराशाई करने में सिद्ध हस्त थे । वियाति और कृति भी उनसे प्रेरित होकर जी जान से युद्ध कला सीख रहे थे । 


तीनों राजकुमारों के साथ साथ अन्य राजकुमारों की शिक्षा भी पूर्ण हो रही थी । इस अवसर पर सम्पूर्णाचार्य ने राजकुमारों की विद्या का सार्वजनिक प्रदर्शन करने का निश्चय किया । उन्होंने तत्कालीन भारत के समस्त राजाओं को इस आयोजन को देखने के लिए आमंत्रित किया । इसके लिए उन्होंने सम्राट नहुष से विचार विमर्श कर एक "प्रदर्शन शाला" का निर्माण करवाया और उसे भांति भांति से सजवाया । इसके लिए समस्त राजकुमारों को भी तैयार किया गया । 


विभिन्न देशों से राजा लोग अपने साथ रानियों और राजकुमारियों को लेकर आने लगे । सुदूर पूर्व से प्राग ज्योतिषपुर(असम), ताम्रलिप्ति (वर्तमान में कलकत्ता) , मगध, अंग, बंग , मिथिला , विदेह , चेदि , उत्तर से पंचनद , काश्मीर , अनंतनाग , नेपाल , गन्धर्व देश (वर्तमान हिमाचल) , काशी, कोशल , अवध , दक्षिण से अवंति, महिष्मति, आन्ध्र, चोल, द्रविड़ , केरल , पाण्ड्य, चेर , औण्ड्र, पौण्ड्र, भोजकट , मत्स्य, वत्स, आदि , पश्चिम से सिंधु, बिन्दु, सौराष्ट्र, अहिच्छत्र, गान्धार, केकय, काकतीय , मद्र देश आदि राज्यों के राजाऐं अपने अपने राजकुमारों की प्रतिभा का प्रदर्शन देखने के लिए आए थे । महाराज नहुष ने समस्त राज परिवारों की बहुत सुन्दर व्यवस्थाऐं की थी । महारानी अशोक सुन्दरी ने समस्त रानी और राजकुमारियों की व्यवस्था स्वयं संभाल रखी थी । 


अशोक सुन्दरी इन राजकुमारियों में से हस्तिनापुर की भावी महारानी को चिन्हित भी करना चाहती थी । वे अभी तक अपने हृदय से याति के वन गमन को विस्मृत नहीं कर पाईं थीं । जब भी कभी वे एकान्त पातीं उनकी आंखों से दो बूंद जल टपक ही जाता था । पुत्र वियोग सहना एक मां के लिए अत्यंत दुष्कर कृत्य है । याति के वैराग्य लेने के पश्चात उन्हें ययाति , सयाति और अयाति की चिंता सताने लगी थी । कहीं अपने ज्येष्ठ के पदचिन्हों पर न चलने लगे ये तीनों राजकुमार ? अत: वे शीघ्र ही इन तीनों का विवाह सुन्दर सी राजकुमारियों के साथ करके चिंता मुक्त होना चाहती थीं । 


महिष्मती की राजकुमारी मृदुला अत्यंत सौन्दर्यवती थी । वह किसी अप्सरा की भांति लगती थी । प्रथम दृष्टि में ही मृदुला महारानी को भा गई थी । उसका कमनीय बदन स्वर्णिम आभा बिखरा रहा था । जब वह हंसती थी तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि कहीं पर झरना गिर रहा हो । उसे चंदन , केसर इत्यादि के अंगराग की आवश्यकता ही नहीं थी । उसके बदन से नैसर्गिक सुगंध सदैव आती रहती थी जो अप्रतिम थी । इस अद्भुत सुगंध के कारण उसका नाम "सुगंधा" रख दिया गया अथा । उसके पास जो भी कोई बैठ जाये वह मदहोश हुए बिना रह नहीं सकता था । महारानी अशोक सुन्दरी ने उसे ययाति के लिए पसंद कर लिया था । 


"प्रदर्शन शाला" में नियत समय पर प्रदर्शन की घंटी बज चुकी थी । एक एक राजकुमार आता , पहले अपना परिचय देता और तब वह अपनी कलाओं का प्रदर्शन करना प्रारंभ कर देता था । उसके प्रदर्शन से समस्त दर्शक भाव विभोर होकर तालियां बजाने लगते थे । पुष्प वर्षा करने लगते थे । पाण्डाल में बैठी विभिन्न राज्यों की राजकुमारियां उन पर अपना हृदय लुटा बैठतीं थीं । 


