कही कोई शल्य तो नही
कही कोई शल्य तो नही
कल एक मित्र ने अपने चैनल पर बड़े गंभीर विषय पर चर्चा की, महाभारत के दो प्रसिद्ध धनुर्धर अर्जुन और कर्ण , दोनों महावीर थे, दोनों का हस्तलाघव अद्वितीय था, दोनों दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे फिर भी एक ने विजय श्री प्राप्त की और दूसरा असहाय मृत्यु को प्राप्त हुआ, आखिर क्यों ?
इसकी विवेचना करने पर उन्होंने ने जो निष्कर्ष निकाला वह था कर्ण के आस पास उपस्थित लोगों का, कर्ण के सारथी थे महाराज शल्य। जिन्होंने कभी कर्ण को उत्साहित नही किया, सदैव उसके कार्य में कमियाँ निकालते रहे। शल्य ने कर्ण को अपमानित और हीन अनुभव करवाने में कोई कमी नही छोड़ी , और परिणाम स्वरुप वह योद्धा, जिसके शौर्य की प्रशंसा स्वयं कृष्ण ने की, बड़ी असहाय अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हो गया।
मैनें कही एक कहानी पढ़ी थी कि अफ्रीका महाद्वीप में एक जनजाति निवास करती हैं, जिसकी मान्यतायें उसे हरे वृक्ष काटने की अनुमति नही देती। जब उन्हें कोई वृक्ष काटना होता हैं तब वे लोग उस वृक्ष को घेर कर उसे कोसना और गाली देना प्रारंभ कर देते हैं। इसका परिणाम यह होता हैं कि 15-20 दिन में वह वृक्ष सूख जाता हैं।
सारांश यह है कि यदि अपमानित करने, कोसने पर एक वृक्ष की यह स्थिति हो जाति है तो एक चेतना संपन्न व्यक्ति की क्या स्थिति होती होगी ? प्रायः सभी को जीवन में ऐसे लोगों से दो चार होना ही पड़ता हैं, जो सदैव कमियाँ ही खोजते रहते होंगे। कोई भी अवसर नहीं छोड़ते होंगे अपमानित करने का। व्यक्ति कुछ भी करे पर ऐसे लोग बहाने खोज ही लेते हैं निंदा, उपेक्षा और अपमान के।
यदि किसी के भी जीवन में ऐसा कोई भी व्यक्ति हो तो उससे तत्काल किनारा कर लेना ही उचित है। वो तो बेचारा पेड़ है चल नही सकता नही तो भाग जाता, आप चल सकते हैं निकल लीजिए।
यदि कर्ण की तरह महत्वाकांक्षा के चक्कर में पड़े कि ऐसे लोग उपयोगी है, सहयोगी सिद्ध होंगे तो आपकी भी दशा वही होगी जो कर्ण की हुयी। कबीर दास के " निंदक नियरे राखिये" के फेर में पड़े तो केवल श्रद्धांजलि मिलेगी वह भी मरणोपरांत, जैसे कर्ण को मिल परंतु वह भी भाग्य भरोसे ही। अतः मेरी सलाह मानिये और भाग निकलिये पहली फुर्सत में, जीवन रहा तो महाभारत चलता ही रहेगा और अवसर मिलेंगे। तुलसीदास भी ऐसे निंदकों को पहचान गये थे तभी तो उन्होंने इतिहास का पहला डिस्क्लेमर लिख दिया " स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा"। उन्हें भी पता था कि यदि ये नही लिखा तो लोग वाल्मीक रामायण और पुराणों का उद्धरण देकर उनका जीना दुश्वार कर देंगे।
यदि यह लेख पढ़ कर आपको लग रहा हो कि मै पलायनवादी हूँ तो मै भी डिस्क्लेमर दे देता हूँ कि यह तो मुझे काशी से विरासत में मिला हैं, हमारी काशी में एक कहावत है " कही मारे मर्दानगी कही भागे मर्दानगी"। यह कहावत जिसने भी कही हो, परंतु मेरे ख्याल से वो "वैष्णवकाशी" का निवासी रहा होगा, इसी लिए उस पर भगवान रड़छोड़ का प्रभाव अधिक रहा, अन्यथा "शैवकाशी" वाले तो " "मरणं मंगलम् यत्र" का झंडा उठाये घूमते रहते हैं।
एक सूत्र जो सदैव प्रातः स्मरणीय हैं आज आपको दे रहा हूँ " जब रही जियूँ तबै पीबा घियूँ" अर्थात् जब जीवन शेष रहेगा तभी संसारिकता काम देगी। अतः अवसर हैं ऐसे लोग जो आपको हतोत्साहित करते हो, आपकी कमियाँ निकालना ही जिनका धर्म बन गया हो, जो निंदा संलग्न हो, उनसे समय रहते दूरी बना लीजिए क्योंकि "दुर्घटना से देर भली"।