छोटे छोटे राज्यों के पश्चात अंग देश के राजकुमार यशोधर्मा अपनी तलवारबाजी का प्रदर्शन करने लगे । बहुत सारे तरबूज एक साथ आकाश में उछाले गये । यशोधर्मा ने चीते की तरह छलांग लगाकर उन समस्त तरबूजों को आकाश में ही एक ही वार से काट दिया था । इसी प्रकार एक काष्ठ का स्तंभ उसके सम्मुख गाड़ दिया गया था जिस पर उसने तलवार का एक भरपूर वार करके उसे बीच से काट दिया था । फिर अचानक दो तलवारबाज उसके पीछे से उस पर टूट पड़े । यशोधर्मा कुशलता से उनके वार बचा गया और वह उन दोनों पर विद्युत की तरह टूट पड़ा और दोनों को वश में कर लिया । उसकी बहादुरी पर सब लोगों ने जमकर तालियां बजाईं । मत्स्य देश की राजकुमारी तो यशोधर्मा की वीरता से इतनी प्रभावित हुईं कि उस पर वह अपना हृदय ही हार गई । 


मगध देश के राजकुमार राघवेन्द्र अपनी गदा के साथ प्रदर्शन शाला में उतरे । उन्होंने एक भारी भरकम गदा अपने कंधे पर रखी और अपने बांयें हाथ से एक साथ दो दो गदाओं का संचालन करने लगे । उन्होंने सामने से आते एक गजराज पर अपनी गदा से एक भरपूर वार किया । गजराज एक जोर की चिंघाड़ के साथ वहीं पर धराशाई हो गए । राघवेन्द्र के बल को देखकर काशी की राजकुमारी ने उनका मन ही मन वरण कर लिया । 


एक एक कर बारी बारी से अन्य राजकुमार अपनी युद्ध विद्या का प्रदर्शन करने लगे । तत्पश्चात अयाति की बारी आई । उसने मल्ल विद्या में अपने झंडे गाड़ दिये । उनके प्रदर्शन के लिए एक भारी भरकम शिला मंगवाई गई । एक मुष्टिका प्रहार से उन्होंने उस शिला को चकनाचूर कर दिया । पूरी प्रजा ने खड़े होकर अयाति के सम्मान में बहुत देर तक तालियां बजाईं । महाराज नहुष और महारानी अशोक सुन्दरी अपने पुत्र के महापराक्रम को देखकर अति प्रसन्न हुए । उन्होंने एक पुष्प माला राजकुमार अयाति के सम्मान में भेज दी । 


इसके पश्चात बारी थी सयाति की । सयाति ने पहले तो अन्य अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन किया फिर अपनी सिद्ध हस्त कला "तलवारबाजी" का प्रदर्शन करने लगे । उन्हों मंच के सामने एक साथ दस स्तंभ गढवाये । ये सभी स्तंभ यशोधर्मा के लिए गाड़े गये स्तंभों से दुगने मोटे थे । सयाति ने अपनी तलवार के एक ही वार से उन दसों स्तंभों को काटकर रख दिया था । उसके पश्चात वे उन्हें गाजर मूली की तरह काटने लगे । उनकी इस अद्वितीय प्रतिभा को देखकर महिषमति की राजकुमारी मृदुला अपना दिल उन्हें दे बैठी । मन पर किसी का जोर कब चला है । कौन जाने कब किसका प्रेम पुष्प इसी मन में खिला है । 


अब ययाति की बारी थी । ययाति ने धनुर्विद्या को चुना । उसने एक साथ दो तीर निकाले और उनका एक साथ संधान किया । एक तीर महाराज और दूसरा तीर महारानी के चरणों में जाकर गिरा । यह ययाति का प्रणाम था अपने माता पिता के चरणों में । फिर उसने एक साथ दस तीर छोड़े । उनमें से दो तीर तो पाण्डाल में और शेष आठ तीर पूरी रंगशाला में पुष्प वर्षा करने लगे । इस अप्रतिम पराक्रम पर सभी लोग खड़े होकर तालियां बजाने लगे । फिर ययाति ने अपने तीरों से कभी अग्नि तो कभी जल की वर्षा कर दी । उसने एक तीर से अनेक लक्ष्य भेद दिये । एक चिड़िया की दोनों आंखें लगातार दो तीर चलाकर भेद दी । पूरी प्रदर्शन शाला तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगी । 


अब राजकुमार ययाति का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होने वाला था । उन्हें ध्वनि भेद करके दिखाना था । 


 


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